महात्मा गांधी को नोबल पुरस्कार नहीं मिला तो इसके लिए दुनिया भर के लोग दुखी हुए पर इससे कम आहत स्वीडन के निवासी नहीं हुए, जहां से सैकड़ों लोगो...
महात्मा गांधी को नोबल पुरस्कार नहीं मिला तो इसके लिए दुनिया भर के लोग दुखी हुए पर इससे कम आहत स्वीडन के निवासी नहीं हुए, जहां से सैकड़ों लोगों को नोबल पुरस्कार मिल चुका है। उन्हें नोबल पुरस्कार से गांधीजी को वंचित रखने का मलाल हमेशा रहा। पिछले दिनों 5 दिसंबर को उन्होंने अपने इलाके में गांधी जी को मरणोपरांत लोक प्रदत्त पुरस्कार भारत की वरिष्ठ गांधीवादी राधा भट्ट को सौंप कर उनके संदेश को फैलाने का नया अभिक्रम किया। पुरस्कार समारोह कैसा था और किस तरह से संपन्न हुआ। इस बारे में राधा भट्ट की खुद की लिखी रिपोर्ट पेश है।
उत्तरी ध्रुव स्थित स्वीडन के पश्चिमी तट पर समुद्र से घिरा हुआ एक द्वीप है ओरूस्ट। इस द्वीप के पश्चिमी भाग की बस्तियां मछुआरों की थीं और पूर्वी भाग में किसानों के खेत और जंगल थे पर उपभोक्तावादी व्यवस्था के पैसा प्रवाह ने और तथाकथित प्रगति(विकास) के आकर्षण ने वह प्रकृति प्रधान जीवन शैली बदल दी है। व्यवसायिक मछली उद्योग ने समुद्र से मछलियां समाप्त कर दी हैं। लखपतियों ने मछुआरों के पुरानी पद्धति से बने काष्ठ निर्मित घर अपने ग्रीष्मावकाशीय समुद्र तटीय निवासों के लिए खरीद लिए हैं, यहां के स्थायी निवासी सरकारी अनुदान और आधुनिक कृत्रिम सामग्री से बने कम स्वास्थ्यकर घरों में रहने लगे हैं। इसमें उन्हें पैसे का लाभ हुआ है लेकिन जीवन के आनंद का घाटा हो गया है।
अब ये स्कूलों, दफ्तरों या बसों आदि में सामान्य नौकरी करते हैं या फिर अमीरों को बेचे गए अपने घरों का रखरखाव करते हैं। पहले इनमें से अनेक छोटी फिशिंग काष्ठ नौकाएं और बड़े समुद्री जहाज बनाने में सिद्धहस्त के रूप में प्रसिद्ध थे, अब इनकी जरूरत ही नहीं रही। इसलिए वे ग्लास फाइबर रिइनफोर्स्ड प्लास्टिक बोट याने शेलिंग शिप बनाते हैं, जो लखपतियों के काम ही आते हैं। इनके जीवन में धन आया है पर वे सामूहिकता के रिश्ते नहीं रहे, वह सौहार्दपूर्ण और साहसिक जीवन का आनंद नहीं रहा। ऐसे ही मछुआरों के एक गांव स्टौकन में 5 दिसंबर को इस द्वीप के आम लोगों द्वारा शुरू किए फ्रैद्सस रोरेलसन पो ओरूस्ट (ओरूस्ट शांति आंदोलन) की ओर से ध्रुव प्रदेशीय विकट तूफानी ठंडी बरसात भरे मौसम में महात्मा गांधी को मरणोपरांत शांति पुरस्कार से नवाजा गया। बाहर असह्य ठंडी हवा चल रही थी लेकिन सभागार के भीतर लोग विशेष उत्साह और सहकार भरी भावना से लबरेज थे।
पुरस्कार समारोह के लिए शांति आंदोलन के सदस्यों ने विभिन्न समूहों में बंट कर काम को आपस में बांट लिया था। सवा सौ लोगों के दो बार के भोजन और दो बार की चाय-पानी की व्यवस्था एक समूह ने संभाली थी, किसी ने सभागार को सजाया था। बैठक आदि की व्यवस्थाओं को विभिन्न अवसरों के अनुकूल बनाने की जिम्मेवारी दूसरे समूह ने ली थी। आंदोलन के अध्यक्ष सबके साथ थे। वे कभी मंच पर आते तो अगले कुछ मिनटों में वे ऐप्रन बांधे बर्तन धोते दिखाई देते या चाय-काफी परोसते, सबसे बोलते-बतियाते दिखाई देते थे। सबके द्वारा मिलजुल कर एकत्र किए साधनों और अपने श्रम से अर्जित विकेंद्रित सहकार्य पूर्ण कार्य संस्कृति का यह वातावरण मुझे गांधीजी के फिनिक्स आश्रम के उस दृश्य की याद दिलाता था, जब आश्रम के भवन निर्माण के लिए मिट्टी का गारा सानते-सानते गांधीजी आश्रम विद्यालय में पढ़ाने की अपनी बारी आते ही दौड़ कर वहां पहुंच जाते थे।
डेनमार्क से 8 घंटे की, स्टोकहोम से पांच घंटे की, गीथेनबर्ग से दो घंटे और युंगशिले से तीन घंटे तक कार चला कर आए मित्रों की हिम्मत की दाद देनी होगी। मौसम इतना खराब था कि रेडियो अत्यावश्यक काम के बिना बाहर न निकलने की हिदायत दे रहा था। आसपास के 10 से 15 किलोमीटर की दूरी से आए लोगों के साथ-साथ लैपलैंड से तीन दिन तक कार चला कर आए 77 साल के रौल्फ भी शामिल हो गए थे। लुन शहर से बंगाली बहन बुबु मुंशी और उनके पति लार्स एकलुन अपने-अपने अव्यवसायिक टैगौर क्वायर के 10 स्वीडिश साथियों के साथ आए थे। ये सब भी शांति आंदोलन के अंग ही थे।
इस द्वीप के 240 लोग इस आंदोलन के सक्रिय सदस्य हैं लेकिन उनके अलावा भी मित्र हैं, जो नियमित अध्ययन सत्रों में भले ही नहीं पहुंच पाते लेकिन प्रति वर्ष बड़े आयोजनों और साल में 10-12 भाषण सभाओं में पहुंचते हैं। लगता है गांधी विचार का मंथन, उस पर विश्वास और उस पर अमल करने की ईमानदार तमन्ना इनके मन में जागी है।
11 बजे ठीक पूर्व निर्धारित समय पर सेमिनार शुरू हुआ। कितनी अच्छी बात थी कि फूलों से बनी मालाएं, शॉल और स्मृति चिह्न से स्वागत करके समय बिताने की औपचारिकता नहीं थी। केवल 62 साल के बेंट टौर्स्टसन इस कम्यून के मेयर, जो हिरोशिमा के मेयर के शांति और अहिंसा अभियान को सक्रियता से यहां चला रहे हैं ने स्वागत में अपनी भावना व्यक्त की और कहा-मुझे अंग्रेजी भाषा नहीं आती लेकिन अपनी सम्माननीय अतिथि के सम्मान में जो भाषा उन्हें समझ में आती है वही मुझे बोलनी चाहिए। इसके लिए मैंने बहुत मेहनत करके अपना वक्तव्य तैयार किया है..हम सभी को युद्ध नहीं चाहिए। आतंकवाद से हम अपने बच्चों को बचाना चाहते हैं लेकिन चाहने से कुछ नहीं होगा। हमें उठ कर कुछ करना होगा। गांधी ने स्थायी शांति, सद्भावना और अहिंसा की राह बताई है। अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम कितनी दूर उस पर चल सकते हैं? पर हम चलेंगे।
फिर माइक मुझे थमा दिया जाता है। मुझे सर्वप्रथम मेयर को धन्यवाद देना था। मैंने कहा कि अंग्रेजी भाषा न मेरी मातृभाषा है न ही आपकी। इन भाषाओं से भी बढ़ कर एक हृदय और विचारों की भाषा है उसमें हमारी समझ बढ़ती है। उसमें हम एक हैं। मुझे प्रत्यक्ष हिंसा, युद्ध, आतंकवाद, सेनाएं, सैनिक संधियां, अस्त्र- शस्त्रों की बढ़ती विनाशकता, जिनका ये शांतिवादी विरोध करते हैं की जड़ में उसके मूलकारण में जाना था, मैंने उपभोगवादी व्यवस्था की ओर लोगों का ध्यान खींचा, जिसमें जीवन का एकमात्र उद्देश्य ही बन गया है, अधिक उत्पादन अधिक उपभोग, सीमाहीन विलास और गला काट होड़ की कभी न थमने वाली दौड़, इस कुचक्र में फंसी हमारी जिंदगी जो प्रतिक्षण हिंसा को उपजा रही है, जो प्रतिपल विषमता की खाई को चौड़ी करती जा रही है, जिसने प्राकृतिक विरासतों का इस क्रूरतापूर्वक दोहन किया है कि मानव जीवन खतरे में पड़ चुका है। मैंने कहा, इसलिए तो आज दुनिया पेरिस में बैठकर उस जलवायु परिवर्तन की मार से बचने के उपाय खोज रही है, जिसे गांधीजी ने श्ौतानी सभ्यता कहा था और यह भी कहा था कि यह स्वयं ही अपने विनाश का कारण बनेगी। क्या आप इस व्यवस्था को बदलने के लिए सोचेंगे?
प्रश्नोत्तर काल कम दिलचस्प नहीं था, साफ दिखाई देता है कि ग्लोब के इस उत्तरी भाग में भी लोग उस निकट आ गए विनाश से डरे हुए हैं। मैं देखती हूं डर के कारण दिमाग काम सही दिशा में नहीं कर पाता। इसलिए तुमने मेरे निर्दोषों को मारा तो मैं भी तुम्हारे निर्दोषों को बमों से उड़ा दूंगा। इस प्रकार के अविवेकी निर्णय लिए जाते हैं। हिंसा से प्रतिहिंसा ही जन्म लेगी। हिंसा किसी समस्या का हल नहीं कर सकती, सबसे बड़ी शक्ति अहिंसा है, जो निर्भय व्यक्ति, निर्भय समाज और निर्भय देश का सबसे कारगर और मजबूत साधन है। गांधीजी के निष्कर्ष आज के संदर्भ में कितने सही और सटीक हैं। लंबे समय तक प्रश्नों की निरंतरता में समझने-समझाने का विचार प्रवाह और संवाद का अच्छा प्रयास चलता रहा। जिज्ञासाएं अभी थमी नहीं थीं लेकिन निर्धारित समय सीमा ने थमने को बाध्य कर दिया। लंबे-चौड़े स्वीडिशों के बीच छोटे कद की भारत की बेटी बुबु मुंशी के हाथ हारमोनियम पर थिरकने लगे और वे अपने जीवंत अंदाज और मधुर आवाज में गा उठी-आनंद लोके मंगलालोके बीराजे सत्य सुंदर....। उनके पीछे क्वायर सदस्य स्वीडिश स्त्री-पुरुष गुरुदेव रवींद्र के बंगाली भाषा में रचित गीत अपने दमकते चेहरों में मुस्कान लिए गले और आंखों से गीत के सुर और भाव को ताल देते हुए बुबु मुंशी के साथ गाने लगते हैं। सभागार में बैठे लोग सच में भोजन के साथ बराबर संगीत का आनंद ले रहे थे।
हम शस्त्रों की बिक्री में नहीं, संस्कृतियों का आदान-प्रदान करने में विश्वास रखते हैं ताकि दूरियां और अजनबीपन हटे और निकटता और आत्मीयता बढ़े। एर्नी फ्रीहोल्ट, जो ओरूस्ट शांति आंदोलन के प्रणेताओं और स्थापनकर्ताओं में से एक हैं सभा का संचालन करते हुए कहती हैं- मुझे बांग्लादेश और भारत ने जो जीवन मूल्य सिखाए हैं, वे सृष्टि को बचाने वाले हैं। चाय-काफी पीते हुए अलग-अलग मेजों के चारों ओर लोग यही चर्चा कर रहे थे। वे शायद कुछ गहरे जाकर अपने रोजाना के जीवन को टटोल रहे थे। अपनी व्यक्तिगत आजीविका को जांच रहे थे। उसमें कितनी हिंसा है, जो युद्धों, आतंकवाद, विषमता और जलवायु परिवर्तन को आमंत्रित करती है। यह परखने की कोशिश हो रही थी कि पहले कदम में कितनी हिंसा कम की जा सकती है।
सेमिनार का अंतिम शब्द ओरूस्ट शांति आंदोलन के मुख्य प्रणेता और गांधी विचार के अध्येता और प्रचारकर्ता ओला फ्रीहोल्ट धन्यवाद ज्ञापन के साथ कुछ शब्द कहने मंच पर आए। बीसवीं सदी के चालीसवें उस दशक से बहुत समय गुजर चुका, इस बीच बहुत से युद्ध लड़े जा चुके और पागलपन की बहुत-सी दौड़ दौड़ी जा चुकी है। इस सब के बाद भी उस अकेले आदमी के सोच को लेकर, आज भी शांति के आकांक्षी मानवमानव की सच्ची आजादी की खोज में एकत्र हो रहे हैं। महात्मा गांधी ने हमें दिखाया कि कैसे हिंसा को अहिंसा द्वारा पछाड़ते हुए अहिंसा के माध्यम से दमन, अन्याय और गरीबों की कृषि भूमि की लूट को रोका जा सकता है। उन्होंने दूसरे पर कष्ट, निराशा और दुख ढाने के बदले स्वयं कष्ट उठाने का साहस कर दिखाया। उन्होंने अपना अपेक्षारहित प्रेम उनके लिए भी बनाए रखा जो उन्हें अपना दुश्मन मानते थे, वे सत्य के बल पर निर्भय थे। कायरता को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कभी ऊंचे सिंहासन पर बैठने, संत कहलाने का सपना भी नहीं देखा। वे तो निरंतर सामान्य निर्धन आम आदमी बने रहे फिर भी हम उन्हें महात्मा कहते हैं तो कहें कोई हर्ज नहीं बशर्ते कि हम अपने दैनिक सामाजिक और राजनीतिक जीवन में उनके विचारों और उनके आचरित मूल्यों को अपनी जीवन शैली में स्थान देने का प्रयास करें। मेरी आशा है कि यह लोक प्रदत्त शांति पुरस्कार महात्मा गांधी के उस महान लक्ष्य को सिद्ध करेगा उनके संदेश की याद सबको दिलाएगा।
हम महात्मा गांधी के काम के लिए आजीवन समर्पित उनकी अनुयायी राधा भट्ट से प्रेरणा लेते हैं। इस प्रेरणा से एक से दूसरे को शृंखलाबद्ध रूप में प्रेरित करते हुए हम इस दुनिया को बेहतर स्थान बनाने का प्रयास करते रहेंगे। वास्तव में शांति स्वयं एक मार्ग है। यह कहते हुए बिना किसी आडंबर के एक चार किलो का पत्थर का स्मृति चिह्न ओला और युवा मार्टिन(जिसने पत्थर बनाया था) ने मेरे हाथ में सौंप दिया, जिस पर अपनी श्रद्धा के कुछ शब्द लिखे हुए थे। ओला फ्रीहोल्ट सही कहते हैं- पहला तो लोक प्रदत्त नोबल शांति पुरस्कार समिति के लिए एक जवाब है कि गांधी को मान्यता न देकर उन्होंने इतिहास की बड़ी भूल की है, दूसरे हम यूरोपीय देशों के लिए एक संदेश कि अपने दुखों के निराकरण के लिए क्यों दिग्भ्रमित हो रहे हैं, निराकरण गांधी के पास है।
--
kumar krishnan (journalist)
mob.09304706646
COMMENTS