जगदीश जन्मः 1939, पीर गोठु, सिंध (पाकिस्तान) तीन कहानी संग्रह, एक नॉवल, नाटक ‘तनकीदें’ लिखी हैं, प्रकाशित हैं. बाल साहित्य पर 12 पुस्तके...
जगदीश
जन्मः 1939, पीर गोठु, सिंध (पाकिस्तान)
तीन कहानी संग्रह, एक नॉवल, नाटक ‘तनकीदें’ लिखी हैं, प्रकाशित हैं. बाल साहित्य पर 12 पुस्तकें, अनुवाद में इनका योगदान सर्वोत्तम है. सिन्धी कहानी पर एम. फिल, र्ण्झ्एथ् एवं महाराष्ट्र सिंधी अकादमी की ओर से पुरस्कार. पी.एच.डी., साहित्य अकादमी बाल साहित्य पुरस्कार (2012). 2014 में इस साल प्रियदर्शनी अवॉर्ड से नवाजे गए हैं.
पताः 2-जी, राजीव अपार्टमेंट्स, गोल मैदान, उल्हासनगर-421001
गोश्त का टुकड़ा
जगदीश
छः बजते ही कारखाने का दरवाजा खुला, मजदूर सैकड़ों की संख्या में कारखाने से निकलने लगे-लम्बे, ठिगने, काले, गोरे, बूढ़े-जवान सब तरह के मजदूर थे. हर एक आदमी दूसरे से बिलकुल अलग, लेकिन उनमें एक समानता थी. सबकी आंखें नींद से झपकती हुई, थकी हुईं. वे जल्दी-जल्दी मुख्य दरवाजे से उसी तरह निकल रहे थे, जिस तरह कैदी छुट्टी मिलने पर हवाखोरी के लिये जा रहे हों, या खेत-खलिहानों से सुबह के वक्त उन भेड़-बकरियों का समूह जा रहा हो जो जमींदार के खेत में घूमने के जुर्म में कैद कर दी गई हो. शंकर ने नीले आसमान पर नजर डाली.
आसमान पर बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े थे-सफेद, स्याह, नीले, एक दूसरे में घुले-मिले होते हुए, मासूम बच्चे की तरह मुस्कराते हुए. सफेद बादल के एक टुकड़े ने शंकर के खयालात में उत्पात पैदा कर दिया. दरिया का पानी जो समंदर में गिर कर शांत हो चुका था, एक कंकर के गिरने से जोर-जोर से हरकत करने लगा. सतह का पानी जैसे रेला बनकर विस्तार पाता रहा और धीरे-धीरे छोटी पंगडंडियों से अपना रास्ता बना रहा था पर इन सभी रेलों में एक सूरत का अक्स था और वह था शंकर की बीवी का अक्स.
शंकर के शरीर में एक झुरझुरी सी लहराई. उसे एक शीतल तरंग सी जैसे छू गई. उसे अपने बदन पर पड़ा हुआ खद्दर का कुर्ता भी उस ठंड के बचाव के लिये कम लगा. उसकी टांगों की मजबूती जैसे ढीली पड़ गई. वह एक अनजान डर से थरथरा उठा. उसकी बीवी का चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा. अनजाने में शंकर ने उसके बारे में क्या-क्या सोचा-‘वह जाने किन-किन तकलीफों से गुजर रही होगी? क्या वह उसे देख सकेगा?’ वह चाहता था कि किसी तरह उड़कर अपनी बीवी के पास पहुंच जाए और उसे वे तमाम बातें सुनाए जो इस काम के दौरान वह अपने सीने में जमा करता रहा था. उसे अपनी बीवी से हमदर्दी मिलेगी. आज वह जैसे हमदर्दी का मोहताज था. वह तेज-तेज चलने लगा.
शंकर हरसू बिहार के एक छोटे से कस्बे सुलेमानपुर के एक जुलाहे अभयराम का लड़का था. उसका बाप किसी हद तक पढ़ा-लिखा होने के कारण एक जाना-माना जुलाहा था. गांव के बाकी जुलाहे उसके माध्यम से शहर से सूत खरीद लेते और बुना हुआ कपड़ा बेचा करते. सन् 1930 में सिविल नाकाबंदी के दिनों में जब अंग्रेजी माल का बाइकॉट किया गया और गैर मुल्कों का कपड़ा होलियों की सूरत में जला तो शंकर के पिता का कारोबार खूब चमक उठा. अभय राम ने उन्हीं दिनों में फैसला किया कि वह शंकर को अच्छी और ऊंची शिक्षा दिलवाएगा और विख्यात ओहदे पर तैनात कराएगा. हालांकि शंकर को स्कूल में बिठा दिया गया, पर पिता की बेवक्त मौत के बाद रिश्तेदारों के रूखे और ठंडे व्यवहार ने शंकर और उसके परिवार को मंजिल के उस कगार पर लाकर खड़ा किया जहां इन्सान खुद को तन्हा और लाचार महसूस करता हो. वह गर्दिश के उस दौर में, अपनी जिंदगी के मालिक-अपने खुदा से भी ऊब गया. उसे यूं महसूस होता कि उसके मूल्क के पूंजीपति अपनी सियासत को एक ऐसे शिकंजे में जकड़े हुए हैं जिससे रिहाई पाना नामुमकिन है. अपनी इस हुकूमत से मुश्किलों का हल पाना प्रजा के लिये एक घुटन का दायरा बन गया, और हुकूमत प्रजा की कमजोरियों को उनके हाथों को हासिल करने की जद्दोजहद को उनकी मुश्किलों की वजह बताती रही. जहां प्रजा हुकूमत से, उनकी रियायतों से प्रताड़ित रहती थी, हुकूमत पर उसका कोई असर नहीं होता. हुकूमत को कोई खौफ भी नहीं छू पाता, शायद इसलिये कि वह हुकूमत करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझती है.
अपने माहौल से तंग इंसान के दिल में अपनी हुकूमत के खिलाफ एक विद्रोही भावना पनपती है. वहीं उसके दिल में कुछ करने का अहसास दृढ़ हो जाता है, लेकिन अपने अनचाहे पेशे पर नजर डालकर उसे गुमान होता है कि वह एक अकेला चना पहाड़ का क्या बिगाड़ लेगा और उसकी बेबसी की हालत में वह हर उस ताकत से मिल जाता है जो हुकूमत के खिलाफ है.
इन हालातों में शंकर का पढ़ाई कायम रखना नामुमकिन सा हो गया. उसे आठवीं कक्षा से ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी.उस वक्त पढ़ा लिखा शंकर अनपढ़ शंकर से भी बदतर हालत में था. अब पढ़ाई के बंद होने के कारण उसे अपना पैतृक पेशा अख्तयार करने में कोई दिक्कत महसूस न होती. लेकिन आठ साल की शिक्षा ने उसके उस पेशे को महत्वहीन समझना सिखा दिया था. पढ़ाई के दौरान वह अपने भविष्य के हसीन और शानदार ख्वाब देखता रहा था. लेकिन वक्त ने उसे ख्वाब से झंझोड़ा और वह अपनी किस्मत आजमाने पर डट गया.
भागलपुर सुलेमानपुर से तीस मील दूर था. शंकर ने भागलपुर के किसी मिल में नौकरी करने का इरादा किया. तनख्वाह के तौर पर उसे हर माह एक निर्धारित की हुई रकम के मिलने का विचार उसे मिल की तरफ खींच रहा था. लेकिन बीवी की मुहब्बत उसे शहर से परे धकेल रही थी. अब तक वह अपनी बीवी से बिल्कुल भी जुदा नहीं हुआ था. इसलिये जुदाई का ख्याल उसे हतोत्साहित करता एकलंबी दिमागी कशमकश के बाद शंकर ने फैसला कर लिया. भूख मुहब्बत पर हावी हो गई.
मुस्कराते हुए बादल को देखकर उसे अपनी बीवी याद हो आई-अल्हड़, जवान. अपनी रवानगी का मंजर याद करके उसकी आंखों में आंसू छलक आए. उसकी मां ने उसे कितने प्यार से तिलक लगाया था. उसकी बीवी किवाड़ की ओट में खड़ी उसकी तरफ हसरत भरी निगाहों से देखती रह गई थी, जैसे वह किसी दूर देश में जा रहा हो, जहां से वापस आना मुश्किल नहीं नामुमकिन था. चलते वक्त उसकी मां ने उसे पिता तुल्य अंदाज से चूमा था और रो कर अपनी बेबसी का वास्ता दिया था. शंकर ने भी हर रोज खत लिखने का वादा किया था और अपनी मां से बार-बार कहा था कि खत चन्देश्वरी चाचा से पढ़वा लिया करे. लेकिन आज शंकर को घर से विदा हुए सात रोज गुजर गए थे. इस दौरान वह कोई खत न लिख सका था. वह खुद को मुजरिम महसूस कर रहा था. लेकिन फिर उस का दिल सफाई पेश करने लगा-उसे इतनी फुरसत ही कहां मिली थी कि वह खत लिख सके! छः रोज तो सुबह से शाम तक वह अलग-अलग कारखानों में घूमता रहा था कि उसे कोई काम मिल जाए. पूंजीपतियों के सामने रोता रहा, गिड़गिड़ाता रहा, उसने अपनी गरीबी का वास्ता दिया, अपनी बूढ़ी मां का हाल बताया, लेकिन सब बेकार. कल ही एक पूंजीपति ने न जाने क्यों उस को एक नौकरी दी-तीस रुपये माहवार, जिस से उसे तीन जिंदगानियों का पेट पालना था-खुद, मां, बीवी, तीनों का.
आज शंकर ने फैसला कर लिया कि वह अपनी बीवी को खत जरूर लिखेगा.
सराय में पहुंचकर वह इतना थका मांदा था कि दम लेने के लिये वह दहलीज में पड़ी हुई चटाई पर बैठ गये. उसने सुना था कि नहाने से पहले पसीना सुखा लेना चाहिए. लेकिन अभी बैठा ही था कि जम्हाई आई और तबीयत लेटने के लिये मचल गई. वह चटाई पर लेट गया. उसने अकड़े हुए अंगों को ढीला छोड़ दिया. और कुछ सुकून महसूस किया. उसे ऐसे लगा जैसे उसकी थकान आहिस्ता-आहिस्ता चटाई पर गिर रही है. उस पर एक उनींदापन छाने लगा. ऐसे में उसकी आंख लग गई. उसकी आंख उस वक्त खुली जब शाम को सराय का चौकीदार मालिक के आदेश पर सफाई कराने में जुट गया. भंगिन की लड़की को सामने खड़ा देख कर न जाने क्यों उसे फिर अपनी बीवी याद आ गई. उसने चौकीदार से समय पूछा लेकिन चौकीदार भी लापरवाही से कुछ इस तरह खामोश रहा जैसे वह खुद पूंजीपति हो.
ढलती हुई शाम रात के आने का पता दे रही थी. शंकर जल्दी से उठा और बाहर ढाबे पर खाना खाकर मिल की तरफ हो लिया.
पांच रोज और यूं ही गुजर गए. जब शंकर सुबह को कारखाने से लौटता उसे अपनी आंखें नींद के मारे बोझिल सूजी हुई महसूस होती. तमाम रात खड़ा रहने के कारण उसकी टांगें सुन्न हो जाती. उसे गुमान होता कि वह उस के बदन का हिस्सा नहीं है. चलते वक्त उसे महसूस होता जैसे उस के बदन को चीरा जा रहा है. उस की रग-रग दर्द करती, जोड़-जोड़ टूट कर गिर जाना चाहता, हर रोज वह यही फैसला करता कि अगली शाम वह फिर कारखाने नहीं जाएगा, लेकिन शाम से पहले ही बेकारी का ख्याल भूत बनकर उस के सामने आ खड़ा होता और वह फिर कारखाने चला जाता.
इन दिनों में उसे अपनी मां, बीवी और घर का ख्याल एक बार भी नहीं आया. आता भी कैसे? वह कारखाने से लौटता और बिना नहाये या खाना खाए सोया रहता. शाम को उठता, नहा कर खाना खाता और कारखाने चला जाता. कारखाने के सिवा उसे किसी चीज के बारे में सोचने की फुरसत ही न थी. कारखाने के बड़े-बड़े पहिये हमेशा उस के दिमाग पर छाए रहते, बड़े-बड़े बुलंद पहिये, जो लगातार घूमते रहते थे, बेजान बिना सोचे समझे और उसी तरह थे कारखाने में काम करने वाले. हर शख्स का काम स्पष्ट रूप से तय हुआ करता. उसके लिये सोचने की कोई गुंजाइश न थी. अपने बारे में सोचने पर उसका हक न था. उसका काम सिर्फ कील दबाना, धागा पिरोना, धागों के रंग बदलना था. उसी सिलसिले में शंकर कई बार सोचता-‘ये काम कितने आसान हैं कोई मुश्किल नहीं, ताकत का खर्च नहीं, दिमाग पर जोर नहीं, लेकिन इसके बावजूद इतनी थकान क्यों?’
शनिवार का दिन था, शाम का वक्त. शंकर आहिस्ता-आहिस्ता कारखाने की तरफ जा रहा था, बिल्कुल इस तरह जिस तरह एक मरीज आप्रेशन टेबल की तरफ जा रहा था. इत्तिफाक से उसे अपना पुराना दोस्त बिहारी दिखाई दिया. बिहारी और शंकर एक ही गांव के रहने वाले थे और एक दूसरे को बचपन से जानते थे. लेकिन शंकर के पिता के देहान्त के कुछ माह पहले बिहारी के पिता अपने परिवार सहित किसी दूसरे गांव में जाकर बस गए थे. उसके बाद बिहारी के साथ कौन-कौन से हादसे पेश आए, इनका शंकर को कोई ज्ञान न था. शंकर सिर्फ इतना महसूस कर सकता था कि बिहारी को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. वह पहले से कहीं दुबला हो गया था. और अब उस का चेहरा रोटी की तरह सपाट और सफेद था.
बिहारी शंकर को देख कर फूट-फूट कर रोने लगा. शंकर को हैरानी हुई. उसे कभी यकीन न था कि बिहारी उससे मिलकर मुहब्बत के मारे यूं रोने लगेगा. शंकर बिहारी की तरफ देखने लगा, पर बिहारी के आंसू थम न पाए. अब शंकर की हैरानी बढ़ गई. उस के दिल में बिहारी के लिये हमदर्दी का जज्बा जोश भरने लगा. शंकर ने बिहारी से रोने का कारण पूछा, लेकिन वह दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा.
‘‘बापू का खत आया है, वह मर गई!’’
‘‘हैं...वह मर गई.’’ शंकर ने बिहारी के चेहरे की तरफ ताकते हुए दोहराया. शंकर पर जैसे वज्र गिरा और वह कितनी ही देर बिहारी की तरफ उसी तरह देखता रहा. उसकी आंखों के सामने अपना घर घूम रहा था. उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी मां दहलीज पर बैठी हुई शोक मना रही है. गांव की औरतें सब उसे दिलासा दे रही हैं, और कह रही हैं-
‘‘चन्दा तेरा बेटा जीता रहे, बहुएं और बहुत...’’
ये शब्द शंकर के कानों में जोर-जोर से गूंज रहे थे जैसे कोई उसके कानों में पिघला हुआ शीशा उंडेल रहा हो.
बिहारी कह रहा था-‘‘बापू ने लिखा है, गर्भावस्था में कोई गड़बड़ी हो गई, और वह मर गई.’’ गर्भ का नाम सुनकर शंकर पर क्या गुजरी, यह शंकर ही जानता था. आज से बारह रोज पहले शंकर ने भी अपनी बीवी को दर्द की हालत में छोड़ा था. हकीकत में वह कुछ समय तक अपना भागलपुर आना भी उसी वजह से स्थगित करता रहा था. लेकिन बढ़ती हुई महंगाई ने उसे मजबूर कर दिया था कि वह अपनी बीवी को उस हालत में छोड़ कर चला आए.
बिहारी की बीवी की मौत की खबर ने उसे चेतावनी दी. वह एक परिंदे की तरह फड़फड़ाया, जो आजाद होने के लिये संघर्ष कर रहा हो लेकिन नौकरी में हसीन कैदखाने ने कुछ समय के लिये संघर्ष के जाल में फांस रखा था. उस ने इरादा किया कि वह अगले रोज सुलेमानपुर जाएगा.
पहली बार शंकर तेरह दिन के बाद सुलेमानपुर वापस आया. वहां पहुंचकर शंकर ने देखा कि वह आज एक हसीन बच्चे का बाप था.
इतवार की शाम को शंकर फिर हर रोज खत लिखने और हर इतवार सुलेमानपुर आने का वादा करके वापस भागलपुर लौट आया.
खत लिखने का वादा तो वह कभी पूरा कर न सका, लेकिन शंकर हर इतवार को सुलेमानपुर जाता और सोमवार की सुबह लौट आता. छः दिन के लिये फिर घर से बेखबर हो जाता. उसकी यह चर्या कुछ ऐसी हो गई कि वह खुद को मारकर जैसे पूरी कर रहा था. सोमवार को घर से लौटते उसे कोई दर्द महसूस न होता. छः रोज काम करते हुए उसे कभी इतवार का ख्याल न आता और इतवार को घर जाते हुए उसे कोई खुशी न होती. इतवार को सुलेमानपुर जाना जैसे उसके टाइम-टेबल में शामिल हो गया था.
इधर बढ़ती हुई मंहगाई चैन ही नहीं लेने देती थी. भागलपुर जैसे शहर में एक वक्त का खाना खाकर भी पंद्रह रुपये माहवार से कम में गुजारा करना नामुमकिन था और बाकी पंद्रह रुपये में तीन-तीन जानों का गुजारा होना मुश्किल सा था-हर महीने शंकर की मां गांव के साहूकार से पांच-सात रुपये कर्ज लेती. उसे इस बात की खबर ही न थी कि यह कर्ज कब अदा हो सकेगा, और हो भी सकेगा या नहीं.
अभी उसके पिता के देहान्त को एक साल ही गुजरा था कि शंकर पचास रुपये का कर्जदार हो गया-पचास रुपये जो वह और उस का परिवार एक महीना लगातार दो वक्त फाके करके भी अदा नहीं कर सकते थे.
दरिद्रता से तंग आकर शंकर एक दिन अपने मिस्तरी के पास पहुंचा और तनख्वाह बढ़ाने की दरख्वास्त की-मिस्तरी भी जैसे मशीन का एक पुर्जा था जिसका इंजन पूंजीपति था. उससे किसी तरह कि रहम की उम्मीद बेकार थी. दरअसल वह कर भी क्या सकता था? तनख्वाह बढ़ाना उसके हाथ में न था. तनख्वाह काटने का हक मिस्तरी को सौंप रखा था और तनख्वाह बढ़ाना सिर्फ पूंजीपति का हक था. मिस्तरी ने गुरबत का फकत एक ही इलाज बताया कि वह इतवार को भी ओवर टाइम करने लग जाय...इस तरह आठ या दस रुपये माहवार कमाए जा सकते हैं.’’ मिस्तरी ने कहा.
शंकर यह सुनकर खामोश रहा. एक बार वही दुश्वारी सामने थी, लेकिन इस बार मुहब्बत का मुकाबला मुफलिसी से था, भूख से नहीं, लेकिन मुहब्बत के चेहरे का रंग भी उतर चुका था. शंकर मुहब्बत और मुफलिसी के बीच का फासला पाटने के प्रयास में जुटा रहा.
अब वह महीने में तीस दिन कारखाने जाता. सुबह की नींद से छलकती हुई आंखें लिये हुए सराय को लौटता. शाम तक सोता रहता और उठते ही फिर कारखाने चला जाता. उसकी रूह पर रंग की परतें चढ़ती रहीं, पर उनमें फीकापन था, वह निर्जीव हो चुका था, उसे अपने घर से कोई वास्ता न था. उस का फर्ज महीने आखिर में पच्चीस रुपये मनीऑर्डर कटाकर भेजना था और बस. अब मां की ममता, बीवी के आंसू और बच्चे का प्यार उस के दिल की हरकत को तेज नहीं कर सकते थे. अब वह कटे हुए जानवर के गोश्त के एक टुकड़े की तरह था जिस पर स्पर्श का कोई असर नहीं होता.
00000000000000
COMMENTS