बौद्धिक सर्जनाश्रित रागात्मक स्पन्दनों से समृद्ध डा- महेद्रभटनागर-विरचित काव्य - कृति - ‘जीवन-राग’ समीक्षक - ‘डा0 नंद मेहता ‘वागीश’ मनुष...
बौद्धिक सर्जनाश्रित रागात्मक स्पन्दनों से समृद्ध
डा- महेद्रभटनागर-विरचित काव्य-कृति - ‘जीवन-राग’
समीक्षक - ‘डा0 नंद मेहता ‘वागीश’
मनुष्य जीवन का अस्तित्व मूलतः राग-आश्रित है। शरीर के लिए आवश्यक कुछ सहज-स्वाभाविक क्रियाओं को छोड़कर मानव का समस्त कर्म- चिंतन, मन की रागात्मक वृत्ति से बंधा हुआ चलता है। यह जगत् द्वंद्वमूलक है। राग का ही एक उत्तर अंश है - विराग। नकार और सकार दोनों एक ही वृत्ति के प्रकार-प्रसार है। सभी आसक्तियाँ, संसक्तियाँ और विरक्तियाँ रागसंजात हैं। रुचि-अरुचि, आकर्षण-विकर्षण, भोग-भुक्तियाँ और योग-युक्तियाँ, जीवन-राग के ही पहलू हैं। इस दृश्य जगत् में राग न हो तो जीवन का कोई अर्थ नहीं है। फिर तो कोई श्रुति, स्मृति, दृष्टि और मनःसृष्टि भी नहीं है। अपने होने का राग भी तभी फलित होता है जब जगत् के दृश्यों, क्रिया-कलापों, गतियों, ध्वनियों और उनकी अनुगूँजों से गुज़रा जाए। ‘जीवन राग’ का कवि इन सबके बीच खड़ा है। स्मरणीय यह है कि कवि जीवन के इन सभी गति-रूपों, दृश्यों और रंगों के बीच अकेला नहीं है। तत्त्वतः हम सभी उसके संग हैं। सबके मन की गति, नियति एक-सरीखी है। सच बात तो यह है कि यह केवल आधुनिक मन और जीवन का राग नहीं है। न्यूनाधिक रूप से काल और परिवेश की भिन्नता के बीच भी जीवन का राग मनुष्य का स्वाभाविक राग है। इन राग-रूपों का कर्त्ता, भोक्ता और द्रष्टा भी स्वयं मनुष्य ही है। राग की यह लय सनातन है। यह किसी की निजता की चयन-रुचि पर निर्भर नहीं है। सर्वमन और समष्टि भाव की लय ही ‘जीवन राग’ है।
इसी ‘जीवन राग’ के रचनाकार हैं - कवि महेन्द्रभटनागर हैं। उन्होंने दार्शनिक अभिव्यंजना से मनुष्य-जीवन के उल्लास और विषाद आशा-निराशा, आस्था-विश्वास, विचारणा और संवेदना, यथार्थ और संभावना, काया और मन, कायावेग और नैतिकता तथा मनःशरीरी मानव-जीवन की प्रेरित-स्वयंचालित, मौलिक और अनुकृत, सुन्दर और असुन्दर, अनुकूल और प्रतिकूल एवं स्वाभाविक-अर्जित द्वन्दात्मक रूपों के वैविध्य को बुद्धिसजग भावकत्व से लयात्मक कविताओं में ढाल दिया है।
केन्द्रीय भाव-प्रधानता और बोध की दृष्टि से जीवन-राग की कविताएँ विविध शीर्षकों में वर्गित हैं। अनुक्रमशः पहला वर्ग है - ‘राग-संवेदन’। इस वर्ग की बीस छोटी कविताएँ जीवन-यथार्थ को सही परिप्रेक्ष्य के देखने के वैचारिक बोध से गुजरती हैं। वस्तुतः यथार्थ के अनुभवों ने ही कवि को सही ढंग से जीवन जीने और जीवन के मर्म को समझने का वैचारिक सामर्थ्य प्रदान किया है। पर ऐसा नहीं है कि ये कविताएँ नितान्त वैयक्तिक स्पर्श की धारिणी हैं। कवि यह जानता है कि ऐसा होते ही रचनात्मकता चुकने लगती हैं। वैयक्तिक स्पर्श भी जब सर्वग्राह्य होकर शब्द में उतरता है तो कवि-मन को स्वीकार्य होता है। स्पष्ट है कि कविताओं में कवि की रागात्मक अनुभूतियाँ भी ऐसे कौशल से ढली हैं, जिनमें समष्टिरूप वैचारिक कणिकाएँ झिलमिलाने लगती हैं। जीवन में वैचारिक कणों को बीनना, कवि की रचना-शक्ति भी है और रचना-पद्धति भी।
जीवन-राग के दूसरे वर्ग में 25 कविताएँ ‘अनुभूत क्षण’ शीर्षक से संगृहीत है। अपेक्षानुरूप अनुभूत क्षणों की कुछ कविताएँ वेगभावित और लघ्वाकार हैं। ऐसी कविताओं में प्रेम, आकर्षण, आशा-निराशा, साहस, एकाकीपन, विवशता, वेदना, वास्तविकता और स्मृतियों के दंश और चाहतें आदि मनोभाव ऐसी लघु लयों में निबद्ध हैं, जिनमें कवि की अनुभूतियाँ प्रतीकों और अप्रत्यक्ष कथनों के माध्यम से पाठक मन को संवेदित वैचारिकता के माधुर्य से तृप्त करती हैं।
संग्रह के तीसरे वर्ग ‘आहत युग’ की कविताएँ इसी शीर्षक से पूर्व प्रकाशित पुस्तक से ली गई है। सन् 1997 में प्रकाशित इस पुस्तक की 44 कविताओं में से स्वरुचि-चयनाधार पर कवि ने 15 कविताओं को प्रस्तुत वर्ग में स्थान दिया है। अन्तर्भाव की दृष्टि से सभी कविताएँ प्रायः समानधर्मा हैं। इनमें अनपेक्षित घटनाचक्रों, पीड़ाओं, विश्वासघातों, जीवन में मिली प्रतिक्रियाओं और कठोर वास्तविकताओं को विचारात्मक प्रतीकों से अभिव्यक्ति मिली है। मात्र कवि-मन ही आहत नहीं है, यह युग की गति-प्रवृत्ति का स्वभाव है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि कवि इन व्यथाओं का द्रष्टा मात्र है, भोक्ता कोई और है। काव्यात्मक सच्चाई यह है कि कवि का आहत मन ही ‘आहत युग’ का साधरणीकृत रूप है। इसलिए प्यार और संबंधों में मिला छल भी ‘आहत युग’ का हिस्सा है। हर आदमी अपनी मुसीबत में अकेला है। यह यातना हमें भोगनी ही है। इसलिए मनुष्य के विषय में कवि कहता है कि ‘अपनी हर मुसीबत में-अकेला ही जिया है आदमी (पृ0 70द्ध। साथ ही कवि अकेलेपन की मनःस्थिति को सार्थक जीवन जीने के लिए आवश्यक मानता है। इस विचार का एक आयाम यह भी है कि ‘पा इसे मन में न हारो-रे अकेलापन महत वरदान है-अवधान है’ (पृ0 73 -अवधान)। अकेलेपन को मिटाने के लिए कवि संवाद की भूमिका को भी प्रशस्त करते हुए कहता है कि संवाद और प्यार की थपथपाहट भी आदमी के काम की चीज है - ‘मुस्कान दो उनको-अकेलापन बँटेगा-थपथपाओ प्यार से-मनहूस सन्नाटा हटेगा’ (पृ0 71, दिशाबोध)। कवि को इस बात का अहसास है कि यह िजंदगी इतनी फुर्सत नहीं देती कि आपकी सभी कल्पनाएँ साकार हो सकें। जिंदगी के अपने रूप हैं, चाहे वह दर्द का रूप हो, प्यार का हो, मजबूरी का हो, अभाव का हो, बंधन का हो, प्रवाह के साथ बहने की चुनौती का हो या फिर मन मारकर खामोशी का हो, सभी रूपों से जिंदगी को गुजरना पड़ता है।
‘जीवन राग’ के क्रमशः बढ़ते कदम ‘जीने के लिए’ प्रस्थित हुए हैं। यद्यपि सन् 1977-1986 तक रचित ये कविताएँ इसी ‘जीने के लिए’ शीर्षक से पुस्तकाकार में पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘जीने के लिए’ वर्ग में संगृहीत 22 कविताएँ जीवन-राग की रचना-संगत से कुछ भिन्न हों, ऐसा नहीं है। उपलब्ध परिवेश की कठोरताएँ और चुनौतियाँ यथावत् हैं, पर कवि का संदेश यही है कि मनुष्य को मजबूर मत समझो। ‘दिशाओं में फैली दहशत और चारों और बह रही गंधक-गरल सरीखी हवाओं के बीच भी मनुष्य को उद्दिष्ट मंजिल तक अविरल चलना है’ (पृ0 83)। कवि की कामना है कि कभी तो हम कृत्रिम मुस्कानों के मुखौटे उतारकर जिंदगी को सहज ढंग से जी सकें (पृ0 86)। कवि को विश्वास है कि अपनी बहुमूल्य विरासत में कविता ही वह - ‘ऋचा है, इबादत है’ जो आदमी को क्षुद्रताओं से मुक्ति दिला सकती है (पृ0 88)।
‘जीने के लिए’ का मर्म केवल अपने जीने से ही नहीं है। मनुष्येतर प्राणियों, यहाँ तक कि वन-लताओं और द्रुमों से प्यार करना भी आदमी का धर्म है (पृ0 89)। चाहे व्यवस्था-निर्मित यथार्थ कितना ही कठोर और भेदभावकारी क्यों न हो, तो भी अपनी बहुमूल्य वैचारिक विरासत का अमूर्त आकर्षण हममें कम नहीं होना चाहिए (पृ0 88)। कामना यह है कि ऐसे अमूर्त विचार, साकार हों। कवि का मुक्तिबोध कोई वायवीय कामना नहीं है और न ही इस मुक्ति-बोध की कोई आध्यात्मिक चाहत है। कवि की मुक्ति का रास्ता जीवन से भागने का नहीं है, बल्कि जीवन को बदलने का है। इसलिए व्यवस्था में आया सार्थक बदलाव कवि-मन को राहत देता है। वस्तुतः अनइच्छित और ग़ैर रचनात्मक दैनिकता के अभ्यास से कवि की चेतना आहत है। व्यवस्था की हदबंदी और हड़बड़ाहट को कवि-मन स्वीकार नहीं करता। इसलिए मुक्ति-बोध का अहसास होते ही कवि बेफिक्री को समेट लेना चाहता है - अब बेफिक्री से सोऊँगा बेफिक्री से टहलूँगा -अब नहीं होगी हड़बड़ी तोड़ दी है हथकड़ी हर कड़ी (पृ0 97)। उदार व्यष्टि मन, समष्टि मन का ही प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए कवि के व्यष्टि-चित के मुक्तिबोध में भी समष्टि की मुक्ति-कामना, समानान्तर भाव से निहित रहती है।
‘जीने के लिए’ जूझना पड़ता है। ‘जूझते हुए’ वर्ग की कविताओं का यही केन्द्रीय स्वर है। इसी स्वर की सटीक अभिव्यक्ति करती है - इस वर्ग की पहली कविता - ‘कश-म-कश’। कवि ने उर्दू भाषा के कशमकश शब्द को बलाघात देकर इस प्रकार लिपित किया है कि इस शब्द की अनुगूँज-ऊर्जा दूर तक पहुँचती है। जीवन जीने में व्यक्ति इस कदर उलझा रहता है कि खुद से बाहर देखने और यहाँ तक कि स्वयं को महसूस करने की समझ भी खो बैठता है -जिन्दगी की कश-म-कश में देखना-महसूसना-जैसे तनिक भी-था न वश में (पृ0 112)। इस वर्ग-शीर्षक में 14 कविताएँ है। जिन्दगी के संघर्ष और अन्य ऐसी रचनाओं में ‘निष्कर्ष, गन्तव्य-बोध, विराम, सामर्थ्य-भर, संधान और आदमी’ शीर्षक कविताएँ उल्लेखनीय हैं। ‘आदमी’ कविता में मनुष्य के विश्वासघाती आचरण को लक्षित करते हुए कवि की मनःपीड़ा आश्चर्य में डूबने लगती है - किन्तु अचरज-आदमी है-आदमी से आज-सर्वाधिक अरक्षित (पृ0 124-आदमी)
‘जूझते हुए’ आदमी का एक ही बल है और वह है संकल्प। इस हेतु काव्य-यात्रा का छठा वर्ग है ‘संकल्प’, जिसमें 17 कविताएँ संकलित हैं। स्पष्ट है कि इन कविताओं में कवि-मन की संकल्पनात्मक ध्वनि निनादित है। इस वर्ग की प्रथम कविता ‘बाधाएँ ः चुनौती है’ में कवि के संकल्प का स्वरूप, हौसला देता प्रतीत होता है - कठिनाइयों के सामने-पग-डगमगाते हैं नहीं-लगाकर पंख बिजली के-घटा आकाश का विस्तार लेते नाप (पृ0 131)। वर्गित कविताओं के मुख्य स्वर के अतिरिक्त विवशता, स्वप्न-भंग, अविश्वास, स्वार्थपरता, आत्ममुग्ध विश्लेषण, अभावों की पीड़ा और उपालम्भ आदि वैयक्तिक भावों की अभिव्यंजक कविताएँ भी प्रवाहधारा की तरगें बनी हैं।
काव्य-संग्रह ‘जीवन राग’ का अगला प्रवाह ‘संवर्त’ शीर्षक से अभिलक्षित हुआ है। इस वर्ग में 31 कविताएँ हैं। जीवन में आकस्मिक रूप में घटित घटना ‘संवर्त’ है । प्रायः जीवन-पथ में आया मोड़ अनपेक्षित होता है, पर यह मोड़ रोचक भी हो सकता है और प्रेरक भी। कवि की अनुभूति का एक रूप यह भी है - सनातन-एक से पथ पर-नयापन जब नज़र आता नहीं-मुझसे चला जाता नहीं-तभी तो-हर नवागत मोड़ का-भाव-भीना- मुग्ध स्वागत (पृ0 157)। संवर्त एक घटना है, प्रक्रिया भी हो सकती है। इस दृष्टि से जीवन की अन्य राग प्रवृत्तियाँ भी मुख्य प्रवृत्ति के साथ-साथ चलती रहती हैं। ‘संवर्त’ की चुनौती को अभिनव संदर्भ देने वाले कवि की स्मृतियाँ( आशा-निराशा, अनास्था-आक्रोश, पछतावे और वेदना के बीच भी अनागत की प्रतीक्षा करती हैं। मोह-भंग होने पर भी मधुमास की कामना करती हैं। स्पष्ट है कि घुप अँधेरे का संवर्त भी कवि की रोशनी की तलाश को मंद नहीं कर पाता।
‘जीवन-राग’ के प्रवाह में भवितव्य की साधना ‘संतरण’ है। इस वर्ग में 26 कविताएँ हैं। यह काव्यात्मक सर्जना का अष्टसाधानात्मक लक्षण है। संतरण का अर्थ है, प्रवाह पर तैरकर पार होना। रूपक के माध्यम से मानवता को आश्वस्त करते हुए कवि कहता है - ओ भवितव्य के अश्वो-तुम्हारी रास-हम आश्वस्त अन्तर से सधे-मज़बूत हाथों से दबा-हर बार मोडें़गे (पृ0 195)। जीवन सागर से संतरण के लिए आस्था, उत्साह और विश्वास आवश्यक है। इसी भाव से सपनों को भी सहेजना पड़ता है। तब जाकर आदमी शक्ति, साहस और सर्जना का आवाहन करता है। कवि मानता है - स्वप्न-एषणा और आकर्षण-सनातन है, सनातन है-आदमी का प्यार सपनों से-सनातन है (पृ0 200)। बीजांकुरण के रूप में शक्ति का प्रतीकीकरण पाठकीय ध्यान को आकृष्ट करता है - फोड़ धरती की खड़ी चट्टान को-ऊर्ध्वगामी शक्ति का व्यक्तित्व-अंकुर फूटता है (पृ0 224)। आस्था, विश्वास, साहस और शक्ति के मुख्य स्वरों के बीच यथार्थ, प्रतिकार, गति-चेतना, एकरसता, करुणा और पीर के स्वर भी जीवन-राग के ऐसे स्वर हैं, जो कवि सर्जना के माध्यम से मनुष्य स्मृति के प्रवाह के अंग बने है। कवि की दृष्टि में एकरसता जीवन-प्रवाह का उसी प्रकार का अवरोध है, जैसे चन्दन वृक्ष अत्यधिक विषैले सर्पों से घिर गया हो - एकरसता, एकस्वरता-बन गया है नाम जीवन का-विषैले पन्नगों से बद्ध-मानो वृक्ष चन्दन का (पृ0 206)।
‘जीवन-राग’ का नवम और निर्णायक अंश है - ‘जिजीविषा’, जो मनुष्य को हिम्मत न हारने की प्रेरणा देती है। साहस और विश्वास जिजीविषा के लक्षण हैं। प्रवृत्ति की दृष्टि से जिजीविषा वर्ग की कविताओं का मुख्य स्वर यही है कि साहस और विश्वास बनाए रखो - हिम्मत न हारो-कंटकों के बीच मन पाटल खिलेगा एक दिन-हिम्मत न हारो (पृ0 229)। जिजीविषा वर्ग में 17 कविताएँ संकलित हैं। जिजीविषा का मूल स्वर इस संग्रह के अन्तिम नाट्योन्मुखी गीत-’नई जिन्दगी’ की वाद्य-संगीतमयी प्रस्तुति के साथ दृश्यांकित हुआ है - भविष्यत् विश्व का नव लक्ष्य सुन्दर है (पृ0 246)। लगता है यही कवि की सर्जनात्मक कामना है, जिसमें जीवन-राग की प्रथम कविता ‘यथार्थ’ को भी विश्रान्ति प्राप्त करते हुए भावित किया जा सकता है।
विचार-प्रवृत्तियों की दृष्टि से कवि की सर्जनात्मकता विविध लक्षणा है। यद्यपि ये सभी लक्षण जीवन से जुड़े हैं। कवि की उद्भावना मूलतः लोकायत स्वभाव की है। कविताओं में मनुष्य का ठेठ पार्थिव पक्ष चित्रित हुआ है, पर विशेषता यह है कि यथार्थ का सर्जनात्मक उद्घाटन सहज मानवीय परिप्रेक्ष्य का अंग बनकर उपस्थित हुआ है। अर्थ और काम मनुष्य के मुख्य पुरुषार्थ हैं। कामवासना आदिम राग है। कवि के समर्थ शब्दों का अर्थ यह है कि वासना का तीव्र वेग जब भूकम्प की तरह मन पर उतरता है, तब जीवन में धारित सभी मर्यादाएँ टूट जाती हैं और संयम के सभी लौह-स्तम्भ भरभरा कर गिर जाते हैं (पृ0 21)। स्पष्ट है कि ये कविताएँ किसी कल्पित आदर्श, मनोगत भाव अथवा घोषित-आन्दोलित सिद्धान्त की जकड़न में नहीं पड़ती, हालांकि कवि से सम्बद्ध कृतियों के शीर्षक की जनवादी और प्रगतिशीलता जैसी शब्दावलि, एक विशिष्ट वैचारिकता को संकेतित करती है। यूँ युवावस्था में प्रगतिशील कहे जाने का सम्मोहन कवियों को प्रायः आकर्षित करता है, जबकि तात्त्विक सच्चाई यह है कि कवि होना ही प्रगतिशील होना है। प्रगतिशीलता कविता का मनस्तात्त्विक लक्षण है। मनुष्य मन और मानवीय चैतन्य की गहरी समझ की ये कविताएँ आश्वस्ति देती हैं कि रचनाकार की सर्जनात्मकता ऐसे वितंडकों के मकड़जाल से मुक्त रही है, जो रचना के सहज आनंद के भीतर भी मार्क्सवादी सिद्धान्तों के लक्षण तलाशा करते हैं। सत्य तो यह है कि इस कृति की कविताएँ और गीत जीवन-राग के विविध रूपों, रंगों, रुचियों और सकारात्मक विचारों से भरे-पूरे हैं। उनमें प्रकृति-चित्रण सहित जीवन के राग-रंग, मन, प्रेम, वेदना और कामकर्षण के बीच मानव-गरिमा उपस्थित है। वस्तुतः मूर्त जगत् और अमूर्त विचार के सेतु पर कवि अपनी रचना का निर्माण करता है। इसलिए कवि की वैचारिकता धरती की सच्चाइयों की खाद से अपने सपनों को बोती, बीनती और अंकुरित करती चलती है। कविताओं में जीवन-दृष्टि और लय-सृष्टि का सुन्दर संगमन है।
वर्तमान परिवेश की कविताओं का उपमान-विधान अपनी मान्यताओं, जातीय संदर्भों और स्मृतिप्रज्ञता से नितान्त विच्छिन्न नहीं है। कविताओं में ‘अभिशाप की-जीवन्त प्रतिक्रिया रूप-शकुन्तला है’ (पृ0 85)। सीताहरण प्रसंग (पृ0 203) राम के जीवन की घोर विपदा है, किन्तु कवि का मन्तव्य मनुष्य-हृदय में यह धारणा जगाता है कि विकट संकट में भी मनुष्य साहस न छोड़े, क्योंकि विपद के बाद - ‘नहीं दूर अब और-अभिनव अनागत सुबह’ (पृ0 203)।
‘जीवन-राग’ कृति के अप्रस्तुत विधान का फलक वैचारिक उद्भावनाओं से समृद्ध है। कथ्य के समानान्तर उपमा-प्रतीक-उत्प्रेक्षा, रूपक, वक्रोक्ति, विरोधाभास उदाहरण और मानवीकरण ऐसे अलंकारों के साभिप्राय प्रयोग से कवि बिम्बधर्मी क्रियागतियों और दृश्य-रूपों से सज्जित भाषा को चित्रपट सरीखे कौशल से बुनता चलता है। भाषा की इस बुनावट को पाठक अपने समक्ष साकार रूप से अनुभव कर सकता है। इस दृष्टि से कवि की अभिव्यक्ति विश्वसनीय है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने जगत् के विविध दृश्यों, क्रियाकलापों, प्रतिभावित स्थितियों, उनके प्रभावों और परिणामी पद्धतियों से गुजरती जीवन की गतिविधियों को निकटस्थ होकर देखा, भोगा और जीया है। कवि ने अपने दीर्घ जीवन के मधुर-तिक्त क्षणों, अनुभवों और भावित अनुभूति-कणों को मानवीय परिप्रेक्ष्य में प्रबुद्धता, नवीनता और मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। जीवन-राग के नाना रंग हैं, जो कवि की भावना और बुद्धि-पथ का आश्रय पाकर मनुष्य मात्र के मनोगत भावों, कल्पनाओं और विवक्षाओं को सार्थक गतिलय से भर देते हैं।
इस कृति की काव्यात्मक वैचारिकता मुख्य रूप से लयात्मक पंक्तियों में विलसित होती हुई चलती है। अपवादरूपेण ही कतिपय स्थल ऐसे होंगे जिनमें प्रयुक्त काव्य-पंक्तियों को किंचित् आगे-पीछे करके लय को और अधिक सहेजा जा सकता था। अभ्यास के सहज स्पर्श से प्रतिभाजात लय और अधिक श्रुतिमधुर हो जाती है। ऐसा सामर्थ्य, कवि में है। समधीत और बहुभाषाविद् कवि, हिंदी-संस्कृत के पांडित्य के साथ-साथ, उर्दू-शब्दावली के आवश्यक प्रयोग में भी दक्ष हैं। कृति के रचना-स्वरूप में व्याप्त कवि की भाषाप्रज्ञता निश्चित रूप से पाठकों का ध्यान आकृष्ट करती है। एवम्गते, कभी-कभी ऐसा लगता है कि कवि रचना के अन्तर्सम को त्वरावश पा लेना चाहता है। कवि-मन की भाव-शबलता से रचना-रूप में कहीं-कहीं ऐसा व्यत्यास घटित हुआ है।
काव्य पंक्तियों में छोटी-छोटी मुर्कियाँ देकर लय को साधने में कवि कुशल है। मुर्की मूलतः संगीत-शास्त्रीय शब्द है। इससे अभिप्राय यह है कि आगे-पीछे के शब्दों के स्वर मिलाकर किसी स्वर को मोहक रूप देना। हिंदी कवि महेन्द्र भटनागर ने उर्दू मिज़ाज से अपनी कविता को सँवारा हैं। उर्दू का एक शब्द है कशमकश - जिसका अर्थ है - संघर्ष, खींचातानी। इस शब्द में उच्चारण-सम्भूत अनुप्रासत्व को उभारते हुए कवि ने अपनी कविता ‘अवधान’ में इस शब्द को नूतन ढंग से अंकित किया है - कश-म-कश। मध्य ‘म’ के योजकत्व से शब्द तो वही रहता है, किन्तु उसकी उच्चारण-तान खनक से भर जाती है। ऐसे लगता है कि जैसे संगीत की थाप सम पर ध्वनित हो रही है। बिना अर्थ बदले शब्द का यह नया रूप दर्शनीय है - कश-म-कश की जिन्दगी में-आदमी को चाहिए-कुछ क्षण अकेलापन (पृ0 71)। शब्द को नए रूप में ध्वनित करने से आगे बढ़कर सूक्ष्मतम क्षण-स्थिति को मूर्तित करने में भी कवि की उद्भावक प्रज्ञा का सामर्थ्य दर्शनीय है - मुस्कुराओ-दूधिया-सितप्रभ-रुपहली-ज्योत्सनाभर मुस्कराओ (पृ0 178)। एक स्थल पर कवि ने विपरीत दृश्याकृति के उपमान का ऐसा कौशलपूर्ण उपयोग किया है कि नितान्त प्रतिकूल धु्रवता भी उपमेय के अर्थबोध को और आकर्षण से भर देती है। कवि की विलक्षण प्रतिभा ‘भवन’ शीर्षक कविता की प्रथम-प्राथमिक पंक्ति में ही कैसे शिल्प-सौन्दर्य का विधान करती है कि चित्त चमत्कृत हो उठता है - कुएँ की दीवारों जैसा-ऊँचा परकोटा (पृ0 94)।
छांदस दृष्टि से ‘जीवन-राग’ मूलतः कविता-संग्रह है, गीत संग्रह नहीं( तो भी कहीं-कहीं कवि के अन्तःमन की लय गीतोन्मुखता की ओर चल पड़ती है। यह परिणति दो स्तरों पर घटित होती दिखाई देती है। कई स्थलों पर छंदोबद्धता की लय एकल छंदों में ढल गई है। विचार विशेष (पृ0 80), वास्तविकता, लाचारी (पृ0 102), विरुद्ध (102), कृतकार्य (103), अन्तःशल्य (139), आत्मकथा (139), धरती का गीत (220), दृष्टि (221), और भूमिका (223) - इसी कोटि के छंद हैं। अपनी पूर्णता से सम्पन्न ‘अपूर्ण’ शीर्षक लघु छंद को भी इसी कोटि में रखा जा सकता है। गीतोन्मुख कविताओं में ‘चाह’ (80) पाठक का ध्यान खींचती है। गाओ (223), प्राणदीप (240) और परिचय (244) कविता-रूपों को गीत कोटि में रखा जा सकता है।
कवि महेन्द्र भटनागर रचित ‘जीवन-राग की कविताओं की अंकुरण-धरा भले ही वैयक्तिक अनुभवों, ऐन्द्रिक बोधों, प्रेरणाओं सुख-दुःखात्मक द्वन्द्वों, आवेगों और प्रतिक्रियाओं की भावधारणाओं से उर्वरित हुई है किन्तु प्रभाव, स्वभाव, प्रयोजन और पहुँच की दृष्टि से ये मानव-मन और जीवन की कविताएँ हैं। कविता की सर्जनात्मक शक्ति का यही तो सामर्थ्य है, जो व्यष्टि रचना को समष्टि रचना से रूपान्तरित कर देता है और उसे मानवीय परिप्रेक्ष्य की ऊँचाई तक ले जाता है।
उक्त काव्यात्मक न्याय-निकष पर जीवन-राग की संकलित कविताओं की क्रमोत्तर-दृष्टि को समझा जा सकता है। कवि के द्वारा अभिकल्पित यह क्रम मानवीय जीवन की आन्तरिक और बाह्य रचना को पूर्णतया बिम्बित करता है। जीवन-राग की कविताओं की क्रमिकता 9 वर्गों में क्रमित है। यह वर्गीकरण तर्क-सम्मत है। वर्ग का उपस्थापन ‘राग-संवेदन’ और समापन ‘जिजीविषा’ शीर्षक पर विश्राम लेता है। जन्म के ‘अथ’ से लेकर जीवन-विराम की ‘इति’ यात्रा इन्हीं शीर्षक रूपों से समझी जा सकती है। सभी मनुष्य जन्मना सहज राग से जीवन-यात्रा शुरू करते हैं। बौद्धिकता तो बाद का अर्जित सत्य है। इसलिए जीवन का पहला बोध ‘राग-संवेदन’ शीर्षक से अभिहित है। इसके पश्चात् जगत् प्रपंच से साक्षात्कार के दौरान अनुभव प्राप्त होता है। ‘अनुभूत क्षण’ शीर्षक का यही रहस्य है। जीवन की व्यावहारिक कठोरता ही ‘आहत युग’ शीर्षक की आधारपीठ है। चौथा वर्ग शीर्षक है - ‘जीने के लिए’। इसी का उत्तर परिणाम है कि जीवन ‘जूझते हुए’ जीना पड़ता है। जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ‘न दैन्यम् न फ्लायनम्’। इसलिए छठा प्रस्थान ‘संकल्प’ के रूप में उभरता है। ‘संवर्त’ संकल्प का ही एक विकल्प-परिणाम है। ‘संवर्त’ घुमाव भी है और चुनौती भी है। स्थिरधी होकर ही इन चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। इसलिए अष्टम प्रस्थान के रूप में ‘संतरण’ है। जीवन की सम्पूर्णता तो ‘जिजीविषा’ पर निर्भर करती है। सो ‘राग-संवेदन’ से लेकर ‘जिजीविषा’ के नवबोध ही जीवन-राग के सनातन स्वर हैं। जीवन के इन नवबोधों से तरंगित होती हुई कवि की बौद्धिक सर्जना काव्य-रूप लेती चलती है। कवि के सजग बौद्धिक कौशल्य से ‘जीवन-राग’ की समस्त कविताओं का वर्गानुशासन एक मनोसम्मत अधिष्ठान पर विराजित है।
डा0 नंद मेहता वागीश, पी-एच-डी-, डी-लिट्- शब्दालोक-1218 सेक्टर-4,
(लेखक-समीक्षक-भाषाचिन्तक) अर्बन एस्टेट, गुड़गाँव (हरियाणा)
पूर्व सीनियर फैलो दूरवाक - 0124-4077218
संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार। सचलवाक् - 9910431699
प्रान्तीय अध्यक्ष - अखिल भारतीय साहित्य परिषद् हरियाणा।
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