आनन्द सूत्रम श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की अमूल्य कृति है। जिसका बार-बार अध्ययन मात्र से ज्ञान की अनन्त पिपासा शान्त होती हैं। जितनी बार आनन्...
आनन्द सूत्रम श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की अमूल्य कृति है। जिसका बार-बार अध्ययन मात्र से ज्ञान की अनन्त पिपासा शान्त होती हैं। जितनी बार आनन्द सूत्रम का अध्ययन करे उतनी बार कुछ नया निकल आता है, ओर आएगा भी क्यों नहीं वह अनन्त से जो निकली है। आनन्द सूत्रम ज्ञान, भक्ति एवं कर्म साधना को समझने का एकमात्र स्रोत है । मैंने मेरे आनन्द मार्ग में आने के प्रारंभिक दिनों से आज तक कई दफा अध्ययन किया है। हरबार कुछ नया मिला है एवं मिलता ही रहेगा। मेरे अध्ययन से मिले ज्ञान को लिपिबद्ध करने की धृष्टता की है । इस हेतु क्षमा चाहता हूँ । किसी ने ठीक ही लिखा है कि सात समुद्र की स्याही एवं सारे जहाँ की लेखनी बनाने से भी हरि का ज्ञान लिखा नहीं जा सकता है तथा लिखने की जिसने भी कोशिश की वह उसे में समा गया। अर्थात हरि का ज्ञान लिखना मनुष्य के सामर्थ्य के बार हैं । फिर भी मनुष्य ऐसी धृष्टता कर बैठता है। मेरी भी यह धृष्टता मात्र है। लेकिन मनुष्य सौभाग्यशाली है कि महासंभुति श्रीकृष्ण ने अपने रहस्यमय ज्ञान आलोक कर गीता प्रदान की। गीता मानवता की अमूल्य धरोहर है। इसे संभाल कर रखना मानवों का दायित्व है लेकिन अनुलेखन एवं व्याख्या कर्ताओं ने गीता में अनावश्यक मिश्रण कर अपने मतानुसार प्रस्तुत किया है। आचार्य शंकर के युग में धर्म शास्त्र का पुनर्लेखन करते समय सनातन की परंपरा एवं ब्राह्मणवाद के कर्मकांड को गीता में भी समाविष्ट कर दिया था। अत: गीता का मूल भाव महात्म्य की कहानियों में खो गया है, लेकिन वर्तमान मानवता का परम सौभाग्य है कि फिर से आनन्द सूत्रम के रुप में ज्ञान की अमृत धारा बही हैं। मेरे द्वारा इसमें डुबकियाँ लगाने के क्रम में जो निकल आया उसे लिपिबद्ध कर मेरी पुस्तक हमारे शास्त्र में सजाया गया है। मैं कतई यह दावा नहीं करता हूँ कि मेरी टिका शत प्रतिशत सत्य है। यह तो आनन्द सूत्रम को समझने का प्रयास मात्र है ।
आनन्द सूत्रम का प्रथम अध्याय दर्शन शास्त्र की चारों विधाओं को सुस्पष्ट करती है। प्रथम चार सूत्र ब्रह्म तत्व को स्पष्ट करता है। प्रथम सूत्र ब्रह्म कौन या क्या को समझाता है। द्वितीय सूत्र ब्रह्म कैसा को, तृतीय ब्रह्म क्यों को तो चतुर्थ ब्रह्म कहा को समझाया गया है। पंचम एवं षष्टम सूत्र में सृष्टि तत्व की व्याख्या की गई है। पंचम में संचर केन्द्रतिगा एवं षष्टम में प्रतिसंचर केन्द्रनुगा से सृष्टि चक्र समझाया हैं। सातवें से पन्द्रहवें सूत्र तक ज्ञान मीमांसा हैं। सातवें में ब्रह्म ज्ञान अर्थात तत्व का ज्ञान, आठवें से पन्द्रहवें तक सृष्टि रचना का ज्ञान है। आठवें में संचर ज्ञान अर्थात चेतन से जड के आगम का ज्ञान है तथा नवें से पन्द्रहवें तक प्रतिसंचर अर्थात जड से अणु चेतन निर्माण की कहानी है। नवां एवं दसवां सूत्र क्रमशः जीव देह एवं जीव प्राण के निर्माण को तथा ग्यारहवें से पन्द्रहवें तक में मन के निर्माण की जानकारी दी गई है। सूत्र सोलहवें से पच्चीसवें तक सूत्रों को ज्ञान के क्रिया पक्ष में रखा गया है। सोलहवां एवं सत्रहवाँ बुद्धि एवं बोधि को समझता है तो अठारहवें से बीसवें तक जीव एवं वनस्पति जगत में बुद्धि एवं बोधि के चलन सम्भावना से परिचित कराया है। जहां बुद्धि एवं बोधि से चलन नहीं वहाँ प्रकृति या समष्टि सत्ता से संचालित होता है। इक्कीसवें से चौबीसवें तक आध्यात्मिक क्रिया समाधि को समझाया गया है। इक्कीसवें में सविकल्प समाधि एवं इसकी सीमा तथा बाईसवें से चौबीसवें तक निविकल्प एवं उसकी सीमाओं से अवगत कराया गया है। पच्चीसवें सूत्र में भाव भावातित के माध्यम से ब्रह्म कृपा ही केवलम को समझाया गया है। उन्हीं की कृपा से साधक मुक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है। तथा तारक ब्रह्म ही मुक्ति व मोक्ष दाता के रुप में चित्रित किया गया है
दर्शन के बाद मनुष्य की कर्मधारा को द्वितीय अध्याय समझाया गया है। कर्मधारा के सिद्धान्त लक्ष्य, पथ, पथिक एवं लक्ष्य प्राप्ति की साधना को चौबीस सूत्रों में स्पष्ट किया है। द्वितीय अध्याय के प्रथम दस सूत्र लक्ष्य की विधा लक्ष्य निर्धारण, लक्ष्य का मूल्यांकन एवं लक्ष्य के प्रमाणीकरण से परिचित कराया गया है। प्रथम चार सूत्र आनन्द एवं ब्रह्म को एक ही बताते हुए आनन्द को लक्ष्य निर्धारित करते हैं। पंचम से सप्तम् सूत्र तक लक्ष्य का मर्म, धर्म एवं कर्म के तर्क की कसौटी पर कसकर मूल्यांकित किया गया है। आठवें से दसवें सूत्र तक दर्शन से लक्ष्य को प्रमाणित किया गया है। लक्ष्य तय हो जाने के पश्चात् पथ को समझाया गया है। ग्यारहवें से चौदहवें सूत्र तक पथ को समझाते हुए बताया गया है कि जगत का बीज मन के अतित में है। निर्गुण अन्तिम सत्य है लेकिन सगुण से सृष्टि का उत्पति होने व जगत उसी के भीतर होने के कारण सगुण को लक्ष्य बनाकर चलना ही एकमात्र पथ है। ब्रह्म शाश्वत सत्य है अर्थात मनुष्य का लक्ष्य तो ब्रह्म ही लेकिन जगत भी आपेक्षिक सत्य हैं अतः जागतिक कार्य सुव्यवस्थित सम्पादित करते हुए ब्रह्म प्राप्ति की प्रचेटा सत पथ है । पन्द्रहवें से बीसवें सूत्र तक पथिक की व्याख्या की गई है। पुरुष अर्थात चैतन्य कुछ नहीं करता है। वह साक्ष्य हैं मात्र गुण समूह को नियंत्रित करने का कार्य करता है। अत: पथिक महतत्व हैं लेकिन वह विषय से असयुक्त रहने कारण कर्म का सम्पादन एवं फल का ग्रहण अहम करता है। चित्त तो कर्म का फल है। कर्म के कारण चित्त में विकृति आती हैं फलभोग के माध्यम से चित्त पूर्वावस्था को प्राप्त करता है। जीवन के अंतिम क्षण तक चित्त पूर्वावस्था को प्राप्त करने की चेष्टा करता रहता है। अच्छे कर्मफल से प्राप्त परिवेश स्वर्ग एवं बुराई का प्रतिफल नरक है। धरती के परे स्वर्ग एवं नरक की कल्पना भ्रम है। अत: पथिक को साधना करने हेतु प्रेरित करता है। अत: इक्कीसवें से चौबीसवें सूत्र तक साधना विज्ञान की ओर इशारा किया गया है। भूमा सत्ता से उत्पन्न पंच भूतों का कार्य तन्मात्र के माध्यम से होता हैं तथा व्यष्टि अपना कार्य इन्द्रियों के माध्यम से तन्मात्र से आदान प्रदान से अणु भुमा जगत से संयुक्त होता हैं। अत: साधना प्रथम सौपान तन्मात्र के सूक्ष्मत्तम अवस्था शब्द से प्रारंभ होता है।
कर्मधारा के बाद आध्यात्मिक मनोविज्ञान से परिचित करवाया गया। तृतीय अध्याय के बारह सूत्रों में अणु एवं भूमामन का मनोविज्ञान बताया गया है। मनोविज्ञान की तीनों विधा मन का निर्माण, मन की कार्य शैली एवं मन कीअभिलाषा को स्पष्ट किया गया है। प्रथम दो सूत्र भूमा एवं अणु मन के विस्तार एवं सामर्थ्य को स्पष्ट किया गया है। तृतीय से षष्टम् सूत्र तक मन की कार्य शैली में बताया है कि जागृत अवस्था में स्थुल, सूक्ष्म एवं कारण तीनों मन क्रियाशील होते है। स्वप्नावस्था में स्थुल मन निष्क्रिय होता है जबकि सुप्तावस्था में मात्र कारण मन ही क्रिया होता है। कारण मन की दीर्घ निन्द्रा को मृत्यु कहा जाता है। अभुक्त कर्मफल जो अपेक्षित विपाक है, संस्कार नाम जाने जाते है । बिना देह के मन संस्कारों का भोग नहीं कर सकता एवं भूत-प्रेत नहीं होते है। मन का भ्रान्ति दर्शन मात्र है। अत: संस्कार भोग हेतु पुनः जन्म लेना पड़ता है। कर्म एवं कर्मफल तथा संस्कार की बदौलत आवागमन का चक्र चलता रहता है। मन की अभिलाषा आवागमन के चक्र से मुक्त होने की है। सातवां से बारहवां सूत्र बताता है कि मन में ब्रह्म की हितेषणा उसे मुक्ति के पथ पर ले चलता है। मुक्ति की तीव्र आकांक्षा के बल पर सद्गुरु की प्राप्ति हो जाती हैं। चूँकि मुक्ति दाता तारक ब्रह्म है अतः ब्रह्म ही जीव का एकमात्र गुरु हैं। गुरुदेव द्वारा प्राप्त ब्रह्म निर्देशना साधना मार्ग कि ओर अग्रसर होता हैं। साधना मार्ग में आई बाधा साधक की मित्र है। बाधा की विरुद्ध संग्राम करना है। भीरु बनकर ईश्वर से प्रार्थना नहीं करनी है क्योंकि यह भ्रम मूलक है। भक्ति भगवद् भावना का नाम है इसका स्तुति व अर्चना से कोई संबंध नहीं है।
मनोविज्ञान के ज्ञान के बाद भक्ति शास्त्र में प्रकृति एवं पुरुष संबंध को बताने का प्रकृत विज्ञान चतुर्थ अध्याय के आठ सूत्रों पिरोया गया है। प्रथम दो सूत्र प्रकृति के स्वरुप पर प्रकाश डाला है। त्रिगुणात्मिकता प्रकृति बहुभुज अशेष त्रिकोण युक्त त्रिभुज में रुपान्तरित होता है। सत्व, रज एवं तम के सीमाहीन परिवर्तन को स्वरुप परिणाम के कारण त्रिभुज यंत्र का निर्माण होता हैं। आगामी तीन सूत्रों में उप्रकृति की कर्म लीला को समझाया गया है। तृतीय से पंचम सूत्र में बताया है कि सृष्टि निर्माण की पूर्वावस्था अव्यक्त प्रकृति शिवानी साक्ष्य पुरुष शिव हैं। सृष्टि निर्माण की प्रथमावस्था प्रकृति भैरवी व साक्ष्य पुरुष भैरव कहलाये। कालांतर में सृष्टि विज्ञान ने सरल रेखा के पथ से वक्रता की ओर अग्रसर हुई। कला विकला के समरूप होते हुए भी सोलह आना सदृश नहीं होता है। इस अवस्था में प्रकृति भवानी एवं साक्ष्य पुरुष भव नाम से पुकारा गया। षष्ठम् से अष्टम् तक सूत्र प्रकृति के गुप्त रहस्य की जानकारी देता है। जिसे मनुष्य भक्ति योग द्वारा ही जान पाता है । सकल धनात्मक बिन्दु शंभु लिंग से सकल ऋणात्मक स्वयं भू लिंग एवं कुलकुडली के रहस्य तंत्र की विषय वस्तु है जिसे भक्ति शास्त्र के द्वारा समझना सहज है ।
यंत्र, मंत्र एवं तंत्र की बात के बाद सामाजिक परिवेश की ओर सोचना आवश्यकता है कि मनुष्य की जीवन यात्रा के लिए समाज उपयुक्त है अथवा नहीं। आनन्द सूत्रम के पंचम अध्याय में समाज पर दृष्टिपात किया गया है। प्रथम दो सूत्र समाज चक्र एवं चक्र की गति तथा तृतीय से सप्तम् सूत्र तक समाज की आपात स्थिति - क्रांति, विप्लव, विक्रांति एवं प्रतिविप्लव तथा चक्र के परिक्रमा के बारे में प्रकाश डालता है। आठवें से ग्यारहवें सूत्र तक प्रकृति के धर्म के अनुकूल समाज को अपने दायित्व निवहन हेतु आगाह करते कहते सभी की न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के साथ गुणीजनों के आदर समाज के मानदंड के वृद्धि की आवश्यकता पर बल देता है। सूत्र बारहवां से सोलहवें तक समाज नागरिकों से उनके दायित्व की मांग करता है। धन संचय के लिए समाज की अनुमति लेने की बात करने के साथ व्यष्टि एवं समष्टि सम्भावनाओं एवं क्षमताओं के अधिकतम उपयोग के साथ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक योग्यता का सुसन्तुलित उपयोग के साथ देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता के परिवर्तन को स्वीकार किया गया है ।
आनन्द सूत्रम का प्रथम अध्याय दर्शन शास्त्र, द्वितीय अध्याय कर्मधारा, तृतीय अध्याय मनोविज्ञान, चतुर्थ अध्याय प्रकृति विज्ञान तथा पंचम अध्याय समाजशास्त्र है। गीता के परिपेक्ष में विचार करे तो प्रथमोध्याय पुरुषोत्तम योग जिसमें सांख्य सहित क्षेत्र क्षेत्रज्ञ सभी योग समावेश है । द्वितीयोध्याय कर्म योग, तृतीयोध्याय ज्ञान योग, चतुर्थोध्याय भक्ति योग एवं पंचमोध्याय कर्म सन्यास योग है। धर्म का सार 85 सूत्रों माला में पिरोया गया है। नमस्कार आनन्द सूत्रम।
लेखक -- श्री आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलाव
Cell no. 9982322405,9660918134
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