दीपक आचार्य का आलेख - धन्य हैं ये सुपर भिखारी-महा लुटेरे

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(चित्र - ननकुसिया श्याम की कलाकृति) भीख मांगना, मांग खाना, भिखारियों का स्वभाव अपना लेना, लूट-खसोट और छीना-झपटी को अपनाते हुए आगे बढ़ना और ...

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(चित्र - ननकुसिया श्याम की कलाकृति)

भीख मांगना, मांग खाना, भिखारियों का स्वभाव अपना लेना, लूट-खसोट और छीना-झपटी को अपनाते हुए आगे बढ़ना और अपने आपको दूसरों के मुकाबले अधिक से अधिक माल-असबाब वाला ठहराना, परायी संपदा हथिया कर समृद्धि पा लेना और कबाड़ ही कबाड़ जमा करते हुए खुद को महान एवं अन्यतम सिद्ध कर लेना अब कोई घृणित कार्य नहीं रहा।

इसे युगीन आचरण मान लिया गया है, जैसा कि बहुत सारे लोग इसे अपना कर सिद्ध कर चुके हैं। परिश्रम, मेहनत, ईमानदारी, पुरुषार्थ आदि का अब कोई विशेष ध्यान रखने की जरूरत नहीं है। अब सब कुछ अपने नाम कर लेने और अपने घर भरने के लिए जो कुछ किया जा रहा है उसे सामाजिक स्वीकारोक्ति और मान्यता भले न मिल पाए, समर्थ लोगाें के लिए तो यह कानून जैसा ही बन गया है।

जो जितना अधिक पॉवरफूल है, जितनी अधिक लूट-खसोट और छीनने-झपटने की क्षमता है, जितनी अधिक चतुराई से औरों को उल्लू बनाने का माद्दा है, उतनी अधिक सफलता प्राप्त कर लिया करता है। अब अपना कुछ नहीं माना जाता है। जो अपना है वह तो अपना है ही, पराया भी अपना ही मान लिया जाने लगा है यदि इसे अपना साबित कर लेने की योग्यता हो अथवा अपने कब्जे में आ ही गया हो।

इस मामले में न कोई सिद्धान्त हैं, न नैतिकता ही शेष रही है। सब तरफ फ्री-स्टाईल है। अब कोई छोटा-बड़ा नहीं रहा। छोटे लोग भले ही अब सिद्धान्तों और नैतिकताओं की दुहाई देते नज़र आते रहें, बड़े लोगों में न कोई ईमान रहा है, न कोई सत्य और धर्म।

इन लोगों का एक ही परम धर्म रह गया है - चमड़े के सिक्के चलाना और अपनी खोटी व अवधिपार चवन्नियों का चलन बनाए रखना। पहले जमाने में मेहनत का ही खेल था। बिना मेहनत के दाना-पानी तक पा लेना हराम समझा जाता था।

आजकल सब कुछ उलटा हो गया है। बहुत सारे लोगों को जीवन भर यह पता नहीं चलता कि आटे-दाल-नमक का भाव क्या है, दूध की कीमतें क्या हैं, रसोई का सामान कहाँ से आ रहा है, जो वे खा-पी रहे हैं उनमें उनके बाप का क्या है, सब कुछ हराम का ही है, जैसे लोग हाथी, गाय-भैंस और कुत्ते पालते हैं, उसी तरह इन बड़े-बड़े लोगों को पाल रहे हैं।

हम सभी लोग आना-दो आना, रुपया-दस रुपया भीख मांगने वालों, दो रोटी और सब्जी चाहने वालों, तन ढंकने के लिए  कपड़े की मांग करने वाले भिखारियों को खूब सारा भला-बुरा कहते हुए दुत्कार दिया करते हैं, मगर कभी हमने सोचा है कि इनसे भी बड़े भिखारियों के बीच हम रह रहे है। जिनकी भीख और डिमाण्ड सुनते ही हमारे होश फाख्ता हो सकते हैं।

इनकी डिमाण्ड के आगे सुरसा भी बौनी है, इन लोगों का पेट कुंभकर्ण से भी बड़ा है, जिसमें दिन-रात खाते-पीते और जमा करते रहें फिर भी न भरे, न कोई डकार ही लौट कर आए। समाज और देश अब बहुत विराटकाय और प्रभावशाली भिखारियों के तमाशों से भरा पड़ा है जिन्हें सब कुछ चाहिए, और वह भी मुफ्त का। 

मफतलाल के नाम को धन्य करने वाले इन स्वनामधन्य भिखारियों को हर जगह देखा जा सकता है। इन्हें अपनी ओर से एक पैसा खर्चने में नानी याद आ जाती है, मौत आ जाती है लेकिन दूसरों की जेब से निकलवाना इनके लिए बांये हाथ का खेल है।

कोई चीज खरीद कर नहीं वापरते लेकिन दुनिया की हर चीज वापरने का शौक फरमाते हैं और वह भी पराये पैसों से। ये जहां काम करते हैं,जिन बाड़ों के कहे जाते हैं, उनकी हर वस्तु को अपने घर पर इस्तेमाल करते हैं, इन्हें कोई लाज-शरम कभी नहीं आती।

इस मामले में दुनिया के नम्बर एक के भिखारियों और लूटेरों में इनका नाम गिनाया जा सकता है। शरम आए भी तो कैसे, पैसों और मुफत के संसाधनों को पाने की ललक और हवस के आगे ये महा बेशरम हैं, इनसे कुछ भी करवा लो, ये कितने ही नीचे गिर जाने को सदैव तैयार रहते हैं बशर्ते कि बिना मेहनत के हराम का सब कुछ इनके नाम हो जाए।

बहुत सारे ऎसे हैं जिनकी मासिक पगार कभी बैंकों से निकलती ही नहीं, हाँ माह में एक बार पूरी की पूरी रकम एक से दूसरे खाते में ट्रांसफर जरूर हो जाती है। अब यह न पूछिये कि आखिर ऎसा क्यों होता है। बहुत से लोग जो ईमानदारी, सिद्धान्तों, नैतिकता और मूल्यों की बातें करते हैं, मानवता की दुहाई देते हैं, उनकी जमीनी हकीकत यही है कि वे सारे के सारे सिद्धान्तहीन जीवन जी रहे हैं, उनका न मेहनत की कमाई से कुछ लेना-देना है, न ईमानदारी से।

समाज और देश से भी उनको कोई सरोकार नहीं है।  और दुर्भाग्य देखियें कि जो भ्रष्ट, चोर-उचक्के, बेईमान और हरामखोर हैं, वे लोग नैतिकता की बातें करते हैं, अपने आपको महान सिद्ध करते हुए अनुकरणीय के रूप में पेश कर रहे हैं।

हमारे आस-पास भी ऎसे खूब सारे लोग हैं जिनकी पूरी जिन्दगी दूसरों के भरोसे निकल रही है। ये लोग जो खान-पान करते हैं, कपड़े-लत्ते पहनते हैं, जिस मौज-शौक से रहते हैं उनमें उनकी कमाई का धेला भर भी योगदान नहीं रहता। सब कुछ या तो हराम का है या परायों के दम पर बंदरिया उछलकूद कर रहे हैं।

इन सभी महान लोगों की जिन्दगी पर गहन चिन्तन करें तो पाएंगे कि इनका पूरा जीवन आडम्बरों और पाखण्डों से भरा हुआ है। इनके जिस्म का कतरा-कतरा पराये अन्न और पानी से बना है, और यही कारण है कि सब कुछ पराया और हराम का खान-पान-व्यवहार होने के कारण इनके जीवन में जो भी गतिविधियां होती हैं उन पर इनका कोई नियंत्रण नहीं होता।

ये परायी बुद्धि और ज्ञान से चलते हैं तथा हर जगह परायेपन से घिरे रहते हैं। इनका स्वभाव भी ऎसा हो जाता है कि पग-पग पर चिड़चिड़ापन, गुस्सा, कुत्तों की तरह भौं-भौं करने, काटने दौड़ने, गुर्राने आदि की आदत पड़ जाती है।

बहुत बड़े-बड़े कहे जाने वाले लोग रोजाना जानवरों की तरह व्यवहार करते हैं, राक्षसों की तरह रहते हैं और इनके क्रूर तथा उन्मादी व्यवहार से आस-पास रहने वाले और साथ काम करने वाले लोग भी परेशान रहा करते हैं। पर ये लोग इन खूंखार लोगों के लिए बददुआओं और इनकी शीघ्र गति-मुक्ति की कामना के अलावा सीधे तौर पर कुछ नहीं कर पाते हैं क्योंकि इन बड़े और प्रभावशाली किन्तु उन्मादी लोगों को कुछ कहना आफत मोल लेना ही है।

वर्तमान युग में सभी स्थानों पर ऎसे नरपिशाचों का बोलबाला है जिनके कारण से सज्जन पीड़ित, व्यथित और कुण्ठित हैं लेकिन सज्जन संगठनहीनता और कलिकाल के प्रभाव के कारण कुछ कर नहीं पा रहे हैं।

इसे ईश्वर का विधान ही माना जाना चाहिए कि आजकल ऎसे सुपर लेवल के अभिजात्य भिखारियों और फ्री-स्टाईल लूटरों का वर्चस्व दिखने में आ रहा है। इन्हें सहन करना भी अपराध है। प्रत्यक्ष तौर पर कुछ न कर सकें तो अप्रत्यक्ष तरीकों ने इन असुरों के दमन के लिए सोचें, क्योंकि समाज को आज सबसे बड़ा खतरा है तो इन्हीं उन्मादियों से, जो कि आतंकवादियों से भी अधिक घातक और राष्ट्रद्रोही हैं। भगवान बचाए ऎसे सड़े-गले-खुजलाते हुए उन्मादी श्वानों से, जो अपनी गलियों के शेर बने हुए हैं।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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