प्राची - दिसंबर 2015 - एक गुनाह का अंत / कहानी / लियाकत रिजवी

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लियाकत रिजवी (जन्मः 1 मई 1963 नोशहरो फेरोज) वहीं से मैट्रिक करने के पश्चात् सिन्ध यूनिवर्सिटी जामशोरो से एम.ए. करने के बाद इस वक्त वे केड...

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लियाकत रिजवी

(जन्मः 1 मई 1963 नोशहरो फेरोज)

वहीं से मैट्रिक करने के पश्चात् सिन्ध यूनिवर्सिटी जामशोरो से एम.ए. करने के बाद इस वक्त वे केडिट कॉलेज में लाइब्रेरियन हैं. अनेक कहानियां, मकाले व मजमून लिखे. उनकी कहानी ‘जनम शहर में विछोह ना पल’ के लिये पहला इनाम मिला. 1994 में उन्हें ‘बादाम खातून’ कहानी अवार्ड दिया गया.

इस वक्त वे पी-25 केडिट कॉलेज, पेटारो में रहते हैं.

एक गुनाह का अंत

लियाकत रिजवी

र्मियों की एक मामूली सी रात थी. रात जमीन का लिबास बनी है. तारों से भरा आसमान और दक्षिण की हवा में जेल की इमारत, अचानक याद में बसी किसी नागवार बात की तरह खड़ी है. ड्यूटी पर मौजूद संतरी अपनी बेईमानी की रोशनी में निद्रालू जिस्मों के साथ आंख मिचौली का खेल खेलने में मसरूफ है.

अगर चांदनी रात होती तो पूरब वाली मंजिल के गुम्बज में खड़े सिपाही की सिगरेट में से निकलते धुएं को हवा के साथ खेलते, अच्छी तरह देख सकते थे. फिर भी तारों के कम उजाले में जब सिपाही सिगरेट का कश लेता है तो सिगरेट सुलग कर बुझ जाता है. ऐसे ही वह भी भीतर ही भीतर सुलग रहा है, और एक पल में वह भी समाप्त हो जाएगा. फिर भी पता नहीं कितने सालों तक सुरमई वक्त के किनारे, फीके रंग की जेल की इमारत अभी तक जिन्दा है, जिसकी एक तन्हा कोठरी में वह कैद है. उसे पता है कि कोठरी के धूप अंधेरे के सिवा, वहां एक सीलन भरा मटका भी है, जो बेगुनाह होते हुए भी कैद है और बिलकुल बूढ़ा हो चुका है.

हालांकि वह अंधा है, फिर भी देख सकता है कि कोठरी का दरवाजा कहां है और वह ऐसे दरवाजों पर खुलता है जो दुनिया की ओर खुलते हैं-वह दुनिया जो

आजाद और रोशन है. वह रोशनी उसने कभी भी अपनी आंखों से नहीं देखी है, पर उसने उसे अपने पूरे वजूद से महसूस किया है. यह अलग बात है कि उसके पास उस रोशनी को साबित करने के लिये पर्याप्त दलीलें नहीं हैं.

कोठरी का बंद दरवाजा इस वक्त इसलिये भी उसके बेनूर तवज्जो का केन्द्र है क्योंकि वह जानता है कि उनके आने का समय करीब है. अचानक उसे आभास होता है कि उसने सारी उम्र अलग-अलग चीजों और इंसानों को फकत उनकी आवाज के हवाले से ही देखा है, पर वह इस बात पर जरा भी हैरान नहीं है कि बेआवाज वक्त को पहचानने का कौशल भी उसे इस अंधी जिंदगी ने सलीके से सिखाया है.

वह पैदाइशी अंधा है. उसका बाप नशे और गुरबत के कारण वक्त से पहले ही बूढ़ा हो चुका था और उसकी मां अपनी जवानी आस-पड़ोस में बर्तन, झाड़ू-पोंछा जैसी बेरहम मेहनत में गंवा बैठी थी. उसकी बहन और दो भाई, बचपन में ही बीमारी की गली से गुजरते हुए मौत को जाकर मिले. बाकी एक बहन है, जो उससे तीन साल बड़ी होगी.

पैदाइशी तौर पर अंधा होने के कारण वह दुनिया को इस तरह नहीं देख सका था जैसी वह है, फिर भी वक्त गुजरने के साथ, वह दुनिया को एक तरह से साफ शफ्फाक देखने में माहिर हो गया था. उसने इस बात का उल्लेख किसी से भी न किया था कि वह अक्सर इस खौफ का शिकार रहता था, जैसे दुनिया अचानक ही उस पर हमला कर देगी और सख्ती से उस पर इस तरह हावी हो जाएगी जैसे रोशनी अंधेरे पर हो जाती है. हमेशा उसी डर को तवज्जो देता था जो कभी-कभी बाप के गुस्से में भरे, नफरत और पुरशोर आवाज के कारण, उसके अंधेरे वजूद में डर समाया रहता था और ऐसा अहसास उसके बचपन की याद का हिस्सा बन चुका था. वह बचपन जिसमें उसने बहन के साथ भीख मांगना सीखा था. हकीकत में भीख मांगने का ख्याल सबसे पहले उसे ही आया था. उसका सबब या तो घर में उसके पिता के लड़ाकू स्वभाव के कारण पैदा हुआ था, या फिर गुरबत, जिसके कारण ही उसके पिता बहुत ज्यादा नशा करते थे और उसी वजह से चिड़चिड़े भी रहते थे.

एक दिन उसने बहन से कहा, ‘‘बहन, मुझे शहर लेकर चलो!’’ शहर और उसके छोटे से गांव के बीच सिर्फ एक वीरान रेलवे लाइन बिछी हुई थी, जिस पर से सालों से कोई रेलगाड़ी नहीं गुजरी थी.

बहन ने हैरानी से सावधानी बरतते हुए पूछा था-‘‘भैया, तुम शहर चलकर क्या करोगे? तुम तो देख नहीं सकते?’’

‘‘तुम तो देख सकती हो बहन, मैं तुम्हारे कंधे पर हाथ रख कर चलूंगा.’’ और ऐसा कहकर उसने होंठों के बीच एक अंधी मुस्कान के साथ मुस्करा दिया.

‘‘पर तुम शहर में चलकर क्या करोगे?’’ बहन ने एक उलझे हुए अंदाज में पूछा.

‘‘बहन हम गरीब हैं, इसलिये मैं शहर में खैरात लूंगा, लोग मुझे अंधा समझकर जरूर खैरात देंगे!’’ भाई ने सफाई देते हुए कहा. पहले तो बहन मां-बाप के डर से नहीं मानी, पर फिर उसकी जिद और मिन्नतों के कारण राजी हो गई.

इस तरह वे दोनों मां-बाप से छुपकर शहर में भीख मांगने लगे. यह बात मां-बाप से छुपी रहे यह नामुमकिन था पर उन्होंने भी जमाने की गर्दिश व मुफलिसी की मार के कारण मजबूर खामोशी को गले लगाया. इसके बावजूद भी मां ने दबी-दबी आवाज में ऐतराज उठाया कि भीख मांगना अच्छी बात नहीं, लोग क्या कहेंगे वगैरह वगैरह.

पर उनके पिता की बेरहम खुशी के आड़े, वह भी चुप हो गई. मवाली बाप के लिये जैसे आमदनी की एक नई राह खुल गई थी. जिसे वह भीख में से बाप को देता था, उससे कुछ ज्यादा हिस्सा वह अपने पास छुपाकर रखता था. इस बात से पिता बिलकुल बेखबर था, वह फिर भी खुश था क्योंकि अब उसे बीवी से पैसे मांगने की जरूरत न रही थी. इस तरह एक मासूम अंधे बालक की जिंदगी को एक नया रुख मिल गया, जिसके एवज मे दोनों भाई-बहन एक दूसरे के आधार बन गए. उनकी मां बेपनाह खुशी के साथ उन दोनों के किस्से सुनाते हुए कहती थी कि कैसे दोनों भाई-बहन में से अगर एक भी बीमार पड़ जाता तो दूसरा भी बीमार लगने लगता. यह बात मां की नजर में बेहिसाब प्यार का सबूत थी. ऐसी वारदात को मां

अंधकारमय कथानक के रूप में प्रस्तुत करती थी कि अगर सारा शहर नहीं, तो कम से कम उस आस-पड़ोस में जहां वे भीख मांगने जाया करते थे, इस बात से बहुत प्रभावित हुए कि दोनों भाई-बहन में कितना प्यार है! प्रतिक्रिया के रूप में लोग उन्हें हमदर्दी और स्नेह से ज्यादा खैरात देने लगे थे.

कुदरती तौर पर जब उसकी बहन जवान हुई, तब पहली बार उसे लगा कि सच में वह अंधा है. उसकी आंखें तो बहन के कांधों में ही दफन हुई थीं, जिनपर वह अपना बायां हाथ रखकर अंधेरे के अनेक रास्ते चला था. सच्ची बात तो यह है कि अगर दुनिया में किसी मौजूदा सत्य के बारे में यकीन के साथ कुछ कह सकता तो वह फकत बहन का दायां कांधा ही था.

हालांकि वह बगैर आंखों के, असीमित अंधेरे का शहरी था, पर फिर भी आंखवालों के शहर की हवस से बखूबी वाकिफ था. यही सबब है कि जब एक दूसरे के बाद उसके माता-पिता दिवंगत हुए, वह बहन को लेकर एक नई चिंता के अधीन हो गया. इसी कारण वह अंधेरा उसके लिये छांव की बजाय घूप का साया बन गया. उसकी ख्वाहिश थी कि बहन की किसी योग्य आदमी के साथ शादी करा दें ताकि उसके ऊपर छाया यह अंधेरे का बोझ कम हो जाए. पर मुसीबत यह थी कि उसके रिश्तेदारों में ऐसा कोई योग्य वर नहीं था जो कि उसकी बहन को खुशी दे पाए. बहन को भी इस बात की भनक नहीं पड़ी कि उसका भाई उसकी चिन्ता से घिरा हुआ है, और न ही इस बता का अंदाजा था कि उसका भाई एक अंधा फकीर था, फिर भी भीख मांगकर एक खुशहाल जिंदगी से भी ज्यादा पैसा जमा किये हुए था.

एक दिन बातों-बातों में उसने बहन को बताया कि वह उसकी शादी कराना चहाता है, ताकि वह भाई के फर्ज को निभा सके और यह भी जताया कि वह उसे इतना दहेज देगा कि लोग दंग रह जायेंगे. बहन ने दुख भरे लहजे में कहा-‘‘भैया, मैं कभी भी शादी नहीं करूंगी, क्योंकि मेरे बाद तुम अकेले हो जाओगे. मेरे सिवा कौन है जो तुम्हारी संभाल करेगा?’’

उस वक्त तो उसे बहन का जवाब प्यार का उपहार और उम्र की नातजुर्बेकारी का नमूना लगा, फिर पता नहीं कैसे उसे अपनी तन्हाई का अहसास हुआ, जिसने उसके भीतर खुद की शादी का ऐसा बीज बो दिया, जिसकी फसल बहुत जल्द ही उसके जीवन की धरोहर बन गई. अपनी चाची के घराने की लड़की से शादी करने के बाद वह बिलकुल बदल गया. पत्नी ने आकर उसके जीवन के अंधेरे को और गहरा व बेमतलब कर दिया.

जो बात अब तक उसकी बहन से छिपी हुई थी, उसको पत्नी ने जाहिर कर दिया. अंधे पति का जमा किया हुआ पैसा, एक कच्चे और असुरक्षित घर को पक्की इमारत में बदल चुका था, और उस इमारत में उसकी बहन की हैसियत बदल गई थी. अब अंधे भाई को यह भी याद न रहा कि उसकी एक जवान बहन भी है जिसकी शादी का ख्वाब कभी उसकी

अंधी आंखों में बसा था. उसने अपनी शादी के बाद जैसे भीख मांगनी छोड़ दी थी और सदा घर में मौजूद रहता था. धीरे-

धीरे जमा की हुई पूंजी, जब खर्च हो जाने को थी तो अंधा भाई और उसकी पत्नी परेशान रहने लगे. पत्नी का विचार था कि उसे दोबारा भीख मांगनी शुरू करनी चाहिये, पर शादी के बाद साढ़े तीन साल उसने जिस तरह की जिन्दगी गुजारी, उसे देखते हुए मुश्किल था कि कोई उसे खैरात देगा, क्योंकि सभी जान गए थे कि पैसे के मामले में वह एक मालदार आदमी है.

जब अंधे ने पत्नी की भीख मांगने वाली राय को नकार दिया तो पत्नी ने उसके सामने एक और तरकीब रखी-जो थी अपनी बहन ‘सारा’ का रिश्ता किसी अमीर से करे जहां से कुछ पैसे वसूल होने की आशा हो. वह खुद भी तो ग्यारह हजार रुपये देकर उसकी पत्नी बनी थी. अंधे को यह विचार पसंद आया.

हकीकत में सारा यानी अंधे की बहन, एक सदाचारी लड़की थी, जिसने जिंदगी के संताप और यातनाएं सब के साथ झेली थीं, पर इस बार न जाने उसमें इतनी शक्ति कहां से आई कि उसने पैसों पर बिकने से इन्कार कर दिया. बहन के इन्कार पर पहले तो अंधा चुप रहा पर पत्नी के कहने पर उसके रवैये में सख्ती आने लगी.

जब अंधे की पत्नी ने साठ साल के एक सेठ से ‘सारा’ के रिश्ते के एवज में पच्चीस हजार रुपये लेकर विदाई की तारीख तय कर दी, तब भी सारा अपने नकारात्मक फैसले पर टिकी हुई थी. वह अपनी भाभी के साथ किसी भी मामले पर बातचीत करके उलझना नहीं चाहती थी, पर अपने भाई को जाहिर ढंग से धमकी दे दी थी कि अगर वह उसे बेचने की हठ पर टिका रहा तो वह घर छोड़कर मुर्शिद की हवेली पर जाकर पनाह लेगी-अफसोस कि ‘सारा’ को इस बात का अनुमान न था कि उसकी धमकी का अंधे भाई की सख्ती और जिद पर क्या असर पड़ेगा?

वह सोमवार का दिन था. विदाई में अभी चार दिन बाकी थे. भाई ने सारा को राजी करने की आखिरी कोशिश की थी पर राजी होने की बजाय सारा ने अपना सारा सामान समेटा और हवेली पर जाने की तैयारी करने लगी. दुखी दिल से वह भाई को अपने बचपन के दिनों की बातें याद दिलाती रही जो अब उनके बीच के नाजुक रिश्ते की खंडहर बनकर रह गई थी. कही अनकही बातें अधूरी रह गईं जब भाई ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर सारा का गला घोंटकर बेदर्दी से उसे मार दिया.

सारा के मृत जिस्म को कुछ पता न पड़ा कि वारदात पर सभी सबूत मिटाने के लिये उसकी भाभी ने बेदर्दी से उसके जवान जिस्म को इस्तरी से जलाया था. पर किसी तरह पुलिस असली हकीकत तक पहुंच गयी और उसकी भाभी को उम्रकैद की सजा और भाई को फांसी की सजा मिली.

और उसे फांसी की सजा पर अमल करने के वक्त जेल की कोठरी में आज उसके अंधे इंतजार को कुतर रहा है.

अंधा होने के बावजूद उसे मालूम है कि जेल में संतरी के आने का वक्त नजदीक आ गया है, जो उसे फांसी के घाट तक ले जायेगा. क्या फर्क पड़ता है अगर उसकी आंखें नहीं हैं. वक्त की आहट को पहचानने के लिये आंखों की जरूरत नहीं पड़ती.

वह बेनूर आंखों से पल-पल अपने अतीत में जाकर लौट आता, शायद बहन के कत्ल पर वह पछताना चाहता था, पर फांसी का खौफ उसे इतनी मोहलत नहीं देता. कुछ दूर से आती भारी कदमों की आवाज उसे अपनी फांसी का यकीन दिलाती है और उस का हृदय विलाप करने लगा.

जो सेवक, उसे फांसी के फंदे तक ले जाने के लिये आए, उन्हें कोठरी में फकत अंधे की लाश मिलती है.

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रचनाकार: प्राची - दिसंबर 2015 - एक गुनाह का अंत / कहानी / लियाकत रिजवी
प्राची - दिसंबर 2015 - एक गुनाह का अंत / कहानी / लियाकत रिजवी
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रचनाकार
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