उपन्यासः गाँव भीतर गाँव लेखकः सत्यनारायण पटेल समीक्षकः विजय शर्मा कई बार लेखक को खुद भी याद नहीं रहता है कि लिखते समय वह किसके प्रभाव में ...
उपन्यासः गाँव भीतर गाँव
लेखकः सत्यनारायण पटेल
समीक्षकः विजय शर्मा
कई बार लेखक को खुद भी याद नहीं रहता है कि लिखते समय वह किसके प्रभाव में था। कोलंबियन लेखक गैब्रियल गार्षा मार्केस को भी नहीं पता था। इस बात को वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं। लिखते समय वे संगीत सुना करते थे, यह बात उनके चेतन में न थी। बहुत दिनों बाद उनके कुछ पाठकों ने उन्हें बताया कि उनके लेखन पर संगीत का गहरा प्रभाव है। ये पाठक संगीत के अच्छे जानकार थे। इन पाठकों ने बाकायदा उदाहरण के साथ अपनी बात सिद्ध की। तब मार्केस को स्मरण हुआ कि वे लिखते समय सदैव संगीत सुना करते थे। मैं संगीत की जानकारी का कोई दावा नहीं रखती हूँ बल्कि मुझे अफ़सोस है कि संगीत में मैं सिफ़र हूँ। फ़िर भी सत्यनारायण पटेल का पहला उपन्यास पढ़ते हुए मुझे निरंतर उसमें एक धुन सुनाई पड़ती रही। नहीं जानती पटेल उपन्यास लिखते वक्त संगीत सुनते थे अथवा नहीं। नहीं जानती इस धुन का संगीत से कितना वास्ता है, हाँ, मुझे यह धुन परिवर्तन के लिए बेचैनी की धुन लगी। शुरु से आखीर तक उपन्यासकार परिवर्तन की आकांक्षा से प्रेरित है। जी-जान से चाहता है कि परिवर्तन हो। वह सामाजिक-राजनैतिक, आर्थिक परिवर्तन की पुरजोर कोशिश करता है। इसके लिए वह अपने पात्रों से भरपूर संघर्ष करवाता है। सफ़लता और असफ़लता उतना मायने नहीं रखती है जितना मायने किया गया प्रयास रखता है। तो ऐसा है कि मुझे सत्यनारायण पटेल का उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ पढ़ते समय शुरु से आखीर तक परिवर्तन की, जद्दोजहद की एक धुन सुनाई पड़ी।
मैंने शुरु से उनकी कहानियाँ पढ़ी हैं और कई कहानियों और संग्रह पर लिखा भी है। मुझे उनका लिखा भाता है। वे गंभीर लेखक हैं, समय-समाज पर तीखी निगाह रखने वाले। वे एक जुझारू, कर्मठ, प्रतिबद्ध, पाठकों के पसंदीदा कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं जो मालवा की खुशबू से हिन्दी जगत को सुगंधित बनाए हुए है। यह उनका पहला उपन्यास है। संयोग से इस उपन्यास के लोकार्पण के अवसर पर मैं दिल्ली पुस्तक मेले में उपस्थित थी। वहीं मैंने यह किताब खरीदी, मगर तुरंत पढ़ना न हो सका। पर जब पढ़ना शुरु किया तो डूबती चली गई। उपन्यास की शुरुआत एक हृदय विदारक दृश्य से होती है। घर-परिवार का कर्ता मर गया है। झब्बू विधवा हो गई है। इस दु:खद चित्रण की काव्यात्मक भाषा से कलेजा मुँह को आता है।
बीस-इक्कीस साल की झब्बू मातम मनाती बैठी नहीं रहती है, शीघ्र उठ खड़ी होती है। स्त्री, विधवा, गोद में एक बच्ची और सबसे कठिन बात वह दलित है, आसान नहीं है झब्बू का सफ़र। लेकिन वह कमर कस लेती है और एक-एक कर सफ़लता की सीढ़ियाँ फ़लाँगती जाती है। अपने साथ-साथ दूसरों को भी आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करती है और उसमें भी सफ़ल होती है। ऐसा लगता है कि उपन्यासकार यूटोपिया रच रहा है। मगर ऐसा है नहीं, सत्य नारायण पटेल हमें हमारे आज के समय और समाज का आईना दिखा रहे हैं। यहाँ यूटोपिया नहीं वरन असल में भीतर-भीतर एक डिस्टोपिया अपना मकड़ जाल फ़ैलाए हुए है। झब्बू उसमें फ़ँसती चली जाती है। उसकी महत्वाकांक्षाएँ, सत्ता का नशा उसे ले डूबता है, स्वयं उसकी बेटी को जब सच्चाई का पता चलता है तो उसका भी मोह भंग हो जाता है। बेटी ने जिद कर के कौशल से माँ को राजनीति के क्षेत्र में उतरने को मज्बूर किया था।
नोबेल पुरस्कृत हेरॉल्ड पिंटर अपने नोबेल भाषण में अमेरिका पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि बड़ा आसान है किसी को मार डालना, पहले आप उसे पागल कुत्ता घोषित कर दीजिए फ़िर आप आसानी से उसे गोली मार सकते हैं। आज हमारे देश में भी यह हो रहा है। किसी को भी नक्सलाइट घोषित करके उसका अस्तित्व समाप्त किया जा सकता है। ‘गाँव भीतर गाँव’ में युवा-जोशीली रोशनी के साथ यही होता है। यह एक बहुत दर्दनाक नजारा है। यह सब तब होता है जब आस-पड़ौस के लोग सो रहे होते हैं। अगर जग रहे होते तब क्या होता? तब भी यही होता। हम असंवेदनशील लोगों का झुंड बन कर रह गए हैं। हमारी आँखों के सामने अन्याय होता है, अत्याचार होता है और हम मूक-बधिर बन सब देखते रहते हैं, आँख के होते हुए भी अंधे बने रहते हैं। उपन्यास समाज के हाड़-मज्जा में धँसी सामंती व्यवस्था, पुरुष वर्चस्व को बखूबी चित्रित करता है। राजनीति का पूर्णरूपेण अपराधीकरण आज के समाज और समय की वास्तविकता है और सत्यनारायण पटेल यथार्थवादी उपन्यास लिख रहे हैं, जिसमें प्रेमचंद का आदर्शोंमुख समाज नहीं बल्कि २१वीं सदी का यथास्थिति को मजबूती से बनाए रखने वाला समाज चित्रित है।
भूमंडलीकरण, बाजारवादी आँधी, महिला सशक्तिकरण, पंचायती राज, सर्वशिक्षा अभियान के बावजूद हमारे जकड़नभरे विचारों में रत्ती भर भी फ़र्क नहीं आया है। हाँ, राजनीति, अर्थनीति का चेहरा और अधिक शातिर हो गया है। समाज दो कदम आगे बढ़ता है तो तीन कदम पीछे सरक जाता है। झब्बू जैसे लोग तालाब में कंकड़ की तरह हैं जो तनिक सी लहर उठाते है और फ़िर सब शांत हो जाता है, जल पर फ़िर से काई जम जाती है। पटेल की सफ़लता है कि उन्होंने पानी में हलचल पैदा की है।
‘गाँव भीतर गाँव’ स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में आगे बढ़ता है, लेकिन स्त्री को देवी नहीं बनाता है, झब्बू अंत तक मानवी बनी रहती है। उसमें सामान्य मनुष्य की भाँति अच्छाई-बुराई दोनों का मिश्रण है। वो विकसित होती है, उन्नति की ओर अग्रसर होती है मगर राजनीति की बुराइयों से नहीं बच पाती है और तब उपन्यासकार के पास उसकी हत्या करवाने के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं बचता है। हाँ, जाम सिंह जैसे नरपशु का अंत जग्गा जैसे पागल कर देते हैं, यह भी उपन्यास का एक सकारात्मक पक्ष है।
उपन्यास एक बड़े फ़लक पर चित्रित है इसमें अशिक्षा की हानियाँ, शिक्षा के लाभ, शिक्षा में सवर्णों का नजरिया, दलितों पर अत्याचार, मनरेगा, शौचालय निर्माण, राजनीति का घिनौना चेहरा, भ्रष्ट तंत्र, रजनीति-अपराध गठजोड़, शराबबंदी, राजनीति में महिला आरक्षण, ठेका राज, पंचायती राज, न्यायालय में बरसों लटकते मुकदमे, एनजीओ आदि विभिन्न मुद्दे और कोढ़ में खाज जातिवाद का मुद्दा उठाया गया है। यह उपन्यास गाथा है, दु:ख-सुख, स्वप्नों, आशाओं-आकांक्षाओं की और उनके नष्ट होने, उनके क्षय होते जाने की। एक दलित स्त्री की अपनी अस्मिता के लिए किए गए प्रयास की, एक कर्मठ नारी के उत्थान-पतन की।
झब्बू का संघर्ष चहुतरफ़ा है। एक ऐसी स्त्री जो न केवल अपना विकास करती है वरन दूसरों के विकास का बायस बनती है। दूसरी दलित स्त्रियों- बालिकाओं को एकजुट कर उन्हें संघर्ष के लिए तैयार करती है। वह पुरुषसत्ता, जातिवाद, लिंगवाद सबसे टक्कर लेती है, कई बार सफ़ल होती है। मगर अंत में इन्हीं के हाथों हार जाती है।
झब्बू सत्ता में अपनी पैठ बनाती है परंतु अंतत: सत्ता के हाथ में कठपुतली बन कर रह जाती है। कहाँ है सत्ता का विकेंद्रीकरण? नारों का खोखलापन उपन्यास खोल कर दिखाता है। झब्बू एक जुझारू स्त्री है जो स्वप्न देखती है और उन्हें पूरा करने के लिए भरपूर संघर्ष करती है। जितनी बार वह आगे बढ़ने की चेष्टा करती है उतनी बार कभी प्रत्यक्ष, कभी परोक्ष उसे पीछे खींचने के लिए दुष्ट अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। वह अपनी मेहनत-लगन से भौतिक सुख-सुविधाएँ भी जुटाती है, उसके पास फ़्रिज, मोबाइल, कार सब आ जाती है लेकिन उसका पतन भी शुरु हो जाता है। सरकारी अमलों को घूस देने के लिए तीन-पाँच वह भी शुरु कर देती है। बिना किए गुजारा नहीं था। मगर गलत काम तो गलत होता है, यह बात रोशनी उसके मुँह पर कहती है और बेटी माँ से दूर हट जाती है। रोशनी में अक्ल है लेकिन धैर्य नहीं, वह तेजी से आगे बढ़ती है मगर वह भी सत्ता-शक्ति के आगे बेबस हो जाती है। शक्ति अन्याय के साथ खड़ी नजर आती है। समाज के अधिकाँश लोग यथास्थिति बनाए रखने में अपनी भलाई समझते हैं। पूर्वाग्रह और जकड़बंध समाज में परिवर्तन लाना एक बहुत कठिन प्रक्रिया है।
उपन्यास में एक नहीं कई खलनायक हैं। दौलत पटेल, जाम सिंह, माणक पटेल, माखन शुक्ला, गणपत तो है हीं। कलाली, मैला ढ़ोना, राजनीति भी खलनायक की भूमिका में हैं। जाम सिंह की हनुमान भक्ति जुगुप्सा जगाती है। इस नरपशु को किसी की जान लेने में कभी कोई संकोच नहीं होता है। लेकिन जब अपनों पर विपत्ति आती है तो बाप-बाप करने लगता है। एक चरित्र का विकास होता यहाँ दिखाई देता है वह पुलिस वाला रमेश जाटव है। उसमें मनुष्यता जगती है, वह झब्बू के साथ खड़ा होता है।
एक और बात जो साहित्यकार पटेल के संबंध में रेखांकित की जानी चाहिए, वह है उनका प्रकृति प्रेम, उनका पशु-पक्षी लगाव। यह लगाव ‘गाँव भीतर गाँव’ के कवर पर भी नजर आता है। सत्यनारायण एक बहुत अच्छे फ़ोटोग्राफ़र हैं, कवर पेज पर उन्हीं के द्वारा लिया गया एक अति सुंदर फ़ोटोग्राफ़ है। उपन्यास के शीर्षक और कथानक को मूर्तिमान करता हुआ फ़ोटोग्राफ़ बड़ा मानीखेज है। ‘गाँव भीतर गाँव’ में स्थान-स्थान पर ग्रामीणों के सुख-दु:ख में उनका साथ देते मोर, होला, कबूतर, चिकी, कौवे, गिलहरी हैं। प्रकृति पात्रों के सुख-दु:ख में साथ देती है।
इस उपन्यास में पटेल ने एनजीओ की अच्छी खबर ली है। उनके स्वार्थी, शातिर, अवसरवादी चेहरे को उघाड़ा है। अधिकाँश गैर सरकारी संगठन फ़ंड हड़पने के लिए ही खड़े किए जाते हैं। रफ़ीक भाई अपनी रैलियों के लिए दलितों को ले जाने के लिए खूब भाग-दौड़ करता है। एनजीओ वाले समस्याओं को अपने हित में भुनाते हैं। वे कदाचित ही समस्या के समाधान के लिए काम करते हैं। बात भी सही है यदि समस्याएँ हल हो गई तो इनकी दुकान कैसे चलेगी। पटेल एनजीओ के रग-रेशे से परिचित हैं। उनकी पोल-पट्टी खोलते हैं। हालाँकि बाद में उपन्यास का रुख रफ़ीक भाई के प्रति थोड़ा नरम पड़ जाता है। उसे गरीबों के साथ खड़ा दिखाता है।
सत्यनारायण की एक और विशेषता है कथारस। वे कहानी कहना जानते हैं और बखूबी जानते हैं। पात्रानुकूल बोली-बानी पाठक को पात्रों के करीब ले आती है। कहानी के बीच-बीच में हास्य-व्यंग्य का छौंक सरसता बनाए रखता है। यह ग्रामीणों की विशेषता है, उनकी जिजीविषा का जीवन रस। वे कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी हँस सकते हैं, हँसा सकते हैं। और साहित्यकार की ग्रामीण जीवन पर गहरी पकड़ है। जो लोग हिन्दी साहित्य में ग्रामीण जीवन के चित्रण के अभाव का रोना रोते हैं उन्हें यह उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिए। यहाँ गाँव अपने पूरे हाव-भाव, अच्छाई-बुराई, अपने हर रंग, अपनी हर छटा के साथ पूरा-पूरा उपस्थित है।
पाठक उपन्यास के अंत से थोड़ा अचंभित रह जाता है, थोड़ा निराश होता है। उसे पोयटिक जस्टिस की अपेक्षा थी मगर वह यह भी जानता है कि जीवन में कहाँ होती है पोयटिक जस्टिस। पटेल ने आईना दिखाया है। यही हमारा समाज है, यदि हमने इसे परिवर्तित करने की कोशिश न की तो न जाने कितनी झब्बुओं को स्वार्थी ताकतों की बलि चढ़नी होगी, न जाने कितनी संभावनाशील रोशनियाँ जेल की काल कोठरियों में दम तोड़ने को मजबूर होंगी। उपन्यास में सत्यनारायण पटेल की सटीक अवलोकन शक्ति, सामाजिक-राजनीति समझ में गहरी पैठ, कुशल चित्रण शैली के दर्शन होते हैं। दर्पण में अपना चेहरा देखना हो, आज के समय-समाज को निरखना हो तो ‘गाँव भीतर गाँव’ पढ़ा जाना चाहिए। परिवर्तन की धुन सुनी जानी चाहिए, समझी जानी चाहिए।
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उपन्यासकार परिचय -
सत्यनारायण पटेल
जन्मः 6 फ़रवरी 1972
प्रकाशित कृतियाँ
उपन्यासः गाँव भीतर गाँव ( २०१५ )
कहानी संग्रहः
१- भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान (२००८)
२- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना
( २०११)
३- काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस
( २०१४ )
संपादनः त्रैमासिक पत्रिका ' बया ' के कुछ अंक का संपादन
पुस्तिकाः लाल सलाम एक और दो का संपादन
पुरस्कारः
वागीश्वरी सम्मान २००८, भोपाल (म.प्र.)
प्रेमचंद स्मृति काथा सम्मान २०११
बाँदा, ( उ.प्र.)
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उपन्यासः गाँव भीतर गाँव
लेखकः सत्यनारायण पटेल
प्रकाशकः आधार प्रकाशन प्रा.लि.
एस.सी.एफ.२६७, सेक्टर -१६
पंचकूला-१३४११३ ( हरियाणा)
मूल्यः 200/ पेपर बैक संस्करण
पेजः 320-00
aadhar_Prakashan@gmail.com
फ़ोन- 0172-2566952, 250244
समीक्षक संपर्क:
विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर ८३१००९
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