जिन्दादिली शेख अयाज परिचय (जन्मः 2 मार्च 1932, मृत्युः 27 दिसंबर 1997) उनकी शिक्षा शिकारपुर में हुई. उन्होंने दर्शनशास्त्र में बी.ए. की ...
जिन्दादिली
शेख अयाज
परिचय
(जन्मः 2 मार्च 1932, मृत्युः 27 दिसंबर 1997)
उनकी शिक्षा शिकारपुर में हुई. उन्होंने दर्शनशास्त्र में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की. सन् 1948 में उन्होंने एलएल.बी. की उपाधि पाई और फिर कराची हाईकोर्ट में वकालत शुरू की. सिंध विश्वविद्यालय, जामशोरो में उपकुलपति (1976-1979) रहे. उन्होंने शाह के रसाले का उर्दू में अनुवाद किया. उनकी प्रकाशित कृतियां हैं- नीम की छांव पहले से घनी, जाकी बीजल बोलियो, कुलहे पातम कीनारो. उर्दू प्रकाशन में उनकी कृतियां हैं-बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, नीलकंठ और नीम के पत्ते. उनकी आत्मकथा ‘कहीं तो थकान तोड़ेंगे मुसाफिर’ बहुत ही विख्यात कृति है, जो चार खंडों में छपी है.
उसकी सादगी में चालाकी थी और चतुरता में सादगी. कभी बच्चे की तरह नाचती-कूदती आती और पीछे से आकर आंखे मूंदती, कभी अचानक मेरे सामने बाल बिखेरते हुए कहती-‘देखो तो कैसे लग रहे हो?’ और फिर आईना लेकर हाथ में दे देती. कभी मैं पेंसिल रखकर पानी पीने के लिए उठता तो उसकी नोक तोड़ देती और उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाता तो उसकी हंसी फूट पड़ती. कभी चुनरी को पगड़ी की तरह बांधकर आती और किताब मेरे हाथ से छीनते हुए कहती-‘कहो, अब क्या कहते हो?’
कभी पिन लेकर मेरी गर्दन में चुभाती, कभी शर्बत में नमक डालकर ले आती कभी भृंग फंसाकर, परों से पकड़कर मेरे सामने लाकर मुझे डराती. एक दिन हथेली पर बिच्छू ले आई. जाने कैसे उसका डंक निकाला था.
‘देखो मैंने इसको वश में कर लिया है.’ उसने कहा.
‘तुम तो आदमी को भी वश में कर सकती हो.’ मैंने शरारती नजरों से उसकी ओर देखते हुए कहा. उसके चेहरे पर शर्म की परछाई छा गई. बिच्छू को लेकर मेरी गोद में डाल दिया. मैं चौंककर उठा. उसको चोटी से पकड़कर कहा-‘कहो, फिर ऐसा करोगी?’
‘ना बाबा ना, मेरी तौबा, मेरी मां की तौबा!’ उसने चोटी छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा.
एक दिन दोपहर के वक्त मुझे आने में देर हो गई. वह खाना लेकर आई और मेरे लाख कहने पर भी एक-एक निवाला बनाकर मेरे मुंह में डालती रही.
‘औरतें सब बेवकूफ़ होती हैं.’ मैंने चिढ़ाते हुए कहा-‘तभी तो तुम भी परीक्षा में सफल नहीं होती.’
‘ठीक है.’ उसने गोश्त का कांटा रोटी में छिपाकर मेरे मुंह में डालते हुए कहा. मैं उस सख्त हड्डी को चबाते हुए मुंह बना रहा था, तो वह हंसती हुई वहां से भाग गई. मैंने गुस्से में कहा-‘बस अब आगे से यहां नहीं आओगी.’
‘अरे देखूं तो कितने दिन इस शोर में पढ़ पाते हो?’ उसने अपना मुंह मरोड़ते हुए कहा.
‘घर में अगर एक अक्षर भी पढ़ गए तो मैं मान जाऊंगी.’
मैंने सोचा, कह तो सच ही रही है. हमारा घर छोटा था और बच्चे बहुत.इसलिए मैं उसके घर आकर पढ़ता. उसके घर में सिर्फ दो सदस्य थे-‘मासी और वह. पर इसने भी तो मेरी नाक में दम कर रखा है. हर रोज नई शैतानियां सामने आतीं. खुद तो मैट्रिक में फेल होकर पढ़ाई का ख्याल ही छोड़ दिया था. अब मेरे पीछे पड़ी हुई है. एक दिन मेरे हाथ में कैमरा देखकर जिद् करने लगी कि मैं उसकी तस्वीर खींचूं. मैंने कमरे में पांव रखा ही था कि सब हंसने लगे, और वह इतना हंसी आखिर में पेट पकड़कर बैठ गईं. मैंने उतरे हुए चेहरे से पूछा-‘सब खैरियत तो है?’
‘तुम पर थोड़े ही न हंस रही थी हम.’ उसने अपनी हंसी रोकते हुए कहा. ‘तुम खुद ही बताओ कि क्या तुम्हारी सूरत ऐसी है, जिसे देखकर हंसी आए? तुम्हारी सूरत देखकर तो मुझे रोना आता है. फिर हंसी कैसे आएगी?’
‘अब यह बकवास बंद करो.’ मैंने भी उसे छेड़ा, यूं लोगों को देखकर तुम्हारा सर क्यों घूम जाता है?’
‘सर तो तुम्हारा पढ़-पढ़कर घूम गया है.’ ऐसा कहकर वह फिर हंसने लगी. ‘सच बताऊं, हम सब क्यों हंस रही थीं. मैंने जारा को बताया कि तुमने बी.ए. में दर्शनशास्त्र लिया है, जिस पर उसने तब फलसफा सुनाया कि कैसे एक दर्शनशास्त्री ने दीवार पर गोबर के थेपले देखकर कहा था कि गाय ने गोबर दीवार पर कैसे थोप दी और इसी बात पर मुझे बहुत हंसी आई.
एक बार मैंने प्रजातंत्र के उसूल समझाने की कोशिश की.
‘पर खुदा तो हमें प्रजातंत्र नहीं सिखाते?’ उसने कुछ सोचते हुए कहा-‘खुदा तो बहुत सारों को नर्र्क में डालता है और कुछ ही को, जिनमें मुल्ला, मौलवी हैं उन्हें स्वर्ग बख्शता है.’ वह तकरीर करने लगी-‘पर भई, यह स्वर्र्ग-नर्क का मामला भी अजीब है. मैं तो सोचकर परेशान हो जाती हूं. मैट्रिक में थी, तब मास्टर ने बताया था कि सूफी दरवेश कहते हैं कि इंसानी रूह में खुदा का अंश है. अगर ऐसा है तो नर्क में भी सिर्फ रूह जाती है और इसका मतलब ये है कि नर्क में खुदा जाता है.’ वह मजहब की बेमतलब, निरर्थक बातोें पर हंसने लगी. मैं सोचता रहा कि उसे ये शरारत भरे ख्याल क्यों आते हैं कि वह खुदा को भी नहीं बख्शती.
उसकी हंसी में जीवन था. जिंदादिली थी. हंसते समय उसके गालों में जैसे सफेद और सुर्ख गुलाब अपना सौंदर्य बिखेरते. उसके पतले-पतले होंठ शबनम में नम हो जाया करते. मैंने उसे मुस्कराते हुए तो कभी नहीं देखा, वह हमेशा हंसती थी और उसकी हंसी में जैसे सारी दुनिया का संगीत समाया रहता. उसके कहकहे में जैसे मासूमियत और शरारत हाथ में हाथ थामें नाचती और गायब हो जाती. तन्हा होते हुए भी गीत गाते रहती. आदमी देखती तो हंस बैठती. जैसे सारे जहान की खुशी उसकी रूह में घुली हुई थी. वह इतना हंसती थी कि उसकी आंखों से आंसू और मुस्कान साथ-साथ घुले-मिले थे. वह हर किसी को तंग करती थी पर कोई उससे ऊबता न था. मैं तो उससे नफरत इसलिए करता था क्योंकि मुझे उससे मुहब्बत थी और मुहब्बत इसलिए करता था, क्योंकि मुझे उससे नफरत थी-मीठी-मीठी नफरत, कसारी सी नफरत थी. दूर रहकर दूर रहना नहीं चाहता था. पास रहकर नजदीकी से ऊब जाता था. मेरी ओर की दो चचेरी-मौसेरी बहनें थीं, पर कोई भी इस जैसी अनहोनी न थी. किसी की इतनी मजाल थी कि मेरे साथ ऐसी-वैसी मस्ती करे. सभी मुझे किताबी-कीड़ा समझकर मेरी इज्जत भी करतीं और नफरत भी.पर यह जाने क्यों मुझे छेड़ती थी. मैं पुस्तक के किसी पन्ने में चिह्न डालकर बंद करके जाता तो वह पुस्तक-चिह्न किसी और पन्ने में रख देती. मैं फांउनटेन पेन में स्याही भरकर रखता तो वह स्याही निकालकर पानी भरकर रखती. मतलब यह कि अजीब शामत थी. मैंने कई बार सोचा कि उसके घर नहीं जाऊंगा. पर दो-ढाई घंटे घर में बैठता तो वह किसी को बहाने से मेरे घर भेजती-जैसे-‘अम्मा को सर में दर्द है, दवा तो दो’ और मैं बस दर्द की दवा लेने जाता तो संदेश लाने वाला गुम हो जाता और लाचार मुझे दवा लेकर उसके घर जाना पड़ता. अभी पहुंचता ही हूं कि हंसते हुए कहती-‘देखो, कैसी चतुरता से बुला भेजा, पता चला?’ और फिर रस्सी घुमाकर उछलने-कूदने लगती.
ऐसा भी नहीं है कि वह मुझे सिर्फ शरारत के लिए बुलाती है. मुझे याद है कि गर्मियों में मुझे पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाया करती थी और तेज गर्मी के कारण मैं करवटें बदलता तो किसी वक्त ठंडे हवा के झोंके से कैसे आंख खुल जाती तो देखता कि वह पंखा झालती होती. मेरी आंख खुलते ही पंखा मेरी पीठ पर दे मारती और यही कहते हुए उठ जाती-‘नींद में बात क्यों करते हो? हमारी नींद खराब होती है.’
जब मिलकर खाना खाने बैठते तो कहती-‘देखना, आज तुम्हें कैसे भूख से तड़पाती हूं.’ और फिर ठहाका मारती. पर मैंने देखा है कि वह बहुत कम खाती है. अच्छी-अच्छी चीजें मेरे लिए रखा करती.
एक दिन मुझे सख्त बुखार हो गया. सर फटा जा रहा था. मैंने बहन से माथा दबाने के लिए कहा. ठुनककर बोली-‘लगातार दो घंटे बैठकर मौसेरी बहन ने दाबा है. अभी भी और दबाने को कह रहो हो.’ मुझे पता न पड़ा कि बेहोशी की हालत में उसने मुझे राहत बख्शी. ऐसे कई मौकों पर मैंने महसूस किया कि उसको मुझसे हमदर्दी थी.
मैंने बी.ए. का इम्तिहान पास किया और उसमें पास गया. उसने कहा-‘मिठाई खिलाओ’ और ठहाकर मारकर कहने लगी-‘चल दिवालिए, तुम क्या खिलाओगे!’ मेरी मंगनी हो गई. वह आई और कहने लगी-‘मिठाई खिलाओ’ और फिर ‘चल दिवालिए, तुम क्या खिलाओगे’ कहकर ठहाका मारकर हंसने लगी. ‘मेरी शादी हो गई.’ वह आई और कहने लगी, ‘मिठाई खिलाओ’ और फिर उसी तरह ‘चल दिवालिए तुम क्या खिलाओगे’ कहते हुए हंसने लगी. मुझे बेटा हुआ. वह आई और फिर वही अल्फाज कहे-‘मिठाई खिलाओ’ और फिर ‘चल दिवालिए तुम क्या खिलाओगे’ कहते हुए हंसने लगी. मुझे बेटा हुआ. वह आई और फिर वही अल्फाज कहे-‘मिठाई खिलाओ’ और फिर ‘चल दिवालिए तुम क्या खिलाओगे’ कहकर हंस पड़ी. उसमें अभी भी वो मासूम शरारत थी. अभी भी जिंदादिली थी. अब भी हंसते-हंसते आंसू लुढ़क आते थे.
कल वह मेरे बेटे के साथ खेल रही थी. उसके साथ उसका अगाध स्नेह था. बच्चा घुटनों के बल थोड़ा-बहुत घूमना सीख गया था. जब वह उसके साथ खेल रही थी, मैं ऑफिस से लौटा. मुझे देखकर बच्चा ‘बा...आ...बा...आ...’ करने लगा. मैंने उठाने के लिए बाहें फैलाई, पर बेटे ने गर्दन से ‘ना’ करते हुए, उसकी छाती से लिपटते हुए कहा-‘अरे तेरी अम्मा तो रोटी पका रही है. ये है तेरी बुआ.’ बच्चे ने जैसे मेरी बात को अनसुना करते हुए, उसकी छाती से मुंह निकालकर उसकी ओर देखते हुए कहा-‘अम्मा’ अचानक मैंने देखा कि उसका चेहरा उतर गया और आंसू उसकी आंखों से लुढ़ककर गालों पर आए. मैंने हैरत से पूछा-‘क्यों, खैरियत तो है?’
उसने बच्चे को चूमा और उसके चोले में मुंह छुपाकर सुबकन लगी. मैं हैरान रह गया. आज शायद पहली बार कहकहे और आंसू दोस्ती तोड़कर जुदा हुए थे. जिंदगी हंसी का सहारा न ले सकी. आंसुओं ने जाब्ता पा लिया था. खुशी ने गम को चूमते हुए अलविदा ली.
00000000000000000
COMMENTS