(जीवनी साहित्य के विशेष संदर्भ में) (अनंत वडघणे) - हिंदी जीवनी साहित्य ने जिस रुप में समाज ...
(जीवनी साहित्य के विशेष संदर्भ में)
(अनंत वडघणे) -
हिंदी जीवनी साहित्य ने जिस रुप में समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जूड़े हुए महान व्यक्ति को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया है। जिनमें साहित्य, राजनीति, इतिहास, अध्यात्म, उद्योग, कला क्षेत्र के साथ-साथ महान वै-ाानिकों को भी समाज के सामने प्रस्तुत करने का कार्य किया है। उनके चरित्रों को सूक्ष्मता से विवेचित कर आनेवाले पीढ़ियों के सामने मार्गदर्शक के रुप में प्रस्तुत किया है। इन जीवनियों में उनके द्वारा किये गये कार्य पर तो प्रकाश पड़ता ही है, साथ ही उनके संघर्षशील जीवन की अनुभूति भी हमें आ जाती है। इसलिए यह चरित्र आज हमारे युवा पीढ़ी के सामने आदर्श स्थापित करते हैं। हिंदी जीवनी के अन्तर्गत हम प्लेटों, अरस्तु से लेकर भारत के वैज्ञानिक डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे महान वैज्ञानिकों के चरित्र से परिचित होते हैं। इन जीवनीकारों ने जीवनी लेखन करते समय वैज्ञानिकों को देश-विदेश जैसे बातों का भेद न करते हुए दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों को लेकर जीवनियाँ लिखीं हैं और हिंदी जीवनी भण्डार को तथा हिंदी साहित्य को समृध्द करने में अपना योगदान दिया है।
हिंदी के जीवनी साहित्य के अन्तर्गत ऐसे ही एक महान वैज्ञानिक 'ऐल्बर्ट आइंस्टाइन' की विपुल विनोद और नमन विनोद द्वारा लिखी गई जीवनी ऐल्बर्ट आइंस्टान के व्यक्तित्व तथा उनके जीवन के तमाम संघर्षगाथा से हिंदी पाठकों को परिचित कराती है। जो रोचक ही नहीं बल्कि ज्ञानवृध्दक एवं प्रेरणादायी भी है। क्योंकि जिसने E=mc2 का सूत्र दिया जिसके द्वारा दुनिया के सामने विशाल शक्ति का रुप प्रस्तुत हुआ। भौतिकी शास्त्र में क्रांति लायी ऐसे युगपुरुष का जीवन भी अनेक संघर्षों से भरा है। ऐल्बर्ट आइंस्टाइन का जन्म 14 मार्च, 1879 को पिता 'हरमन' तथा माता 'पावलीन' इस यहूदी नवदाम्पत्य के द्वारा हुआ। ऐल्बर्ट आइंस्टाइन जन्म लेते ही एक आश्चर्य कारक रुप लेकर आये थे। जिसे देखते ही माता-पिता चिंतित थे। क्योंकि-"पतला शरीर, छोटे हाथ-पैर, सिर भारी और बेडौल। पुत्र जन्म का समाचार सुनकर उनके मन में अपने प्रथम पुत्र के लिए जो उमंग उठी थी, वह इस अजीब शक्ल-सूरत वाले पुत्र को देखकर शान्त हो गई। रही-सही कसर उनकी पत्नी के माथे की लकीरों ने पूरी कर दी। उन्होंने हरमन को बताया कि जन्म के समय बच्चा रोया भी नहीं है। जन्म के समय बच्चे का न रोना अपशकुन माना जाता था।"1 ऐसे विलक्षण पुत्र ने माता-पिता के सामने चिंता खड़ी की।
ऐल्बर्ट का परिवार यहूदी होने के कारण वे जहां रहते थे वहां यहूदी स्कूल नहीं था अन्य स्कूल में दाखिला नहीं मिल रहा था। घर से 2 कि.मी. दूर एक कैथोलिक चर्च द्वारा चलाएँ स्कूल में प्रवेश मिला पर कुछ नियम रखे गये। जैसे-"इस स्कूल में शर्त यह थी कि ऐल्बर्ट को ग्रीक और लैटिन कक्षाओं में नहीं आने दिया जाएगा।"2 ऐल्बर्ट बच्चपन में कमजोर थे इस कारण कक्षा में भी उन्हें बुध्दू कहा जाता था। जैसे-"आइंस्टान बचपन से 'डिसलेक्सिया' नामक बीमारी से पीड़ित थे। इस कारण उन्हें अक्षरों को ठीक से पहचान पाने में बहुत मुश्किल होती थी, उनकी स्मरण शक्ति कमजोर थी, साथ ही लिखने, पढ़ने व बोलने में भी उन्हें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था। हालत यह थी कि वे 13 साल की उम्र तक अपने जूतों के फीते भी ठीक ढ़ंग से नहीं बांध पाते थे। डॉक्टरों ने उन्हें मानसिक रुप से विकलांग घोषित किया हुआ था। इस बीमारी के चलते उनके साथ आ रही कठिनाइयों से परेशान होकर स्कूल में उन्हें 'मंदबुध्दि बालक' तक कह दिया गया था।"3 किन्तु आगे चलकर यही बच्चा पढ़ाई में प्रथम स्थान पाने लगा। गणित और साइन्स उनकी प्रसंदीदा विषय बन गये। वे अपने स्कूल के दौरान इतने सवाल करते कि शिक्षक भी उनके उत्तर देने में असमर्थ हो जाते थे। उन्हें संगीत में विशेष रुचि थी। वायलिन जब बजाते थे तो सामनेवाला मन्त्रमुग्ध होता था। सन् 1900 ई. में स्नातक हुए किन्तु परीक्षा परिणाम अच्छे नहीं आये। बहुत जगह पर नौकरी के लिए प्रयास करने पर भी नौकरी नहीं मिली। अतः पेटेन्ट कार्यालय में नौकरी मिली जिसमें द्वितीय स्थान के पद पर तृतीय स्थान का वेतन पर काम करना पडा। उसके पूर्व उन्हें यह कहा गया कि-"यह नियुक्ति अस्थायी है। यदि दो वर्ष तक अच्छा कार्य किया गया, तो स्थायी कर दिया जाएगा। उस समय ऐल्बर्ट भंयकर बेरोजगारी के दौर से गुजर रहे थे और उन्हें रोजगार की आवश्यकता थी। अतः उन्होंने इस नियुक्ति को तत्काल स्वीकार कर लिया।"4 वे अपने कार्य के प्रति सजक रहते थे। जैसे ही पेटेन्ट का कार्य समाप्त होता तो अपने वै-ाानिक खोज कार्य में खो जाते थे। ऐेसे समय वे इतने तल्लीन होते कि उन्हें किसी भी बात का ख्याल नहीं रहता था।
मार्च, 1905 में ज्यूरिक विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया जिसमें उन्होंने अब तक किये शोध के सन्दर्भ में जानकारी दी पर किसी ने उसको गम्भीरता से नहीं लिया। बल्कि उनपर कहीं लाँछन लगाये गये। जैसे-"लोग यहां तक कहते थे कि ऐल्बर्ट विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने का सपना लेकर घूम रहे थे, लेकिन पेटेन्ट कार्यालय में तीसरे दर्जे के क्लर्क बनकर रह गये। लोगों का ऐल्बर्ट के शोध-पत्रों पर इसलिए भी विश्वास नहीं जम रहा था कि वे किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नहीं थे।"5 जब उनका 'सापेक्षता का विशेष सिध्दान्त' (special theory of relativity) सिध्दान्त को सही पाया गया जिससे उनका नाम वैज्ञानिकों के रुप में प्रसिध्द होने लगा। जिससे उन्हें ज्यूरिक विश्वविद्यालय में 1901 में नियुक्त किया गया। बाद में वे प्राग स्थित जर्मन यूनीवर्सिटी में नियुक्त हुए उसके बाद फिर ज्यूरिक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रुप में बुलाया गया। उस समय ऐल्बर्ट आइंस्टाइन की ख्याति दूर-दूर तक हो रही थी। ऐसे समय उनका विरोधी वर्ग भी तैयार हो रहा था। यथा-"ऐल्बर्ट की ख्याति बढ़ती जा रही थी वैसे दो लोग उनसे नाराज हो रहे थे। अध्यापक का एक वर्ग था, जो ऐल्बर्ट की ख्याति से जलता था और दूसरी उनकी पत्नी थी जो ऐल्बर्ट की ख्याति को अपनी सौत मानती थी।"6 ऐल्बर्ट आइंस्टाइन अपने कार्य में इतने व्यस्थ रहते थे कि उन्हें कुछ भी ख्याल नहीं रहता था। इसलिए उनकी पत्नी मिलेवा की शिकायत रहती थी कि-"उनके लिए गणित और साइन्स पहले है, पत्नी और बच्चे बाद में।...वे समस्या के समाधान के लिए घण्टों एक ही अवस्था में समसाधिस्थ रहते थे। उन्हें जगह का, समय का और अपने शरीर का कोई ख्याल नहीं रहता था। यदि कोई विचार उनके मन में बाथरुम में भी आ जाए, तो घण्टों बाथरुम से नहीं निकलते थे। काम पूरा करके जब वे प्रयोगशाला से बाहर आते, तो कुछ ही मिनट में भूल जाते कि वे प्रयोगशाला से घर जा रहे हैं या घर से प्रयोगशाला।"7 इस कारण उनका और पत्नी मिलेवा के बीच तलाक भी हुआ था जिससे उन्हें पत्नी और बच्चों से दूर रहना पडा, जिसका उन्हें बहुत दुख हुआ। बाद में उन्होंने दूसरा विवाह एलसा के साथ किया।
ऐल्बर्ट आइंस्टाइन अपनी बात निर्भिड़ता से करते थे। जब प्रथम विश्वयुध्द में जर्मनी की हार हुई तो उन्होंने जर्मनी के आक्रामकता की निदां की। वे कहते थे अगर जर्मनी आक्रमकता न रखता तो इतनी हानी न होती थी। इस प्रखड़ता के कारण कई जर्मन लोग इनके विरोधी बने। "इन बातों से आइंस्टाइन के विरोध में सुर तेज होते जा रहे थे। विरोध भी कई तरीकों से किया जा रहा था। एक तो व्यक्तिगत रुप से आइंस्टाइन पर, और दूसरे उनके सापेक्षता सिध्दान्त पर। विरोध के तर्क भी अलग-अलग थे। एक विद्वान ने तो यहां तक कह दिया कि सापेक्षता का सिध्दान्त जर्मन मूल भावना के खिलाफ है। केवल आइंस्टाइन के विरोध के लिए सम्मेलन किए जा रहे थे और अपील की जा रही थी कि वे आइंस्टाइन के सिध्दान्त को न माने।"8 इस तरह प्रसिध्द वै-ाानिक ऐल्बर्ट आइंस्टाइन को अनेक संघर्षो से सामना करना पडा। एक तरह समस्त दुनिया उनके शोधकार्य से उनका लोहा मान रही थी। अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रान्स जैसे देशों में उनके शोध के लिए बधाईयाँ मिल रही थी तो दूसरी और जर्मनी में जहां उनका जन्म हुआ वही यहूदी कहकर उन्हें तकलीफ दी जा रही थी। यथा-"जर्मनी में यहूदियों के प्रति नफरत बढ़ती जा रही है। लोग की आशंका निराधार भी नहीं थी। आइंस्टाइन की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति से जर्मनी में काफी लोग ईर्ष्या करते थे। कुछ समय पूर्व एक युवक गिरफ्तार भी किया गया था, जिसने आइंस्टाइन की हत्या करने के लिए प्रयास किया था।"9 जब उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया तब अनेक लोगों ने इसका विरोध किया कि सापेक्षता सिध्दान्त की अभी तक पृष्टि नहीं हुई है। तब नोबेल कमिटी ने उनके दूसरे शोध कार्य 'फोटो इलैक्ट्रिक इफैक्ट' के लिए सर्वाच्च सम्मान नोबेल दिया गया।
आइंस्टाइन एक ऐसे वैज्ञानिक थे, जो विश्व में शांति चाहते थे। उनका कहना था कि वैज्ञानिक सिध्दान्त और विज्ञान की तकनीकी प्रगति कहीं-न-कहीं अशान्ति के लिए कारण है। क्योंकि वैज्ञानिक ही सैनिक सामग्री निर्माण के लिए तकनीकी ज्ञान देते हैं। वैज्ञानिक चाहे तो युध्दों को सैनिक सामग्री न देकर रोक सकते हैं। उन्होंने विश्व शान्ति हेतु मैनीफेस्टों भी जारी किया था। जिसमें उन्होंने समस्त विश्व को शान्ति के लिए कहा था। जिसपर हस्ताक्षर करनेवाले "भारत से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रख्यात कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा अंग्रेजी लेखक एच.जी.वेल्स शामिल थे।"10 इस तरह शांतिपुरुष ऐल्बर्ट आइंस्टाइन को हिटलर के नाजीवादियों ने जर्मनी से निष्काषिकर दिया। इतना ही नहीं बल्कि उन्हें मारने का फतवा भी निकाला। यथा-"जर्मनी के एक राजनीतिक दल ने तो आइंस्टाइन के सिर की कीमत भी 20000 जर्मन मार्क घोषित कर दिए।"11 इस कारण उन्हें अपना देश, अपनी मिट्टी को छोडकर अमेरिका जाना पडा।
दूसरे विश्वयुध्द की तैयारी हो रही थी, जर्मनी परमाणु बम बनाने में लगा था। तब आइंस्टाइन को लगा कि जर्मनी अगर परमाणु बम बनाने में सफल हुई तो विश्व की बहुत बड़ी हानि होगी। तब उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट को सचेत किया और तब जाकर E=mc2 के आधार पर परमाणु बम बनाया गया। क्योंकि ऐल्बर्ट आइंस्टाइन को एहसास हो गया था कि विश्वशान्ति के लिए हिटलर का सफाया होना चाहिए। उनका कहना था कि संघटित शक्ति का मुकाबला संघटित शक्ति से ही करना चाहिए। तब युध्दों का विरोध करनेवाले तथा विश्व में शांति चाहनेवाले ऐल्बर्ट आइंस्टाइन को भी परमाणु बम बनाने में सहायता करनी पडी। दूसरे विश्वयुध्द में अणुबम का उपयोग किया गया कुल 120000 लोग मारे गये कई अपाहिज हुए। इस बात कि जब आइंस्टाइन को खबर मिली तो उन्हें बहुत दुख हुआ। यथा-"जब हिरोशिमा में बम गिराए जाने की सूचना आइंस्टाइन को दी गई तो उनके आंसू आ गए। वह काफी दुःखी हो गए। क्योंकि व्यक्तिगत रुप से वे युध्द को घटिया और घृणित कार्य मानते थे।"12
ऐसे -ज्ञान सम्पन्न, कर्मशील एवं मानवता के कल्याण हेतु विज्ञान का उपयोग होना चाहिए ऐसी अपेक्षा रखनेवाले, संघर्षशील व्यक्तित्व का अंत 18 अप्रैल, 1955 में हुआ। जो शरीर रुप से तो इस दुनिया से चल बसे किन्तु आज भी उनका कार्य और विचार समाज के उत्थान के लिए मार्गदर्शक है, प्रेरणादायी है।
संदर्भ संकेत :
1. ऐल्बर्ट आइंस्टाइन : एक विलक्षण साइंटिस्ट - विपुल विनोद और नमन विनोद पृ. 17
2. वही - पृ. 23
3. http://anmoleinstein.blogspot.in/biographical-memories-in-english.html
4. ऐल्बर्ट आइंस्टाइन : एक विलक्षण साइंटिस्ट - विपुल विनोद और नमन विनोद पृ. 57
5. वही - पृ. 68
6. वही - पृ. 88
7. वही - पृ. 92
8. वही - पृ. 111
9. वही - पृ. 116-117
10. वही - पृ. 129
11. वही - पृ. 140
12. वही - पृ. 154
हिंदी विभाग,
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा
विश्वविद्यालय,औरंगाबाद.
dr.anantwadghane@gmail.com
mob-08554006708
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