व्यक्तित्व आलेखः. स्वतंत्रता सेनानी पं.हरिप्रसाद मिश्र’सत्यप्रेमी’ ................................ शहीदों की नगरी कहलाने वाला शाहजहांपुर क...
व्यक्तित्व आलेखः.
स्वतंत्रता सेनानी पं.हरिप्रसाद मिश्र’सत्यप्रेमी’
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शहीदों की नगरी कहलाने वाला शाहजहांपुर कभी किसी क्षेत्र में पीछे नहीं रहा। समय-समय पर अनेक प्रतिभाओं, सेनानियों, सुधी मनीषियों ने अपने योगदान तन.मन के बलिदान से जनपद का नाम गौरवान्वित किया। समाज व इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्शायी। अन्य तहसीलों की भांति तहसील पुवायां किसी भी क्षेत्र में पीछे न रही है। खोज करने पर कोई न कोई मोती निकल ही आता है। सहित्य का क्षेत्र हो, राजनीति या आजादी का आंदोलन। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी महती भूमिका के कारण जिनको सम्पूर्ण देश में जाना गया, ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व कर्मठ व्यक्तित्व पं. हरिप्रसाद मिश्र ‘सत्यप्रेमी’ की जननी, जन्म भूमि इसी पुवायां की धरती रही है।
आज से लगभग छः दशक पूर्व स्वर्ग वासी हुए सत्यप्रेमी जी का मूल निवास स्थान पुवायां से शाहजहांपुर मार्ग पर स्थित बड़ागाँव था। बचपन से लेकर युवावस्था तक अधिक समय यहीं बीता अनेक समाज-देशहित की गतिविधियों में संलग्न रहे। अपने निजी, परिवारिक हितों की अपेक्षा देश.समाज हित को महत्व दिया ,कई बार परिवारिक सदस्यों को अभावों के सहारे अकेले भी छोड़ना पड़ा। उनके समय के गांव के अनेक लोगों ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने का निर्णय लिया, लेकिन एक सत्यप्रेमी जी ही ऐसी मिट्टी के बने थे जिनको ब्रिटिश हुकूमत का दमनचक्र झुका न सका एक बार जो निर्णय ले लिया। जीवन भर उसी पर अडिग रहे। संघर्ष के समय जेल जाना अधिकाधिक समय तनहाई में बिताना तो सामान्य सी बात बन गई थी। देश की आजादी के लिए बाधक बन रहे पारिवारिक दायित्वों को भी अनदेखा करदेते थे।
एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्में सत्यप्रेमी जी की शिक्षा-दीक्षा के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। पर इतना तो स्पष्ट है, कि इनको पढ़ना-लिखना अच्छी तरह से आता था।पं. रामलाल मिश्र के पुत्र के रुप में जन्में यह कुल तीन भाई थे। जिनमें यह सबसे बड़े थे।इनसे छोटे शिवप्रसाद मिश्र व सबसे छोटे गुरुप्रसाद मिश्र थे ।इनके एकमात्र पुत्र विज्ञानस्वरुप जोकि अध्यापक थे नब्बे के दशक में निधन हो गया। बहू आज भी बाराबंकी मे इनके दामाद के समीप रहती है।बाराबंकी के पूर्व डी.सी. व राष्ट्रधर्म के प्रधानसंपादक आनन्दमिश्र अभय इनके छोटे दामाद हैं। इनके द्वारा 1920 के आस-पास स्थापित हिन्दी मंदिर आज भी हिन्दी सदन के परिवर्तित नाम के साथ साहित्य हित में उल्लेखनीय योगदान दे रहा है।
यद्यपि शाहजहांपुर की जनता व जनपद इनके नाम को विस्मृत सा किये हैं। नयी पीढ़ी को इनके योगदान का भान नहीं है। स्वयं गांव वासी भी भुला चुके हैं। दो-चार पुराने या जागरूक लोग जानते हैं। शायद इसका कारण इनके नाम पर जनपद-गांव में कोई कार्य न होना भी है। पर बाराबंकी जनपद के बच्चे-बच्चे की जुबान पर इनका नाम आ जाता है। हालांकि वहां के लोग भी इनके बारे मे अधिक नहीं जानते न हीं मूल निवास से परिचित हैं। बाराबंकी शहर के मुहल्ले, पार्क व मार्ग इनके नाम पर देखे जा सकते हैं। वहां की जनता इनके चित्र तक के लिए भी तरसती है, कि किसी भी तरह इनका साक्षात हो सके। पर दुर्भाग्य से इनका कोई स्पष्ट चित्र उपलब्ध नहीं है। वास्तव में यह चित्र खिचाने के विरुद्ध थे और जीवन भर कोई चित्र नहीं खि्ंचाया।एक बार बाराबंकी शहर के किसी मित्र सुनार ने इनका चित्र चुपके से खिंचवा दिया था। जिसकी एक प्रति अस्पष्ट रूप में इनके परिवारिक सदस्यों के पास उपलब्ध है। इनके जीवन का अधिकांश समय जनपद शाहजहांपुर की धरती पर बीता कर्मभूमि भी यही रही। बड़ागांव का निवास इनका अनेक आजादी विषयक गतिविधियों का केन्द्र रहा। इनके समय अनेक राजनेताओं नें गांव में कदम रखे। प. नेहरू व गोविंद बल्लभ पंत के आने का पता पारिवारिक सूत्रों से चलता है। कुछ परिवारिक कारणों वश इनको साठ के दशक में गांव छोड़ना पड़ा और उसके बाद की गतिविधियां बाराबंकी से संचालित हुईं।
सत्यप्रेमी जी एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ.साथ समाजसुधारक, साहित्यकार व पत्रकार भी थे। संघर्षी जीवन के मध्य मिले समय का उपयोग सृजन, सामाजिक बुराईयों को दूर करने में करते थे। उस पर अपनी लेखनी चलाने में न हिचकते थे। जीवन भर कठिनाईयों, करागार भोगते हुए इन्होंने पाठकों कों बहुत कुछ देने का प्रयास किया है। इन्होंने अपने जीवन काल में सात पुस्तके.1,राष्ट्रभेरी.1929, 2,हमारी सामाजिक कुरीतियां.1936, 3.सुलभ चिकित्सा व घरेलू वैद्य 4.भारत में ब्रिटिश शासन और उससे मुक्ति की कहानी.1954, 5.मुक्ति के मार्ग, 6.शिक्षा प्रद दोहे व ,7.स्वर्ण सीकर लिखी हैं। जिनमें से क्रम संख्या दो व चार मेरे पास अत्यन्त जर्जर अवस्था में उपलब्ध थीं कुछ साल पूर्व एक शोधार्थी के मांगने पर कोरियर से भेजी। पर दुर्भाग्य से वह रास्ते में खो गयीं न उसे मिली और न ही मेरे पास रह पायीं। कुछ अंश नोट कर लिए थे। जिनका उल्लेख इस आलेख में यथा स्थान किया है।
ब्रिटिश शासन और उससे मुक्ति की कहानी, पुस्तक की भूमिका में यह अपना उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं.’’सन् 1934 ई0 का काल था और मैं पुनः एक लम्बी अवधि का कारावास भोगकर अपने भवन पर रक्ताल्पता रोग की चिकित्सा कर रहा था और कभी-कभी सन् 1921 ई0 से उस समय तक के अध्ययन के यत्र तत्र नोट पढ़ने लगता था। उन नोटों को पढ़ते-पढ़ते यह लोभ पैदा हुआ कि यदि इन सबको श्रृखंला बद्ध कर के पुस्तक रुप में तैयार करके प्रकाशित कर दिया जाए तो हिन्दी भाषा की भी सेवा हो और राजनैतिक कार्य कर्ताओं के ज्ञान में वृदिध कराकर वर्तमान स्थिति (परतंत्रता) से जनता में असन्तोष किया जा सकता हैं।”
इसी पुस्तक में वह यूरोपीय अविष्कारों व भौतिक वादिता पर पृष्ठ संख्या.25 पर लिखते हैं..
भूलता जाता हैं यूरोप आसमानी बाप को
बस खुदा समझा हैं उसने वर्क को और भाप को
यह अग्रेजों को भारत पर शासन करने के योग्य भी नहीं मानते थे इस सम्बन्ध में भी उन्होनें अपनी इसी पुस्तक के पृष्ठ संख्या.76 पर लिखा हैं..
‘‘ऊॅंचे. ऊॅंचे पदाधिकारी सिर्फ पांच वर्ष के लिए विलायत से यहां भेजे जाते थे। वह जो कुछ कहते ठीक माना जाता था। जैसे ही वह यहां की कुछ जानकारी प्राप्त करते थे। वैसे ही विलायत वापस हो जाते थे। भला वह कैसे भारत में शासन करने के योग्य हो सकते थे। अंग्रेज सब से अधिक भारत में शासन करने के अयोग्य तो इसलिए थे कि वह हर तरह से हमारी उन्नति में लापरवाही करते थे।”
यह जाति प्रथा छुआ-छूत, आडम्बरों आदि के भी घोर विरोधी थे। हमारी सामाजिक कुरीतियां, पुस्तक इनके ऐसे व्यक्तित्व का प्रमाण हैं। भारतीय सामाजिक बुराइयों पर सत्यप्रेमी जी में अपनी इसी पुस्तक में पृष्ठ संख्या-एक पर लिखा हैं..
‘‘जिस आर्य जाति ने समस्त संसार को अपनी सभ्यता और संस्कृति की धाक जमा रखी थीं। जिसके घर में संसार को कर्म योग सिखाने वाली गीता और ज्ञान की अमूल्य सम्पति वेद मौजूद हैं। जिस जाति ने यूनानियों के विश्वविजयी सिकन्दरी बेड़े को अपने बाहुबल से मुंह फेर लेने को विवश कर दिया था। आज वही जाति वेद शास्त्र विरुद्ध, विवेक हीन रुढ़ियों के पालन कर अपना सर्वनाश कर रही है और मिस मेमों जैसी यूरुपियन महिलाओं की हसीं का कारण बन रही हैं। आज दिन दहाड़े उस जाति की सम्पति उसकी, स्त्रियां, बच्चे और अछूत लूटे जा रहे हैं। लेकिन फिर भी चेत नही हो रहा हैं।
इसी पुस्तक में मनुस्मृति अध्याय .3 का उदाहरण देते हुए वहीं पृष्ठ संख्या सात पर लिखते हैं..
‘‘कि वेद मनुष्य मात्र को परस्पर रोटी का सम्बन्ध स्थापित करने की आज्ञा देते हैं। यदि अछूत सफाई से रहे तो उसके साथ भोजन करने में भी वेद विरुद्ध नहीं है। अब धर्मष्शास्त्र को लीजिए - जो रोटी ही नहीं बेटी का सम्बन्ध करने तक की आज्ञा देते हैं।’’
आजादी आंदोलन के समय कारागार भोगना इनके जीवन की सामान्य घटना थी। 1921 से 1934 तक के लम्बे कारावास का उल्लेख इनकी पुस्तक ब्रिटिश शासन और उससे मुक्ति की कहानी में मिलता है। इससे पूर्व या बाद भी यह कारावास गए थे। इनकी परिसम्पत्तियों का आये दिन कुर्क किया जाना अंग्रेजी हुकूमत के समय एक सामान्य घटना थी। प्रत्येक महीने चार-छः बार तक भी सम्पत्ति कुर्क हो जाती थी एक-दो बार इन्होंनें मकान का कुछ जरुरी सामान पहले ही पड़ोसी राजाराम तिवारी के यहां भी रख दिया था। 1934 के बाद पुलिस इनको पकड़ने में असफल रही ऐसा सुनने में आया है। जब इनके एकमात्र पुत्र का विवाह निगोही हुआ उसमें भी अंग्रेजी हुकूमत की घेराबन्दी के चलते यह सम्मिलित नहीं हो पाये थे।
1942 इ्र्र में महात्मा गांधी के द्वारा भारत छोड़ों आंदोलन छेड़ने पर यह भी सक्रिय हो गये थे। फलतः एक बार पुनः इनकी सम्पत्ति कुर्क कर ली गई। जिसमें ‘‘ब्रिटिश शासन और उससे मुक्ति की कहानी की पाण्डुलिपि भी पुलिस के हाथ लग गई थी, लेकिन कागजात के ढेर व बोरे में रखी होने से पुलिस की दृष्टि उस पर न पड़ी और फिर वह उन्हीं कागजातों व सामान के साथ सन् 1944 में वापस मिल गई। आंदोलन के दौरान इनके सहयोगियों में रफी अहमद किदवई, पं. गोविन्द बल्लभ पंत, चन्द्रभानु गुप्त व जयरामशर्मा का नाम लिया जाता है। पं. नेहरु व गांधी का सान्निध्य भी इन्हें मिला। एक बार पं. नेहरु अपनी बेटी इन्दिरा प्रिदर्शिनी के साथ इनके यहां बड़ागांव निवास पर आये थे। यह घटना लगभग 1921 के आस-पास की रही होगी।
सत्यप्रेमी जी राजनीति में अवसर मिलने पर सक्रियता दिखाने से नहीं चूके। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने भागीदारी कांग्रेस संगठन के सदस्य के रूप में निभायी थी। सांगठनिक गतिविधियों में भी इनकी भागीदारी रहती थी। स्वतंत्रता से पूर्व वह कहीं से चुनाव लड़े हों पता नहीं लगता है,परन्तु सन् 1952 से 1956 तक विधान सभा सदस्य का विवरण उनकी पुस्तक ब्रिटिश शासन और उससे मुक्ति की कहानी में मिलता है। ऐसा भी सुना जाता है, कि बाराबंकी सीट आरक्षित होने पर अपने नौकर को चुनाव लड़वाकर जिताया था। इसी समयावधि में पं. गोविंद बल्लभ पंत द्वारा विधान परिषद के लिए मनोनीत किये जाने का भी सुनने में आया है।
सत्य प्रेमी जी की पुस्तकें सत्यसदन बाराबंकी व अवधवासी कार्यालय बाराबंकी से प्रकाशित हुई थीं। पुस्तक प्राप्ति स्थान में हिन्दी मन्दिर (वर्तमान में हिन्दी सदन) बड़ागांव शाहजहांपुर का नाम उनकी उपलब्ध पुस्तकों पर मिलता है।
सम्प्रति उपरोक्त जानकारी स्वर्गीय सत्यप्रेमी जी पर अत्यल्प ही है। शाहजहांपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में व शाहजहांपुर के भूगोल पुस्तक में इनका नाम पुवायां ब्लाक के अर्न्तगत बड़ागांव के निवासी के रूप में मिलता है। उनके कृतित्व व व्यक्तित्व से सम्बन्धित कार्यों पर शोध किये जाने से और अधिक जानकारियां तो प्राप्त होंगी ही। जनपद व क्षेत्र के इने-गिने लोग ही न जानकर प्रत्येक वर्ग व व्यक्ति परिचित हो सकेगा। इनके कार्य को स्मरणीय बनाने के लिए बड़ागांव का नाम अथवा जनपद के किसी मार्ग ,पार्क आदि का नाम इनके नाम पर रखा जा सकता है। ताकि वर्तमान पीढ़ी से लेकर भावी पीढ़ी तक इनके योगदानों से अनभिज्ञ न रह सके और इनके कार्यों से प्रेरणा ले।
22.12.2015
शशांक मिश्र भारती संपादक . देवसुधा, हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर . 242401 उ.प्र. दूरवाणी ः.09410985048@09634624150
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