यशपाल की कहानी - खुदा की मदद

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उबेदुल्ला 'मेव' और सैयद इम्तियाज अहमद हाई स्कूल में एक साथ पढ़ रहे थे। उबेद छुट्टी के दिनों में गाँव जाकर अपने गुजारे के लिये अनाज ...

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उबेदुल्ला 'मेव' और सैयद इम्तियाज अहमद हाई स्कूल में एक साथ पढ़ रहे थे। उबेद छुट्टी के दिनों में गाँव जाकर अपने गुजारे के लिये अनाज और कुछ घी ले आता। रहने के लिये उसे इम्तियाज अहमद की हवेली में एक खाली अस्तबल मिल गया था। इम्तियाज का बहुत-सा समय कनकैयाबाजी, बटेरबाजी, सिनेमा देखने और मुजरा सुनने में चला जाता, और कुछ फुटबाल, क्रिकेट में। वालिद साहब कुछ पढ़ने-लिखने के लिये परेशान ही कर देते तो वह पलंग पर लेट कर नाविल पढ़ता-पढ़ता सो जाता। जब इम्तियाज यह सब फन और हुनर पास कर रहा था, उबेद अस्तबल में अपनी खाट पर बैठ तिकोन का क्षेत्रफल निकालने, झ' को ज्ञ' से गुणा कर 'जै से भाग देकर, उसे 'मं और ल' के जोड़ के बराबर प्रमाणित करने और इस देश को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा दी गई बरकतें याद करने में लगा रहता। इम्तियाज को उबेद का बहुत सहारा था। स्कूल में जब मास्टर लोग घर पर काम करने के लिये दिये गये काम के बारे में सख्ती करने लगते, तो बह उबेद की कापियों की मदद ले मास्टरों की तसल्ली कर देता। उबेद यह सब देखता और सोचता था, 'मेहनत और सब्र का फल एक दिन मिलेगा। खुदा सब कुछ देखता है।'

उबेद मैट्रिक के इम्तिहान में पास हो गया। इम्तियाज के वालिद सैयद मुर्तजा अहमद को काफी दौड़ धूप करनी पड़ी। उनका काफी रसूख था। इम्तियाज भी पास हो गया। उबेद का अपने गाँव में गुजारा मुश्किल था। जमीन इतनी कम थी कि सभी लोग घर पर रहते तो निठल्ले बैठे रहते या खेत में मजदूरी करते। जुताई पर जमीन मिलना भी आसान न था। घर वाले कहते थे, ''इतना पढ़ाया-लिखाया है, तो क्या हल चलवाने के लिये? अगर जमीन से ही सिर मारना था, तो इल्म का फायदा क्या ?'' उबेदुल्ला आगरे में कोशिश करता रहा। कभी भट्टे पर नौकरी मिल जाती, कभी किसी जूते के कारखाने में। तनखाह बीस बाइस रुपये, और फिर नौकरी पक्की नहीं। इतने में इम्तियाज मुरादाबाद से सब इंस्पेक्टरी पास करके आ गया, और उसे अपने ही शहर में नौकरी मिल गई। इम्तियाज ने फिर उबेद की मदद की। उबेद कांस्टेबिल हो गया।

यह ठीक है कि लाल पगड़ी और खाकी वर्दी पहन कर उबेद आम लोग-बाग के सामने हुकूमत दिखा सकता था, लेकिन जान-पहचान के लोगों में, साथ पढ़ने वालों का 'सामना होने पर उसके मुंह में कड़वाहट- सी आ जाती, खास तौर पर जब उसे इम्तियाज के सामने सलूट देनी पड़ी। उसे यह न भूलता कि स्कूल में इग्लियाज उसकी कापियों से नकल किया करता था। लेकिन अगर इनसान के किये ही सब कुछ हो सकता तो खुदा कि हस्ती को इनसान कैसे पहचानता  सैयद इम्तियाज

रसूल के खानदान से थे। खैर, कमी तो मेहनत और ईमानदारी का ' नतीजा सामने आयेगा। खुदा सब कुछ देखता है। उबेद की ड्यूटी नाके पर लगती या रात की रौंद में पड़ती तौ चवन्नियों, अठन्नियों को शक में फायदा उठा लेने का मौका रहता। उसके साथ के सब लोग ऐसा करते ही थे। वर्ना अठारह रुपये की कांस्टेबिली में क्या रखा था? पर उबेद नियत न बिगाड़ता। उसे ईमानदारी और मेहनत के अंजाम पर भरोसा था। जब वह एड़ी से पड़ी ठोक कर दारोगा साहब को सलूट

देता था तो मन में एक आदर्श की पूजा करता था। यह आदर्श था- सिर की लाल पगड़ी पर लटकता सुनहरा झब्बा, पीतल का चमचमाता ताज, कंधे से कमर तक लगी हुई चमड़े की पेटी। तनख्वाह चाहे अधिक न हो, पर वह सरकार का प्रतिनिधि होगा। इतिहास में उसने कई बादशाहों और खलीफाओं का जिक्र पढ़ा था, जो गरीबी में गुजारा कर इनसाफ करते थे। वैसे ही यह भी करेगा। हिन्दुस्तानी अफसर अकसर कमीनापन करते है। अंग्रेज के हाथ में इनसाफ है। इसीलिये खुदा ने उसे इतना रुतबा दिया है'।

सैयद इम्तियाज अहमद सी० आई० डी. डिपार्टमेंट में हो गये थे। उबेद पढ़ा-लिखा था। उन्होंने उसे भरोसे लायक आदमी समझ अपने नीचे ले लिया। उसे अदना सिपाही की वर्दी से मुक्ति मिली, साइकिल का और दूसरे भत्ते मिलने लगे। दही की जहमत के बजाय उसका काम हो गया खबर लेना-देना। सरकार के सामने उसकी बात का मूल्य था। उस ने एक तथ्य समझा-दादर में जितना आतंक, अपराध और सनसनी हो, सरकार की दृष्टि में उसका मूल्य उतना ही अधिक है। सैयद साहब स्वयं जो चाहे करते ही, लेकिन उन्हें आदमियों की जरूरत थी, जो कम-से कम उन्हें तो धोखा न दे। ऐसे मामलों में अक्सर उबेद की ड्यूटी लगती। मेहनत का नतीजा भी उबेद को मिला। जल्दी ही उसकी वर्दी की आस्तीन पर पहले एक बत्ती, फिर दो लग गई।

इस महकमे में नौकरी करते उसे बरस ही पूरा हुआ था कि सन् ४२ का अगस्त आ गया। जगह-जगह से रेलें और तार के खम्भे उखाड़ दिये जाने ओर आने जला दिये जाने के भयंकर समाचार आने लगे। उबेद को लोग-बाग की आँखों में सरकार के लिये और अपने लिये नफरत और सरकशी दिखाई देने लगी। उसे याद आया, कि स्कूल में सन् 1985 के गदर का हाल पढ़ते समय जाहिरा तारीफ अंग्रेज़ों की ही की जाती थी, लेकिन सभी के मन में मुल्क को आजाद करने के लिये विदेशियों से लड़ने वालों की ही इज्जत थी। मालूम होता था कि फिर वही वक्त 'आ रहा है। लेकिन अब वह' अँग्रेज सरकार का नौकर था। एक बार वह मन में सहमा। अगर रिआया और सरकार की इस पकड़ में सरकार चित्त हो जाय तो उसका क्या होगा  उस वक उसने रेडियो पर लाट हैलट साहब का फर्मान सुना। लाट साहब ने कहा-इस वक्त सरकार मुल्क के बाहर दुश्मनों से लड़ रही है। कुछ शरारती और सरकश लोग रिआया को सरकार के खिलाफ भड़का कर अमन में खलल और परेशानियों पैदा कर रहे है। हमारी सरकार को अपनी वफादार रिआया, पुलिस और फौज पर पूरा भरोसा है।

हमारी सरकार के जो अगले इस सरकशी और बदअमनी को खत्म करने में जी-जान से इमदाद करेंगे, सरकार उनकी खिदमतों का मुनासिब एतराफ करेगी। पुलिस और फौज को सरकशी खत्म और अमन कायम करने का फर्ज पूरा करने में जो सख्ती करनी पड़ेगी, उसके लिये सरकारी नौकरों, पुलिस या कौन के खिलाफ कोई शिकायत नहीं सुनी जायगी, न उसकी कोई जाँच पड़ताल होगी।''

उबेद का सीना गज भर का हो गया। बाजारों में 'इन्कलाब जिन्दाबाद' और अंग्रेजी सरकार मुरदाबाद' की आसमान फाड़ देने वाली जनता की चिल्लाहटों और थानों, कचहरियों को जला देने की अफवाहों से थर्राते उबेद के दिल को सांत्वना मिली। उसने सोचा. इधर जिन्दाबाद और मुर्दाबाद की चिल्लाहट और लाखों सरकश है तो हमारे पास भी राइफलों से मुसल्लह गारदें, फौज, तोपखाने और हवाई जहाज हैं। अगर एक बम आगरे पर गिरा दिया जाय तो सरकश रिआया का दिमाग दुरुस्त हो जाय।'

थाने में अधिकतर मुसलमान सिपाही थे। कोतवाल साहब भी मुसलमान थे। उन्होंने रेडियो पर हुआ कायदे आजम का एलान सब सिपाहियों को बताया कि हिन्दू कांग्रेस की इस बगावत का मकसद अंग्रेज सरकार को डरा कर मुल्क में हिन्दू-कांग्रेस का राज कायम करना है। मुसलमानों को इस बगावत से कोई सरोकार नहीं मुसलमान हिन्दू कांग्रेस से डर कर, उनका राज हरगिज कायम न होने देंगे। कोतवाल साहब सिपाहियों को यों भी समझाते रहते थे कि मुसलमान हाकिम कौम है। वे हमेशा मुल्क पर हुकूमत करते आये हैं। इसी आगरे के किले में मुसलमान हकूमत करते थे। अंग्रेज हमेशा मुसलमान का एतबार और इज्जत करता है। ईसाई हमारे अहलेकिताब हैं। खुदा पे अंग्रेज को ओहदा दिया है और हम लोगों को उसकी मदद करने का हुक्म है। यह कांग्रेस के बनिये बक्काल क्या हुकूमत करेंगे? इन्हें चरखा कातना है, तो लहँगा पहन लें और बैठ कर सूत काते। मुसलमान शेर कौम है। हमेशा से गोश्त खाता आया है। अब घास कैसे खाने लगे?

उमेद भी सोचता, 'इन लोगों के राज में हम लोगों का गुजारा कैसे हो सकता है।  हम लोग भला इनकी गुलामी करेंगे?  रिआया की सरकशी और बगावत की जीत का मतलब है कि पुलिस, फौज और हुकूमत तबाह हो जाय। जैसे हम लोग कुछ है ही नहीं। यानी हम लोग दो रोटी के लिये सिर पर झाबा रखे तरकारी बेचते फिरैं, या इनके लिये इक्के हांकें।' उसने मन ही मन सरकश रिआया को गाली दी और उनके प्रति नफरत से थूक दिया।

उस समय रिआया ने सरकार को जाने क्या समझ लिया था। पटवारियों, तहसीलदारों, जैलदारों, की सब ज्यादतियों और जबरन जंगी चन्दा वसूल किये जाने का बदला लेने के लिये, देहातों में खाली हाथ या ढेला, पत्थर और लाठी ले उठ खड़े हुये। ज्यों-ज्यों जनता का विरोध बढ़ता जा रहा था, सरकार सिपाहियों का लाड़ और खुशामद अधिक कर रही थी।

यू० पी० के पूर्वी जिलों के देहात में विद्रोह अधिक था। पश्चिम के जिलों से वफादार और समझदार पुलिस को स्थानीय पुलिस की सहायता के लिये भेजा गया। सैयद इम्तियाज अहमद की मातहती में उबेद भी बनारस जिले में गया। विशेष भरोसे का और समझदार होने के नाते उसे सदर की पोशाक में देहाती बन कर सरकशों का पता लगाने का काम सौंपा गया। दिन भर गांव-गांव फिर कर अगर वह सांझ को खबर देता कि सब अम्नोआमान है तो सैयद साहब उसे फटकार देते और रपट लिखते कि 'मातबर जरिये से पता चला है कि पड़ोस का थाना फूंक देने वाले सरकश लोग गांव में छिपे हुये हैं।' रपट में कुछ सरकश बनियों के नाम खास तौर पर रहते। साहब के यहाँ उबेद की कारगुजारी पहुँचने पर उसकी पीठ ठोंकी जाती। गारद जाकर गांव को घेर लेती। एक-एक झोंपड़ी और मकान की तलाशी ली जाती। भगोड़ों का पता पूछने के लिये लोगों को मुश्कें बांध का पीटा जाता, औरतों को नंगी कर देने की धमकी दी जाती। तबीयत होती तो धमकी को पूरी कर दिखा देते। इस मुहिम में पुलिस वालों के हाथ जो लग जाता, थोड़ा था। किसी के घर से घी की हांडी, गुड की भेलिया किसी की अंटी से दो-चार रुपये, किसी औरत के गले या कलाई से चांदी के गहने उतर जाने का क्या पता चलता  सिपाहियों ने खूब खाया।

सेरों चांदी की गठरियां उनके थैलों में छिपी रहतीं। किसी घर में छबीली औरत या जबान लड़की की झांकी पा जाते तो घर की तलाशी ले लेते। मर्दों को शक में पकड़ कैम्प में भिजवा देते, औरतों से पूछते, ''बताओ भगोड़े बदमाश कहां छिपे हैं ?'' और उन्हें बांह से घसीट कर अरहर के खेतों में ले जाते। शान्ति कायम करने के लिये पुलिस की इन हरकतों के खिलाफ यदि किसी देहाती के माथे पर वल दिखाई देते तो उसे पेड़ से बांध कर उसके सारे शरीर के बाल झाड़ दिये जाते।

पुलिस अनुभव कर रही थी कि वह वास्तव में राज कर रही है। बदमाशों की खोज-खबर लगाने का काम सरकार की दृष्टि में सब से महत्वपूर्ण था। कटौना का थाना फूंकने वालों का पता लगाने के लिये उबेद को मोहरसिंह के साथ ड्यूटी पर लगाया। रघुनाथ पांडे छ: मास से फरार था। उबेद ने साधु का भेष बनाया और काशी जी में फिरता रहा। वह हाथ देख कर भाग्य बताता, रमल बताता और बात- बात में राज-पलट होने, नये राजा, तालुकदार बनने और ताम्बे का सोना बनाने की बातें करता। इसी तरह बातों-बातों में उसने रघुनाथ पांडे को खोज निकाला और गिरफ्तार करवा दिया।

देश में शान्ति स्थापित हो गई। उबेद आगरा लौट आया और उसकी कारगुजारी के इनाम में उसे हेड कांस्टेबिल का ओहदा मिला। आगरे में भी उसे सियासी फरारों की तालाश के काम पर लगाया गया। यहां उसने कुछ दिन इक्का हांक कर, फरार निर्मल चन्द को गिरफ्तार करा दिया। उसे पूरा भरोसा था कि जल्दी ही सब-इन्सपेक्टरी मिल जायगी।

मुल्क में अमनो-आमान कायम हो गया था पर जाने अँगरेजों को क्या सूझा कि उन्होंने सरकार का काम कांग्रेस वालों को सौंप दिया। अफवाहें उड़ रही थीं कि सब जेल जाने वाले ही अफसर बनेंगे और अंग्रेज सरकार से बअदारी निभाने बालों से बदले लिये जायेंगे। कुछ दिनों में ही इतना परिवर्तन हो गया कि जो गांधी टोपी छिपती फिरती थी, अब अकड़ कर मोटर पर सवार थाने में पहुँचने लगी। लाल पगड़ी को उसके सामने झुक कर सलाम करना पड़ता। अँगरेज सरकार के समय जिन अफसरों का मान था वे अब घबरा रहे थे। पुरानी सरकार के प्रति वफादारी नयी सरकार की निगाह में गद्दारी थी। उबेदुल्ला सोचता था-यह अल्लाह ने क्या किया ?'' पुलिस के बड़े मुसलमान अफसर, सैयद इम्तियाज अहमद और दूसरे साहबान, तुर्की टोपी की जगह किश्तीनुमा टोपियां पहनने लगे, और फिर गांधी टोपी। वे अपने से नीचे ओहदे के सहमे हुए लोगों को समझाते-''अपना फर्ज हे हाकिमेवक्त का वफादार रहना। सियासियत से हमें क्या मतलब?

उबेदुल्ला मन ही मन सोचता कि बेइज्जत होकर बर्खास्त होने से बेहतर है कि बाइज्जत रह खुद इस्तीफा दे दे। इस नयी सरकार को उसकी जरूरत क्या १ खास कर सियासी खुफिया पुलिस की उसे क्या जरूरत  'जब रिआया का अपना राज हो गया तो लोग खुद ही कानून बनायेंगे और उन्हें मानेंगे। कौन बगावत करेगा, जिसे हम पकड़ेंगे? यह जनता की सरकार हमें क्यों पालेगी ?''

सरकारी नौकरों और पुलिसों को अपनी मर्जी, से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बँट जाने. का मौका दिया गया। उबेद ने सोचा कि इस हिन्दू राज से पाकिस्तान ही चला जाय। बड़े-बड़े मुसलमान अफसर भी ऐसी ही बातें कर रहे थे। पुलिस में मुसलमान ही ज्यादा थे। सब पुलिस अगर पाकिस्तान ही पहुँच जाय तो रिआया से ज्यादा तो पुलिस ही हो जायेगी। बह घबरा रहा था। जिन लोगों की चौकसी कर वह डायरी लिखा करता था, वे लोग अब सरकारी परमिट लाकर बड़े-बड़े कारोबार कर रहे थे। जब तक बड़े लाट लोग अँग्रेज थे, कुछ धीरज था। उम्मीद थी कि शायद फिर दिन फिरें। एक बार पहले भी कांग्रेस सरकार हुई थी, और चली गई। लीग वाले भी जोर बांध रहे थे। लेकिन अगस्त १९४७ में जब लाट भी कांग्रेसी बन गये, तो वह धीरज भी जाता रहा। वह देखता रहता था कि सैयद साहब अब इस या उस कांग्रेसी नेता के यहां मिलने आते-जाते रहते थे और प्राय: जिक्र करते रहते थे, कि उनके मरहम वालिद साहब मौलाना शौकत- अली और मुहम्मदअली के जिगरी दोस्त थे, और खिलाफत तथा कांग्रेस में काम करते रहे हैं। वे तो एक बार लखनऊ भी हो आये थे। उबेद सोचता - "ये तो खानदानी और बड़े आदमी हैं। पहले रसूख के जोर पर ओहदे पर चढ़ गए अब भी इनका गुजारा हो जाएगा।अंग्रेजी सरकार के जमाने में इन्होंने मुसाहबियत के सिवा किया क्या है?  लेकिन हमने तो ईमानदारी और नमक हलाली निभाई है। ' ऊपर के दफ्तरों में रिकार्ड' देखे जा रहे होंगे और बर्खास्ती का हुक्म आया ही चाहता है।''

अँग्रेजों ने हिन्दुस्तान का शासन कांग्रेस और लीग को ऐसे समय में सौंपा जब युद्ध के बोझ के कारण देश की आर्थिक अवस्था अस्त- व्यस्त हो चुकी थी। कीमतें चौगुनी चढ़ गई थीं। मुनाफे के लोभ में व्यापारियों ने बाजारों को समेट कर गोदामों में बन्द कर लिया था। सरकार राष्ट्र-निर्माण करना चाहती थी। जनता रोटी मांग रही थी। व्यवसायी लोग दाम नीचे न गिरने देने के लिये माल को तैयारी कम कर रहे थे। जो माल बनता, उसे सरकारी कीमत की मोहर लगवाये बिना चोर-बाजार में खींच लेते! मजदूर अपनी मजदूरी से पेट न भर पाने के कारण मजदूरी बढ़ाने की मांग कर रहे थे। मजदूरी न बढ़ने पर मजदूर हड़ताल की धमकी दे रहे थे। सरकार हड़ताल को राष्ट्र के लिए घातक समझ रही थी। हड़ताल-विरोधी कानून बना दिये गये।

इस पर भी हड़तालें न रुकीं। सरकार कम्युानिस्टों को हड़ताल के लिये जिम्मेवार समझ, गिफ्तार करने लगी। कम्युनिस्ट लोग कांग्रेस और अंग्रेजों की लड़ाई परंपरा के अनुसार स्वयं बिस्तर लेकर थाने में पहुंच आने के बजाय फरार होकर, अपना आन्दोलन चलाने लगे। कम्यूनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार करना सरकार के लिये एक समस्या हो गई। मि० चक्रवर्ती अंग्रेज सरकार के जमाने में आतंकवादी लोगों के पडयंत्रों की खोज-खबर लगाने और उन्हें गिरफ्तार करने में काफी कीर्ति कमा चुके थे। नयी सरकार ने उन्हें गुप्तचर विभाग का डी. आई० जी० बनाकर यह काम सौंपा। मि० चक्रबर्ती ने ऐसे पडयंत्रों और अपराधियों को पकड़ने की रसायनिक विधि का उपयोग किया।

जैसे कूजे की मिस्री बनाने के लिये मिस्री की एक डली को चाश्नी में लटका देने से चीनी के कण जल से सिमिट कर एक जगह जम जाते हैं, और उन्हें बाहर कर लिया जाता है, वैसे ही उन्होंने अशान्ति की बात धीमे धीमे करने वाले अपने आदमियों को जनता में छोड़ शरारती लोगों को इकट्ठा कर लेने का उपाय सोच निकाला। ..

अँग्रेज अफसरों के नौकरी छोड़ विलायत चले जाने के कारण, सैयद साहब को डी० एस० पी० की जगह मिल गई थी। उबेद को सैयद साहब के यहाँ हाजिरी का हुक्म आया। उसे मालूम हुआ कि पिछली कारगुजारी की बुनियाद पर उसे स्पेशल ड्यूदी के लिये चुना गया है। दो काम-खास थे-एक तो पाकिस्तानी एजेंटों का पता लगाना और दूसरा मजदूरी में बदअमनी फैलाने वाले कम्युनिस्टों की खोज। उबेद को धीरज हुआ। सरकार चाहे जो हो, इन्तजाम और निजाम तो रहेगा ही। वह फालतू नहीं हो गया। लेकिन अपने बिरादराने-दीन को वह पकड़ेगा  उसने मन को समझाया, 'मजहब और सियासियात अलग अलग चीजें है। हाकिमे वक्त से वफादारी भी तो अल्लाह का हुक्म है। मजहब अपनी जगह है, मुल्क अपनी जगह ।ईरानी और तुर्क, दोनों मुसलमान हैं लेकिन अपने-अपने मुल्क के लिये उनमें जंग होती रही है।' फिर भी उसने कोशिश की कि हड़तालियों की पड़ताल पर ड्यूटी रहे तो अच्छा है। ऐसे आदमियों के खिलाफ उबेद को स्वयं ही क्रोध था। गरीब भले आदमी यों ही कपड़े के बिना मरे जा रहे है, ये बेईमान हड़ताल करके और कपड़ा नहीं बनने देंगे। शहर में बिजली, पानी बन्द करके दुनिया को मार देना चाहते हैं। ऐसे कमीनों का तो यह इलाज ही है कि जूते लगायें और काम लें! कमीने लोग कभी खुशी से काम करते हैं?  उसका तो इलाज ही डंडा है।

उबेद को फरार कम्युनिस्टों और मजदूरों में असंतोष फैलाने वाले उपद्रवी लोगों का पता लगाने के लिये कानपुर में नियुक्त किया गया। खुफिया पुलिस के महकमे में उसका नाम सब इंस्पेक्टरों में था। लेकिन वह मैले कपड़े और दुपल्ली टोपी पहने, रोजगार की तलाश में कानपुर के बाजारों में घूम रहा था। कुछ रोज उसने एक मिल के इंजन रूम में खलासी का काम किया और फिर आयलमैन हो गया।

सरकार चाहती थी कि हड़ताल किसी तरह न हो इसलिये शहर में दफा १४४ लगी हुई थी। हुक्म था कि जलसा न हो, जुलूस न निकले। कांग्रेस के नेता कलक्टर साहब की इजाजत से सब-कुछ कर सकते थे। मनाही थी सिर्फ मजदूरों को भड़काने वाले लोगों के लिये जिनसे सरकार को हड़ताल और शान्ति-भंग का अंदेशा था। फिर भी बस्तियों में, पुरवों में मकान की दीवारों पर, सड़कों पर, चूने से, कोयले से और गेरू से मजदूरों के नारे लिखे दिखाई देते, 'चोर. बाजारी बन्द करो! मुनाफाखोरों को फांसी दो ! मजदूरों को मंहगाई भत्ता दो ! रोजी-रोटी दो! बिजली पानी लो! जालिम कानून हटाओ ! मजदूर नेताओं को छोड़ो 1'

उबेदुल्ला कान खोल कर मजदूरों में फैलती अफवाहें सुनता रहता- महंगाई के लिये हड़ताल जरूर होगी, मीटिंग में बात पक्की हो गई है। कल रात मीटिंग में लीडर आये थे। स्वदेशी वाले, म्योर वाले, जर्टन वाले सब तैयार है। देखें कौन रोकता है? उबेद मिल में शाहिद के नाम से भरती हुआ था। वह इन बातों में बहुत उत्साह दिखाता, मज़दूरों की टोलियों में खूब ऊँचे नारे लगाता। वह सोचता कि गुप- चुप होने वाली मीटिंगों में जा पाए तो असली भेद पाये और फरार नेताओं का सुराग मिले। जाहिर है ऐसे नारे लगा कर भी वह मन में सोचता, 'कमीनों का दिमाग कैसा फिर गया है। अंग्रेज के बराबर कुर्सी पर बैठने वाले, इतने बड़े-बड़े नेताओं की सरकार पलट कर अपनी सरकार बनायेंगे।  शरीफ अमीर आदमियों का राज उखाड़ कर कोरियों, पासियों, भंगियों और मजदूरों का राज बनेगा? कैसी बदमाशी की साजिश है। कहते हैं, मजदूर की कमेटियाँ मिलें चलायेगी। मालिक महंगाई बनाये रखने के लिये दो तिहाई मिलें बन्द किये हुए हैं। इन लोगों की चल जाय तो दुनिया पलट जाय? ये लोग छिपे- छिपे कितना जोर बाँध रहे हैं। इनके सैंतालीस नेता फरार हैं। सब कानपुर में है और पता नहीं चलता। पिछली बातों से खतरा और भी बढ़ गया था। इनका एक बड़ा नेता गिरफ्तार हुआ था तो पिस्तौल कारतूस भी बरामद हुए थे। पिस्तौल पसली पर रख कर पिट से कर दें इनका क्या भरोसा है।  वह अपनी डायरी देने थाने न जाकर, कर्नेंलगंज में रहने वाले एक खुफिया इंस्पेक्टर के यहाँ जाता था।

यों तो उबेद का सब इंस्पेक्टरी की तनखाह, ड्यूटी का भत्ता और शाहिद आयलमैन की मजदूरी भी मिल रही थी लेकिन मुसीबत कितनी थी! सिर्फ आयलमैन की मजदूरी में ही गुजारा करना पड़ता। बह आराम के लिये पैसा खर्च करता तो साथ के लोगों को शक हो जाता। चार महीने बीत गए। वह अपनी तनख्वाह लेने भी न जा सका। वह सरकार के खजाने में जमा हो रही थी। सचमुच बुरा हाल था। पेट भी ठीक से नहीं भरता था। चबैना और मूंगफली खाते-खाते खुश्की से दिमाग चकराने लगता था। साफ कपड़े पहनने के लिये जी तरस जाता। वह मजदूरों की बाबत सोचता, 'कमीनों का यह तो हाल है कि रोटियों को तरसते हैं और करेंगे राज! कमबख्तों का यही तो इलाज है कि खाने को न दे और जूतियाँ मार-मार कर काम ले। हमेशा से कायदा ही यह रहा है।' वह अपनी ड्य़ूटी की सख्ती से परेशान था। इतनी मुसीबत अंग्रेज के जमाने में कमी न हुई थी।

एक दिन हद हो गई। शाम के वक्त वह थक कर दीवार की कुनिया से पीठ लगा बैठ गया था। इंजीनियर साहब आ रहे थे। वह देख न पाया इसलिये उठ कर खड़ा न हुआ। इंजीनियर साहब ने उसे ठोकर मार कर गाली दी। उबेदुल्ला ने बड़ी मुश्किल से अपना हाथ रोका। मन में तो कहा, 'बेटा, न हुआ मैं बाहर, नहीं तो हथकड़ी लगवा कर थाने ले जाता और सब शेखी झाडू देता? क्या समझते हो अपने आपको  दूसरे जैसे आदमी ही नहीं हैं।' फिर गम खा गया कि बहुत बड़े काम के लिये वह यह सब बर्दाश्त कर रहा है।

रात में दूसरे मजदूरों के साथ दर्शनपुरवा की एक कोठरी में लेटा लेटा वह सोचने लगा। 'कम-से-कम मार-पीट, गाली-गलौज तो न होनी चाहिये। मजदूरों में सब कमीने लोग थोड़े ही हैं। और फिर यहाँ पैसा लेकर मजदूरी करते है, अपने घर चाहे जो हो।' उसे अपने दो भाइयों की बात याद आ गई। एक अहमदाबाद में और दूसरा रतलाम में मजदूरी करने चला गया था। इसी सिलसिले में वह यह भी सोचने लगा, कि कम-से-कम पेट भरने लायक मजदूरी तो मिले! जब सरकार अपनी है, तो उसे हालत ठीक से मालूम होनी चाहिये। मजदूरों की भी सुनी जाय।

मिल के साथी मजदूरों को शाहिद पर विश्वास हो जाने से उसे हाथ की लिखाई में पर्चे पढ़ने को मिलने लगे। इन पर्चों पर प्रेस का नाम नहीं रहता था। इन पर्चों में सरकार के खिलाफ सरकशी की बातें और जंग का एलान रहता-'.... जो सरकार मुनाफाखोरी, चोर बाजारी के हकों को जायज समझती है, उसके राज में मेहनत करने वाली जनता ' कभी सुखी नहीं हो सकती। व्यापार के नाम पर मुनाफे की लूट केवल किसानों और मजदूरों के राज में खत्म हो सकती है, जब पैदावार मुनाफे के लिये नहीं, जनता की जरूरतें पूरी करने के लिये की जायगी। यह पूंजीपतियों का राज जनता का स्वराज्य नहीं, बल्कि सिर्फ हिन्दुस्तानी और विदेशी मुनाफाखोरों का समझौता है। मेहनत करने वालों का स्वराज्य केवल मेहनत करने वालों की अपनी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, ही कायम कर सकती है। कम्युनिस्ट पार्टी मेहनत करने बाली जनता के अधिकारों की रक्षा के लिये इस सरमायादारी हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान करती है। आप लोग अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये व्यक्तिगत और सुसंगठित तौर पर लड़ने के लिये तैयार हो जाइये। पुलिस के दमन का मुकाबिला कीजिये। अपने गली, मुहल्लों और अहातों में पुलिस राज समाप्त करके, मेहनत करने वाली जनता का राज  कायम कीजिये। आदि

आदि। उबेद यह खुली बगावत देख सिहर उठता। दुलीचन्द्र ऐसे पर्चे शाहिद को पढ़ाकर वापस ले लेता था। शाहिद पर्चों को दो बार, तीन बार पढ़कर शब्दों को याद कर लेने की कोशिश करता ताकि बिलकुल सही-सही रिपोर्ट दे सके। अकेले में मन-ही.मन उन्हें दोहराता रहता।

मन-ही-मन वह सोचता, 'कितनी खुली बगावत है।' और साथ ही यह भी सोचता, इन मजदूरों के ख्याल से बातें भी सही है। लाखों लोग तो इसी हालत में है। उसने एक राज फिसल कर दूसरा राज आता देखा था। वह सोचने लगता, 'क्या तीसरा राज आयेगा ?' जैसे इन दोनों राजों में वह एक ही काम करता आया है, वैसे ही वह करता चला जायगा? तब उसे गल्ले और कपड़े के गोदाम छिपाने वालों का पता लगाना होगा, ऐसे आदमियों की पड़ताल करनी होगी जो रिआया को भूखी और नंगी रखते हैं। ऐसे विचारों से कर्नैलगंज में इंस्पेक्टर साहब के यहां रिपोर्ट लिखाने जाने का उत्साह फीका पड़ने लगा। अब उसे अपना काम बहुत कठिन जान पड़ने लगा। लेकिन बह बड़ी होशियारी से आँख बचा कर। अपनी रिपोर्ट पहुँचाता रहा। बह सरकार का नमक खा रहा था और खुदा के रूबरू हाकिमेवक्त का नौकर था।

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एक दिन दुलीचन्द ने उससे कहा-पाल्टी के मेम्बर क्यों नहीं वन जाते ?''

उबेद मन-ही-मन सिहर उठा। लेकिन प्रकट में कहा-बन जायेंगे।'' मन में उसने सोचा कि पार्टी के मेम्बर बन जाने पर ही उसे भीतरी षड्यंत्र का पता चलेगा। दूसरा ख्याल आया कि यह तो अपने ऊपर एतबार करने वालों के साथ दगा होगी। उबेद मन-ही-मन बहुत परेशान हुआ। पार्टी का मेम्बर बनने से इनकार करे तो फर्ज में कोताही और खुदा के रूबरू अपनी सरकार से दगा है और पार्टी का मेम्बर बन कर उसका राज दूसरों को दे तो गरीब साथियों और खुदा की खल्क के साथ दगा है। उसने अपने मन को समझाया कि औवल तो वह सरकार का ही नमक खा रहा है और खुदा ने सरकार को रुतबा दिया है। वह खुदा के इन्साफ में क्यों शक करे? उबेद तो परेशानी में था लेकिन दुलीचन्द को शाहिद जैसे समझदार, पक्के और जोशीले साथी को पार्टी का मेम्बर बनाने की धुन सवार थी। उसने उसे पार्टी का कार्ड दिलवा दिया और एक रात उसे पक्के साथियों की मीटिंग में ले गया। मीटिंग में पन्द्रह-बीस साथी थे, दूसरी-दूसरी मिलों के कामरेड लीडर बता रहे थे - "हड़ताल के मतलब होते हैं, मालिकों की हुकूमत के खिलाफ मजदूरों के मोर्चे को मजबूत करना। मजदूरों का मोर्चा सिर्फ पार्टी के मेम्बरों का मोर्चा नहीं है। मजदूरों का मोर्चा तमाम मेहनत करने वाली जनता का मोर्चा है। पार्टी के मेम्बर इस मोर्चे में राह दिखाते हैं. वे मोर्चे के मालिक नहीं हैं। जो लोग बाबू लोगों से, जमादारों से, पुलिस वालों से अपनी दुश्मनी समझते हैं वे गलती पर हैं और मजदूरों के मोर्चे को नुकसान पहुँचाते हैं। हमारे दुश्मन सिर्फ वे लोग हैं जो जनता की मेहनत को लूटना अपना हक समझते हैं। तबके सिर्फ दो हैं। एक लूटने वाला और दूसरा लुटा जाने वाला। नौकर सब लुटने वाले तबके से हैं। फर्क इतना है कि वे लोग अपनी बिरादरी और समाज को न पहचान कर लूटनो वालों के हाथ बिके हुए हैं। उनकी किस्मत मालिकों के हाथ का खेल है। हमारा मोर्चा मार-पीट, जोर-जुल्म का मोर्चा नहीं है। यह मोर्या पक्के इरादे से अपने हक को पाने का मोर्चा है।''

कामरेड लीडर के चेहरे पर बड़ी हुई मूंछें और कतरी हुई दाढ़ी के बावजूद इंसपेक्टर साहब से मालूम हुए हुलिये से उबेद पहचान गया था कि यह फरार लीडर कामरेड नाथ है। फर्ज पूरा करने के लिये उसने इस मीटिंग की ओर नाथ के बदले हुये हुलिये की रिपोर्ट भी इंसपेक्टर साहब के यहां पहुंचा दी। इसके बाद वह दो और मीटिंगों में भी गया। बड़ी भारी मुकम्मल हड़ताल की तैयारी के लिये गुप्त मीटिंगें बार-बार हो रही थी। इंसपेक्टर साहब का हुक्म था कि ऐसी मीटिंग का समय और स्थान मालूम कर, उबेद वक्त रहते उन्हें खबर दे लेकिन उबेद को मीटिंग का पता ऐसे समय लगता कि खबर दे आने का मौका ही न रहता। पांचवी गुप्त मीटिंग हड़ताल के लिये आखिरी बातें तय करने के लिये की जानी थी। मिल से छुट्टी होते ही शाहिद को कहा गया कि ग्वालटोली के चार साथियों, प्यारे, नोतन, लेह. और नब्बन को खबर दे आये। ग्वाल टोली जाते हुए उबेद कर्नैलगंज में खबर देता गया। इस बात के नतीजे से वह खुद घबरा रहा था। लेकिन खुदा के रूबरू वह अपने फर्ज से कोताही कैसे करता? इस मानसिक परेशानी में वह बार-बार अल्लाह को गुहराता कि वही उसकी मदद करे, उसे गुमराह होने से बचाये।

एक हरीकेन लालटेन की रोशनी थी। अलगनियों पर कपड़े और धर का सामान लाद कर सब लोगों के बैठने के लिये जगह बनाई गई थी। कानपुर के एक लाख मजदूरों और शहर के करोड़पतियों और सरकार में जंग का फैसला हो रहा था-पिकेटिंग के समय कौन लोग देख-भाल करेंगे, लाठी चार्ज होने पर क्या किया जाय? गैरकानूनी जुलूस निकला जाय या नहीं ? दूसरे मजदूरों के दिल से खतरा दूर करने के लिए कौन लोग पहले मार खायें और गिरफ्तार हों? खयाल रखा जाय कि इधर से लोग भड़क कर ईंट पत्थर चलाकर पुलिस को गोली चलाने का मौका न दें।

आधी रात के समय मीटिंग हो रही थी। तीन लीडर आये हुये थे। हड़ताल के लिये कामरेड नाथ आखिरी बातें समझा रहे थे।

उबेद के कानों में साँय साँय हो रहा था। उसका कलेजा धकधक कर रहा था। वह लगातार बीड़ी पर बीड़ी सुलगा रहा था। दूसरे कई लोग भी बीड़ी पी रहे थे। लीडर कामरेड मौलाना ने भूरी आंखें निकाल, डाँट कर कहा-''बीड़ी बुझा दो सब लोग। क्या बेवकूफी करते हो? देखते नहीं हो, दम घुट रहा है? तुम लोग क्या जंग लड़ोगे, जो एक घंटे तक बिना बीड़ी के नहीं रह सकते।'

उबेद बीड़ी फर्श पर दवा कर बुझा रहा था। दूसरे लोगों ने भी बीड़ी बुझा दी। उसी समय पड़ोस से ऊँची पुकार सुनाई दही-भूरे ओ भूरे !''

मौलाना की पीठ तन गई। ''पुलिस आ गई !'' उन्होंने कहा। वे तुरन्त कागज समेटने लगे, और बोले-'जगन कामरेडों को निकाल दो। मोती दरवाजे पर डट जाओ, भीतर न आने देना।''

गड़बड़ मच गई। शाहिद का दिल और भी जोर से धड़कने लगा। दस सेकिंड भी नहीं गुजरे थे कि दरवाजे पर से धमकी सुनाई दी-- ''दरवाजे खोलो। तोड़ दो दरवाजा  पिस्तौल की दो गोलियाँ चलने की भी आवाज सुनाई दी। सादे कपड़े पहने पुलिस थी। पुलिस और मजदूरों में हाथापाई हो रही थी। तीन गोलियाँ और चलीं। वर्दी वाली पुलिस भी आ गई।

बारह आदमी गिरफ्तार हो गये। दुलीचन्द के घुटने में और नब्वन की बाँह के डौले में गोली लगी थी। दूसरे लोगों को भी चोटें आई थीं। तीनों लीडर कामरेड निकाल दिये गये थे। पुलिस के लोगों में शाहिद को कोई भी नहीं पहचानता था। उसने भागने की कोशिश भी नहीं की। वह भी गिरफ्तार हो गया। मुहल्ले के बाहर चार पुलिस लारियां खड़ी थी। तीन-तीन गिरफ्तारों को पुलिस के साथ इनमें बन्द किया गया, और बड़ी कोतवाली पहुंच गये। सब लोगों को अलग- अलग बन्द कर दिया गया।

अगले दिन चौथे पहर कर्नैलगंज वाले इंस्पैक्टर साहब और उन से बड़े अफसर आए। उन लोगों ने उबेदुल्ला की कारगुजारी की तारीफ की। उन्होंने कहा - "बड़े बड़े मच्छ तो जाल तोड़ कर निकल गये। कितने बदमाश हैं ये लोग। फिर भी इनके बारह खास आदमी हाथ आ गये हैं। फिलहाल इनकी यह हड़ताल तो न हो सकेगी।''

उन्होंने उबेदुल्ला को समझाया-इन बदमाशों पर मामला चलाया जायगा कि इन्होंने सर अन्जाम में पुलिस के काम में अड़चन डाली, पुलिस से मारपीट की, एक दारोगा और चार कांस्टेबिल को जख्मी किया। लेकिन गवाही सब पुलिस की ही है इसलिये उबेद को सरकारी गवाह बनना पड़ेगा। पन्द्रह बीस दिन की ही तो बात है। जेल में सब आराम का इन्तजाम हो जायगा। घबड़ाने की कोई बात नहीं है। कल उन सब लोगों को जेल की हवालात में भेज दिया जायगा। उबेद के लिए जेल में अलग इन्तजाम हो जायगा, दो-एक रोज में बयान तैयार हो जायगा, और उबेद को वह बयान मैजिस्ट्रेट के सामने देना होगा। बड़े साहब ने कहा है कि इस मामले से छूटने पर उबेद को किसी थाने का इन्चार्ज बना कर पच्छिम में भेज देंगे।

सब गिरफ्तार दंगाइयों को पुलिस से फौजदारी करने की दफा में मुलजिम बनाकर जेल हवालात में भेज दिया गया। उबेद भी जेल भेज दिया गया। लेकिन उसे अलग कोठरी में रखा गया। उस पर खास वार्डर की ड्यूटी थी कि उससे कोई मिलने न पाये। सिर्फ पानी देने वाला, खाना पहुंचाने वाला, अस्पताल की कमान के कैदी और भंगी उसकी कोठरी में आते जाते थे। इन्हीं में से कोई उसे खबर दे गया कि उसके बाकी साथी कह रहे है, कि शाहिद को भी उनके साथ रखा जाय और उसे साथ न रखा जाने पर भूख हड़ताल की तैयारी है।

उबेद परेशान था कि क्या करे। उसने कितने ही मुश्किल काम किये थे लेकिन ऐसी मुसीबत कमी न आई थी। कचहरी में खड़े होकर बह इन लोगों के खिलाफ बयान कैसे देगा? कैसी कैसी गालियां वे लोग इसे देंगे  और फिर जेल वे लोग किस बात के लिये जा रहे है?

तीसरे दिन उसकी कोठरी में आने जाने वाले कैदियों की आँख बदली हुई दिखाई दी। उस पर ड्यूटी देने वाले जमादार की आंख बचाकर, एक गैर-पहचाना कैदी उसे गाली देकर और उसकी ओर थूक कर कह गया-''साला मुखबिर है।',

उसी दिन शाम को मजिस्ट्रेट उसका बयान कलमबन्द करने के लिए आए। मजिस्ट्रेट ने उससे कहा--खुदा को हाजिर-नाजिर ज्ञान कर हलफिया सच बयान दो।''

शाहिद ने होंठ दबा लिये।

मैजिस्ट्रेट ने पूछा-''तुम्हारा नाम शाहिद है ?''

'वालिद का नाम

शाहिद चुप रहा।

मजिस्ट्रेट ने धमकाया-''बोलते क्यों नहीं

''साथ खड़े सी० आई० डी० के इंसपेक्टर साहब ने भी कहा- बयान दो अपना। शाहिद ने जबाव दिया- मेरा नाम शाहिद नहीं, मैं खुदा को रूबरू जान कर हलफिया झूठ नहीं बोल सकता।''

मैजिस्ट्रेट ने आश्चर्य से अंग्रेजी में कहा-यह क्या तमाशा है।' सी. आई. डी० के इंस्पेक्टर ने उबेद को समझाया - अरे इस में क्या है  यह तो जाब्ते की बात है। कचहरी में खुदा थोड़े ही हाजिर हो सकते है, इसमें क्या रखा है?

उबेद ने हकलाते हुए कहा-''हजूर नौकरी करता हूं, जान दे कर सरकार का नमक हलाल कर सकता हूँ। पर ईमान नहीं बेच सकता। उसने छत की तरफ हाथ उठाया। 'वह दुनिया भी तो है।'

मजिस्ट्रेट साहब ने इंसपेक्टर साहब को डाँट दिया-यह सब क्या फरेब है? मैं ऐसा बयान नहीं लिख सकता। मुझे रिपोर्ट में यह सब लिखना होगा।'

इस परेशानी में बयान न लिखा जा सका।

अगले दिन उसे समझाने के लिये दूसरे अफसर आये। बोले - ''ऐसी नमक-हरामी, गद्दारी करोगे तो सात बरस की नौकरी कार गुजारी, सरकार के यहाँ जमा तनख़्वाह तो जब्त होगी ही साथ ही सरकार की नौकरी में रह कर बगावत करने के जुर्म में फांसी, काले पानी की सजा तक हो सकती है।''

उबेद ने जबाब दिया-''सरकार मालिक है। मैंने गद्दारी नहीं की, है.......... नहीं की, लेकिन खुदा के रूबरू दरोगहलफी करके आकबत नहीं बिगाड़ सकता। यहाँ आप मालिक है, वहाँ वो मालिक है...।''

उबेदुल्ला का मामला आई० जी० साहब के यहाँ गया हुआ था। इसी बीच दूसरे ग्यारह आदमियों पर पुलिस से फौजदारी करने का मामला चल रहा था। पुलिस ही मुद्दई थी और पुलिस ही गवाह।

गवाही माकूल नहीं थी। मामला गिर जाने की आशा थी। मुलजिम लारियों में नारे लगाते हुये अदालत आते जाते ये। मुलजिम के वकील बार-बार शाहिद को अदालत में पेश करने की दरखास्तें दे रहे थे।

पुलिस की तरफ से जवाब था कि शाहिद पर से यह फौजदारी का मामला हटा लिया गया है। वह दूसरे मामले में मफरूर था। उसकी तहकीकात अलग से हो रही है।

मजदूरों को विश्वास था कि कामरेड शाहिद को सरकारी गवाह बनाने के लिये पीटा गया है लेकिन उसने अपने साथियों से गद्दारी करना मंजूर नहीं किया। पुलिस उसे परेशान कर रही है। वे नारे लगाते थे-कामरेड शाहिद जिन्दाबाद! कामरेड शाहिद को रिहा करो ं''

जेल वालों की चौकसी के बावजूद यह खबर भी उबेद तक पहुंची।

उसकी आंखें खुशी से चमक उठी। उसने अल्लाह को याद कर, दुआ के लिये हाथ फैलाकर कहा-''या खुदा शुक्र तेरा! एक बार तो तेरे नाम ने जिन्दगी में मदद की! यही बहुत है !''

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रचनाकार: यशपाल की कहानी - खुदा की मदद
यशपाल की कहानी - खुदा की मदद
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