जीवन माधुर्य और व्यवहार सौन्दर्य पाना हर किसी के बस में नहीं होता। बड़े-बड़े लोग इस मामले में गच्चा खा जाते हैं और अपने व्यवहार में ऎसी कटु...
जीवन माधुर्य और व्यवहार सौन्दर्य पाना हर किसी के बस में नहीं होता। बड़े-बड़े लोग इस मामले में गच्चा खा जाते हैं और अपने व्यवहार में ऎसी कटुता ले आते हैं कि जो उनके जीवन में अंतिम क्षणों तक भी ऎसी विद्यमान रहती है कि उसके कारण से उन्हें लोग न पसन्द करते हैं, न उसके पास आने का इरादा रखते हैं। सब चाहते हैं कि ऎसे महादुष्टों से दूर ही रहें।
कोई आदमी कितना ही वैभवशाली क्यों न हो, कितने ही बड़े पद पर आसीन क्यों न हो, उसके व्यक्तित्व में माधुर्य का होना या न होना वंशानुगत संस्कारों, संगति और सोच पर निर्भर करता है। व्यक्ति के विद्वान होने, बहुत अधिक पढ़े-लिखे या प्रभावशाली होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
यह सब निर्भर करता है इंसान की सोच पर। यह सोच पाना या बनना कोई दो-चार वर्ष का काम नहीं है। इसके लिए बरसों तक पापड़ बेलने पड़ते हैं, संस्कारी जीवन, इंसानी भारीपन, संयम, सेवा, सदाचार और परोपकारी जीवन पड़ता है और तब कहीं जाकर जीवन माधुर्य प्राप्त हो पाता है। बहुत सारे लोग ऎसे हैं जिनमें यह कूट-कूट कर भरा हुआ होता है और इस वजह से लोग इन्हें दिल से पसंद करते हैं और चाहते हैं कि उनका सामीप्य और सान्निध्य बार-बार मिलता रहे ताकि वे अपने आपको ऊर्जित रखते हुए इनसे कुछ सीख सकें, कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें और अपने आपको आदर्श स्थिति में खड़ा कर सकें जहाँ वे स्वयं भी प्रेरणा के स्रोत हो सकें।
इंसान अपनी औकात में रहे तो समत्व भाव में जीने का माद्दा बनाए रख सकता है लेकिन आजकल मामूली पद, प्रतिष्ठा और पॉवर आ जाने के बाद आदमी पहले जैसा नहीं रहता। या तो अहंकार में भरकर खुद इंसानियत खो देता है अथवा उसके आस-पास निर्बुद्धि, मूर्खों, अंधेरा पसंदों और नुगरे लोगों का ऎसा संसार जमा हो जाता है जो उसकी बुद्धि को कुण्ठित कर देता है, निरपेक्ष सोच को समाप्त कर देता है और ऎसा दुराग्रही बना देता है जैसे कि हमेशा उन लोगों की कठपुतली के रूप में बना रहे।
बहुत बड़े-बड़े और प्रभावशाली आदमियों का बेवक्त और असामयिक खात्मा इन्हीं लोगों की वजह से हुआ है। चाशनी पर भिनभिनाती मक्खियों की तरह लोगों की भीड़ हमेशा चिपकी रहती है। इस वजह से इन बड़े पद, कद और मद वाले लोगों को असली दुनिया और वैचारिक लहरों का भान नहीं हो पाता।
यही कारण है कि बहुत सारे बड़े लोगों के बारे में अक्सर सुना जाता है कि ये लोग कान के कच्चे होते हैं, दूसरों के इशारों पर चलते हैं, खुद की बुद्धि का उपयोग नहीं करते हैं, जैसा चमचे, चापलुस और प्रायोजक चलाते हैं, वैसे ही चलते चले जाते हैं।
हर तरह के डेरों में आजकल ऎसे लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है जो अपनी बुद्धि से कुछ नहीं करते, दूसरे लोग जैसे चलाते और नचाते हैं वैसे ही करते रहते हैं। इन लोगों को न सही स्थिति पता होती है, न ये सच को जानने की कोशिश कर पाते हैं।
इसका मूल कारण यह है कि ऎसे लोग या तो अपने स्वार्थ में डूबे रहते हैं और वे ही काम करते हैं, उन्हीं के बारे में सोचते हैं जहां से कुछ खुरचन या झूठन (साउकारी) मिलने की आशा हो। इसके अलावा दूसरे कामों में वे न तो हाथ लगाते हैं, न उस दिशा में कुछ भी सोचते हैं। वे केवल उन्हीं की सुनते हैं जो उनके आस-पास बने रहते हैं, जो कान फूंकने और भरमाने के आदी हैं।
हममें से बहुत सारे लोग हैं जो हर क्षण अपनी ही अपनी प्रशंसा सुनने और सुनाने के आदी हैं तथा झूठी वाहवाही एवं सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए सभी प्रकार के सत्य, धर्म, निरपेक्षता और आदर्शों को तिलांजलि दे दिया करते हैं और अपने-अपने दंभ व घोर झूठ में जीते हुए औरों को हीन एवं अनुचर समझने लगते हैं।
यह बुराई बहुत से लोगों में होती है बड़े-बड़े ओहदों पर बिराजमान और कुण्डली जमाए बैठे भुजंगछाप, अजगर छाप और गैण्डा किस्मी लोग हमेशा ऎसे रहते हैं जैसे कि उनका जन्म ही औरों को काटने तथा पीछे पड़ने या डराने के लिए हुआ है।
इस किस्म के लोग आमतौर पर ऎसे बदतमीज और श्वान भौंकू हो जाते हैं कि इनके आस-पास रहने वाले और सम्पर्क में आने वाले लोग भी इनसे त्रस्त रहते हैं और हमेशा इनके पराभव, बीमार हो जाने तथा नरकगमन के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहते हैंं।
इन अहंकारी लोगों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यह इंसान को इंसान नहीं समझते। इस कारण किसी भी इंसान को कभी भी कुछ भी कह सकते हैं, दुत्कार सकते हैं, गुस्सा करते हुए गालियां बक सकते हैं, नीचा दिखा सकते हैं।
इन लोगों को हमेशा यह भ्रम होता है कि औरों को दबाने, भयभीत करने और हीन दर्शाते हुए अनाप-शनाप बक डालने से अपनी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और दूसरे लोग भी डरेंगे। ऎसे लोग भले ही अपने आस-पास के लोगों में अपने वजूद और प्रतिष्ठा को बढ़ाने के भ्रम में दूसरों को भला-बुरा कहते हुए डाँट दें, बक दें और झल्ला लें, मगर इसका दूरगामी परिणाम हमेशा अपने लिए घातक ही रहता है।
कारण यह है कि हम अक्सर आपा खो कर अच्छे और सज्जनों का ही अपमान और तिरस्कार किया करते हैं। उन लोगों के जेहन में हमारे लिए कभी अच्छी भावना नहीं आ सकती। वे हमेशा हमारे लिए बददुआएं ही करेंगे।
ये बददुआएं ही हैं जो इंसान के आभामण्डल को छेद देती हैं, अपने नैसर्गिक सुरक्षा कवच को भेद देती हैं और हमारे शरीर की सभी प्रकार की प्रतिरोधक शक्तियों का धीरे-धीरे क्षरण कर दिया करती हैंं। अधिकांश नालायकों और दंभी लोगों की असाध्य बीमारियों, असामयिक मृत्यु और शोक-संतापों का यही सबसे बड़ा कारण है।
जीवन में समत्व लाएं और इंसान को इंसान समझने लगें तो यह स्थिति अपने जीवन के अनुकूल हो सकती है। हम कितने ही बड़े, प्रभावशाली और ओहदेदार हों, हमें चाहिए कि किसी के बारे में तारीफ करनी हो तो सभी के सामने करें, सार्वजनिक तौर पर करें।
और जिससे किसी भी प्रकार की कोई शिकायत हो, किसी में सुधार लाने का प्रयास करना हो, कोई नसीहत या सीख देनी हो, कोई उलाहना देना हो तो उसे एकान्त में अपने पास बुलाकर बड़े ही प्रेम और विनम्रतापूर्वक कहें।
यह जीवनमाधुर्य लाने और सर्वस्पर्शी व्यक्तित्व पाने का सबसे बड़ा तरीका है। जो इंसान ऎसा कर लेता है उसका मनमोहक प्रभाव उसके पद, कद और वैभव को भी काफी बौना कर दिया करता है।
यह हम पर है कि हम कुत्तों और साँपों की तरह काटने वाले बनें या प्रेम से समझाने और इंसान के रूप में रहने वाले। अन्यथा उन लोगों की कोई कमी नहीं है जो कुत्तों की तरह भौंकते-गुर्राते और हर किसी को काटने दौड़ते हैं, हर किसी को डाँटने-फटकारने में आनंद का अनुभव करते हैं और शेखी बघारते हैं।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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