साक्षात्कार - आकांक्षा यादव : जीवन का साहित्य और कला के सृजन से है स्वाभाविक जुड़ाव

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साक्षात्कार/ आकांक्षा यादव नारी जीवन का साहित्य और कला के सृजन से है स्वाभाविक जुड़ाव                                                   ...


साक्षात्कार/ आकांक्षा यादव

नारी जीवन का साहित्य और कला के सृजन से है स्वाभाविक जुड़ाव
                                                      - आकांक्षा यादव

मैं मांस, मज्जा का पिंड नहीं/दुर्गा, लक्ष्मी और भवानी हूँ/भावों से पुंज से रची/नित्य रचती सृजन कहानी हूँ। ये पंक्तियाँ आकांक्षा यादव की इच्छा, हौसला और महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने की उनकी तमन्ना को बयां करने के लिए काफी हैं। जीवन में शुरू से ही कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश रखने वाली आकांक्षा जी ने इसके लिए अपने शब्दों को धार बनाया। पहले ये शब्द डायरी व फिर देश-विदेश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं, ब्लॉग एवं तमाम चर्चित संकलनों में स्थान बनाते गये। स्त्री चेतना, समानता, न्याय और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी आकांक्षा यादव बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में उनकी रचनाओं का फलक उनके भावों और विचारों के वैविध्य का परिचायक है। इनकी अब तक कुल 2 कृतियाँ प्रकाशित हैं - चाँद पर पानी (बाल-गीत संग्रह, 2012) एवं क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा (युगल संपादन, 2007)। नारी विमर्श पर आपके लेखों का एक संग्रह प्रकाशनाधीन है। विकीपीडिया पर भी आपकी तमाम रचनाओं के लिंक्स उपलब्ध हैं तो  ब्लॉग और सोशल मीडिया माध्यमों पर भी सक्रियता देखते बनती है। नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर प्रमुखता से लेखन करने वाली आकांक्षाजी की सृजनधर्मिता सिर्फ पन्नों तक नहीं है, बल्कि इसने लोगों के जीवन को भी छुआ है। साहित्य के माध्यम से आपने जहाँ पुराने समय से चली आ रही कु-प्रथाओं पर चोट किया, वहीं समाज को नए विचार भी दिए। अपनी विशिष्ट पहचान के साथ आप साहित्यिक व सांस्कृतिक गरिमा को नई ऊँचाईयाँ दे रही है।

विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा विशिष्ट .तित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु आपको कई सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त है। इनमें उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा न्यू मीडिया ब्लॉगिंग हेतु ''अवध सम्मान'', परिकल्पना समूह द्वारा ''दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगर दम्पति'' सम्मान, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डॉक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'डॉ. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान' व ''वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान', राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा 'भारती ज्योति', साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा "हिंदी भाषा भूषण", निराला स्मृति संस्थान, रायबरेली द्वारा ''मनोहरा देवी सम्मान'', अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन (काठमांडू) में ''परिकल्पना ब्लाग विभूषण'' सम्मान और अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन, श्री लंका में " परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान" इत्यादि प्रमुख हैं। आकांक्षा यादव जी से विभिन्न पहलुओं पर हमने खुलकर बात की।

मृदुला झा : आपकी रचनाधर्मिता विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अकसर पढ़ने को मिलती रहती है। आपने अपने जीवन में लेखन कार्य कब से प्रारम्भ किया और अब तक आपने किन-किन विधाओं में लिखा है?

आकांक्षा यादव : आप अक्सर मुझे पढ़ती हैं, यह आपका स्नेह है। इसके लिए आपका आभार। जहाँ तक लेखन का सवाल है, आरंभ से ही डायरी में अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करती रही हूँ। ऐसे ही किसी क्षण में इन मनोभावों ने कब रचनाधर्मिता का रूप ले लिया, पता ही नहीं चला। पर यह शगल डायरी तक ही सीमित रहा, कभी इनके प्रकाशन की नहीं सोची। कृष्ण कुमार जी से शादी होने के बाद उन्होंने ही सर्वप्रथम मेरी एक कविता 'युवा बेटी' प्रतिष्ठित पत्रिका कादम्बिनी में भेजी और यह 'नये पत्ते' स्तम्भ के अन्तर्गत दिसम्बर 2005 में प्रकाशित हुई। अतः औपचारिक रूप से अपना साहित्यिक लेखन वहीं से आरम्भ मान सकती हूँ। इसके बाद तो इण्डिया टुडे, नवनीत, साहित्य अमृत, वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व, अक्षर शिल्पी, युगतेवर, आजकल, उत्तर प्रदेश, मधुमती, हरिगंधा, पंजाब सौरभ, हिमप्रस्थ, जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, वीणा, हिन्दी चेतना (कनाडा), भारत-एशियाई साहित्य इत्यादि देश-विदेश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ प्रकाशित हुईं और सराही गईं। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ इंटरनेट पर अनुभूति, सृजनगाथा, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, वेब दुनिया हिंदी, रचनाकार, हिन्दयुग्म, हिंदीनेस्ट, हिंदी मीडिया, हिंदी गौरव, लघुकथा डॉट काम, परिकल्पना ब्लॉगोत्सव इत्यादि चर्चित वेब-पत्रिकाओं और ब्लॉग पर भी बहुविध विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन अनवरत जारी है। फिलहाल मैं कविता, लघु कथा, आलेख, बाल साहित्य, इत्यादि विधाओं में निरंतर लिख रही हूँ। दर्जनाधिक प्रतिष्ठित पुस्तकों/संकलनों में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होने के साथ-साथ ये आकाशवाणी से भी तरंगित हुई हैं। व्यक्तिगत रूप से 'शब्द-शिखर' (<http://shabdshikhar.blogspot.in/>) और युगल रूप में 'बाल-दुनिया' (http://balduniya.blogspot.in/) 'सप्तरंगी प्रेम' (http://saptrangiprem.blogspot.in/) व 'उत्सव के रंग'(http://utsavkerang.blogspot.in/) ब्लॉगों का संचालन भी कर रही हूँ। एक रचनाधर्मी के रूप में रचनाओं को जीवंतता के साथ मैंने सामाजिक संस्कार देने का प्रयास किया है। बिना लाग-लपेट के सुलभ भाव-भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें, यही मेरी लेखनी की शक्ति है

मृदुला झा : आपने नारी सम्बन्धी पहलुओं पर भी बहुत कुछ लिखा है। साहित्य लेखन में आज नारी कहाँ है और उसका मूल्यांकन किस प्रकार किया जाता है?

आकांक्षा यादव : नारी का जीवन साहित्य और कला के सृजन से स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। घर को बनाने, संवारने से लेकर बच्चों को सुलाते समय लोरियों की जो अभिव्यक्ति होती है, उसमें इनकी कलात्मक क्षमता दिखती है। आज भी स्त्री का लेखन पुरुष की अपेक्षा अधिक व्यापक है। स्त्री के लिए लेखन केवल खाए-अघाए व्यक्ति का कोरा बौद्धिक विलास नहीं, बल्कि जीवन की यातनाओं, दुःखों और मुक्ति के संघर्षों से गहरा जुड़ाव है। नारी ने अपनी दुनिया को बदलने और उसे सुन्दर बनाने के संघर्ष में यथार्थ के कठोर धरातल पर साहित्य से रिश्ता बनाया। जब खुरदुरे यथार्थों के साथ इस सृजनात्मक क्षमता को शब्दों की धार मिल जाती है तो फिर गढ़ा जाता है एक नया साहित्य।

      नारी की जागरूकता ने नारी को अपनी अभिव्यक्तियों के विस्तार का सुनहरा मौका दिया है। साहित्य व लेखन के क्षेत्र में भी नारी का प्रभाव बढ़ा है। सरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, अमृता प्रीतम, आशापूर्णा देवी, इस्मत चुगतई, शिवानी से लेकर महाश्वेता देवी, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कलिया, मृणाल पाण्डे, चित्रा मुदगल, इत्यादि नामों की एक लंबी सूची है, जिन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं को ऊँचाईयों तक पहुँचाया। उनका साहित्य आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपने में समेटे, समय के साथ परिवर्तित होते मानवीय सम्बन्धों का जीता-जागता दस्तावेज है। भारतीय समाज की सांस्कृतिक और दार्शनिक बुनियादों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करते हुये उन्होंने अपनी वैविध्यपूर्ण रचनाशीलता का एक ऐसा आकर्षक, भव्य और गम्भीर संसार निर्मित किया, जिसका चमत्कार सारा साहित्यिक जगत महसूस करता है।

नारी के लिये चीजें जिस रूप में वाह्य स्तर पर दिखती हैं, ंिसर्फ वही सच नहीं होतीं बल्कि उनके पीछे छिपे तत्वों को भी वह बखूबी समझती है। साहित्य व लेखन के क्षेत्र में सत्य अब स्पष्ट रूप से सामने आ रहा है। समस्यायें नये रूप में सामने आ रही हैं और उन समस्याओं के समाधान में नारी साहित्यकार का दृष्टिकोण उन प्रताड़नाओं के यथार्थवादी चित्रांकन से भिन्न समाधान की दशाओं के निरूपण की मंजिल की ओर चल पड़ा है। जहाँ कुछ पुरुष साहित्यकारों ने नारी-लेखन के नाम पर उसे परिवार की चहारदीवारियों में समेट दिया या 'देह' को सैंडविच की तरह इस्तेमाल किया, वहाँ 'नारी विमर्श' ने नए अध्याय खोले हैं। अस्तित्ववादी विचारों की पोषक सीमोन डी बुआ ने 'सेकेण्ड सेक्स' में स्त्रियों के विरूद्ध होने वाले अत्याचारों और अन्यायों का विश्लेषण करते हुए लिखा था कि-"पुरूष ने स्वयं को विशुद्ध चित्त (Being-for- itself : स्वयं में सत्) के रूप में परिभाषित किया है और स्त्रियों की स्थिति का अवमूल्यन करते हुए उन्हें "अन्य" के रूप में परिभाषित किया है व इस प्रकार स्त्रियों को "वस्तु" रूप में निरूपित किया गया है।'' ऐसे में स्त्री की यौनिकता पर चोट करने वालों को नारी साहित्यकारों ने करारा जवाब दिया है।

वे नारी देह की बजाय उसके दिमाग पर जोर देती हैं। उनका मानना है कि दिमाग पर बात आते ही नारी पुरुष के समक्ष खड़ी दिखायी देती है, जो कि पुरुषों को बर्दाश्त नहीं। इसी कारण पुरुष नारी को सिर्फ देह तक सीमित रखकर उसे गुलाम बनाये रखना चाहता है। यहाँ पर अमृता प्रीतम की रचना ‘दिल्ली की गलियाँ’ याद आती है, जब  कामिनी नासिर की पेंटिग देखने जाती है तो कहती है-“तुमने वूमेन विद फ्लॉवर, वूमेन विद ब्यूटी या वूमेन विद मिरर को तो बड़ी खूबसूरती से बनाया पर वूमेन विद माइंड बनाने से क्यों रह गए।” निश्चिततः यह कथ्य पुरुष वर्ग की उस मानसिकता को दर्शाता है जो नारी को सिर्फ भावों का पुंज समझता है, एक समग्र व्यक्तित्व नहीं। नारी को 'मर्दवादी यौनिकता' से परे एक स्वतंत्र व समग्र व्यक्तित्व के रुप में देखने की जरुरत है। कभी रोती-बिलखती और परिस्थितियों से हर पल समझौता कर अपना 'स्व' मिटाने को मजबूर नारी आज की कविता, कहानी, उपन्यासों में अपना 'स्व' न सिर्फ तलाश रही हैं, बल्कि उसे ऊँचाईयों पर ले जाकर नए आयाम भी दे रही है। उसका लेखन परम्पराओं, विमर्शों, विविध रूचियों एवं विशद अध्ययन को लेकर अंततः संवेदनशील लेखन में बदल जाता है।

मृदुला झा : लोग लाख नारी की समानता की बात करें लेकिन नारी की स्वतंत्रता अभी भी दिवा स्वप्न ही है। इसे आप किस रूप में देखती हैं ?

आकांक्षा यादव : आज नारी हर क्षेत्र में सक्रिय है और शीर्ष नेतृत्व पर भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही है। फेमिनिस्ट आन्दोलनों ने नगरीय जीवन में पली-बढ़ी महिलाओं पर तो प्रभाव डाला पर इधर जो एक नई प्रवृत्ति उजागर हुई है, वह है ग्रामीण अंचलों की अशिक्षित महिलाओं द्वारा रूढ़िवादी वर्जनाओं को तोड़कर नये प्रतिमान स्थापित करना। आधुनिक दौर में नारी पूज्या नहीं समानता के स्तर पर व्यवहार चाहती है। सदियों से समाज ने नारी को पूज्या बनाकर उसकी देह को आभूषणों से लाद कर एवं आदर्शों की परंपरागत घुट्टी पिलाकर उसके दिमाग को कुंद करने का कार्य किया। पर उसी नारी ने राजनीति, प्रशासन, समाज, उद्योग, व्यवसाय, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, फिल्म, संगीत, साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, वकालत, कला-संस्कृति, शिक्षा, आई०टी०, खेल-कूद, सैन्य से लेकर अंतरिक्ष तक छलांग लगाई है। नारी की नाजुक शारीरिक संरचना के कारण यह माना जाता रहा है कि वे सुरक्षा जैसे कार्यों का निर्वहन नहीं कर सकतीं। पर बदलते वक्त के साथ यह मिथक टूटा है। वस्तुतः समाज की यह पारंपरिक सोच कि महिलाओं के जीवन का अधिकांश हिस्सा घर-परिवार के मध्य व्यतीत हो जाता है और बाहरी जीवन से संतुलन बनाने में उन्हें समस्या आएगी, बेहद दकियानूसी लगती है। रुढ़ियों को धता बताकर महिलाएं जमीं से लेकर अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में नित नई नजीर स्थापित कर रही हैं। यही नहीं श्मशान में जाकर आग देने से लेकर महिलाएं वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं और विवाह के साथ-साथ शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मुंडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हैं।

महिलाओं को सम्पत्ति में बेटे के बराबर हक देने हेतु हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन, घरेलू महिला हिंसा अधिनियम, सार्वजनिक जगहों पर यौन उत्पीड़न के विरूद्ध नियम एवं लैंगिक भेदभाव के विरूद्ध उठती आवाज नारी को मुखर कर रही है। दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, शराबखोरी, लिंग विभेद जैसी तमाम बुराईयों के विरुद्ध नारी आगे आ रही है और दहेज लोभियों को बैरंग लौटाने, और शराब के ठेकों को बंद कराने जैसी कदमों को प्रोत्साहित कर रही है। ये सभी घटनाएं अधिकारों से वंचित नारी की उद्धिग्नता को प्रतिबिंबित कर रही हैं। आज वह स्वयं को सामाजिक पटल पर दृढ़ता से स्थापित करने को व्याकुल है। शर्मायी-सकुचायी सी खड़ी महिला अब रुढ़िवादिता के बंधनों को तोड़कर अपने अस्तित्व का आभास कराना चाहती है। वर्तमान समय में नारी अपनी सम्पूर्णता को पाने की राह पर निरंतर बढ़ रही है, ताकि समाज के नारी विषयक अधूरे ज्ञान को अपने आत्मविश्वास की लौ से प्रकाशित कर सके।नारी आज न सिर्फ सशक्त हो रही है, बल्कि लोगों को भी सशक्त बना रही है। इस बात को अंततः स्वीकार करने की जरुरत है कि नारी को बढ़ावा देकर न सिर्फ नारी समृद्ध होगी बल्कि अंततः परिवार, समाज और राष्ट्र भी सशक्त और समृद्ध बनेंगे। नारी उत्कर्ष आज सिर्फ एक जरूरत नहीं बल्कि विकास और प्रगति का अनिवार्य तत्व है।

इक्कसवीं सदी में, जबकि नारी के प्रति विभेद की दीवारें टूटनी चाहिए, शिक्षित समाज द्वारा  इस प्रकार का विभेद स्वयं उनकी मानसिकता को कटघरे में खड़ा करता है। आर्थिक आंकड़े बता रहे है कि भारत 8-9 प्रतिशत विकास दर के साथ समृद्ध और संपन्नता की ओर अग्रसर है, पर क्या इस संपन्नता में महिलाओं का योगदान शून्य है। हम प्रायः भूल जाते हैं कि जिन बीजों के सहारे सृष्टि का विकास-क्रम अनुवर्त चलता रहता है, यदि उस बीज को प्रस्फुटित ही न होने दें तो सारी सृष्टि ही खतरे में पड़ जाएगी। यह समय है मंथन करने का, विचार करने का कि सृष्टि का अस्तित्व सह-अस्तित्व पर टिका है, न कि किसी एक के अस्तित्व पर।

मृदुला झा : आज की उपभोक्ता संस्कृति का असर सबसे अधिक नारी की अस्मिता एवं उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है, आपकी दृष्टि में यह कहाँ तक सही है ?

आकांक्षा यादव : नारी अस्मिता एक व्यापक शब्द है, जिसमें वह एक तरफ तो नारी घरेलू मोर्चे पर लड़ती है वहीं घर से बाहर भी नारी को अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़नी होती है। "यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमयन्ते तत्र देवता"- भारतीय संस्कृति में एक ओर जहाँ नारी को पूजनीय माना गया है वहीं नगरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक, अनपढ़ से लेकर पढ़ी-लिखी नारी तक, गृहिणी से लेकर कामकाजी नारी तक सभी को किसी न किसी रूप में बाहरी हिंसा के साथ-साथ घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। जहाँ तक उपभोक्तावादी संस्कृति की बात है, यह नारी को कई बार एक आब्जेक्ट के रूप में पेश करती है, जिसे केवल उपभोग करना है, मानो उसकी कोई भावना ही नहीं। महिलाओं को बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में लुभाने के अंदाज के कारण ही यह स्थिति आयी है।

उपरोक्त दोनों स्थितियों में नारी अपनी अस्मिता के लिए दोहरा संघर्ष करती है। भूंमडलीकरण के दौर में नारी अपनी शिक्षा एवं सजगता के चलते जहाँ आत्मविश्वास हासिल कर रही है, वहीं घरेलू उत्पीड़न, उपभोक्ता और उपयोगिता से मुक्ति के साथ-साथ अपनी स्वतंत्र अस्मिता व अस्तित्व के प्रश्न को एक नये सिरे से उठा रही है। इन सब के बीच नारी समाज को एक स्वतंत्र पहचान मिली है पर आज जरूरत है नारी जाति की उपलब्धियों को पितृसतात्मक समाज में स्वीकार किया जाना और उनकी उपलब्धियों की हर कीमत पर रक्षा करते हुए विस्तार किया जाय। नारी अस्मिता और विमर्श के नये आयामों, सवालों को नारी आन्दोलन और वैचारिक संघर्ष के केन्द्र में लाकर नारी अपनी नयी पहचान बना सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि नारी अस्मिता के संघर्ष के प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि नारी अपना पक्ष खुलकर रखे, और एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में अपनी स्थिति को जाने, उसे बदले और नये विकल्पों का निर्माण करे। यह नहीं भूलना चाहिये कि महिलाओं ने आवाज उठाया तो आसाराम, तरूण तेजपाल व जस्टिस गांगुली कटघरे में खड़े नजर आये। नारी सशक्तिकरण के माध्यम से ही सामाजिक तानेबाने को और अधिक मजबूत किया जा सकता है।

मृदुला झा : वर्त्तमान परिपेक्ष्य में नारी की स्वतंत्रता को आप किस रूप में लेती हैं। कहीं स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्छंदता को तो बढ़ावा नहीं मिल रहा है?

आकांक्षा यादव : नारी स्वतंत्रता पूरी दुनिया में एक गंभीर विषय रहा है, जिस पर अकादमिक से लेकर राजनैतिक स्तर तक और घरेलू से लेकर सामाजिक स्तर तक बहसें होती रहीं हैं। स्वतंत्रता, स्वच्छंदता नहीं है बल्कि यह एक मर्यादा के भीतर अपने अधिकारों का सम्यक प्रयोग और कर्तव्यों का संतुलित निर्वहन है। तेजी से बदलते ढाँचे में महिलाओं को स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अन्तर को समझना होगा। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में एक बहुत पतली-सी महीन रेखा है। इस रेखा को पार करते समय कई बार इसका अहसास भी नहीं होता कि स्वच्छंद हो गये हैं ?

आधुनिक समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वच्छंदता या उन्मुक्तता का पक्ष-पोषण करना इसकी विशेषतायें बन चुकी हैं। पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक कुछ लोगों को नारी स्वतंत्रता का रास्ता दैहिक वर्जनाओं को तोड़ने और उन्मुक्तता में दिखा। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो अभी भी सिर से पाँंव तक पूरे कपड़े पहने अपनी बौद्धिकता और जीवटता के दम पर समाज की रूढ़िगत वर्जनाओं को तोड़ने का साहस रखता है।

कई बार नारी की प्रगतिशील प्रवृत्ति को भी स्वच्छंदता मान लिया जाता है या फिर स्वच्छंदता की आड़ में स्वतंत्रता पर बंधन लगाने की मानसिकता भी कार्य करती है। जैसे कि समय समय पर महिलाओं के वस्त्र-चयन को लेकर, शिक्षा, घूमने-फिरने इत्यादि को लेकर नियम बनाये जाते हैं, उसे स्वच्छंदता का स्वरूप दिया जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। मॉरल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि महिलाएं अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं, मानों वे सेक्स ऑब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टॉप में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टॉप में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा महिलाओं की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है।

मृदुला झा : संयुक्त परिवार के टूटने से सामाजिक व्यवस्था कितनी प्रभावित हुई है?
आकांक्षा यादव : यह बात सर्वविदित है कि परिवार समाज की न्यूनतम इकाई है। ऐसे में परिवार में हम जिन गुणों-अवगुणों को सीखते-समझते हैं, वह समाज में भी अभिव्यक्त होता है। एक परिवार जितना ही अधिक शिक्षित और नैतिक गुणों से परिपूर्ण होगा, वह समाज उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा। एक परिवार की संपूर्णता इस रूप में संयुक्त परिवार में ही मिल सकती है। कमाऊ पति-पत्नी की अवस्था में बच्चों के विकास में संयुक्त परिवार का महत्वपूर्ण योगदान होता है। कई बार पति-पत्नी को अपनी नौकरी के चक्कर में यह पता भी नहीं चलता कि उनके बच्चों की परवरिश किस तरह हो रही है। उन्हें लगता है कि वे इसकी भरपायी पैसों से कर सकते हैं। इन परिस्थितियों में कई बार बच्चे गलत राह भी पकड़ लेते हैं या एकाकीपन के शिकार हो जाते हैं।

संयुक्त परिवार में रहते हुए अनुभव, धैर्य, सहनशीलता, नैतिकता, आदर तथा संस्कारों की एक पूँजी मिलती है। संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी खासियत रिश्तों की गर्माहट होती है, जिसे एकल परिवार में ढूंँढ पाना जहॉँ पर संबंध अपने व्यापक रूप में मिलता है, मुश्किल है। यहाँ स्वार्थपरता, क्षुद्रता से दूर हर रिश्ता पारदर्शी होता है। संयुक्त परिवार के टूटने से हम इन संपदाओं से वंचित हो जाते हैं और व्यक्ति के साथ परिवार और अंततः सामाजिक व्यवस्था बिखर जाती है।

संयुक्त परिवार के विघटन ने बड़े-बुजुर्गों में मानसिक असुरक्षा की भावना को विकसित कर दिया है, जिससे वे अकेलेपन से त्रस्त एवं पारिवारिक देखभाल के अभाव में उनका अवसादग्रस्त होना एक सामान्य बात हो गयी है। उनके आश्रय की समस्या, उनके साथ दुर्व्यवहार इसका सबसे विद्रूप उदाहरण है। हमें यह सोचना होगा कि जिस प्रकार किसी भी स्थायी वस्तु के लिए उसकी नींव या जड़ की महत्ता स्वतः सिद्ध है, उसी प्रकार सजीव रूप में परिवार की नींव या आधार बड़े-बुजुर्गों के रूप में होती है। बड़े बुर्जुगों के संरक्षण में आगामी पीढ़ियों में अच्छी परम्परायें और संस्कार प्रवाहित होते हैं।

मृदुला झा : साहित्य को राजनीति से जोड़ना आपके विचार से कहाँ तक उपयुक्त है? क्या वर्तमान संदर्भ में साहित्य व राजनीति एक-दूसरे के पूरक हैं ?

आकांक्षा यादव : साहित्य सामाजिक व सांस्कृतिक जड़ता से लड़ने की शक्ति देती है। यही कारण है कि साहित्य के लिए विचारों की स्वतंत्रता और उन्मुक्त अभिव्यक्ति आवश्यक है। देश-दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं जब साहित्य ने तमाम आंदोलनों को धार दी। वाल्टेयर ने साहित्य सृजन के माध्यम से फ्रांस क्रांति को जन्म दिया, कारण कि उसने चर्च धर्म के द्वारा समाज में जो विसंगतियांँ व विकृतियांँ पैदा हो गई थीं, उस अनुभव को समेटते हुये क्रांतिकारी साहित्य सृजन किया, जिसका फ्रांस के समाज पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। समकालीन समाज में भी ऐसे तमाम उदाहरण देखे-सुने जा सकते हैं। कभी अच्छे साहित्यकारों को राजसत्ता द्वारा प्रश्रय दिया जाता था क्योंकि साहित्यकार से अपेक्षा की जाती थीं कि वह बिना किसी राग-द्वेष के समाज की सच्चाईयों को अभिव्यक्त करेगा और राजसत्ता को इससे अपने माध्यमों से इतर एक अच्छा फीड बैक भी मिलेगा। आजादी के बाद भी कुछ दशकों तक राजनेताओं ने अच्छे साहित्यकारों से समय-समय पर संवाद स्थापित कर, उनका वैचारिक सहयोग लिया और इसी बहाने जन सरोकारों से जुड़ रहे। साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े तमाम लोग राजनीति में आये और कुछेक राजनेता तो स्वयं ही अच्छे साहित्यकार व बुद्धिजीवी थे।

वर्तमान दौर में गौर करें तो राजनीति और साहित्य  के अर्न्तसंबंध संक्रमण का शिकार हुये हैं। जो साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, खुद ही इतने गुटों में बँट गयी कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा। साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय। कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है ?  हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है। इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाजी चलती है। इस गलत परम्परा के विपरीत यही कहना मुनासिब होगा कि साहित्य और राजनीति को सकरात्मक दृष्टिकोण से सिक्के के दो पहलुओं की भाँति कार्य करना चाहिए क्योंकि यदि वे चाहे तो एक-दूसरे को समृद्ध कर सकते हैं और जन सरोकारों से ज्यादा जुड़ सकते हैं।

मृदुला झा : आकांक्षाजी, आप सोशल मीडिया और ब्लॉगिंग के माध्यम से भी बेहद सक्रिय हैं। आधुनिक समाज में इसकी भूमिका को आप किस रूप में देखती हैं ?

आकांक्षा यादव : संचार क्रांति के इस युग में सोशल मीडिया और ब्लॉग एक मजबूत स्तंभ के रूप में उभरे हैं। यह एक ऐसा स्पेस देता है, जहाँ लोग अपनी अनुभूतियाँ को न सिर्फ अन-सेंसर्ड रूप में  अभिव्यक्त करते हैं बल्कि पाठकों से अंतहीन खुला संवाद भी स्थापित करते हैं। यह सिर्फ जानकारी देने का माध्यम नहीं बल्कि संवाद, प्रतिसंवाद, सूचना विचार और अभिव्यक्ति का भी सशक्त ग्लोबल मंच है। आज यह परम्परागत मीडिया का न सिर्फ एक विकल्प बन चुका है बल्कि 'नागरिक पत्रकार' की भूमिका भी निभा रहा है।

तकनीकी विकास के साथ-साथ सोशल मीडिया दिन-प्रतिदिन लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ रहा है। राजनीति से लेकर, व्यापार, आम आदमी से लेकर ऊँची हस्तियाँ, साहित्य से लेकर पत्रकारिता, सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर सरकार तक सभी ने इसे अनिवार्य अंग के रूप में अपनाया है। आज सोशल मीडिया सामाजिक जीवन का दर्पण बन चुका है। तमाम सोशल वेबसाइट्स सिर्फ मनोरंजन और सामाजिकता निभाने तक ही नहीं बल्कि क्रांति तक का हथियार बन चुकी हैं। अरब देशों में हुई क्रांति से लेकर भारत में अन्ना हजारे के आंदोलन की बात हो या फिर दिल्ली में 'दामिनी' के साथ हुए गैंगरेप के विरूद्ध जनाक्रोश हो इन सारी घटनाओं में सोशल मीडिया ने बेहद अहम भूमिका निभाई है। बेबाक अभिव्यक्ति के रूप में सोशल मीडिया एक ऐसा अचूक अस्त्र बन चुका है, जिसका सकारात्मक इस्तेमाल करने पर समाज को नई दिशा तक दी जा सकती है। इसने एक तरफ 'सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण' को बढ़ावा दिया है, वहीं सोशल मीडिया के माध्यम से सामाजिक व्यवहार और संवाद के तौर तरीके भी बदलते नजर आ रहे हैं।
मृदुला झा : 21वीं सदी इंटरनेट की है और इंटरनेट ने नारी स्वातंत्र्य व नारी सशक्तीकरण को नये मुकाम दिये हैं। आपने इससे संबंधित तमाम आलेख भी लिखे हैं। सोशल मीडिया में इस प्रकिया को आप किस रूप में देखती हैं ? 

आकांक्षा यादव : इंटरनेट ने नारी स्वातंत्र्य व नारी सशक्तीकरण को नये मुकाम दिये हैं। इसके माध्यम से न सिर्फ वे एकजुट हो रही हैं बल्कि अपनी क्षमताओं को भी बखूबी पहचान रही हैं। नारी सशक्तीकरण सिर्फ एक अमूर्त अवधारणा नहीं है बल्कि इसका अर्थ है कि नारी संबंधी समस्याओं की पूरी जानकारी के लिए उनकी योग्यता व कौशल में वृद्धि कर सामाजिक एवं संस्थागत अवरोधों को दूर करने का अवसर प्रदान करना, साथ ही आर्थिक व राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारियों में बढ़ावा देना ताकि वे अपने जीवन की गुणवत्ता में व्यापक सुधार ला सकें। ऐसे में इंटरनेट स्त्री आन्दोलन, स्त्री विमर्श, महिला सशक्तिकरण और नारी स्वातंत्र्य के हथियार के रूप में उभरकर सामने आया है। यहाँ महिला की उपलब्धि भी है, कमजोरी भी और बदलते दौर में उसकी बदलती भूमिका भी।

आज महिलाओं से जुड़ी तमाम वेबसाइट्स और ब्लॉग सक्रिय हैं, वहीं फेसबुक पर भी व्यक्तिगत प्रोफाइल के अलावा तमाम पेज व ग्रुप महिलाओं को समर्पित हैं। सोशल मीडिया ने महिलाओं को खुलकर अपनी बात रखने का व्यापक मंच दिया है। तभी तो इनका दायरा परदे की ओट से बाहर निकल रहा है। ये महिलाएं अपने अंदाज में न सिर्फ सोशल साइट्स पर सहित्य-सृजन कर रही हैं बल्कि तमाम राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक मुददों से लेकर घरेलू समस्याओं, नारियों की प्रताड़ना से लेकर अपनी अलग पहचान बनाती नारियों को समेटते विमर्श, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से लेकर पुरूष समाज की नारी के प्रति दृष्टि, जैसे तमाम विषय यहाँ चर्चा का विषय बनते हैं। यहाँ अल्हड़पन है तो गंभीरता भी। महिलाओं की शिक्षा, कैरियर, स्वास्थ्य, कन्या भ्रूण हत्या, यौन शोषण, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, दहेज, खान-पान, संगीत, ज्योतिष, धार्मिक विश्वास से लेकर राजनैतिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य, भ्रष्टाचार, मंहगाई, पर्यावरण, इत्यादि जैसे तमाम मुद्दे यहाँ पर चर्चा का विषय बनते हैं। यहाँ पर खुलेपन की बातें हैं तो सीमाओं का एहसास कराते संस्कार भी हैं। आज की महिला यदि संस्कारों और परिवार की बात करती है तो अपने हक के लिए लड़ना भी जानती है। ऐसे में सोशल मीडिया पर स्त्री की कोमल भावनाएं हैं तो दहेज, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, ऑनर किलिंग, सार्वजनिक जगहों पर यौन उत्पीड़न, लिव-इन-रिलेशनशिप, महिला आरक्षण, सेना में महिलाओं के लिए कमीशन, न्यायपालिका में महिला न्यायधीशों की अनदेखी, फिल्मों-विज्ञापनों इत्यादि में स़्त्री को एक 'आबजेक्ट' के रूप में पेश करना, साहित्य में नारी विमर्श के नाम पर देह-विमर्श का बढ़ता षडयंत्र, नारी द्वारा रुढ़ियों की जकड़बदी को तोड़ आगे बढ़ना.......जैसे तमाम विषयों के बहाने स्त्री के 'स्व' और 'अस्मिता' को तलाशता व्यापक स्पेस भी है। साहित्य की विभिन्न विधाओं से लेकर प्रायः हर विषय पर सशक्त लेखन और संवाद स्थापित करती महिलाएं सोशल मीडिया में काफी प्रभावी हैं।

विचारों के आदान-प्रदान से लेकर संवाद-प्रतिसंवाद तक नारीवादी विमर्श सोशल मीडिया के जरिये विस्तृत हो रहा है। दिल्ली में हुए गैंगरेप और 5 साल की बच्ची के साथ हुये वीभत्स बलात्कार के बाद उत्पन्न स्थिति में तमाम महिलाओं ने सोशल मीडिया के जरिए न केवल आंदोलन की रूपरेखा तय की बल्कि महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता से लेकर असहिष्णु होते समाज पर लाखों लोगों द्वारा की गई टिप्पणियों ने ऐसे कुकृत्य के विरूद्ध एक माहौल भी बनाया। नतीजा सामने था और सरकार को कारवाई करना पड़ा।

भारत में अकेले फेसबुक से अभी 30 प्रतिशत महिलाएं जुड़ी हुयी हैं। अब तक घरों और परिवारों के दायरे में रही महिलाएं यहाँ अपनी क्षमता दिखाने और पहचानने को तत्पर दिखती हैं। तभी तो महिलाएं घर में घरेलू कार्यों के साथ-साथ अपने दिलोदिमाग में यह भी मंथन कर रही होती हैं कि आज वह किस मुद्दे को लेकर सोशल साइट्स पर लिखेंगी ? जिन मुद्दों व बातों को लेकर घर और समाज में बोलने की बंदिशे हैं, वे सोशल साइट्स पर खुलकर शेयर की जा रही हैं और उन पर अच्छी-खासी बहस भी हो रही है। यहाँ तक कि सोशल मीडिया के मामले में घरेलू महिलाएं कामकाजी महिलाओं से ज्यादा सक्रिय हैं। घरेलू महिलाओं द्वारा सोशल मीडिया इस्तेमाल करने का आंकड़ा जहाँ 55 फीसदी है, वहीं कामकाजी महिलाओं का 52 फीसदी। अनुभवों और आपबीती को साझा करने से व्यक्तित्व के कितने सुखद पहलू सामने आ सकते हैं, आगे बढ़ने का किस कदर संकल्प जाग सकता है, सोशल मीडिया इसका ज्वलंत उदाहरण है।

मृदुला झा : आप पति-पत्नी दोनों साहित्यकार हैं। आपको अपने पतिदेव से साहित्य लेखन में मदद मिलती है?

आकांक्षा यादव : यह हमारे लिए सौभाग्य का विषय है कि हम दोनों सृजनधर्मी हैं। यह सृजनधर्मिता सिर्फ पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर ही नहीं बल्कि वैयक्तिक और साहित्यिक धरातल पर भी है। ऐसे में साहित्य सृजन में काफी सहयोग व वैचारिक आधार भी मिलता है। पतिदेव कृष्ण कुमार जी भारतीय डाक सेवा के अधिकारी होने के साथ-साथ साहित्य में भी निरंतर प्रवृत्त हैं। इनसे मैं इनसे सिर्फ पत्नी के रूप में ही नहीं जुड़ी हूँ, बल्कि एक रचनाकार और पाठिका के रूप में भी जुड़ी हुई हूँ। ये एक साथ ही उत्कृष्ट प्रशासक, मानवीय मूल्यों के प्रति आस्थावान संवेदनशील व्यक्ति, कवि-हृदय, साहित्यकार, लेखक एवं ब्लाँगर हैं। अपने हृदयगत उद्गारों, मनोभावों, अनुभूतियों, विचारों और अपने परिवेश एवं समाज में होने वाली गतिविधियों को अपनी विशिष्ट शैली और सशक्त लेखनी द्वारा विविध विधाओं में अभिव्यंजित करना इनका सहज स्वभाव है। सौभाग्यवश हमारी कई अभिरुचियाँ भी समान हैं।
अध्ययन, लेखन, ब्लॉगिंग व पर्यटन हम दोनों की अभिरुचियों में शामिल हैं। इस अद्भुत संयोग पर एक गीतकार की पंक्तियां याद आती हैं- ''खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।'' इसे स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि कभी-कभी कुछ सामाजिक व साहित्यिक मुद्दों पर हमारे विचार आपस में नहीं मिलते और स्वस्थ आलोचना के तहत मैं इनका प्रतिवाद भी करती हूँ। इस पर भी यह कभी विचलित नहीं होते और हँसकर कहते हैं कि -''बढ़िया है! मेरी एक आलोचक घर में ही मौजूद है। कम से कम इसी बहाने अपने विचारों को परिमार्जित तो कर लेता हूँ और बाहर की आलोचनाओं से समय रहते बच जाता हूँ।'' एक रचनाकार के रूप में भी मैंने इनसे बहुत कुछ सीखा है। मैं एक नारी हूँ और ऐसे में जब नारी विमर्श से जुड़ी इनकी रचनाएं पढ़ती हूँ तो पाती हूँ कि स्त्री-पुरुष समानता सिर्फ इनकी रचनाओं में ही नहीं है बल्कि वास्तविक जीवन में भी इस अवधारणा के यह कायल हैं।

संपर्क :
आकांक्षा यादव,
टाइप 5  निदेशक बंगला, पोस्टल ऑफिसर्स कॉलोनी
जेडीए सर्किल के निकट, जोधपुर, राजस्थान - 342001
ई-मेल : akankshay1982@gmail.com <mailto:akankshay1982@gmail.com> Cy‚x % <
http://shabdshikhar.blogspot.in/>
फेसबुक : <
https://www.facebook.com/AkankshaYadav1982>

साक्षात्कारकर्ता -
मृदुला झा,
बेलन बाजार, मुंगेर, बिहार-811201
मो0-9430589856

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: साक्षात्कार - आकांक्षा यादव : जीवन का साहित्य और कला के सृजन से है स्वाभाविक जुड़ाव
साक्षात्कार - आकांक्षा यादव : जीवन का साहित्य और कला के सृजन से है स्वाभाविक जुड़ाव
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