चन्द्रधर शर्मा की कहानी ‘उसने कहा था’ सन् 1915 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी. यह कहानी प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी कहानी...
चन्द्रधर शर्मा की कहानी ‘उसने कहा था’ सन् 1915 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी. यह कहानी प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी कहानी है. प्रेम और कर्त्तव्य-बोध के बीच लहनासिंह के चरित्र के विकास की दृष्टि से अपने समय की विकासशील कहानी को यह बहुत पीछे छोड़ देती है. कहानी में संयोग का तत्व है, परन्तु उसके उपयोग में स्थूलता और कृतिमता से सहज ही बचा जा सका है.
गुलेरीजी ने युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिये बिना सैनिकों की दिनचर्या और सैनिक कार्यवाई का जैसा जीवन्त वर्णन किया है, उन वर्णनों की चित्रात्मक शैली का इस कहानी की सफलता में बहुत बड़ा योगदान है. इसमें परिवेशगत यथार्थ का अंकन है.
‘उसने कहा था’ वस्तुतः हिन्दी की पहली कहानी है, जो शिल्प-विधान की दृष्टि से हिन्दी कहानी को एक झटके में ही प्रौढ़ बना देती है. लहनासिंह की स्मृतियों में उभरा उसका अतीत हिन्दी में पहली बार फ्लैश बैक का प्रौढ़ और कलात्मक उपयोग करता है. संपादक प्राची
(चनद्रधर शर्मा गुलेरी की यह कहानी आप उनकी स्वयं की पांडुलिपि (हस्तलिपि) में यहाँ पढ़ सकते हैं)
उसने कहा था
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
बड़े-बड़े शहर के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें. जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुये इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं. कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों को चीथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लढ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ाकर ‘बचो खालसा जी’, ‘हटो भाई जी’, ‘ठहरना भाई’, आन दो लाला जी’, ‘हटो बाछा’ कहते हुये सफेद फेटों, खच्चरों और बतकों, गन्ने, खोमचे और भारे वालों के जंगल में से राह खेते हैं. क्या मजाल है कि ‘जी’ और ‘साहब’, बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है, पर मीठी छुरी की तरह मार करती है. यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी चवनावली के ये नमूने हैं-हट जा जीणे जोगिये, हट जा करमा वालिये, हट जा पूत्तां प्यारिये, बच जा लम्बी उमर वालिये. समष्टि में इसका अर्थ है कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों की प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा.
ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले. उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां. दुकानदार एक परदेशी से गुंथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था.
‘तेरे घर कहां है?’
‘मगरे में और तेरे?’
‘मांझे में-यहां कहां रहती है?’
‘अतरसिंह की बैठक में, वे मेरे मामा होते हैं.’
‘मैं भी मामा के यहां आया हूं, उनका घर गुरु बाजार में है.’
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले. कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कराकर पूछा-‘तेरी कुड़माई हो गई.’ इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का देखता रह गया.
दूसरे-तीसरे दिन सब्जी वाले के यहां या दूध वाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते. महीने भर यही हाल रहा. दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा-‘तेरी कुड़माई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला. एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हंसी चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की सम्भावना के विरुद्ध बोली-‘हां, हो गई.’
‘कब?’
‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू.’
लड़की भाग गई, लड़के ने घर की राह ली. रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभी वाले में ठेले के दूध उंड़ेल दिया. सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाई. तब कहीं पर पहुंचा.
‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है? दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं. लुधियाने से दस गुना जाड़ा और मेह और बरफ, ऊपर से पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं. गनीम कहीं दिखता नहीं-घण्टे दो घण्टे में कान के परदे फोड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है. इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े. नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पच्चीस जलजले होते हैं. जो कहीं खन्दक के बाहर, साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक् से गोली लगती है. न मालूम बेईमान मिट्टी में लिपटे हुये हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं.’
‘लहनासिंह, तीन दिन और हैं. चार तो खन्दक में बिता ही दिये. परसों ‘रिलीफ’ आ जायगी और सात दिन की छुट्टी. अपने हाथों झटका करेंगे और पेट भर खाकर सो रहेंगे. उसी फिरंगी मेम के बाग में मखमल की सी हरी धास है. फल और दूध की वर्षा कर देती है. लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती. कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आये हो.’
‘चार दिन तक पलक नहीं झंपी. बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही. मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाय. फिर सात जर्मनी को अकेला मारकर न लौटूं तो मुझे तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो. पाजी कहीं के, कलों के घोड़े-संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं. यों अंधेरे में तीस-तीस मन का फेंकते हैं. उस दिन धावा किया था-चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था. पीछे जनरल साहब ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो-’
‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते, क्यों?’ सूबेदार हजारासिंह ने मुस्कराकर कहा-‘लड़ाई के मामले जमादार या नायब के चलाये नहीं चलते. बड़े अफसर दूर की सोचते हैं. तीन सौ मील का सामना है. एक तरफ बढ़ गये तो क्या होगा?’
‘सूबेदार जी, सच है.’ लहनासिंह बोला-‘पर करें क्या? हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है. सूर्य निकलता नहीं खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के-से धंस सोते झर रहे हैं. एक धावा हो जाये तो गरमी आ जाय.’
‘उदमी उठ, सिगड़ी में कोले डाल. वजीरा, तुम चार जने बाल्टियां लेकर खाईं का पानी बाहर फेंको. लहनासिंह, शाम हो गई है. खाई में दरवाजे का पहरा बदल दे.’ यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे. वजीरासिंह पल्टन का विदूषक था. बाल्टी में गन्दा पानी भरकर खाईं के बाहर फेंकता हुआ बोला-‘मैं पाधा बन गया हूं. करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए.
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भरकर उसक हाथ में देकर कहा-‘अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो. ऐसा खाद का पानी पंजाब भर में नहीं मिलेगा.’
‘हां, देश क्या है, स्वर्ग है? मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस गुणा जमीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा.’
‘लाड़ी होरां को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फिरंगी मेम-’
‘चुप कर, यहां वालों को शरम नहीं.’
‘देश-देश का चाल है. आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तमाखू नहीं पीते. वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं.’
‘अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?’
‘अच्छा है.’
‘जैसे मैं जानता ही न होऊं. रात भर तुम अपने दोनों कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते. उसके पहरे पर आप पहरे दे आते हो. अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, कीचड़ में पड़े रहते हो. कहीं तुम न मांदे पड़ जाना. जाड़ा क्या है, मौत है और ‘निमोनिया’ से मरने वालों को मुरब्बे नहीं मिला करते.
‘मेरा डर मत करो. मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा. भाई कीरतसिंह की गोदी में मेरा सिर होगा. और मेरे हाथ लगाये हुये आंगन में आम के पेड़ की छाया होगी.’
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा-‘क्या मरने-मराने की बात लगाई है? मरें जर्मन और तुरक.’
‘हां, भाइयों, कुछ गाओ.’
कौन जानता था कि दाढ़ियों वाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गायेंगे, पर सारी खन्दक गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज करते रहे हों.
दो पहर रात गई है, अंधेरा है. सन्नाटा छाया हुआ है.
बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टीनों पर अपने दोनों कम्बल बिछाकर और लहनासिंह के दो कम्बल ओर दो बरानकोट ओढ़कर सो रहा है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर. बोधासिंह कराहा.
‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’
‘पानी पिला दो.’
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगाकर पूछा-‘कहो, कैसे हो?’
पानी पीकर बोधा बोला-‘कंपकंपी छूट रही है. रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं. दांत बज रहे हैं.’
‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो.’
‘और तुम?’
‘मेरे पास सिगड़ी है, मुझे गर्मी लगती है, पसीना आ रहा है.’
‘ना, मैं नहीं पहनता. चार दिन तुम मेरे ही लिए-’
‘हां, याद आई. मेरे पास दूसरी गरम जरसी है. आज सबेरे ही आई है. विलायत से मेमें बुन-बुनकर भेज रही हैं. गुरु उनका भला करें.’ यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा.
‘सच कहते हो?’
‘और नहीं झूठ?’ यों कहकर नाहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा हुआ. मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी.
आधा घण्टा बीता. इतने में खाई के मुंह से आवाज आई-‘ सूबेदार हजारासिंह.’
‘कौन? लपटन साहब? हुकुम हुजूर.’ कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ.
‘देखो, इसी दम धावा करना होगा. मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाईं है. उसमें 50 से ज्यादा जर्मन नहीं हैं. इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है. तीन-चार घुमाव हैं. जहां मोड़ है, वहां पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूं. तुम यहां दस आदमी को छोड़कर सबको साथ ले, उनसे जा मिलो. खन्दक छीनकर वहीं जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो. हम यहां रहेगा.’
‘जो हुक्म.’
चुपचाप सब तैयार हो गये. बोधा भी कम्बल उतारकर चलने लगा. तब लहनासिंह ने उसे रोका. लहनासिंह आगे हुआ तो
बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया. लहनासिंह समझकर चुप हो गया. पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई. कोई रहना न चाहता था. समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च दिया. लपटन साहब की सिगड़ी के पास मुंह फेरकर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे. दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा-
‘लो, तुम भी पियो.’
आंख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया. मुंह का भाव छिपाकर बोला-‘लाओ, साहब.’ हाथ आगे करते ही सिगड़ी के उजाले में साहब का मुंह देखा. बाल देखे तब उसका माथा ठनका, लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में कहां उड़ गये और उसकी जगह कैदियों के से कटे हुये बाल कहां से आ गये.
शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है. लहनासिंह ने जांचना चाहा. लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे.
‘क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?’
‘लड़ाई खत्म होने पर. क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?’
‘नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहां कहां? याद है, पार-साल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी के जिले में शिकार करने गये थे. हां, हां-वहीं जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था?’ ‘बेशक पाजी कहीं का’-‘सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली. ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है. क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था? आपने कहा था कि रेजिमेंट की मेस में लगायेंगे.’ ‘हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया’-ऐसे बड़े-बड़े सींग. दो-दो फुट के तो होंगे.’
‘हां लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे. तुमने सिगरेट नहीं पिया?’
‘पीता हूं साहब, दियासलाई ले आता हूं’-कहकर लहनासिंह खन्दक में घुसा. अब उसे सन्देह नहीं रहा था और उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिये.
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया.
‘कौन? वजीरासिंह?’
‘हां, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आंख लगने दी होती?’
‘होश में आओ. कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहनकर आई है.’
‘क्या?’
‘लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं. उनकी वर्दी पहनकर यह कोई जर्मन आया है. सूबेदार ने उसका मुंह नहीं देखा. मैंने देखा है और बातें की हैं, सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?’
‘तो अब?’
‘अब मारे गये. धोखा है. सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाईं पर धावा होगा. उधर उन पर खुले में
धावा होगा. उठो, एक काम करो. पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ. अभी बहुत दूर न गये होंगे. सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें. खन्दक की बात झूठ है. चले जाओ खन्दक के पीछे से निकल जाओ, पत्ते तक न खड़के, देर मत करो.’
‘हुक्म तो यह है कि यहीं...’
‘ऐसी-तैसी हुक्म की. मेरा हुक्म-जमादार लहनासिंह का, जो इस वक्त यहां सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुक्म है. मैं लपटन साहब की खबर लेता हूं.’
‘पर यहां तो तुम आठ ही हो.’
‘आठ नहीं, दस लाख. एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है. चले जाओ.’
लौटकर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया. उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब के बराबर तीन गोले निकाले. तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया. तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा. बाहर की तरफ एक दियासलाई गुत्थी पर रखने...
बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठाकर साहब की कुहनी पर तानकर मारा. धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी. लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गरदन पर मारा और साहब ‘आह! माई गाड’ कहते हुए चित्त हो गये. लहनासिंह ने तीनों गोले बिन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया. जेबों की तलाशी ली. तीन-चार लिफाफे ओैर एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया.
साहब की मूर्छा हटी. लहनासिंह हंसकर बोला-‘क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं. यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं. यह सीखा कि जगाधारी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं. यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं. और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं. पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहां से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना ‘डैम’ के पांच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे.’
लहना ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी. साहब ने मानों जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेब में डाले.
लहनासिंह कहता गया-‘चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है. उसे चकमा देने के लिए चार आंखें चाहिए. तीन महीने हुए, एक तुर्की मौलवी मेरे गांव में आया था. औरतों को बच्चे की ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था. चौधरी की बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पण्डित हैं. वेद पढ़-पढ़कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं. गौर को नहीं मारते. हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गौ-हत्या बन्द कर देंगे. मण्डी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपया निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है. डाक बाबू पोल्हूराम भी डर गया था. मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूंड़ दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रखा तो...’
साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी. इधर लहना की हेनरीमार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी. धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये.
बोधा चिल्लाया-‘क्या है?’
लहनासिंह ने उसे तो यहकर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया’ औरों से सब हाल कह दिया, बन्दूकें लेकर सब तैयार हो गये. लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों तरफ पट्टियां कसकर बांधीं. घाव मांस में ही था. पट्टियों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया.
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाईं में घुस पड़े. सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका, पर यहां थे आठ (लहनासिंह तक-तककर मार रहा था-वह खड़ा था, वे लेटे हुए थे) और वे सत्तर. अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुस आते थे. थोड़े से मिनटों में वे...
अचानक आवाज आयी, ‘वाह गुरु जी दी फतह? वाह गुरु जी दा खालसा.’ और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों के पीठ पर पड़ने लगे. ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच आ गये. पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे. पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया.
एक किलकारी और-‘अकाली सिक्खां दी फौज आयी. वाह गुरु जी दी फतह. वाह गुरु जी दा खालसा.. सत्तसिरि अकाल पुरुष!!!’ और लड़ाई खतम हो गई. तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे. सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये. सूबेदार के कन्धे में से गोली आर-पार निकल गई. लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी. उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया. किसी को खबर न हुई कि लहना के दूसरा घाव, भारी घाव लगा है.
लड़ाई के समय चांद निकल आया था. ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी, जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती. वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था. सूबेदार, लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर, उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि ‘तू न होता तो आज सब मारे जाते.’
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईं वालों ने सुन ली थी. उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था. वहां से झटपट डॉक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियां चलीं जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर वहां आ पहुंची. फील्ड अस्पताल नजदीक था. सुबह होते-होते पहुंच जायेंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं. सूबेदार ने लहनासिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही. पर उसने यह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा, बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था. वह गाड़ी में लिटाया गया. लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे. यह देख लहना ने कहा-‘तुम्हें बोधा की कसम है और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में चले जाओ.’
‘और तुम?’
‘मेरे लिए वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना और जर्मन मुर्दों के लिए भी गाड़ियं आती होंगी. मेरा हाल बुरा नहीं है. देखते नहीं, मैं खड़ा हूं. वजीरासिंह मेरे पास है ही.’
‘अच्छा पर...’
बोधा गाड़ी पर लेट गया. ‘भला, आप भी चढ़ जाओ. सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया.’
गाड़ियां चल पड़ी थीं. सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा-‘तैने, मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं. लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे. अपनी सूबेदारनी से तुम ही कह देना, उसने क्या कहा था?’
‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ. मैंने जो कहा वह लिख देना और कह भी देना.’
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया. ‘वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे. तर हो रहा है.’
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है. जन्म भर की घटनाएं एक-एक कर सामने आती थीं. सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुन्ध बिलकुल उन पर से हट जाती है.
लहनासिंह बारह वर्ष का है. अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है. दही वाले के यहां, सब्जी वाले के यहां, हरा कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है. जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब ‘धत्’ कहकर वह भाग जाती है. एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा...‘हां, कल हो गई. देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?’ सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ. क्रोध हुआ. क्यों हुआ?
‘वजीरासिंह, पानी पिला दे.’
पच्चीस वर्ष बीत गये. अब लहनासिंह नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है. उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा. न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं. सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह अपने घर गया, वहां रेजीमेंट अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है. फौरन चले जाओ. साथ ही सूबेदार हजारसिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं. लौटते हुए हमारे घर होते जाना. साथ चलेंगे. सूबेदार का गांव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था, लहनासिंह सूबेदार के यहां पहुंचा.
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेड़े में से निकलकर आया. बोला, ‘लहना, सूबेदारनी तुझको जानती है. बुलाती है, जा मिल आ.’ लहनासिंह भीतर पहुंचा. सूबेदारिनी मुझे जानती है? कब से, रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं. दरवाजे पर जाकर ‘माथा टेकना’ कहा. असीस सुनी. लहनासिंह चुप.
‘मुझे पहचाना?’
‘नहीं.’
‘तेरी कुड़माई हो गई? धत्...कल हो गई...देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू...अमृतसर में...’
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली. करवट बदली. पसली का घाव बह निकला.
‘वजीरा, पानी पिला...’ उसने कहा था.
स्वप्न चल रहा है. सूबेदारनी कह रही है-‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया. एक काम कहती हूं, मेरे तो भाग फूट गये. सरकार ने बहादुर का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमकहलाली का मौका आया है. पर सरकार ने हम तीममियों की घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है. फौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ. उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी न जिया’ सूबेदारनी रोने लगी, ‘अब दोनों जाते हैं. मेरे भाग? तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे. आप घोड़े की लातों में चले गये थे और मुझे उड़ाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना, यह मेरी भिक्षा है. तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं.’
रोती-रोती सूबेदारनी ओबारी में चली गई. लहना भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया.
‘वजीरासिंह, पानी पिला...’ उसने कहा था.
लहना का सिर अपनी गोदी पर रखे वजीरासिंह बैठा है. जब मांगता है, तब पानी पिला देता है. आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला-
‘कौन, कीरतसिंह?’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, ‘हां.’
‘भइया, मुझे कुछ ऊंचा कर ले. अपने पट्टे पर मेरा सिर रख ले.’
वजीरा ने वैसा ही किया.
‘हां, अब ठीक है. पानी पिला दे. बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा. चाचा-भतीजा यहीं बैठकर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है. जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने मैंने इसे लगाया था.’
वजीरासिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे.
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा-
फ्रांस और बेलजियम-68वीं सूची-मैदान में घावों में मेरा-नं. 77 सिख राइफल जमादार लहनासिंह
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