प्राची - दिसंबर 2015 / सिंधी कहानीः संक्षिप्त इतिहास

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  जै सा कि सभी भाषाओं में होता रहा, सिंधी में भी पहले ऐसा हुआ कि कहानी वही कुछ कहती थी, जो उसका रचयिता उससे कहलाना चाहता था. ऐसा ही सिंधी क...

 

जैसा कि सभी भाषाओं में होता रहा, सिंधी में भी पहले ऐसा हुआ कि कहानी वही कुछ कहती थी, जो उसका रचयिता उससे कहलाना चाहता था. ऐसा ही सिंधी कहानी ‘कूधातूरें ऐं सुधातूरे जी गल्हि’ (कपूत और सपूत की बात, 1855) में दर्शाया गया. पहले की कहानियों में कहानीकार अच्छे इंसान और बुरे इन्सान में या तो सिर्फ अच्छाइयां होती थीं, या फिर महज बुराइयां. वह या तो श्वेत था, या श्याम. श्वेत और श्याम का मिश्रण नहीं. श्री लालचन्द अमर डिनोमल की आख्यानिका ‘हुर मखीअ जा’ (मखी के हुर लोग, 1910) भी कुछ ऐसी थी, जिसमें डकैतों का वर्णन हुआ है. वे डकैत बने तो क्यों बने, इस बात से लेखक का ज्यादा सरोकार नहीं. 1940 तक की सिंधी कहानियां बड़बोली थीं-वे ज्यादा बोलती थीं. परन्तु यह नहीं बताती थीं कि उनके पात्र ऐसे हैं, तो ऐसे क्यों हैं. चरित्रों और स्थितियों का उनमें स्वाभाविक चित्रण नहीं के बराबर है.

1936 और 1947 के बीच हमारे कई लेखक प्रगतिवाद से प्रभावित रहे. तब हमारे सिंधी कहानीकारों की कुछ कहानियों के नाम यों थे-‘अटो’ (आटा या रोटी), ‘लटो’ (कपड़ा) और ‘अझो’ (मकान). रोटी, कपड़ा और मकान की विकट समस्याएं उन कहानियों का वर्ण्य विषय रहीं. लेकिन फिर भी उनके ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा मार्क्स-लेनिनवाद के इन्कलाब के नारे से भिन्न था. ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे के साथ-साथ गांधीजी की जय का नारा भी बुलन्द होता था. उदाहरणतः उस कालावधि के एक प्रतिनिधि कहानी-संग्रह ‘सिंधी कहाणियूं’ (सिंधी कहानियां, 1947) की ‘अजीब बुख’ (अजीब भूख) को देखिये-एक बूढ़ा आदमी गांधीवाद द्वारा प्रेरित हड़ताल के दिन अपनी दुकान बंद नहीं करना चाहता, अपनी रोजी-रोटी गंवाना नहीं चाहता. हड़ताल कराने वाले कॉलेज विद्यार्थियों में से एक सुझाव देता है, ‘जोर जबरदस्ती दुकान बन्द कराना सही नहीं होगा, इस बुजुर्ग को पूरी बात समझनी चाहिए कि अंग्रेजी सरकार के विरोध में हम यह हड़ताल क्यों कर रहे हैं.’ आखिर में, वह बूढ़ा दुकानदार भी अपनी दुकान बन्द करके जुलूस में शामिल हुआ-जूलूस, जिसमें ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘गांधी जी की जय’ के नारे एक साथ लगते थे.

1947 के पश्चात प्रगतिवादी कहानी-लेखन को फिर से बढ़ावा मिला. देश-विभाजन के कारण विस्थापित हुए सिंधी लोगों ने एक बाद ‘अटो’ (आटा, रोटी), ‘लटो’ (कपड़ा) और ‘अझो’ (मकान) की समस्याओं का तीव्रता से अनुभव किया. 1960 तक आते-आते, भारत सिंधी लोग अपने पुरुषार्थ के बल पर (तब वे अपने को ‘शरणार्थी’ नहीं, ‘पुरुषार्थी’ कहलाना पसंद करने लगे) देश के कोने-कोने में बस गये. अब उनकी समस्याएं भिन्न थीं. ऐसे समय में मोहन कल्पना, लालपुष्प, और गुनो सामताणी उभरकर सामने आये. वे कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक-दूसरे से अलग-अलग होते हुए भी, इस अर्थ में एक समान थे कि उनकी कहानियों में चरित्रों और स्थितियों का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण हुआ. सत्तरोत्तर दशक में पोपटी हीरानन्दाणी, सुन्दरी उत्तमचंदाणी, विष्णु भाटिया, और ईश्वरचन्दर का सिंधी-कहानी-क्षेत्र में अधिकाधिक योगदान रहा. उनकी कहानियों में मानवीय धरातल पर आम आदमी और आम औरत का जीवन रूपायित हुआ. इनके अतिरिक्त, समकालीन कहानीकारों में श्याम जयसिंघाणी, कृष्ण खटवाणी, हरिकांत, जयन्त रेलवाणी, इंदिरा वासवाणी आदि हैं, जिनकी बदौलत आजकल सिंधी-कहानी की अप्रत्याशित प्रगति हुई है.

यहां विभिन्न उत्थानों में रचित सिंधी-कहानी की एक-एक बानगी प्रस्तुत की गई है.

सिन्धी कहानी में आधुनिकता का काल खण्ड 1960 के आसपास से लेकर 9वें दशक के मध्य तक का माना जाता रहा है. सीमित अर्थ में उसके चरम उत्कर्ष का समय लगभग 25 वर्ष रहा है. 1985 से लेकर कहानी रूपगत और विषयगत अर्न्तविधियों में फिर एक मोड़ ले रही है. इधर के कुछ वर्षों को यदि छोड़ दिया जाए तो विभाजनोत्तर सिंधी कहानी को दो वगरें में रखकर उन्हें अन्तर्सम्मुख बनाकर, उसके स्थितिगत और भावगत अंतरण की रूपरेखा बनायी जा सकती है. यद्यपि साहित्य का इतिहास, अन्तरण की प्रक्रिया को संभव बनाने वाली एक तीसरी श्रेणी के अस्तित्व को भी स्वीकार करता है. साहित्यिक विवेचन उन्हें प्रगतिशील, प्रयोगशील और आधुनिक संज्ञाओं से संबोधित करता है. (1985 से शुरू होनेवाला सांप्रत प्रवाह इनसे अलग है.) इन वर्र्गों में सम्य माना जा सकने वाला अतिक्रमण भी मौजूद है, क्योंकि विशुद्धताओें के आग्रह स्वयं साहित्य की प्रकृति के अंश ही नहीं हैं. सामाजिक अध्ययन की भाषा में कहें तो पहली श्रेणी की कहानी में जाति थी, जिसमें व्यक्ति को ढूंढ़ना मुश्किल था, दूसरी श्रेणी के साहित्य में व्यक्ति था पर उसकी जाति की पहचान पाना मुश्किल था/बना गया. यूं व्यक्तित्व (आत्म विरोधी अथरें सहित) दोनों श्रेणियों की कहानी में रहा होगा, पर इसमें यह विच्छिन्नता कैसे आ गयी, यही सन्दर्भगत कहानी या कहानीगत संदर्भ भी रसप्रद संघटना है. इस प्रकार के विग्रह अन्य साहित्य में भी मिलते हैं. पर यहीं आकर वे विभिन्नताएं पैदा होती हैं जिनसे किसी भाषा के साहित्य का निजत्व बनता है. वैसे, हमें यह न भूलना चाहिए कि जिस जाति के कहानी साहित्य की चर्चा हम यहां करने जा रहे हैं, इतिहास ने उसके जनजीवन के सूक्ष्म ऐक्य को भंग कर डाला है. विभाजन के बाद, प्रदेश की बजाय जाति के पास कुछ छोटे-बड़े अंचल रह गये थे. इतिहास उन्हें भी भंग करने की ओर लगातार उन्मुख है. यह सच इतना बड़ा सच है कि मैं इस आलेख का शीर्षक ही एक उन्मूलित जाति का आधुनिक कहानी साहित्य रखना चाहूंगा, क्योंकि उसकी कथित आधुनिकता के पार्श्व में उन्मूलन की भूमिका है.

पार्श्व भूमिका

विभाजन के बाद जो सिंधी जाति पहुंचती है, वह वरिष्ठ आलोचक हीरो शेवकाणी के शब्दों में-‘‘सामाजिक सौमनस्य के मुस्लिम बहुल समाज में सौमनस्य के साथ रहनेवाली एक ऐसी जाति थी, जो सापेक्ष रीति से कट्टरता मुक्त, गुणग्राही, प्रगतिशील, सामजंस्योन्मुखी जाति थी, जिसकी प्रजातीय, वर्णगत, और लाक्षणिकताएं, ऐतिहासिक आघातों से इस हद तक बदल चुकी थीं, कि उनका मूल एक धुंध में खो-सा गया लगता है. वहां सिंध (पाकिस्तान) में 75 प्रतिशत बहुमत के साथ रहने वाली इस जाति का भारत में अधिकतम केन्द्रीकरण किसी प्रदेश विशेष में दो-ढाई प्रतिशत से ज्यादा नहीं वहीं पूरे देश में बिखरी हुई है और देश की जनसंख्या का आधा प्रतिशत भी अपनी समग्रता में नहीं है. प्रकट है, उन्मूलन के बाद इस जाति के सामने सबसे बड़ा प्रश्न अपने भौतिक अस्तित्च का रहा होगा. पहले 20 वर्षों में अपनी सांख्यिक नगण्यता के बावजूद यह जाति जिस संघर्ष और अस्थिरता से गुजरी हुई होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है.’’ (‘शब्द ऐं संस्कृति’ पृ. 53)

इसी संघर्ष के काल की कहानी को प्रगतिवादी कहानी कहा गया. उसकी रूह प्रगतिवाद के बंधे हुए अथरें के साथ बंधी हुई थी, ऐसा कहना मुश्किल है, पर सामाजिक यथार्थ की कहानी अवश्य थी. पर सामाजिक घर्षण के कारण एक जाति अचानक अगर अपना स्वभाव खोकर, खुद को ‘प्रोलातरियोत’ स्तर के नजदीक पाये और अचानक उसका बुद्धिजीवी वर्ग प्रगतिवादी दर्शन के प्रति आकर्षित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं. वास्तव में इस काल की कहानी साहित्य के ऊपर प्रगतिवादी ढंग की एक ऊपरी छाया अवश्य रही, पर कहानी साहित्य कई अन्तर्धाराओं में विभक्त रहा, जिसका कम से कम एक सूत्र किसी न किसी रूप में जातीय अस्मिता से जुड़ा रहा. ऐसे कुछ अंतर्प्रवाह संक्षिप्त रूप से यूं प्रस्तुत किये जा सकते हैं. (ये अंतर्प्रवाह केवल विषय-गत विविधता को प्रस्तुत करते हैं.)

(क) विभाजन के दर्द की कहानियां, उन मानसिक विकलताओं को व्यक्त करती हैं, जिनके प्रति इतिहास सामान्यतया उदास रहता है. मातृभूमि के पूरे परिवेश से कट जाने की आन्तरिक पीड़ा के कई पर्द आनंद गोलाणी की ‘गामड़ो’, ‘सिंधड़ी अजा शल गोठ वसनि’, लोकनाथ जेटले की ‘विसारिया न विसरनि’, राम कुकड़ेजा की ‘उठु मामा गोगिड़ो’, ‘दाची वालिंया’, ए.जे. उत्तम की ‘इन्सानी जजबों’, कला प्रकाश की ‘खानवाहण’, ‘सुन्दरी उत्तमचंदाणी की ‘सिंधूअ जो रूप’, ‘पखी सुहिंजे पाहिंजे’, ‘तो जिनी तात’ कृष्ण खटवाणी की ‘मां राजा’, ‘सांईं’, ‘जिंदगी ऐं मौत’, मोती प्रकाश की ‘जेनी’, ‘रहमूं मवाली’, ‘मुहिंजो गोठू’, पोपटी हीरानंदाणी की ‘मुहिंजी नानी’, ‘सोनी अम्मां’, मोहन कल्पना की ‘वतन’ आदि की कहानियों में चढ़ते-उतरते रहते हैं. कहानियों में अन्दर तक दिखने वाली भावुक वेदनाएं हैं, जिनके उत्स बदली हुई स्थितियों की हवा में कहीं भी तैरते हुए मिलते हैं. मसलन कॉलेज के वार्षिक उत्सव के कार्यक्रमों में, ‘आज मोरे गामड़े, एक वार आवजो रे’ गीत में ‘गामड़ो’ शब्द सुनकर एक सिंधी व्यक्ति अर्ध चेतन की गुफाओं में खो जाता है, जहां सामने एक सिंधी गांव के ऐसे अनुभूति चित्र हैं, जिनकी स्मृतियां उसके हृदय का शूल बन जाती हैं. ‘गामड़ो’ कहानी की प्रतिध्वनि मर्मान्तक बन जाती है.

(ख) फिर देशान्तर के समय भेजी गई कटुताओं के अन्दर गहरे छिपी मानवीय उष्मा की कहानियां हैं. मिसाल, राम पंजवाणी की कहानी ‘मुहम्मद माडीअवारो’ है. लेखक भयाकुल भाग खड़े हुए सिंधियों में से एक है, जो मुसलमान टांगेवाले की गाड़ी पर सवार है. हर उपेक्षित अनपेक्षित शंका से उसके अन्दर भय की एक लहर उठती है, जबकि सच यह है कि वह गाड़ीवान उस कलाकार की सुरक्षा के प्रति ही अपनी सचेतता दिखा रहा था. इसका उल्टा गोबिंद माल्ही की कहानी ‘सूरन जी कहाणी’ में चित्रित है जो देश छोड़ने को मजबूर एक गरीब परिवार की गाड़ी में चढ़ने तक हर मोड़ पर ज्यादा लूटा जाता है. ऐसी ही सुन्दरी उत्तमचंदाणी की कहानी ‘मासूमइल्तजा’ भी है.

(ग) कुछ कहानियां देश छोड़ने के बाद, नयी धरती पर महसूस किये गये अजनबीपन, परायेपन, दमित तिरस्कार की कहानियां हैं. जैसे प्राकृतिक विपदा के समय इन्सान स्वार्थवश होकर अपनों का भी दुश्मन बन बैठता है. वैसे जाति के अंदर भी, कुछ हिस्सों में ऐसा घृणित स्वार्थ भाव आ जाता है, जो जाति के संवेदनशील लोगों को संज्ञा-शून्य बना देता है. गोबिन्द माल्ही का एक कहानी ‘सूरन जी कहानी’ का भाव, कुछ ऐसी हकीकत को दर्शाता है. भगवान टिलवाणी की कहानी ‘पखीअड़ा परडेह में’ दानों के लिए उलझते पक्षियों की प्रतीक भाषा में, जीवन का एक पक्ष प्रस्तुत करती है. तो गोवर्धन महबूबाणी की ‘पहिंजो परायो’ कहानी उसके दूसरे पक्ष को.

(घ) आजीविका और छोटी-छोटी जरूरतों के लिए जूझती जाति में किसी भी वर्ग का व्यक्ति कोई भी व्यवसाय, काम-धंधा या मजदूरी तक अपना लेने में आत्मसम्मान तो देखता है, पर इस आत्म सम्मान का, जिसे वह स्वावलम्बन कहता है, अपमान उसके लिए नागवार हो उठता है. सिंध की अप्सरा सी औरत ‘भूरी’ सुन्दरी उत्तमचंदाणी की कहानी में, बम्बई के उपनगरों में पापड़ बेचते हुए कोई शर्म महसूस नहीं करती. पर मोहन कल्पना की कहानी ‘सौमान’ का वेटर व्यंग्यबाण से आहत होकर मालिक से उलझ बैठता है. इसी चरित्र के कुछ भिन्न-सा कृष्ण राही की कहानी ‘ढोलू’ या तारा मीरचंदाणी की ‘गोपू’ और ‘हीअ कहिड़ी लगी हवा’ में मिलते हैं, जिसमें परिस्थितियों की निर्दयता बच्चों को उनकी उम्र में कहीं बड़ा बना देती है. जैसे जेठानंद ताब की ‘रोटी’, ‘नंढिड़ो कैदी’, सुगन आहूजा की ‘सरसब्ज नोट जो पाछो.’

(च) भूख, बेकारी और जिल्लतों में जीते हुए इन्सान, कई बार चरम क्षणों में अपना संतुलन खो बैठते हैं. विरोधों की खाई में अपना सच, ईश्वर आंचल की कहानी ‘प्यार ऐं पैसो’ में अपनी आंखों के सामने प्राण देते बच्चे को देखकर परवशता की हालत में एक व्यक्ति मां के सर पर कटोरा दे मारता है. कीरत बाबाणी की ‘...हू चरियो आहे’, फतन पुरस्वाणी की ‘पागल’ और ‘चरी’, सुन्दरी उत्तमचंदाणी की ‘खेमूं’, आदि की ऐसी आवेशगत मानसिक अतिरेक की कहानियां हैं.

(छ) फिर कहानियां हैं कैंपों के नारकीय जीवन की. शरणार्थी होने के लांछन और तिरस्कार की, विभेदों से उभरती उपेक्षा और असहायता की. गुनो सामताणी की कहानी ‘एक रात’ में छत के नीचे, आंधी-बारिश में ठिठुरता रात-बिताता एक कुटुम्ब है, मोहन कल्पना की कहानी ‘सरकारी दफ्तर’ में पूंछ हिलाते पात्र हैं. आनन्द गोलाणी की ‘चरियो’ कहानी में खोदड़ोमल पात्र विभाजन की विभीषिका को सहन करने में असमर्थ पाकर गांधी के लिए कहे गए-अपशब्द हैं. इनकी ही कहानी ‘हिकु गोढ़हो’ में भूखी, बच्चे के लिए छातियों में दूध उतरने का इन्तजार करती मां है. गोबिन्द पंजाबी की कहानी ‘सुरुगु-नरगु’ में बीमारी से मृत लाशों के ढेर में अपनी मासूम लड़की की लाश ढूंढ़ते एक मास्टर हैं. इनकी एक और कहानी ‘कानन’ में चोरी-छिपे, चावल बेचते, पकड़े गए पति-पत्नी हैं जिनकी छः साल की अकेली संतान को जिले में रहने की अनुमति नहीं, जबकि मां-बाप के लिए यही सजा है. ऐसी कई कहानियां हैं-मोती प्रकाश की ‘घर-घर की कहानी’, कृष्ण राही की ‘चांवर वारियूं मायूं’, जेठानंद ताब की ‘रोटी’, ‘मुकाबिलों’, ‘बुख’, कृष्ण खटवाणी की ‘गाल्हाईदंड़ भितियूं’, आदि, जो अपने समय के कटुतम अनुभवों को उजागर करते हैं, जिनसे जाति गुजर चुकी है.

(झ) एक छोटा सा अंतर्प्रवाह उन कहानियों का है, जिन्हें चाहें तो सहजीवन की स्मृति या मानवीय करुणा अथवा बंधुता की कहानी माना जा सकता है, जो विडम्बनाओं के बावजूद, संकुचित भावों से हमें मुक्त रखती है. नारायण भारती की कहानी ‘दस्तावेज’ में जोहरमल यह सोचकर क्लेम के कागजात दाखिल नहीं करता है कि कहीं उसे क्लेम देते वक्त सरकार वहां, सिंध में, उसके घर में रह रहे अजीज दोस्त रसूल को घर से बेदखल तो नहीं कर देगी? दूसरी ‘क्लेम’ कहानी में उसका पात्र पूरे

‘सिंध’ के लिए दावा प्रस्तुत करता है, क्योंकि वह यह मानने से इन्कार कर देता है कि वह सिर्फ अपना ही घर छोड़कर आया है. इस संवेदना की कई और भी कहानियां है.

यह उस कथा-भूमि की रूपरेखा है, जिसे मैंने प्रथम श्रेणी की कहानियों में रखना चाहा है. विशेषतः इस उद्देश्य से कि जाति की अस्मिता के अदृश्य उन्मूलन को समझने से पहले, उसके दृश्य उन्मूलन को जान लिया जाए. ये ही वे कहानियां हैं, जिनमें जाति तो दिखती है, पर व्यक्ति नहीं दिखता, जबकि उसका व्यक्तित्व फिर भी झलकता है. आप इसे चाहें तो सामाजिक यथार्थ की कहानियां मान लें, या प्रगतिशीलता की छाया में लिखी गयी कहानियां मानें. वैसे आज पुनः दृष्टिपात किया जाय तो ‘प्रगतिशील’ विशेषण ज्यादा समीचीन नहीं लगता, क्योंकि कहानियों में निम्न वर्ग के समरूप जीवन जीती जाति के यथार्थ का चित्रण भरा है. ऐसी जाति, जिसके पास अपना किसान और मजदूर वर्ग नहीं है. और न ही जिसके पास वर्गबद्ध या क्रांति का कोई शास्त्र है. पर ऐसे ऐतिहासिक मोड़ो के समय श्रम शक्ति पर, विश्वास करने वाली एक सहनशील जाति अगर वैज्ञानिक समाजवाद के प्रति रुझान दिखाये तो उसे असंगत भी नहीं माना जा सकता.

इसके बाद धीरे-धीरे घूमता कालचक्र कुछ परिणाम तेजी से लाने लगता है. बिखराव के बावजूद जाति, देश के कोने-कोने में, भौतिक रीति से स्थिर होने लगती है. बाहरी परिस्थितियों का संदर्भ बदलने लगता है. भारत में जन्मी एक नयी पीढ़ी उभरती है, जो सिन्ध की संस्कृति की भावुकताओं से मुक्त है. वह देश के परिवेश में, प्रगति का भी जीवन-मूल्यों की तरह उपयोग करती है. नयी शैक्षणिक और वैज्ञानिक रीति-नीतियों से परिचित होती है. जमीन के किसी विशेष हिस्से में जड़ों का न होना, सामाजिक प्रारूप का अस्थायित्व, अनेक छोटी-मोटी रूढ़ियों का स्वयंमेव क्षीण हो जाना, जाति को एक गतिशील रूप में बदल देता है जो बड़ी आसानी से बाहरी स्थितियों में समायोजित हो जाता है. कहानीकार को लगा कि उससे अचानक, जाति का विशिष्ट संदर्भ छिन गया है. अब वह सिंधी-चरित्र को समायोजित परिस्थितियों में खोजने लगा. पहली बार उसे लगा कि परिस्थितियों के अतिरिक्त भी व्यक्ति का अपना एक संसार है. एक मनो-जगत है. अन्तस की विषमताएं हैं. चेतन-अचेतन के बीच में एक गोचर-अगोचर माया जाल है. व्यक्तिगत अंतर्द्वन्द्व है. दूसरे किस्म की क्षुधाएं और पिपासाएं हैं. लाल पुष्प, गुनो सामताणी और मोहन कल्पना की कहानियों में मनुष्य के मानसिक जगत के वे छोटे-छोटे द्वीप प्रकट होने लगे, जो अब तक जाति-गत प्रश्नों के प्रवाहों में डूब गए थे. स्त्री-पुरुष के संबंधों की संकुलताएं सम्मुख आने लगीं. मनोग्रंथियों की विक्रताओं में वह व्यक्ति विशेष मोहर लगाना आवश्यक नहीं रहा. इन कहानीकारों ने बाहर की जातियों से तो अपने पात्रों की रक्षा की, पर उनकी अंतर्भाषाओं को वे अनायास दूसरी जातियों की तरफ ले जाने लगे. उनकी मूल दृष्टि वही थी, जिसे अंग्रेजी में रोमांटिक कहा जाता है. कल्पना-सृजित अंतर्द्वन्द्व का एक ऐसा संसार, जिसमें कुछ स्व-केंद्रित जीव बड़ी हद तक स्व-रचित समस्याओं से उलझते हुए बाहरी संसार के प्रति निर्द्वन्द्व से रहे. फिर भी इन कहानीकारों के प्रयास से कहानी में एक विषय गहनता का प्रवेश हुआ. कुछ नयी जीवन दिशाओं का उद्घोष हुआ. कहानी पर से ‘सन्देश’ का बोझ हटा और कहानी में व्यक्ति का ‘स्व’ एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा. एक रचनात्मक प्रभाव यह हुआ कि पहली बार कहानी का शिल्प लीक से हटता हुआ दिखायी दिया. भाषा की जीवन्तता के अलावा, अब तक के कहानीकार वस्तु, पात्र और देश-काल की शैली में अपनी कहानियां कहने को किसी कलात्मक प्रयोगशीलता का प्रमाण दे नहीं पाये पर अब कहानीकार ने महसूस किया कि माध्यम के रूप में कहानी स्वयं एक बड़ा चैलेन्ज है, जिसकी अनंत संभावनाएं हैं. कथा कह देना मात्र कहानीकार का रचना धर्म नहीं है. कुछ नाम लिये जायें, तो ‘मुक्ति’, मोहन कल्पना की ‘चांदनी ऐं जहरु’, ‘दर्द ऐं सपनों’, ‘प्यार ऐं पाप’, मोही निर्मोही, गुनो सामताणी की ‘खण्डहर’, ‘अपराजिता’, ‘अभिमान’, ‘प्रलय’ इस समय की विख्यात कहानियां हैं.

कहानी साहित्य का आधुनिक युगः

फिर अचानक मानो एक विस्फोट सा हुआ. 1960 के आसपास सिंधी में नये कहानीकारों की पूरी एक पीढ़ी उभर कर सामने आयी. उनके सिर्फ चेहरे ही नये नहीं थे, पर कहानी के क्षेत्र में कुछ ऐसा हो रहा है, जो मानो परम्परा से फूट कर नहीं, टूट कर आ रहा है. इन नये चेहरों में सिंधी कहानी ने स्वयं के आयास या अनायास ‘आधुनिकता’ के कगार के निकट पाया. यह आधुनिकता नयेपन की सूचक तो थी ही, पर रचनात्मक स्तर पर उस क्रांतिधर्मिता को भी साथ लायी थी, जिसकी अनुगूंज कुछ समय पहले से भारतीय साहित्य में सुनायी पड़ने लगी थी. अगर सूक्ष्मता से परिप्रेक्ष्य की जांच की जाए, तो अन्तर्राष्ट्रीय प्रभावों से लेकर स्थानीय तत्वों तक उसके लिए उत्तरदायी दिखाई पड़ेंगे. औद्योगिक क्रांति और महाभारी युद्धों से पैदा मानवीय मूल्यों से टकराकर काया-कलप से गुजरता कथा-संसार, कविता में छंदमृत्यु, कथा में कथा मुत्यु और चेतना-प्रवाह, चित्रकला में कॉलाज और एब्सट्रेकिश्नज्म, संगीत में एन्टोनालिज्म, नाटक में नाटकीय तत्वों की अ-रचना, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, क्यूबिज्म, इन सबके मिले जुले संकेत तो थे ही, भारतीय जीवन में स्वतंत्रता का मोह भंग व राष्ट्रीय जीवन में देशी शैली का मूल्य ह्रास था. भयानक गरीबी, विषमताएं एक तरफ, जीवन की बढ़ती भौतिकता और आर्थिक साधनों का केन्द्रीकरण, दूसरी तरफ था. इधर सिंधी जाति यूं तो आधुनिकीकरण के पथ पर थी, पर उसकी आन्तरिक उपलब्धियां टूट रही थीं. सिंधी शिक्षा की जगह अंग्रेजी शिक्षा, अपने सांस्कृतिक दायरे के प्रति उदासीनता, भारतीय समाज में आत्म-विलय की सीमाओं को छूता हुआ समायोजन, स्थानीय जीवन में बहुमति प्रभावों की स्वीकृति, व्यावहारिक जीवन में सिंधी भाषा की उपेक्षा, उद्योग और व्यापार में पश्चिमी प्रभाव, आर्थिक दबावों से पैदा हुई गतिशीलता, भूमि से कटता हुआ आत्मीय-भाव, ग्राम्य जीवन का पतन, अंतर्जातीय विवाहों की बढ़ती हुई संख्या, कथित आधुनिकीकरण और आर्थिक वैभव सुरक्षा कवच में अपनी अनुभूतियों से मुक्ति ढूंढ़ता इन्सान, जो अपने संघर्ष काल में फुटपाथ और गुमटियों में अपने भविष्य के प्रति जितना निश्चित था, अब लैट्स और अपार्टमेंट में उसके प्रति उतना आश्वस्त नहीं रहा-ये सारे परिवर्तन सही अर्थों में विभाजन की व्यंजनाएं व्यक्त कर रहे थे और जाति को सांस्कृतिक शून्यता की ओर धकेल रहे थे.

तब, तब सिंधी कहानी में एक ऐसा व्यक्ति उभरा, जिसकी पहचान कर पाना मुश्किल हो रहा था. कहानी पूरी तरह से अन्तर्मुखी बन चुकी थी, पर क्योंकि उसका लक्ष्य अन्तस की अराजकता को व्यक्त करना था, इसलिए उसके रचनागत तत्व भी अराजक लगने लगे थे. कहानी में भावुकता, प्रयोग पाठ, लोकरंजक या सामाजिक दायित्व या सामाजिक सुधार या परिवर्तन का तो मृत्यु घंट बज गया. कथित प्रगतिशीलता से भी, कलाकार विमुख हो गया, क्योंकि उसके मद्दे-नजर तो जाति का जीवन प्रतीकों का एक जंगल बन गया था. फिर जाति का जीवन-वृत्त का अंग था, जो व्यापक स्तर पर आधुनिकीकरण की प्रतिभाओं में अंतर्गुम्फन की अनेक असंगतियां पैदा कर रहा था. यहां के समाज की अनेक संकुलताएं हैं. बेपनाह गरीबी है, तो खोखली सैद्धांतिक और दोगलापन है. भीड़, शोर, गन्दगी, अन्याय, अर्थहीन वाचालता भी है. व्यक्ति स्तर की अनेक दमघोटूं रीतियां और प्रथाएं हैं. फिर औद्योगिक सभ्यता के बोझ के नीचे दबते टूटते जीवन मूल्य हैं. खुद ‘भारतीयता’ या भारतीय अस्मिता शब्दों के बहाव में हैं. ऐसे मोड़ पर सिंधी कहानी में आधुनिकता का प्रवेश हुआ. प्रख्यात कहानीकार-आलोचक हरीश वासवाणी ने अपने निबंध, ‘आधुनिकता के आस-पास सिंधी कहानी’ में लिखा था-‘‘इस पूरे परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता का अन्तः प्रवेश केवल विदेशी साहित्य के प्रभाव के कारण सीधे सिंधी कहानी में हो, ऐसा कहना ऐतिहासिक गलती होगी. पर ये प्रभाव परिवर्तित और पुनः परिवर्तित ढंग से हमारे साहित्य में आये, तो यह बहुत स्वभाविक माना जायेगा. स्वाभाविक और अनिवार्य भी, शायद आवश्यक भी, वरना समकालीनता की विभावना टूट जाती है.’’

नये कहानीकारों का मानव शब्द अनुभव की सच्चाई है या सच्चाई की अनुभूति है. ऊपर से दिखने वाली समाज विद्रोही मुद्रा है. कुण्ठा, सन्यास, अतृप्तियों के अंतर्जाल हैं. और व्यवस्थित कथा तत्व, चरित्रांकन और मन विच्छेद जैसे पारंपरिक कथा तत्वों के प्रति कोई आसक्ति नहीं है. उसके अभिव्यक्ति प्रयोग कई बार ‘अ-कहानी’ के अन्वेषण का आभास देते हैं. उसकी भाषा बदल चुकी है. वह अपने समय के प्रभाव के लिए अब ज्यादा बोल्ड हैं. वह प्रतीकात्मक ढंग से बात करता है, तो कभी कवि की तरह बिम्बों की भाषाएं बोलता है. दो बातें निश्चित हैंः ‘नायकत्व की परिकल्पना का वह त्याग कर चुका है और किसी जाति विशेष के सामाजिक जीवन को प्रतिबिंबित करने का दायित्व भी वह छोड़ चुका है.’

इस काल के मुख्य कहानीकारों और उनकी उपलब्धियों का संक्षिप्त रेखांकन प्रस्तुत करने के पहले मैं के.एस. बालाणी की कहानी ‘प्रभा और क्रांति’ का उल्लेख करना चाहूंगा, जिससे एक सिंधी ब्राह्मण विधवा के अंर्तसंघर्ष को, द्वार पर रह रहकर रोते हुए कुत्ते की सर्द आवाज द्वारा बड़े मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. यह कहानी आनेवाली कहानी का एक पूर्व संकेत थी, जो लगभग एक दशक पहले लिखी गयी. लाल पुष्प की कहानी ‘रोशनीअ जो हिकु गुम थियलु टुकरो,’ इस प्रवाह का एक निश्चित संकेत थी, जिसमें मनुष्य के ‘स्व’ के खो जाने का दर्द था.

नयी पीढ़ी के कुछ कहानीकार हैंः लालपुष्प, अनंद खेमाणी, श्याम जयसिंघाणी, ईश्वरचन्द्र, मोहन कल्पना, हरीश वासवाणी, हीरो शेवकाणी, मोहन दीप, नामदेव, कृष्ण खटवाणी, लखमी खिलाणी, हरिकांत, तीर्थ चांडवाणी, बृजमोहन, मोतीलाल जोतवाणी, प्रेम प्रकाश आदि.

लाल पुष्प की कहानियां ‘कर्ज जी दरख्वास्त’ और ‘बोरियत जो अहसास’ तंत्रगत पेचीदगियों में फंसा हुआ अमानवीकृत इन्सान है. लाल पुष्प अपूर्ण वाक्यों, आधे-अधूरे प्रश्नों, सांकेतिक विरामों के बिना, मध्यमवर्गीय सिंधी जीवन की वेदनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से एक सपाट बयान वाली, पर हृदय को छू जानेवाली रीति से प्रस्तुत करते हैं. वे मुख्यतः मानवीय संबंधों के खोखलेपन की ओर निर्देश करते हैं. ईश्वर चंद्र की नगर जीवन की ‘न मरण जो दुःख’ कहानी में वृद्धा मां की मृत्यु का विश्वास पैदा होने पर प्रोविडन्ट फण्ड से पैसे निकाल कर औपचारिक उपचार करता हुआ क्लर्क मां के ठीक हो जाने पर दुःखी हो जाता है. श्याम जयसिंघाणी नगर जीवन में अभिशापों के चित्रकार हैं. उनकी एक कहानी ‘विछोटीअ में छलांग’ का पात्र, उस पूरे नाटक की अर्थहीनता का अहसास लिए बिना नहीं रहता, जिसमें सामाजिक रिवाज ने उसे एक भूमिका दे दी थी. ‘हिक कूए जो मौत’ में एक व्यक्ति आज किसी तरह लड़े गए चुनावों में चयन करने में असमर्थ है, उसकी इस विवशता का चित्र है. अनंद खेमाणी दमित वासनाओं की वक्रताओं को सामने लाते हैं. विष्णु भाटिया मानवीय तुच्छताओं, नैतिक धूर्तताओं और सांस्कारिक विरोधाभासों के नकाब उघाड़ते हैं. उनकी कहानियोें में आये आत्मलाप, प्रतीक शब्द, विश्रृंखलित कथाक्रम शैली की याद दिलाते हैं.

हीरो शेवकाणी की कहानी ‘पोट्रेट हिक पीउजो’ में पिता की मृत्यु के साथ बरती गयी उपेक्षा का निराकरण करता पुत्र अपने ड्राइंग रूम में उसका पोर्ट्रेट टंगवा कर अपराध भाव से मुक्त हो लेता है. मोहन दीप की कहानी में एक क्लर्क है, और कहानी का शीर्षक ‘रिढूं’ (भेड़) है-टिप्पणी व्यर्थ है. बृजमोहन की कहानी ‘पूंछ’ में पूंछ हिलाता अधीनस्थ सचमुच इस आश्चर्य से प्रताड़ित है कि ईश्वर ने आखिर इन्सान को पूंछ से वंचित ही क्यों रखा? गोवर्धन तनवाणी की कहानी ‘रोज’ का क्लर्क जीवन के दुहराव से तंग आकर आत्मदया में जीने लगता है. लखमी खिलाणी की कहानी ‘नांग’ में वैभव से पैदा हुई मूल्यहीनता के सर्प से एक नारी आतंकित है. प्रेम प्रकाश की कहानी ‘पाडूं’ में एक व्यक्ति अपने पड़ोस में भावनात्मक स्तर पर अपनी जड़ें खोजने की चेष्टा करता है, पर अन्त में संबंधहीनता ही उसके पल्ले पड़ती है.

कुछ और कहानियों का नामोल्लेख अप्रासंगिक न होगा. शरीफ माण्हू गाड़ीअ में, जवाब, घोटालो, पत्थर जो दुश्मन (मोहन कल्पना), रोशनीआ जो गुम थियलु टुकरो, हिक सर्द दीवार, मशीन में लगायलु हिक पुर्जों (लाल पुष्प), अंदर जो जामड़़ो, सक्ष्त चेहरेवारो, कमजोर नसुनि वारो घरु, पहिंजे ई घर में, (ईश्वर चंद्र) घिटियुनि में घुमंदड़ु शख्स, मरी वियलु इन्सान, ओपरो (कुष्ण खटवाणी), दाग (पोपटी हीरानंदाणी), सिलसिलो, हिक जज्बे जो मौत, वे आफ लाईफ, वदे शहर में (हरीश वासवाणी), आत्महत्या, जिंदगी ऐं कैक्टस (हीरो शेवकाणी), इरादो जदहिं ऐंजींअं जो, पहिंजे ई कहिं हिस्से जी गोल्हा, विछोटीअ में छलांग, झूलकड़ा (श्याम जयसिंघाणी), टुटल अक्सन जा जोडुं, लाशन सां भरियलु कमरो (विष्णु भाटिया), हिक मामूली घटना, बीठलु वक्तु, पलटाव, अणहूंद (हरिकांत), रफू थियलु कोटु, किलीअ में टंगियलु लाशु (तीर्थ चांडवाणी), फियान्सी (नामदेव), गुलाम (गोर्धन तनचवाणी), नओ कमरो (नारी पदम) और कई कहानियां.

यह तो मैं स्वीकार कर चुका हूं कि आधुनिक कहानी में जिस व्यक्ति को चित्रित किया जा रहा है, उसका चेहरा पहचाना नहीं जा सकता. वह सिंधी ही हो ऐसा कहानी अनिवार्य रूपेण छवित नहीं करती. पर मैं यह भी कह चुका हूं कि आत्मविरोध तक को व्यक्त करनेवाला एक व्यक्तित्व के छोर को छू लेती हैं. इनमें लखमी खिलाणी ने तो अलग ही ढंग से सिन्धी जीवन का चित्रण प्रस्तुत किया है. मसलन ‘पुठीआ जो कण्डो’ कहानी में एक सिंधी शाहूकार अपने सिंधी नौकर को भागीदार बनाने का दिलासा देकर, वक्त आने पर उसे ठुकरा देता है, ‘पिञरो’ कहानी में एक लड़की विवश होकर एक बंगाली से शादी करती है पर जीवन भर मातृ-भाषा न बोल सकने के दुख से पीड़ित रहती है. ‘चोटीअ ते वठलु माण्हू’ में एक व्यक्ति सिंधी जीवन की स्मृति मात्र से गुजर कर उसे भूल जाता है, और ‘अजल जा सर्द पाछ’ में हड़ताल और गोलीबाजी में एक सिंधी व्यापारी दुकान खोलकर कुछ पाने का मोह नहीं छोड़ पाता.

ईश्वरचंद्र के सभी पात्र अपने विषय विस्तार, चारित्रिक, मानसिकता, व्यवहार और रीति-रिवाजों की दूर की परछाइयों में सिंधी होने का विश्वास पैदा करते हैं. यद्यपि ऊपरी तौर पर सामान्यतया वे किसी भी जाति के मध्यवर्ग में हैं, ऐसा अहसास होता है. लाल पुष्प की कहानी ‘खाल ही खल’ में अमीर होने पर सिंधी व्यक्ति को सिंधी बस्ती के वातावरण से ऊब होती है. मोतीलाल जोतवाणी की कहानी ‘धरतीअ सां नातो’ में महानगर में मल्टी स्टोरी बिल्डिग में अलग-अलग जातियां, अलग-अलग रखे गमलों की तरह जीती हैं. संकेत सिंधी जाति के भूमिहीन होने की तरफ है. हरि लिखते हैं. जैसे ‘मिट्टी मोरेजी’, ‘आग अजा बरे पई’, ‘घर’, ‘थाली’, आदि. इसी प्रकार विष्णु भाटिया की ‘नसरपुर वारी मासी’ और ‘जमीन खां उखड़ियलु’ कहानियां हैं. सुंदरी उत्तमचंदाणी की ‘विलायती घोट जी गोल्हा’, ‘सिंधी थी विया दाणो दाणो’, ‘देहु थियो परदेहु’; भगवान अटलाणी की ‘वण जो कटियलु दारु’, लक्ष्मण भंभाणी की ‘जबूर धड़ियू’; भगवान अटलाणी की ‘वारन में उलझियलु माजी’ आदि कई कहानियां बड़े शहरों में सिंधी जीवन के बदलते मूल्यों की कहानियां हैं. पोपटी हीरानंदाणी ने बड़े शहरों में सिंधी जीवन के बदलते मूल्यों की कहानियां लिखी हैं.

हमारे पास आधुनिक जीवन के समान्तर नये पुराने कहानीकारों की ऐसी भी पंक्ति है, जो सिंधी जीवन के बचे खुचे विविध रूपों या सिंधी स्मृति, अथवा भारतीय जीवन में आत्मसात होती सिंधी जाति के कुछ पक्षों पर कहानियां लिखती है.

पर लगता है कला जगत में भी संसार के अन्य सत्यों की तरह रचना प्रक्रिया बड़े सूक्ष्म रूप से संचरित होेती है. परिणति की ओर ले जाने वाले उसके बिन्दु वियोग और मिलन के अनेक संयोगों से गुजरते हैं. इसका प्रभाव ‘ज्ञानपीठ’ के अन्तर्भारतीय संकलनों में छपी दो सिंधी कहानियां हैं. इनकी स्तरीयता को लेकर किसी ने कोई शंका उपस्थित नहीं की, पर जो सिंधी जीवन के उन दो छोरों को छूती हैं, जो एक प्रकार से एक दूसरे के पूरक हैं. उनसे जो सत्य उभरता है, वह एक प्रकार से यथार्थ की आधुनिकता को समग्र ढंग से कह डालता है. हरीश वासवाणी की ‘घण्टी’ कहानी में एक व्यक्ति परिस्थितिवश जीवन के अंतिम दिनों में देश के उस खण्ड में रहने को मजबूर है, जिसकी वह भाषा नहीं जानता. उसकी बहू दूसरी जाति की है, उसके पोते भी दूसरी भाषा बोलते हैं. उसके अति व्यस्त बेटे के पास उससे बात करने का समय नहीं. एक चंगा भला इंसान गूंगा और बहरा हो जाता है. दिन का एक बड़ा अर्सा वह अकेला उस घण्टी के पास रहता, सोता है, जो आसन्न मृत्यु को पहचान कर उसे खुद बजानी होगी. पर उसका संकट यह है कि ऐसे क्षण में भी वह किसी से किस भाषा में बोल पायेगा? उधर श्याम जयसिंघाणी की कहानी ‘एन अदर डे’ (कृपया शीर्षक के अंग्रेजी होने पर ध्यान दें) का पात्र चाहुंगा. यद्यपि उसे इस रूप में प्रस्तुत करना निरापद नहीं है. मैं इसे संयोग ही मानूंगा कि 1985 के बाद की कहानी इन्हीं दोनों ध्रुवों के बीच गुजर रही है. अगर परिचित हस्ताक्षर हरिकांत ‘आन्धमांध’, ‘हिक थकल मुस्कराहट’ लिखते हैं, तो ‘अदर डे’ की परिधि के किसी कोने पर होते हैं. नये सशक्त हस्ताक्षर सतीश रोहड़ा ‘रिश्तों’ और अन्य कहानियां निरपेक्ष सरलता से लिखते हुए भी इसी परिधि के आस-पास दिखाई देते हैं, जबकि ऊपरी तौर पर वे दूसरे वृत्त के नजदीक से गुजर जाते हैं. उधर आनंद टहलरामाणी ‘जड़ुनि खां उखिड़ियलु वणु’ लिखते हैं, इन्द्रा वासवाणी ‘नातों’ और अन्य कहानियां लिखती हैं, लक्षमण भंभाणी, भगवान टिलवाणी, हरि हिमथाणी जो लिखते हैं, वह ‘घण्टी’ की परिधि से ज्यादा दूर नहीं होता. कृष्ण खटवाणी, मोहन कल्पना, इन्हीं परिधियों के बीच कहीं मिलते हैं. लगता है सिंधी जीवन का ही नहीं, सिंधी कहानी का सत्य दो ध्रुवों के संगम से तीसरे ध्रुव के जन्म की प्रतीक्षा का सत्य है.

पर हुआ ऐसा कि नवमें दशक के समाप्त होने के पहले ही सिंधी कहानी सहज सरल, संक्षिप्त कथानक और बदली हुई विषयवस्तु के साथ लिखी जाने लगी, इसे ‘सहज’ कहानी के तौर पर पहचाना गया. कृष्ण खटवाणी, सुंदरी उत्तमचंदाणी, ईश्वरचंद्र, लखमी खिलाणी, हरिकान्त, इन्द्रा वासवाणी, आनंद टहलरामाणी, हरि हिमथाणी, लक्षमण भंभाणी, गोप कमल, बंसी खूबचंदाणी आदि ने ऐसी कहानियां, नयी कहानी के समय ही, अपने आप ही लिखना प्रारंभ कर दिया था, पर इन कहानियों की विषयवस्तु उस वक्त के अनुसार थी, अब धीरे-धीरे इसमें भी बदलाव आने लगा. इन कहानीकारों में अब कुछ नये लेखक भी जुड़ने लगे, पर इनकी भी उम्र कम नहीं थी. इन कहानीकारों का सहज कहानी लिखने का संयुक्त प्रयास नहीं था. न ही कोई नयी दिशा या किसी परिवर्तन का विशेष प्रयास दिखा. हां, कहानियों के कुछेक तत्वों में घट-बढ़ अवश्य हुई. वे ऊपर दर्शाये गए दोनों ध्रुवों के आसपास ही रहीं. इन कहानीकारों में समय, परिस्थितियों और जीवन में आ रहे तेज बदलाव को कहानी में उतने विस्तार और तेजी के साथ दर्शाने की भी प्रवृत्ति नहीं दिखी. धीरे-धीरे कथानक की जटिलता कम होती गई. कहानी की पूरी कथा फिर से प्रस्तुत होने लगी. प्रयोग के नाम पर कलाबाजी को छोड़कर कहानी का प्रवाह घटना प्रधानता की ओर बढ़ा. पात्रों का चरित्र-चित्रण, बदले ढंग से होने लगा. पर अब कहानी में आम आदमी के जीवन सत्य को तलाशने के धरातल बदले और उसका बाहरी संसार या परिवेश के यथार्थ से संपर्क बढ़ता गया. सार्वभौमिकता मोह को छोड़कर आस-पास के स्थानीय समस्याओं और संबंधों को प्राथमिकता मिलने लगी. इन्हीं संबंधों के साथ कल्पनाशीलता भी स्वयं को जोड़ती गई. अभिव्यक्ति को हर कहानीकार ने अपने तरीके से आमफहम, सीधा-सरल और आत्मीय बनाने का प्रयास किया. इसलिए कितने ही विषयों के कई दरवाजे खुल गए. भाषा में संवेदनशीलता का पुट बढ़ाकर, बहुत ज्यादा बौद्धिक घटाटोप से परे कहानी को ताजगी भरा और अर्थपूर्ण बनाने का प्रयास हुआ. हालांकि कुछेक कहानीकारों के लिए कहानी को स्थूलता या सपाट बयानी से बचाना मुश्किल भी रहा तो अन्य कुछेक के लिए कहानी सृजन के बजाय गढ़ी हुई ज्यादा प्रतीत होने लगी.

हर एक कहानीकार अपनी ओर से किसी समकालीनता के अर्थ में नहीं, पर सहज कहानी लिखता रहा. कुछ कहानीकारों के हाथों में कहानी ज्यादा परिष्कृत और गंभीर होती गई. इन परवर्ती दो दशकों में कहानीकारों की इस अर्थ में कोई विशिष्ट नई पीढ़ी नहीं उभरी है, न ही फिर सहज कहानी ने ही किसी साहित्यिक विचारधारा का कोई प्रभाव दर्शाया है. यह आवश्यक भी नहीं है. बीते हुए दो दशकों में उल्लेखनीय कई सहज कहानियों के नाम लिए जा सकते हैं.

सिंधी में जिस आवेग के साथ रोमांटिक और आधुनिक (नयी) कहानी आई थी, उस तरह सहज कहानी नहीं आई थी. फिर जैसे सहज कहानी आई थी, वैसे ही उत्तर-आधुनिक कहानी नहीं आई. वर्तमान दशक में और इससे पहले भी कुछ कहानियां लिखी जाती रही हैं, जिन्हें उत्तर आधुनिकता की कहानियां कहा जा सकता है. इन्हें सिंधी में निरन्तर बहाव वाली धारा बनने के लिए अभी कुछ सब्र रखना पड़ेगा. उत्तर-आधुनिक में आधुनिक और सहज कहानी की कितनी ही महत्वपूर्ण विशेषताएं समाहित हैं, फिर भी बदलती हुई प्रवृत्तियों के कारण, कितने ही विषयगत परिवर्तन कहानी में देखे जा सकते हैं. कहानी-कला के स्तर पर भी कुछ बदलाव आये हैं, जो विभिन्न भारतीय भाषाओं की कहानियों के साथ, सिंधी कहानी में भी देखे जा सकते हैं, इनकी बहुत ज्यादा विवेचना यहां आवश्यक नहीं है. पर सिंधी में उत्तर-आधुनिक काल में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान अवश्य जाता है. जैसे आज के दौर में लोग (आम या खास कोई फर्क नहीं है) भले अकेले ही, निहत्थे, शोषण (बड़े पैमाने पर, कई-कई मायनों में), अत्याचार, आतंक, अधीनता, आर्थिक दबाव, वैश्वीकरण और मुक्त बाजारवाद के नकारात्मक प्रभावों, स्वदेशी का लुप्त होना, सिर्फ ग्लैमर, बेशर्म या खराब संस्कृति का पनपना, बेरहम विडंबनाएं, निजी (भाषा-बोली, कौम, संस्कृति सहित) पहचान के संकट आदि के खिलाफ जूझते रहे हैं. सामूहिक विरोध या खिलाफत लगभग खत्म है, उल्टे कई प्रकार की गुलामियां चारों ओर घूम रही हैं, फिर भी जिन्दगी की ओर उनका रुख निराशावादी नहीं है. अपने आस-पास और लोगों के प्रति जवाबदारी का अहसास रखते हुए विश्व-जन के साथ सहजीवन में विश्वास रखते हैं, वैसे ही सिंधी लोग अपनी निजी पहचान (अपना घर, पड़ोस, जड़ें, भाषा, जमीन, विरासत...) के साथ, आज, अपनी सांस्कृतिक पहचान के संकट का भी सामना कर रहे हैं. वे यह तो चाहते ही हैं कि विश्व के हर व्यक्ति और उसकी अपनी संस्कृति की निजी महक बरकरार रहे. सिंधी में ऐसी, और इससे जुड़े दूसरे विषयों पर भी कई कहानियां लिखी जा रही हैं, और कितनी तो बहुत कलात्मक भी हैं.

हमेशा परिवर्तनशील विशाल जिन्दगी की अनंत सच्चाइयों की गहराइयां भी बेमाप हैं. कहानी को निरंतर जीवन-सत्य की तलाश करते-करते, अपनी भी लगातार तलाश करनी पड़ती है. इस विधा के कौशल के और भी आयाम उद्घाटित होते रहेंगे, बशर्ते सिंधी में सर्जनात्मकता के साथ निरंतर प्रयोग करने की तड़प और संवेदनशीलता की गरमाहट/उष्मा बनी रहे.

(संकलित)

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रचनाकार: प्राची - दिसंबर 2015 / सिंधी कहानीः संक्षिप्त इतिहास
प्राची - दिसंबर 2015 / सिंधी कहानीः संक्षिप्त इतिहास
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