मनोवैज्ञानिक,इतिहास,संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका नीलम यादव ने अपने लेखन के द्वारा हाशिए पर पड़े समाज को केन्द्र में रखक...
मनोवैज्ञानिक,इतिहास,संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका नीलम यादव ने अपने लेखन के द्वारा हाशिए पर पड़े समाज को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। लेखन के क्षेत्र में भी नीलम यादव राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाती रही हैं। आपके लेखन में समाज के दबे,कुचले एवं पीड़ित आम जन के साथ ही साथ मानव मूल्य तथा मनुष्यता की बात देखने को मिलती है। वर्तमान में आप एक अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका का सम्पादन सफलतापूर्वक कर रही हैं।
दलित साहित्य का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य : एक मूल्यांकन
नीलम यादव
शोधछात्रा-इतिहास विभाग
डी0एस0एम0एन0 पुनर्वास,विश्वविद्यालय,लखनऊ,उ.प्र-226017
जॉर्ज लुकांच ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'स्टडीज इन योरोपियन रियलिज्म' में एक स्थान पर लिखा है कि हमारी संस्कृति इस समय एक अन्धेरी सुरंग के बीच से गुजर रही है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। परन्तु इतिहास-दर्शन के ऊपर यह बताने का दायित्व है कि यह हमारी अन्तिम नियति है या हम इससे बाहर आ जायेंगे और प्रकाश के साथ हमारा फिर साक्षात्कार हो जायेगा। बुर्जआ सौन्दर्यशास्त्रियों का तो मानना यह है कि इसके चंगुल से निकलने का अब कोई भी रास्ता शेष नहीं है जबकि मार्क्सवादी इतिहास-दर्शन मनुष्य जाति के विकास की प्रक्रिया में इसे एक ऐसा मोड़ मानता है जिससे होकर हम अनिवार्यतः एक सार्थक गन्तव्य तक पहुँचेंगे। परन्तु जिस संस्कृति के अन्धकार से निकलकर प्रकाश से साक्षात्कार की बात लुकाच करते हैं। वह दरअसल है क्या? उसकी प्रकृति क्या है? समकालीन परिवेश में उसकी उपस्थिति किन मूल्यों, प्रतिमानों को दर्शा रही है? उनका आम लोगों- विशेषकर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और स्त्रियों की जीवन स्थितियों पर क्या, कैसा प्रभाव पड़ रहा है? इस तरह के प्रश्नों पर गम्भीरता के साथ चिन्तन-मनन और परस्पर संवाद की आवश्यकता आज शिद्दत के साथ अहम हो गई है।
भारतीय साहित्य में दलित विमर्श आधुनिक काल में ही नहीं वरन् भारतीय साहित्य के आरम्भ से ही इसके अंकुरण के बीज मिलते हैं। आदिकवि बाल्मीकि ने दलित जीवन को अनुभूत किया। मध्यकालीन संत कवि कबीर, रविदास, तुकाराम, चोखेमल, नामदेव आदि दलित जीवन की पीड़ा से भलीभाँति परिचित थे। वर्तमान सन्दर्भ में भारतीय दलित साहित्य का प्रारम्भ मराठी भाषा से माना जाता है। सन् 1960 ई0 के आस-पास 'दलित' शब्द ने अपनी विशेष पहचान बनायी। मराठी दलित साहित्य ने आत्मकथा को एक नया आयाम प्रदान किया। मराठी दलित लेखकों रमाबाई रानाडे, शरण कुमार ने जिस प्रकार अपनी आत्मकथाएँ लिखीं, वे उनकी पीढ़ी की संवेदनशील अभिव्यक्ति से श्रेष्ठ साहित्यिक उपलब्धियाँ बन गईं। संविधान निर्माता एवं प्रसिद्ध समाज चिन्तक डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की प्रेरणा से दलित चिन्तन का अखिल भारतीय स्तर पर प्रचार-प्रसार हुआ। महात्मा फुले और डॉ0 अम्बेडकर जैसे योग्य नेताओं ने स्वतन्त्र भारत की संविधान सभा को दलितों के लिए राजकीय समाजवाद का माडल लागू करने का ज्ञापन दिया था।
समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो अपने परिवेश, धार्मिक मान्यताओं एवं सांस्कृतिक मूल्यों को स्वीकार नहीं करते। अगर वे साधारण व्यक्ति हुये तो ऐसी स्थिति में समाज उनका बहिष्कार करता है यदि वे असाधारण व्यक्ति हैं तथा नये समाज एवं नवीन मूल्यों की कल्पना करते हैं जिससे बहुसंख्यक समाज का कल्याण हो तो वे लोग क्रान्तिदृष्टा बन जाते हैं। ऐसे विशिष्ट व्यक्ति जन सहयोग मिलने पर अपेक्षिक परिवर्तन लाने में सफल भी होते हैं। आदिकालीन साहित्य के बौद्ध, जैन, नाथ, सिद्ध कवियों का व्यक्तित्व इसी प्रकार असाधारण था जिन्होंने भारतीय सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला वर्णाश्रम धर्म को प्रभावित ही नहीं किया वरन उसमें युगानुरूप परिवर्तन भी किया। दलितवर्ग समाज का मेरूदण्ड माने जाने के साथ ही यह वह वर्ग है जो समाज के उत्पादक, शिल्पी एवं श्रमिक वर्ग का कार्य करता है किन्तु विडम्बना यह है कि यह ही आगे चल कर अस्पृश्य एवं दलित हो जाते हैं। विडम्बना की बात यह है कि इस जाति को सम्पूर्ण मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इन्हें न सम्पत्ति रखने का अधिकार है और न शिक्षा प्राप्त करने का। कठोर परिश्रम के पश्चात् भी भर पेट भोजन प्राप्त करना इनके लिए स्वप्नवत् था।1
तत्कालीन समय में सम्पूर्ण सम्मान एवं ऐश्वर्य जैसे सुःख केवल उच्च वर्ग के लोगों के लिए ही सुरक्षित था और इस सुविधा भोगी उच्चवर्गीय सवर्ण जाति का लक्ष्य केवल येन-केन-प्रकारेण दलित जाति का शारीरिक एवं मानसिक शोषण करना मात्र था जिसके परिणाम स्वरूप दलितों को न जाने कितनी पीड़ा, अपमान और उपेक्षा के दंश झेलने पड़ते थे, मनुस्मृति इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्र का विशिष्ट कर्म है और उसका भरण-पोषण ब्राह्मण का जूठा अन्न, पुराना वस्त्र, सारहीन अन्न, पुराना ओढ़ना-बिछौना देकर करना चाहिए जिसको हम हिन्दू समाज का वीभत्स रूप कर सकते हैं।
उच्छिष्टमन्नं दातत्य जीर्णानि वसनानि च।
पुलाकाश्चैव धन्यानः जीर्णश्चैव परिच्छदाः।।2
शाब्दिक दृष्टि से दलित शब्द का अर्थ है 'दबाया हुआ' या 'कुचला हुआ' होता है लेकिन सामाजिक सन्दर्भों पर दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि जब किसी सबल वर्ग के द्वारा अधीनस्थ वर्ग के अधिकारों का हनन किया जाता है तो वहीं से दलित का जन्म होता है। समाज के सर्वाधिक उपेक्षित वर्ग को इस श्रेणी में रखा जाता है। आज दलित वर्ग में जो आक्रोष दिखाई देता है, उसका यही कारण है।
भारतीय समाज में सुव्यवस्थित वर्ण व्यवस्था की परिकल्पना वेदों में ही वर्णित है, जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति बिना ईर्ष्याभाव के उन्नति का अधिकारी है। वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति 'वृञ वरणेञ धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है-वरण करना या चुन लेना। आचार्य यास्क ने भी 'वर्णञ शब्द की व्युत्पत्ति वृ धातु से ही की है- 'वर्णो वृणोतेःञ -3 वर्ण शब्द अनेकार्थवाची है। ऋग्वेद् में अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग रंग या प्रकाश अर्थ में मिलता है।4
भारतीय इतिहास में ऋग्वैदिक काल से ही सामाजिक जीवन में वर्ण भेद की झॉँकी तो देखने को मिलती है लेकिन जातिगत भेदभाव नहीं दिखाई पड़ता। प्रारम्भ में गौरवर्ण के आर्य श्रेष्ठ व श्याम वर्ण के अनार्य 'दस्यु' कहलाये परन्तु कालान्तर में सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने हेतु आयरें के समाज का भी विभाजन हो गया जिसके द्वारा कार्यों के आधार पर समाज को चार वणरें में बांटा गया। सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरूष सूक्त में एक परमपुरूष की परिकल्पना की गई जिसके चरणों के रूप में शूद्रों को माना गया। इसमें मुख ब्राह्मण, भुजाएhं क्षत्रिय तथा जंघा वैश्य का प्रतीक है। इस प्रकार इस व्यवस्था को प्रतिपादित करने के पीछे सम्पूर्ण शरीर रूपी समाज का निर्माण करना था। ऋग्वैदिक काल में यह व्यवस्था जिसने समाज को चार वर्णों में बाँटा - कर्म प्रधान थी। कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा एवं योग्यता के आधार पर कार्य चुन सकता है। ऋग्वेद में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। एक स्थान पर वर्णन है कि मैं एक कवि हूँ, मेरे पिता एक वैद्य हैं, मेरी माता आटा पीसती है। साधन भिन्न हैं परन्तु हम सभी धन की कामना करते हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रारम्भ में व्यवसाय जन्म के आधार पर नहीं वरन् कर्म के आधार पर निर्भर था।
दलित विमर्श को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने से यह जानकरी हासिल होती है कि प्राचीन काल में दलितों को कर्म के अनुसार उच्च स्थान प्राप्त थे, रामायण रचयिता वाल्मीकि निम्न जाति से थे। महाभारत रचयिता व्यास एक धीवर कन्या से उत्पन्न हुए थे। महात्मा विदुर दासी पुत्र थे। रैदास जाटव थे। कबीर जुलाहा थे। सेन भगत नाई थे। ये सब प्रख्यात भगवत भक्त हुए, जिन्हें ईश्वर की प्राप्ति हुई है। कर्मानुसार शूद्र वर्ण उच्च वर्ण प्राप्त कर सकता था तो उच्च वर्ण निम्न वर्ण को प्राप्त करते थे। यथा पुराणों के आधार पर कुछ राजा क्षत्रिय से सूद्र हो गये। उस समय एक ही परिवार के लोग भिन्न वर्ण के हो सकते थे, अन्तवर्ण विवाह का भी प्रचलन था। द्विजों और शूद्रों के मध्य विवाह सम्बन्ध स्थापित होते थे। यथा महाभारत में धीवर कन्या सत्यवती का शान्तनु से विवाह, भीम का हिडिम्बा से विवाह। विभिन्न वर्णों के बीच खान-पान के सन्दर्भ में हम राम का उदाहरण देखते हैं जिन्होंने भिलनी के झूठे बेर खाकर अतिथ्य स्वीकार किया था। जात-पात, उच्चता, निम्नता, स्पृश्यता-अस्पृश्यता जैसी घृणित भावनाओं का अस्तित्व नहीं था। व्यक्ति की श्रेष्ठता गुणों से आंकी जाती थी।
इस सम्बन्ध में श्री पी0वी0 काणे का विचार है कि -आरम्भ में वर्ण शब्द का प्रयोग गौर-वर्ण आर्यों तथा कृष्ण-वर्ण दासों, या दस्युओं के लिये होता था, बाद में वर्ण शब्द का प्रयोग ब्राह्मणादि, वर्गों के लिये किया जाने लगा।5 परवर्ती ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों एवम् धर्मसूत्रों में भी वर्ण शब्द ब्राह्मणादि चार वर्णों का ही द्योतक है।6 चत्त्वारो वै वर्णा ब्राह्मणो राजन्न्यो वैश्यः शूद्राः ,चत्त्वारो वै वर्णा तदेतद् ब्रह्म क्षत्रं विद्शूद्रः
डॉ0 राजबली पाण्डेय ने 'वर्ण शब्द के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म कोष में लिखा है - 'चार श्रेणियों में विभक्त भारत का मानव वर्ग। यह सामाजिक संस्था है। इसका अर्थ है, प्रकृति के आधार पर गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार अपनी वृत्ति (व्यवसाय) का चुनाव करना ।7 यहाh यह भी कहना उचित है कि मानव समूह की आवश्यकताओं को देखते हुए उसके चार विभाजन हुए। सबसे बड़ी आवश्यकता शिक्षा की थी, इसके लिए ब्राह्मण वर्ण बना। राष्ट्र की रक्षा, प्रजा की रक्षा दूसरी आवश्यकता थी। इस काम में कुशल बाहुबल को विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हुई। शिक्षा और रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका। अन्न के बिना प्राणी जी नहीं सकता, पशुओं के बिना खेती नहीं हो सकती थी। चारों वर्णों को अन्न, दूध, घी, कपड़े लत्ते आदि वस्तुएhं चाहिए। इन वस्तुओं को उपजाना तैयार करना फिर जिसकी जिसे जरुरत हो, उसके पास पहुँचाना, यह सारा काम प्रजा के सबसे बड़े समुदाय के सिर पर रखा गया। इसके लिए वैश्यों का वर्ण बना। किसान, व्यापारी, ग्वाले, कारीगर, दुकानदार बनजारे ये सभी वैश्य हुए। शिक्षक को, रक्षक को, वैश्य को छोटे मोटे कामों में सहायक और सेवक की आवश्यकता थी। धावक व हरकारे की, हरवाहे की, पालकी ढोने वाले की, पशु चराने वाले की, लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने, बरतन माजने वाले की, कपड़े धोने वाले की आवश्यकता थी। ये आवश्यकताएh शूद्रों ने पूरी कीं। इस प्रकार प्रजा समुदाय की सभी आवश्यकताएंh प्रजा में पारस्परिक कर्म-विभाग से पूरी हुईं।8
मनुस्मृति के अनुसार जन्मना जायते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात मनुष्य जन्म से शूद्र ही पैदा होता है। गुण, कर्म, स्वभाव और संस्कारों से द्विज कहलाता है। परन्तु उत्तर ऋग्वैदिक काल में सरल वैदिक धर्म कर्मकाण्ड प्रधान हो गया जिससे समाज पर भी इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा। शूद्रोें व स्त्रियों से शिक्षा का अधिकार छीनकर उन्हें पूरी तरह उच्च वर्ग की सत्ता के अधीन कर दिया गया। इतिहास साक्षी है कि शासन सदैव ब्राह्मण, क्षत्रिय वर्ग के हाथ में रहा। यही कारण है कि सर्वोच्चता के क्रम में अधिकांशतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र या क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र लिखा मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि ऊपर के दो वर्ण तो ऊपर नीचे होते रहे परन्तु शूद्र हमेशा निम्न स्थान पर ही रहे। उत्तर ऋग्वैदिक काल के समाज में एक नवीन वर्ग 'पुरोहित' का उदय हुआ जिसने अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए धर्म को पूरी तरह कर्मकाण्डों से मुक्त कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप शूद़्र निम्नतर स्थिति तक पहhुंच गये। अब उसका एक मात्र कार्य तीनों उच्च वर्णों के लोगों की सेवा करना ही समझा जाता था। जन्म के आधार पर कार्य का निर्धारण हो गया और इस प्रकार जातियों का निर्माण हो गया।
हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य के उद्भव और विकास के विषय में डॉ0 नरहरिदास वणकर लिखते हैं-''हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य का उद्भव सितम्बर सन् 1914 ई0 की 'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित हीराडोम की कविता 'अछूत की शिकायत' से दलित लेखन की शुरूआत मानी जाती हैं।''9 इस सम्बन्ध में वेदों का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि वहाँ समाज के किसी भी वर्ग के प्रति उपेक्षित भाव नहीं था। वर्ण व्यवस्था का मूल पुरुष-सूक्त है। चारों वेदों में उपलब्ध इस सूक्त के माध्यम से सहयोग, समता, सम्वेदनशीलता का उपदेश दिया गया है। तत्कालीन समाज की सावयव कल्पना में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का समान महत्त्व है। उत्तर वैदिककाल में शूद्रों की दयनीय स्थिति मिलती है। वैदिक विधानों में शूद्र की उपेक्षा की गयी है, परन्तु कतिपय प्रसंगों में उसके महत्त्व का भी उल्लेख है। कर्म के अनुसार ही वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। कालान्तर में जब गुण का स्थान जन्म ने ले लिया तभी से मानो वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी और ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य स्वयं को क्रमशः पूज्य, शक्तिशाली व सम्पन्न समझने लगे। शूद्र तीनों वर्णों द्वारा उपेक्षित हो गये। यहीं से दलितों के आहत मन में आक्रोश का जन्म हुआ। हिन्दी साहित्य में दलित-चिन्तन की परम्परा का विकास स्वतः स्फूर्त रूप से नहीं हुआ है। वरन् यह मराठी साहित्य की दलित चेतना से उत्प्रेरित होकर सामने आई है। सर्वप्रथम दलित-चेतना मराठी साहित्य में आयी। पुनः यह कन्नड, उड़िया, गुजराती, बंगाली आदि से होकर हिन्दी साहित्य में भी आयी। 10
अब प्रश्न उठता है कि समाज और साहित्य में हलचल पैदा कर देने वाला दलित साहित्य, दलित-विमर्श, दलित चिन्तन तथा दलित चेतना आखिर है क्या? दलित विमर्श दो शब्दों से मिलकर बना। दलित का अर्थ है-रौंदा, कुचला दबाया हुआ, या पदाक्रांत और विमर्श का अर्थ है-विचार, विवेचन सभीक्षा, परीक्षण या तर्क आदि। इस प्रकार 'दलित-विमर्श का अर्थ हुआ-हिन्दुओं में वे शूद्र जिन्हें अन्य जातियों के समान अधिकार प्राप्त नहीं है ऐसे लोगों के बारे में विचार, विवेचन, समीक्षा और परीक्षण करना ही दलित-विमर्श है। सांस्कृतिक गतिविधियों में भिन्न-भिन्न रूप से सम्बद्ध होते हुए भी दलित साहित्य की अपनी अलग पहचान है। वह पूरी तरह से समाज पर आधारित है। सामाजिक समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व तथा वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ स्वर बुलंद करना ही इसका आधार है। और सामाजिक परिवर्तन ही इसका प्रमुख उद्देश्य है। दलित साहित्य के प्रर्वतक डॉ0 वानखेड़े माने जाते हैं, जिन्होंने सन् 1965-66 ई0 के दौरान आयोजित साहित्य-सम्मेलन में दलित लेखक श्री बाबूराव बागुल के उपन्यास सूड़ (प्रतिशोध) की प्रस्तावना में दलित साहित्य को परिभाषित करते हुए, लिखा था कि ''दलित लेखकों द्वारा दलितों के विषय में लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है।'' उनका मानना है कि ''गैर-दलित साहित्यकार, 'दलित विमर्श' अथवा दलित चेतना को तोड़मोड़ कर पेश कर रहे हैं। दलित साहित्यकारों की दृष्टि में दलित-विमर्श का वास्तविक अर्थ गैर-दलित साहित्यकारों द्वारा दलित समाज के लोगोें के प्रति दुःख दर्द के प्रति सहानुभूति दिखाना या ज्यादा से ज्यादा उनके उत्पीड़न-शोषण की स्थितियों की जानकारी देना है।''11 देखा जाए तो ''बाल्मीकि और कबीर, रैदास भी दलित वर्ग के थे, लेकिन उनका साहित्य दलित साहित्य नहीं है।''12 सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द्र, निराला, हजारी प्रसाद द्विवेदी नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल आदि के दलित चिन्तन को नकारा नहीं जा सकता।''13
आधुनिक काल में बाबासाहब अम्बेडकर ने दलितों को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक शैक्षिक, आदि अधिकारों हेतु अनेक आन्दोलनों को प्रारम्भ किया। उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर इन आन्दोलनों को बल प्रदान किया। उतना ही नहीं भारतीय समाज में समानता लाने हेतु संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। हिन्दी की विभिन्न विधाओं में हमें दलित या दलित विमर्श दिखलायी पड़ता है। हिन्दी दलित साहित्य में दलित जीवन को आधार बनाकर अनेक तरह का साहित्य सृजन किया गया ।
दरअसल दलितों की कमजोरी यह रही है कि उन्होंने हिन्दू धर्म के मातहत अपनी दुर्दशा को तो शिद्दत से महसूस किया पर अपने लिये अपना कोई ऐसा वैकल्पिक धर्म स्थापित करने का प्रयास नहीं किया जिसमें उन्हें सम्मानजनक हैसियत मिल पाती, वे अपने देवी, देवताओं, पूजा, अनुष्ठान, रीति-रिवाज, अपनी संस्कृति निर्मित कर पाते। वे मन्दिरों में प्रवेश पाने, सनातन देवी-देवताओं को पूज पाने, सवर्णों की तरह घोड़ी पर चढ़कर ब्याह करवाने या सती होने का प्रयास करते हुए उन्हीं की नकल करने पर उतारू रहे जिनको वे अपनी दुर्दशा का कारण मानते थे। इस बारे में काँचा इलैया की सोच अधिक यथार्थपरक रही है। आपका मानना है कि जब तक हिन्दू धर्म में सुधार नहीं होता वह प्रगतिशील व आधुनिक बन ही नहीं सकता। दलित बहुजन के देवी-देवताओं 'पोचम्मा' और 'पोटूराजू' लोगों की रोजाना की जिन्दगी से जुड़े हैं। इनकी मान्यता उनके बीच अधिक है। हिन्दुओं के देवी-देवता और धर्मशास्त्र जीवन के यथार्थ से कटे हैं। वे आत्मा, परमात्मा, माया, मोक्ष जैसे जीवन में काम न आने वाले, हवाई विषयों पर केन्द्रित हैं। वे लोगों को जीवन से पलायन की सीख देते हैं जबकि इनके देवी-देवता उत्पादन केन्द्रित हैं। ये श्रम और संघर्ष के सहारे जीने की प्रेरणा देते हैं। काँचा जोर देकर कहते हैं कि उनका श्रम और संघर्ष का पोषक जीवन दर्शन हिन्दू धर्म और कर्म विहीन, भाग्यधारिता, पलायनवादी दर्शन से हर तरह बेहतर है। इसीलिए मुझे अपना धर्म छोड़कर हिन्दू होना स्वीकार नहीं है। काश, दलित समुदाय भी इस तरह की सोच को अपना लेता।14
दलित समाज के लिए इस समय आर्थिक उदारीकरण आड़े आ रहा है जिससे यह रोजी-रोटी की समस्या को विकराल बना रहा है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उसकी निजी पहचान को नष्ट करने पर उतारू है। ये दोनों चुनौतियाँ उसके अस्तित्व को ही खतरे में डालने पर अमादा हैं। जब जीवन ही संकट में होगा तब आन्दोलन और लेखन के प्रयास कैसे सार्थक होंगे इसे आज गम्भीरता से लेने की महती आवश्यकता है। इस नये आर्थिक माहौल में आरक्षण का प्रावधान केवल मुट्ठी भर अभिजात दलितों को लाभ पहुँचाने लायक रह जायेगा। वैसे तो अब तक भी इससे उन दलितों को सबसे कम लाभ मिला था जो लाइन में सबसे अन्त में खड़े थे पर अब वह स्थिति भी नहीं रहेगी। क्योंकि सरकारी सेवा क्षेत्र निरन्तर सिकुड़ता जा रहा है और आगे चलकर गिनी-चुनी नौकरियों को छोड़कर सारी सेवाएँ निजी हाथों और वहाँ से भी बहुराष्ट्रीय एजेन्सियों के पास धीरे-धीरे खिसकती चली जा रही है। नौकरियों की कमी और सेवाओं का निजीकरण निश्चित रूप से प्रतिद्वन्द्विता को इतना कठिन बना दे रहे हैं कि सफलता कठिन होती जा रही है। उस मेरिट के ऊँचे उठते ग्राफ में दलित कितनी हाजरी दर्ज करा सकेंगे इसका अन्दाज लगाना कोई अधिक मुश्किल काम नहीं है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ या कॉर्पोरेट सेक्टर किसी कीमत पर योग्यता के मामले में समझौता नहीं करेंगे क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना है खैरात बाँटना नहीं है। और आप चाहें कि सरकार उन्हें दबाकर ऐसा करवा लेगी तो इस भ्रम में किसी को नहीं रहना चाहिए क्योंकि अब बनने वाली सरकारों में ऐसी दृढ़ इच्छा शक्ति है ही नहीं, जो इन पर दबाव डाल सकें। दूसरे, सरकार और उनके समर्थक जिस विकास के सब्जबाग दिखलाकर चुनाव जीतते हैं उसका सारा दारोमदार इन्हीं के हाथों में रहता है। ये भला उनकी इच्छा के विपरीत कोई कदम कैसे उठा सकते हैं। जहाँ तक बात न्याय संगत भूमि सुधारों को लागू करने की है यह सच्चाई अब किसी के लिए अनजानी नहीं रह गई है कि कृषि कर्म अब लाभदायी उद्यम नहीं रह गया है। कृषि योग्य भूमि को हर राज्य की सरकार बड़े इजारेदारों को बेच रही है। बंजर, ऊबड़-खाबड़, और पथरीली जमीन को लेकर दलित भला क्या लाभ अर्जित कर सकेंगे? इसलिए उन्हें पहले अपनी रोजी-रोटी, अपना अस्तित्व बचाने के लिए कोई कारगर रणनीति बनानी होगी तभी उनका आन्दोलन गति पकड़ेगा और उनका लेखन प्रभावशाली होगा। अब परम्परावाद एवं मनुवाद से भी बड़ी चुनौती उनके सामने उस खुली अर्थव्यवस्था की है जो उन्हें ही नहीं सारे कामगार वर्ग को बेरोजगार बना ऐसी गरीबी की ओर धकेल रही है जिसका अन्त आत्महत्या के अलावा दूसरा नहीं है। क्या यह नहीं हो सकता है कि दलित समाज अब अन्य जातियों, धर्मों के भी वंचित लोगों को अपने साथ मिलाकर इस नई इजारेदारी के खिलाफ लड़ाई लड़ने की कार्य योजना बनाये?
भारत में जातिगत फैली धार्मिक विचारधारा के लिए जिम्मेदार उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में दोनों में इस दर्दनाक परिस्थितियों को बदलना होगा। दोनों ही वर्ग चाहे सवर्ण हो या दलित इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। दलितों को आज आर्थिक रूप से सम्पन्न होने की महती आवश्यकता है जिससे वे अपनी नयी पहचान बना सकें। इसके लिए केन्दीय सरकार को भी आगे आना होगा।
वर्तमान में दलित समाज को धार्मिक विचारधारा और मानवता के साथ-साथ अब मानवाधिकारों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण की अधिक जरूरत है। चूंकि अभी तक वे अंधविश्वास से घिरे हुए थे, अब उनमें आधुनिक व तार्किक सोच का संचार करना होगा। जब तक दलित स्वयं अपने आपको नहीं पहचानेंगे, अपने आत्मसम्मान को नहीं ढूंढेंगे तब तक वे वहीं के वहीं रहेंगे। इसलिए दलितों को स्वयं आगे आना होगा। किसी भी समाज में कोई भी लडा़ई जुड़कर लड़ी जाती है, टुकड़ों में नहीं। दलित-समूह भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा अभिन्न हिस्सा है। अतः जातीय संरचना को नष्ट किए बगैर हमारा सामूहिक विकास सम्भव नहीं हो पायेगा और जब तक सामूहिक विकास नहीं होगा तब तक राष्ट्र का विकास सम्भव नहीं होगा।
इसे सकारात्मक ही कहा जाएगा कि दलित लेखन कुछ अपवादों को छोड़कर समाज के विकास की आवाज को बुलंद कर रही है। हॉलाकि कुछ अपवादों को छोड़कर सम्पूर्ण भारतीय वाडं.मय मानवतावादी दृष्टिकोण को आधार बनाकर ही लिखा गया है इसे दलित साहित्यकारों को भी ध्यान रखना होगा ''दलित लेखकों को भी दलित समाज की वर्ण व्यवस्था को, समाप्त करना होगा क्योंकि इसे मात्र द्विजों, सवर्णों ने ही नहीं वरन् दलितों की अपनी मानसिकता ने भी आहत किया है। दलित साहित्यकारों द्वारा खड़ी की जा रही दीवार साहित्य-समाज दोनों के लिए घातक सिद्ध होगी । इन्हें समझना होगा कि साहित्य किसी एक वर्ग विशेष की जागीर नहीं जो उसी वर्ग के व्यक्ति को खेलने का अधिकार देती हो। साहित्य में इस प्रकार की सोच साहित्य के लिए तो घातक तो है ही दलित विमर्श, दलित साहित्य की धारा लिए भी खतरनाक है। दलित-विमर्श के नाम पर दलितों द्वारा कुछ भी लिख देने का दलित साहित्यकारों का दंभ दलित-चेतना की राह में अवरोध पैदा करेगा, सामाजिक विद्वेष को बढ़ायेगा, साहित्य वर्ग-जाति बनाकर लेखन साम्प्रदायिकता को जन्म देगा जो कम से कम समाज और साहित्य के लिए लाभप्रद नहीं है।''15
अन्त में कहा जा सकता कि जाति-वर्ण व्यवस्था की विसंगतियों को त्यागने में ही दोनों वर्गो (सवणरें-दलितों) की भलाई है। क्योंकि जब तक यह व्यवस्था चलती रहेगी तब तक दोनों वर्ग कुछ न कुछ गँवाते ही रहेंगे। अतः जाति-वर्ण भेद के खात्में के लिए दोनों वगरें को ही आगे आना होगा।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1. विप्रसवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते-मनुस्मृति-10/123
2. मनुस्मृति-10/125
3. निरुक्त 3/2, हलायुधकोष,पृ0 591, संस्कृत हिन्दीकोष,पृ0 901,वाचस्पत्यम् पृ0 4850,शब्दकल्पद्रुम, चतुर्थ भाग, पृ0 277
4.ऋग्वेद 1/7/3/7
5. धर्म शास्त्र का इतिहासः अनुवादक -अर्जुन चौबे काश्यप प्रथम भाग, पृ0 110
6. शतपथब्राह्मण 5/5/4/9, बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/15,चत्त्वारो वर्णाः ब्राह्मण क्षत्रिय विट्छूद्राः ,बौधायन धर्मसूत्र 18/16/1,चत्त्वारो वर्णा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्राः,आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1/1/1/4
7. हिन्दू धर्म कोश-डॉ0 राजबली पाण्डेय,पृ0 575
8. हिन्दू धर्म कोष-डॉ0 राजबली पाण्डेय,पृ0 576
9. दलित विमर्श-डॉ0 नरसिंह दास वणकर,पृ0 68
10. रामचन्द्र सरोजः कल के लिए-जु0-सि0 2006
11. हिन्दी अनुशीलन-दलित चिंतन का दूसरा पहलू,पृ0 101
12.शैलेष मटियानी-कथाक्रमः अप्र्रैल-जून 2003,पृ04
13. हरि नारायण ठाकुर आज कल : दिस0 3003 ,पृ0 7
14. हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, 18 जनवरी, 1997
15. हिन्दी अनुशीलन -दलित चिंतन का दूसरा पहलू ,पृ0 105
16.अन्य प्रकाशित-अप्रकाशित दलित साहित्य जो मैंने अपने अध्ययन के दौरान पढ़ा,किन्तु यहां सन्दर्भ नहीं दे पा रही हूं-उन्हें साभार धन्यवाद।
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