कमाई जरूरी है लेकिन यही हमारी जिन्दगी का सर्वोपरि लक्ष्य बन जाए तो धनार्जन तो खूब होने लगेगा लेकिन दूसरे सारे सुख, संबंध और आनंद छीनते चले...
कमाई जरूरी है लेकिन यही हमारी जिन्दगी का सर्वोपरि लक्ष्य बन जाए तो धनार्जन तो खूब होने लगेगा लेकिन दूसरे सारे सुख, संबंध और आनंद छीनते चले जाएंगे। केवल पैसा ही पैसा जहां होता है वहाँ दूसरा कुछ नहीं होता।
हममें से कोई भी तभी तक इंसान बना रहता है जब तक वह धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ में समान आनुपातिक संतुलन बनाए रखे। जैसे ही यह संतुलन गड़बड़ाने लगता है आदमी की जिन्दगी भी गड़बड़ा जाती है और यह असंतुलन मन-मस्तिष्क-शरीर से लेकर स्वभाव, चरित्र, व्यवहार और रहन-सहन तथा लोकाचार सभी में दिग्दर्शित होने लगता है।
जहाँ पैसे को ही सर्वोपरि महत्व दिया जाएगा, वहाँ इंसान को सुकून देने वाले दूसरे सारे तत्व अपने आप पलायन कर जाते हैं। क्याेंकि जब इंसान पैसों का दास हो जाता है, पैसों के पीछे भागना शुरू कर देता है तब उसके लिए सभी प्रकार की मर्यादा, इंसानियत, आत्मीयता और रिश्ते खत्म हो जाते हैं।
उसके जीवन का एकमेव ध्येय अपने नाम पर पैसा बनाना, जमा करना और अपने आपको वैभवशाली के रूप में हमेशा प्रतिष्ठित किए रखना होता है। जहां कहीं जो इंसान पैसों को सर्वस्व स्वीकार कर लेता है उससे मानवता से जुड़ी हुई किसी भी बात पर चर्चा करना या समाज और देश के लिए अपेक्षा रखना पूरी तरह बेमानी हो जाता है।
लोक व्यवहार और मुद्राधर्मियों की परंपराओं को देखा जाए तो एक तरफ पैसा आ जाता है तो दूसरी तरफ सारी अच्छाइयाेंं का समूह रहता है। पैसा अपने आप में ऎसा स्थायी ध्रुवीकरण करवा देता है कि फिर पैसों और अच्छाइयों में मेल कभी संभव नहीं हो पाता।
इतिहास गवाह है, वर्तमान के मुद्रांध लोग साक्षी हैं। फिर भी दिल न माने तो अपने आस-पास के उन लोगों को देख लें जिनके पास अकूत सम्पदा है लेकिन न उदारता है, न मानवता, न सिद्धान्त और न ही सेवा-परोपकार या आत्मीयता का कोई भाव।
इन लोगों के लिए पैसा ही संबंधों और परिचय का मूलाधार होता है। पैसों के लिए जिन्दा हैं और पैसा न रहे तो बिन पानी के तड़फती मछली की तरह प्राण ही त्याग दें। पैसों के लिए किसी से भी संघर्ष कर सकते हैं, किसी का गला घोंट सकते हैं।
अपने माँ-बाप, भाई-बहनों तक से ये लोग पैसों के लिए मुश्किल में डाल सकते हैं, कोर्ट-कचहरी तक ले जा सकते हैं और इसके अलावा बहुत कुछ कर सकते हैं जो इंसानियत के दायरे में कभी नहीं आता।
पैसों के कारण संबंध बनने या बिगड़ने नहीं चाहिएं लेकिन आजकल सब तरफ यही हो रहा है। पैसों के साथ दूसरे गृहस्थ धर्मों, सामुदायिक सेवा कार्यों और राष्ट्रीय सरोकारों के बीच संतुलन कायम रहना चाहिए तभी पैसों की चमक आती है और अपने चेहरों की चमक-दमक भी बनी रहती है।
केवल पैसों के सहारे न तेज-ओज पाया जा सकता है, न शांति और आत्म आनंद का कोई सुकून। बहुत सारे लोग अपनी क्षमताओं और कर्म के अनुपात से कहीं ज्यादा पैसा कम समय में जमा करने के लिए उतावले बने रहते हैं और चाहते हैं कि जितना समय मिला है उसे पैसा बटोरने मेें लगाते रहें, पैसा की सब कुछ है और पैसा अपने पास होगा तो दुनिया पीछे भागेगी। मतलब यहां भी दुनिया को दिखाने और मनवाने का भाव ।
जो कर्म दुनिया को दिखाने के लिए होता है उसका कोई स्थायित्व नहीं होता, ऎसे कर्म कालजयी यश-कीर्ति भी नहीं दिला सकते क्योंकि इनके पीछे छिपा हुआ भाव दूषित है। जब संकल्प प्रदूषित होता है तब उससे जुड़ी कोई सी क्रिया पवित्र और कल्याणकारी नहीं हो सकती।
दुनिया ने देख लिया, इसके बाद उसका उद्देश्य और प्रभाव दोनों का खात्मा हो जाता है। यही कार्य सेवा भावना से किया जाए तो ईश्वर भी प्रसन्न होता है और अपने पुण्य का भण्डार भी बढ़ता रहता है।
लोगों की दुआओं से अपने बिगड़े काम सुधर जाते हैं, कम परिश्रम में ही कार्यसिद्धि और सफलता का लाभ मिलता है, यह अलग। अपने कर्म में निरन्तरता, कठोर परिश्रम और लगन होना नितान्त जरूरी है लेकिन साथ ही यह भी स्वीकारना चाहिए कि जिस समय जितना पैसा जीवन के लिए जरूरी है उतना मिलता ही है, हम हमारी जरूरत से कई गुना अधिक के लिए भूत-प्रेतों की तरह भागते फिरें, यह कहां का न्याय है।
जो पैसा परिश्रम से कमाया जाए उसमें कहीं कोई आपत्ति नहीं है लेकिन परिश्रमहीन, चोरी, कमीशन, रिश्वतखोरी और आपराधिक कृत्यों से वसूला या लूटा हुआ धन आएगा तो एक स्थिति ऎसी आएगी कि हालात भयावह हो जाएंगे।
जीवन भर की कमाई का पैसा यदि बहुत कम समय में हमारे पास जमा हो जाएगा जिसकी हमें उस समय जरूरत नहीं है, तब हमारे लिए बड़ी भारी मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। यदि इंसान में पुण्य कर्म, सेवा और परोपकार में उदारतापूर्वक धनदान करने की इच्छाशक्ति नहीं है तो उसे अकाल मृत्यु का सामना भी करना पड़ सकता है क्योंकि जीवन भर में प्राप्त होने वाला पैसा कम समय में ही हमारे हाथ में आ जाए तब हमारे जीवन पर संकट आ जाना स्वाभाविक ही है। बहुत सारे लोगों की अकाल मृत्यु का यह भी एक कारण है।
अधिकांश लोग धन कमाने और जमा करने को ही जिन्दगी मान बैठे हैं। इन लोगों के पैसों का कोई उपयोग समाज और देश के लिए नहीं हो पा रहा है, न यह पैसा किसी जरूरतमन्द के काम आ पा रहा है।
और तो और बहुत सारे लोग जो समाजसेवा, धर्म-अध्यात्म, समाजसुधार और सेवा-परोपकार के कामों में जुटे हुए नाम कमा रहे हैं उनमें भी खूब सारे हैं जो पैसे वाले हैं, अकूत संपदा जमा कर रखी है, लेकिन ये लोग भी इतने अधिक कृपण होते हैं कि कभी अपनी थैली नहीं खोलते।
इनसे समाज के लिए समर्पित भाव से काम करने और तन-मन-धन से सेवा कराने के लच्छेदार भाषण करवा लो, जिंदगी भर इन्हें मंच-लंच और सम्मान परोसते रहो, खुद अपनी ओर से एक पैसा नहीं निकालेंगे।
इन लोगों के पास पैसा बहुत होता है लेकिन प्रतिष्ठा का अभाव होता है। कोई कितना ही पैसे वाला क्यों न हो, उसकी समाज इज्जत तभी करेगा, जब सेवा या सामुदायिक उत्थान के किसी काम में जुटेंगे।
यही कारण है कि वैभवशाली और धनाढ्य लोगों की भीड़ प्रतिष्ठा पाने की भूख मिटाने के लिए सेवा के किसी न किसी आयाम से जुड़ जाती है लेकिन वहां कहीं पर भी एक पैसा नहीं निकालेंगे।
दूसरों की जेब से पैसा निकलवाने के सारे हुनर इन्हें आते हैं लेकिन इससे बड़ा हुनर इनके पास यह होता है कि इनकी जेब से कोई एक धेला भी नहीं निकलवा सकता। क्यों न हम सभी लोग पैसों के साथ ही सेवा और परोपकारके लिए अपनी ओर से भी कुछ मदद करें, जरूरतमन्दों के काम आएं, समाज और देश के लिए अपना पैसा भी तो लगाएं।
इसके लिए उदारता जरूरी है। उदारता ईश्वरीय गुण है, इसके लिए कृपणता और संकीर्ण मनोवृत्ति का परित्याग जरूरी है। ऎसा हम कर पाएं तभी हमारा जीवन और जन्म सार्थक है अन्यथा बहुत सारे कबाड़ी आए और खूब सारा जमा करके खाली हाथ लौट गए। आज भी लोग उनके नाम से गालियां बकते और कोसते नज़र आते हैं।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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