प्र स्तुत आलेख में साहित्य में प्रतिबिंबित समाज के स्वरूप को लेकर कुछ विचार प्रस्तुत किए हैं। इसमें पिछले तीन दशक के मराठी उपन्या...
प्रस्तुत आलेख में साहित्य में प्रतिबिंबित समाज के स्वरूप को लेकर कुछ
विचार प्रस्तुत किए हैं। इसमें पिछले तीन दशक के मराठी उपन्यास में चित्रित समाज के
स्वरूप को आधार बनाया है। चॅूकि उपन्यास विधा में समाज जीवन के विविध आयाम उसकी
जटिलता के साथ चित्रित होते हैं। उपन्यास विधा अपने में कई विधाओं के रूप समेटती
है। उपन्यासकार उसके इस बहुमुखी रूप के कारण अपने समय के समाज जीवन के एहसास को
तीव्रता से रेखांकित करता है। मैनेजर पांडे उपन्यास और प्रजातंत्र का संबंध बताते
हुए कहते हैं कि अनेकता और वैविध्य यह उपन्यास शिल्प की विशेषता है और उपन्यास में
विविध सामाजिक समूह के भाषाओं की अनेकता होती है। उसमें अलग-अलग भाषिक समूह, वर्ग
उनकी जीवन अनुभूति, उनका परिवेश, यथार्थ, उनकी आकांक्षा और आविष्कार होता है। सन
१९८० के बाद के महाराष्ट्र के सामाजिक यथार्थ को मराठी उपन्यासकारों ने किस तरह
प्रस्तुत किया है इसे देखते हैं।
साहित्य सृजन यह मूलतः सामाजिक स्वरूप की घटना होती है। उस संस्कृति के कला-व्यवहार को उस भाषिक सांस्कृतिक जीवन का संदर्भ होता है। हिपोलिन तेन ने साहित्य में प्रस्तुत समाज चित्रण के संदर्भ में प्रस्तुत किए प्रतिमान को ऐतिहासिक महत्त्व है। साहित्य सृजन में वंश (Race) ,काल-युग प्रवृत्ति (Moment) और परिस्थिति (Millue) इन इकाइयों से जैविक संबंध होता है। साहित्य सृजन से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उस काल का युगीन संदर्भ ध्वनित होता हैं। ऐसा कहा जाता है कि साहित्य में सामाजिक परिस्थिति का प्रतिबिंब होता है। लेकिन यह एकांगी विधान है। साहित्य केवल समाज जीवन का दर्पण नहीं होता। इसमें यथार्थ यथावत रिफलेक्ट नहीं होता। वह जटिल रूप में अभिव्यक्त होता है। उसमें यथार्थ का इकहरा पर्दा नहीं होता तो समाज जीवन के कई जटिल बहुमुखी स्रोत का कलानिर्मित दर्शन होता है। इस दर्शन पर उस समाज का, प्रदेश का, भाषा का गहरा प्रभाव होता है। ‘‘साहित्य में व्यक्त विचार, मूल्य, शैली, भाषा, तंत्र, रूप, और साहित्य विधा इसकी हर इकाई को सामाजिक संदर्भ हो सकता है। साहित्य में व्यक्त भाव पक्ष भी समाज के जनमानस के अबोध मन का एक अंश होकर उसका अस्तित्व या सत्ता केवल व्यक्तिवादी नहीं होती। साहित्य सृजन को मनुष्य के व्यापक वंशिक, सांस्कृतिक नक्शे के एक अंश के रूप में देखा जाता है। साहित्यिक रचना पर अन्य कई पारंपरिक कला, साहित्य रचना, वर्तमानकालीन संदर्भ, सुनी-देखी-अनुकरण की हुई कई इकाइयों का प्रभाव, सीधा, विरूध्द, तिकोने रूप में होता है और वह स्वाभाविकतः उसका एक हिस्सा बने होते हैं। मधुमक्खी के छत्ते में जैसे कई फूलों के शहद के कण जमा होते हैं, यह दृष्टांत इस संबंध में समीचीन लगता है।’’ (भालचंद्र नेमाडेः २००९: ४१ सोळा भाषणे)
इस काल के उपन्यासों में चित्रित समाज के स्वरूप को देखने से पहले पूर्वसूत्र के रूप में महाराष्ट्र की कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का निर्देश करना होगा। महाराष्ट्र के सामाजिक जीवन में सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करनेवाली कई घटनाएँ महत्त्वपूर्ण साबित हुई। नेहरू युग के अस्त के बाद महाराष्ट्र के राजनीतिक, सामाजिक जीवन पर यशवंतराव चव्हाण के कार्यकाल की नीति का दूरगामी परिणाम हुआ। इसी काल में विधायक समाज कार्य, पंचायत अधिकार और सहकार नीति की नींव डाली गई। साथ ही महाराष्ट्र के समाज जीवन पर डॉ. अंबेडकर के प्रेरक कार्य का प्रभाव पाया जाता है। इसी काल में दलित पैंथर जैसे लडाकू संगठन का निर्माण हुआ। इस काल में महाराष्ट्र में दलित अस्मिता केंद्रित साहित्य का लेखन हुआ। दलित साहित्य के जरिये समाज जीवन के कई उपेक्षित समूह संस्कृति का चित्रण हुआ। छठे दशक में लघुपत्रिका आंदोलन सामने आया। इस सांस्कृतिक परिवेश से साहित्य की ओर देखने का यथार्थ दृष्टिकोण सांस्कृतिक क्षेत्र में निर्माण हुआ। इस प्रकार का दृष्टिकोण निर्माण करने में महाराष्ट्र के नवजागरण पर विचारों का भी अहं योगदान रहा होगा।
साठोत्तरपूर्व उपन्यासों पर रोमैंटिक जीवन दृष्टि का प्रभाव था। यह साहित्य सांकेतिक और सीमित अनुभव विश्व का चित्रण करने वाला था। इस साहित्य पर नगरीय प्रभाव था। इसका कारण उस काल में निर्मित सामाजिक परिवेश था। उसमें नवशिक्षित वर्ग की इच्छा, आकांक्षा, भाव चित्रण को प्रधानता थी। मराठी साहित्य में इस यथार्थ चित्रण के विविध रूप पाये जाते हैं। १९४५ के दौरान नवकथा और व्यंकटेश माडगूळकर के साहित्य में यथार्थ के कुछ रूप मूर्त हुए। लेकिन १९६० के बाद मराठी कथात्मक साहित्य में इसका विपुल मात्रा में अंकन हुआ जिससे इसे यथार्थवादी युग कहा जा सकता है। अर्थात इसके कारण सामाजिक और सांस्कृतिक रहे हैं। छठे दशक का बदला हुआ नक्शा भी इसके लिए सहायक रहा। १९६० से १९६३ के दौरान भालचंद्र नेमाडे का ‘कोसला’, भाऊ पाध्ये के उपन्यास, उध्दव ढोळके का ‘धग’, जयवंत दळवी का ‘चक्र’ आदि उपन्यास प्रकाशित हुए। इन उपन्यासों में बडे पैमाने पर यथार्थवाद का समर्थन किया गया। इनमें महाराष्ट्र के समाज जीवन का यथार्थ चित्रण आया है।
छठे दशक में तथा साठोत्तरी काल में महाराष्ट्र में कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन निर्माण हुए। लघुपत्रिका आंदोलन, तथा दलित और ग्रामीण साहित्य आंदोलन निर्माण हुए। इन आंदोलनों की भूमिका और दबाव से नया साहित्य निर्माण हुआ। सनातन संकेतशरण साहित्य के प्रति द्रोह व्यक्त हुआ। संस्कृति के उपगुट, समूह, प्रदेश का चित्रण हुआ। तो अगले पडाव पर अस्मिता केंद्रित सांस्कृतिक आंदोलन निर्माण हुए। इसके परिणामस्वरूप उपन्यासों में समाज जीवन का सूक्ष्म अंकन हुआ।
मराठी साहित्य में यथार्थ समाज चित्रण की दृष्टि से भालचंद्र नेमाडे के उपन्यास और उनका आलोचनात्मक लेखन प्रभावी रहा। इसी कारण उन्हें अर्धशती का मराठी उपन्यासकार कहा जाता है। उन्होंने ‘कोसला’ उपन्यास के माध्यम से मराठी उपन्यास लेखन में नये युग का सूत्रपात किया। मराठी सांस्कृतिक जगत इस उपन्यास से काफी प्रभावित हुआ। इस उपन्यास का आकर्षक आवाहनपरक शिल्प नेमाडे ने अगले उपन्यास में प्रयुक्त नहीं किया। ‘चांगदेव चतु टय’ में उन्होंने प्रभावी यथार्थ चित्रण का जोरदार समर्थन किया। इस उपन्यासों में महाराष्ट्र की एक चौथाई सदी का ताना-बाना मिलता है। उनके उपन्यासों में शिक्षा, समाज, राजनीति, और परिवर्तित सामाजिक मानसिकता, भाषा इनका विस्तृत चित्रण मिलता है। यह बाहय यथार्थ का अंतर्गत चित्रण है। नेमाडे द्वारा प्रतिपादित आलोचना भी मराठी साहित्य विश्व के केंद्र में और चर्चित रही है। सांस्कृतिक आलोचना के रूप में उसका अलग महत्त्व है। नेमाडे के पश्चात लिखे उपन्यासों पर उनके उपन्यास और आलोचना का प्रभाव मिलता है। हाल ही के उपन्यास ‘चाळेगत’ का समर्पण ‘कोसला’ के नायक और उनके समानधर्मा नायकों को है। इससे इसके प्रभाव को समझा जा सकता है। इतना ही नहीं तो नेमाडे के उपन्यास और आलोचना के प्रभाव से ग्रामीण साहित्य और उपन्यासों का स्वरूप ही बदल गया।
१९८० के बाद महाराष्ट्र के भौगोलिक नक्शे पर कई सामाजिक गतिविधियाँ घटित हुई। इन गतिविधियों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध इस काल के साहित्य पर पाया जाता है। नवम दशक में भारत में नई अर्थनीति, गैट संधि की स्वीकृति, निजीकरण, वैश्वीकरण का आरंभ हुआ। इस काल में प्रादेशिक राजनीतिक दलों की महत्ता बढ़ गई। समाज पर भूमंडलीकरण के दूरगामी परिणाम हुए। पूँजीवादी व्यवस्था का महत्त्व बढ़ गया। विज्ञान-तंत्रज्ञान में बड़े पैमाने पर बढोतरी हुई। इस काल में गरीब और शिक्षित युवकों में कई जटिल प्रश्न निर्माण हुए। कृषि, औद्योगीकरण और प्रकृति से संबंधित समस्याएँ बढ़ गई। महानगर और गाँव में अंतर बढ़ता गया। देहातों में दृश्य रूप में कुछ मात्रा में भौतिक सुविधाएँ बढ़ गई। इस परिवर्तित समाज व्यवस्था ने लोगों की जीवन शैली और चिंतन को प्रभावित किया। सांस्कृतिक परिवेश से इस काल को कैसा प्रतिसाद मिला, रचनाकोरों ने समकालीन जीवन का पुर्नवाचन किस तरह किया यह इस दृष्टि से देख सकते हैं। इस काल के मराठी उपन्यासों का स्वरूप पाँच सूत्रों में देख सकते हैं। इस काल के उपन्यास को विशेष वर्गीकृत सूत्रों में नहीं देख सकते इतना इस उपन्यास में मिश्रण मिलता है। उसका एक निश्चित स्वरूप में विचार नहीं कर सकते। लेकिन विवेचन की सुविधा के लिए मराठी उपन्यासों में चित्रित सामाजिक परिवेश की निम्न दिशाएँ सूचित की है।
इस काल के उपन्यासों की एक धारा आधुनिक जीवन दृष्टि से प्रभावित है। मराठी में याम मनोहर, मकरंद साठे, अवधूत डोंगरे इन उपन्यासकारों के उपन्यासों से आधुनिक सामाजिक यथार्थ बडी मात्रा में प्रकट हुआ है। इसमें मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, भाषिक सर्जनात्मकता पर बल है। विखंडित जीवन के चित्रण की दृष्टि मराठी उपन्यास में एक धारा विकसित हुई। महानगरीय जीवन की जटिलता और औद्योगीकरण ने व्यक्ति तथा आम आदमी के जीवन में जो प्रश्न निर्माण किए उनका आविष्कार इन उपन्यासों में मिलता है। याम मनोहर के उपन्यासों में आम आदमी के जीने का प्रश्न तात्विक ढंग से प्रस्तुत किया है। इन उपन्यासों पर उत्तर आधुनिकता का प्रभाव मिलता है।
समकालीन मराठी उपन्यासों की एक धारा प्रतिक्रियात्मक रूप में भी व्यक्त हुई है। इन उपन्यासों में जीवन के प्रति होनेवाली अस्वस्थता प्रकट हुई है। आनंद विंगकर का ‘अवकाळी पावसा दरम्यानची गोष्ट’, रमेश इंगळे उत्रादकर के ‘निशानी डावा अंगठा’, ‘सर्व प्रश्न अनिवार्य’, प्रवीण बांदेकर का ‘चाळेगत’ ये उपन्यास इस दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करते हैं। पहली पीढी के रंगनाथ पठारे, राजन गवस, सदानंद देशमुख इनके उपन्यासों में यह दृष्टिकोण मिलता है। धर्म व्यवस्था मनुष्य, स्त्री के शोषण को कैसी कारक होती है इसका चित्रण राजन गवस, उत्तम बंडू तुपे, बळवंत कांबळे इनके उपन्यासों में मिलता है। इसे देवदासी समूह की दीर्घकालीन शोषण परंपरा का संदर्भ है। इस चित्रण में धर्म संस्था के दमन की कारण मीमांसा है। इस उपन्यास को महाराष्ट्र की प्रगतिवादी विचारधारा, आंदोलन की पार्श्वभूमि है।
साहित्य में १९९० के बाद के बदलते सामाजिक विजन का चित्रण मूर्त हो रहा है। समकालीन मराठी उपन्यासों में १९९० के बाद गति से परिवर्तित सामाजिक विजन का अंकन हुआ है। विशेषतः इन दो दशकों में भूमंलीकरण ने जो यथार्थ निर्माण किया उस यथार्थ का भौतिक और मानसिक विजन मराठी उपन्यासकारों ने प्रकट किया है। इस भूमंडलीकरण ने एक साथ नगर से देहात और कृषि पर जो परिणाम किया उसका चित्रण मराठी साहित्य में मिलता है। मराठी समूह मन में इस भूमंडलीकरण को लेकर पेंच भी है। इससे इस साहित्य में भूमंडलीकरण को लेकर एक साथ उसकी अनिवार्यता की स्वीकृति और उसको लेकर विरोध का एहसास प्रस्तुत किया है। ग्रामीण कथात्मक साहित्य में बदलते कृषिजन संस्कृति मानस का बडी मात्रा में अंकन हुआ है। इन उपन्यासों में नवशिक्षित समूह की व्यथा, भ्रष्ट राजनीति, कृषि उत्पादन पर हुए विपरीत परिणाम व्यक्त हुए हैं।
राजन गवस की ‘ब-बळीचा’ और प्रवीण बांदेकर की ‘चाळेगत’ यह दो उपन्यास इस पडाव पर ग्राम संवेदना के चित्रण की दृष्टि से दो उल्लेखनीय प्रयास है। ‘ब-बळीचा’ उपन्यास में बदलते समय में कृषिजन संस्कृति के वैचारिक आधार को खोजने का प्रयत्न मिलता है। समकालील ग्राम जीवन को महात्मा फुले के विचार के जरिए तराशा है। ‘चाळेगत’ उपन्यास को बहुमुखी परिमाण है। एखाद प्रदेश, वहाँ की लोकसंस्कृति, प्रकृति क्रमशः कैसे बेचिराग और बंजर होती जाती है इसका चित्रण इसमें मिलता है।
इस काल के उपन्यासों की एक धारा ग्रामीण समूह की संवेदना व्यक्त करने के दृष्टि से प्रकट हुई है । अर्थात इन उपन्यासों का गतकालीन प्रचलित ग्रामीण उपन्यासों से संबंध नहीं है। महाराष्ट्र के विभिन्न प्रदेश के ग्रामीण जीवन के अनेक प्रदेश वहाँ के समाज समूह के यथार्थ चित्रण के साथ उनमें प्रकट हुए हैं। वे ग्रामीण संस्कृति के बिखराव को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं। इस समय की राजनीति और सहकार ने धारण किए विपरीत मोड़ की यात्रा इसके माध्यम से मूर्त हुई है ।
मराठी उपन्यासों में इस समय के विविध संदर्भों का प्रवेश हुआ है। अगर कृषि का उदाहरण लिया जाय तो उसमें जजमानी पद्धति की बदलती स्थितियाँ चित्रित करने वाले कई उपन्यास लिखे गए हैं। किसान जीवन पर आने वाले कई संकटों का चित्रण उनमें हैं। किसान आत्महत्या जैसी तीव्र और ज्वलंत समस्या उपन्यासों में चित्रित हो रही है। ‘अवकाळी पावसाच्या दरम्यानची गोष्ट’ (२०१०) जैसे उपन्यासों में समकालीन किसानों की दुर्दशा का अत्यंत प्रभावी चित्रण है। इस समय के कई उपन्यास भूमंडलीकरण से प्रभावित हैं। भूमंडलीकरण के दौर की जटिलता के अंतर्विरोध का चित्रण मराठी उपन्यासकारों ने किया है। सदानंद देशमुख के ‘बारोमास’ उपन्यास में इसका चित्रण मिलता है। शंकर सखाराम के ‘एस ई झेड’ उपन्यास में सेझ की समस्या को उजागर किया है।
इन उपन्यासों का और एक सूत्र यह है कि इनमें ग्रामीण परिपाटी के सुशिक्षित नायक को मिलने वाली असफलता और निराशा प्रतीत होती है। पुरुषोत्तम बोरकर के ‘मेड इन इंडिया’ से लेकर ‘आगळ’(महेंद्र कदम), ‘भोत’(महेश निकम), ‘बारोमास’(सदानंद देशमुख), ‘देशोधडी’(सीताराम सावंत) इन उपन्यासों के माध्यम से इस समस्या को प्रकट किया है। ग्रामीण स्तर के समाजकारण और राजनीति का सूक्ष्म अवलोकन करने वाले उपन्यास इस दौर में लिखे गए। .ष्णात खोत का ‘रौंदाळा’ तथा आनंद विंगकर का ‘अवकाळी पावसाच्या दरम्यानची गोष्ट’ इन उपन्यासों में भ्रष्ट और कुटिल राजनीति का चित्रण किया गया है। कई उपन्यासों में पारिवारिक झगड़ों का चित्रण मिलता है। ‘ऐसा कुनबी भूपाळ’ (भारत काळे) में किसान अस्मिता और संघर्षकेंद्री संवेदना का सूत्र पाया जाता है। शेषराव मोहिते के उपन्यासों में किसान आंदोलन और किसानों के शोषण का चित्रण है। ग्रामीण जीवन की पार्श्वभूमि होनेवाले कुछ उपन्यासों में सहकार में आये ठहराव का अंकन हुआ है। ‘विषवृक्षाच्या मुळ्या’ (वासुदेव मुलाटे), साखरफेरा (मोहन पाटील) से लेकर ‘कोयता’ (सरदार जाधव) तक के उपन्यासों में सहकार क्षेत्र के विपरीत मोड़ का चित्रण है। इसीके साथ इस काल में ग्रामीण स्तर पर के शिक्षा विषयक अनुभवों का चित्रण करने वाले उपन्यास भी प्रकाशित हुए हैं। रमेश इंगले उत्रादकर (निशानी डावा अंगठा, सर्व प्रश्न अनिवार्य), वामन जाधव (वान्टेड) से लेकर महेंद्र कदम (आगळ) तक के उपन्यासों में शिक्षा क्षेत्र का व्यंग्यात्मक रूप में चित्रण हुआ है। इन उपन्यासों पर नेमाडे के उपन्यासों का प्रभाव पाया जाता है।
उपन्यासों की एक धारा विविध जाति समूह और स्त्रियों का नया विश्व आविष्कृत करने के दृष्टि से व्यक्त हुई है। इस काल के उपन्यासों का समस्या प्रधान उपन्यास यह एक रूप रहा है। सफेदपोश मध्यमवर्गीय जीवन परिधि के बाहर की दुनिया इन उपन्यासों में पहली बार प्रस्तुत हुई है। इन उपन्यासों में उपसमूहों की जीवनशैली तथा समस्याओं का सूक्ष्मता से चित्रण हुआ है। इस काल में मातंग, आदिवासी, कैकाडी, पारधी से लेकर मछुआरों तक की जनजातियों का यथार्थ चित्रण करने वाले उपन्यासों का सृजन हुआ। इन उपन्यासों ने साहित्य के जीवनानुभव को विस्तृत करने का कार्य किया। जी.के. ऐनापुरे के उपन्यासों में बदलते नगरीय जीवन से विस्थापित हो रहे मजदूर वर्ग का तथा दलित आंदोलन के अंतर्विरोधों का प्रभावी अंकन मिलता है। इस दृष्टि से उनके ‘रिबोट’ और ‘अभिसरण’ उपन्सास उल्लेखनीय है। अशोक पवार के ‘इळनमाळ’, ‘बि-हाड’, ‘तिसव्या’ इन उपन्यासों में बेलदार इस घुमंतू समूह का अंतरंग चित्रण मिलता है। इनमें उनके यथार्थ और भयावह अभावग्रस्त जीवन के संघर्ष का चित्रण है। मधुकर वाकोडे, नजुबाई गावित आदि के उपन्यासों में आदिवासी समाज का चित्रण है। इन उपन्यासों में मुस्लिम, अल्पसंख्य समूह का चित्रण है।
इस दौर में स्त्रियों द्वारा लिखे उपन्यासों में नई बदलती सामाजिक स्थितियों का चित्रण है। कमल देसाई, गौरी देशपांडे, शांता गोखले, मेघना पेठे, कविता महाजन आदि ने भी कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे हैं। गौरी देशपांडे के उपन्यासों में भारतीय तथा अंतरराष्ट्रीय परिवेश के संदर्भ मिलते हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों की खोज है। आसपास के परिवेश से नया बोध और आत्मसम्मान की संवेदनाओं का चित्रण उसमें है। इसमें शिक्षित और कमाने वाली स्त्रियों की दुनिया का चित्रण है। घर से लेकर कार्यालय तक सार्वजनिक जीवन में उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। इसको लेकर जो प्रतिक्रियाएँ और अस्मिता की आवाज है वह इन उपन्यासों में मिलती है। स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में इस स्त्री की स्वतंत्र भूमिका और आचरण ‘नातिचरामि’ ‘रीटा वेलणकर’ इन उपन्यासों द्वारा व्यक्त हुआ है। कविता महाजन के वृत्तान्तपरक डॉक्यूमेंटरी प्रकार के उपन्यासों में गाँव की राजनीति में स्त्रियों का दोयम स्थान और एड्सग्रस्त स्त्रियों की दुनिया का चित्र सामने रखा है।
समकालीन उपन्यासों की एक धारा वैचारिकता के दृष्टि से भी आविष्कृत हुई है। पिछले दशक में मराठी में कुछ उल्लेखनीय उपन्यास प्रकाशित हुए। इसमें भालचंद्र नेमाडे का ‘हिन्दूः जगण्याची समृद्ध अडगळ’, नंदा खरे का ‘अंताजीची बखर’ तथा ‘बखर अनंतकाळाची’ और अनंत जातेगावकर का ‘अस्वस्थ वर्तमान’ आदि हैं। इन उपन्यासों के पीछे ठोस वैचारिक सूत्र है। ‘हिन्दू’ में भालचंद्र नेमाडे ने एक बड़े समूह की संवेदना रेखांकित की है। इसमें इतिहास, संस्कृति, समाज इनका बहुस्तरीय चित्रण है। इसमें कृषि संस्कृति वाले गाँव का स्वरूप किस तरह क्रमशः बदलता है इसकी खोज है। उनके महाउपन्यास की परियोजना का यह पहला खंड है। आनंद जातेगांवकर का ‘अस्वस्थ वर्तमान’ उपन्यास आधुनिक महाराष्ट्र के नवजागरण का पुनर्पाठ है। नंदा खरे के उपन्यास में इतिहास कथन को नया परिमाण दिया है। उन्होंने ऐतिहासिक संहिता का बेहतरीन सृजनशील प्रयोग किया है। इस प्रकार के उपन्यास रचना के द्वारा लेखक के सामाजिक इतिहास और संस्कृति के बारे में महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त हुए हैं।
कुल मिलाकर पिछले दशक के मराठी उपन्यासों ने सामाजिक यथार्थ का कौनसा रूप मराठी पाठकों के सामने रखा है इसका स्वरुप हमने देखा है। इस काल के उपन्यासों ने अपने समय को उपर्युक्त प्रतिसाद दिया है इसका विवेचन इस लेख में है। समकालीन मराठी उपन्यास की धारा यह अधिक यथार्थवादी धारा है। इन उपन्यासों में अनेक समाज समूह उपस्थित हैं। अनुभव के क्षेत्र का विस्तार हुआ है। भूमंडलीकरण की समस्या, ग्रामीण संरचना का हृास और इतिहास संहिता का उसने खोजा हुवा नया अन्वयार्थ यह इन उपन्यासों की उपलब्धि है। किन्तु यह करते समय जीवन के प्रत्येक आयाम का चित्रण इसमें अधिक मात्रा में आ रहा है। अर्थात यह समकालीन विकीर्ण, विभाजित, हडबडाहट वाली या विचलित अवस्था का चित्रण है। वह अलग-अलग रूप में व्यक्त हुआ है। ऐसे दिखाई देता है कि वे पूरे समाज के समग्र रूप को चित्रित करने में तथा समग्र मराठी समूह की संवेदना को साकार करने में असफल हुए हैं। उपन्यास के सृजन के लिए वास्तविक समकाल अधिक ही पोषक और ऊँचाई प्रदान करने वाला काल रहा है। उपन्यासकारों की सृष्टि से यह काल संवेदना रेखांकित करने की कमी उपन्यासकारों में दिखाई देती है। ऐसे उपन्यासकारों की प्रतीक्षा मराठी पाठकों को करनी पडेगी।
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डॉ. रणधीर शिंदे
मराठी विभाग,
शिवाजी विश्वविद्यालय,
कोल्हापुर
अनुवादः
डॉ.गिरीश काशिद
अध्यक्ष,हिंदी विभाग,
एस.बी.झेड.महाविद्यालय,
बार्शी,जिला-सोलापुर ४१३४०१
०९४२३२८१७५०
साहित्य सृजन यह मूलतः सामाजिक स्वरूप की घटना होती है। उस संस्कृति के कला-व्यवहार को उस भाषिक सांस्कृतिक जीवन का संदर्भ होता है। हिपोलिन तेन ने साहित्य में प्रस्तुत समाज चित्रण के संदर्भ में प्रस्तुत किए प्रतिमान को ऐतिहासिक महत्त्व है। साहित्य सृजन में वंश (Race) ,काल-युग प्रवृत्ति (Moment) और परिस्थिति (Millue) इन इकाइयों से जैविक संबंध होता है। साहित्य सृजन से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उस काल का युगीन संदर्भ ध्वनित होता हैं। ऐसा कहा जाता है कि साहित्य में सामाजिक परिस्थिति का प्रतिबिंब होता है। लेकिन यह एकांगी विधान है। साहित्य केवल समाज जीवन का दर्पण नहीं होता। इसमें यथार्थ यथावत रिफलेक्ट नहीं होता। वह जटिल रूप में अभिव्यक्त होता है। उसमें यथार्थ का इकहरा पर्दा नहीं होता तो समाज जीवन के कई जटिल बहुमुखी स्रोत का कलानिर्मित दर्शन होता है। इस दर्शन पर उस समाज का, प्रदेश का, भाषा का गहरा प्रभाव होता है। ‘‘साहित्य में व्यक्त विचार, मूल्य, शैली, भाषा, तंत्र, रूप, और साहित्य विधा इसकी हर इकाई को सामाजिक संदर्भ हो सकता है। साहित्य में व्यक्त भाव पक्ष भी समाज के जनमानस के अबोध मन का एक अंश होकर उसका अस्तित्व या सत्ता केवल व्यक्तिवादी नहीं होती। साहित्य सृजन को मनुष्य के व्यापक वंशिक, सांस्कृतिक नक्शे के एक अंश के रूप में देखा जाता है। साहित्यिक रचना पर अन्य कई पारंपरिक कला, साहित्य रचना, वर्तमानकालीन संदर्भ, सुनी-देखी-अनुकरण की हुई कई इकाइयों का प्रभाव, सीधा, विरूध्द, तिकोने रूप में होता है और वह स्वाभाविकतः उसका एक हिस्सा बने होते हैं। मधुमक्खी के छत्ते में जैसे कई फूलों के शहद के कण जमा होते हैं, यह दृष्टांत इस संबंध में समीचीन लगता है।’’ (भालचंद्र नेमाडेः २००९: ४१ सोळा भाषणे)
इस काल के उपन्यासों में चित्रित समाज के स्वरूप को देखने से पहले पूर्वसूत्र के रूप में महाराष्ट्र की कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का निर्देश करना होगा। महाराष्ट्र के सामाजिक जीवन में सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करनेवाली कई घटनाएँ महत्त्वपूर्ण साबित हुई। नेहरू युग के अस्त के बाद महाराष्ट्र के राजनीतिक, सामाजिक जीवन पर यशवंतराव चव्हाण के कार्यकाल की नीति का दूरगामी परिणाम हुआ। इसी काल में विधायक समाज कार्य, पंचायत अधिकार और सहकार नीति की नींव डाली गई। साथ ही महाराष्ट्र के समाज जीवन पर डॉ. अंबेडकर के प्रेरक कार्य का प्रभाव पाया जाता है। इसी काल में दलित पैंथर जैसे लडाकू संगठन का निर्माण हुआ। इस काल में महाराष्ट्र में दलित अस्मिता केंद्रित साहित्य का लेखन हुआ। दलित साहित्य के जरिये समाज जीवन के कई उपेक्षित समूह संस्कृति का चित्रण हुआ। छठे दशक में लघुपत्रिका आंदोलन सामने आया। इस सांस्कृतिक परिवेश से साहित्य की ओर देखने का यथार्थ दृष्टिकोण सांस्कृतिक क्षेत्र में निर्माण हुआ। इस प्रकार का दृष्टिकोण निर्माण करने में महाराष्ट्र के नवजागरण पर विचारों का भी अहं योगदान रहा होगा।
साठोत्तरपूर्व उपन्यासों पर रोमैंटिक जीवन दृष्टि का प्रभाव था। यह साहित्य सांकेतिक और सीमित अनुभव विश्व का चित्रण करने वाला था। इस साहित्य पर नगरीय प्रभाव था। इसका कारण उस काल में निर्मित सामाजिक परिवेश था। उसमें नवशिक्षित वर्ग की इच्छा, आकांक्षा, भाव चित्रण को प्रधानता थी। मराठी साहित्य में इस यथार्थ चित्रण के विविध रूप पाये जाते हैं। १९४५ के दौरान नवकथा और व्यंकटेश माडगूळकर के साहित्य में यथार्थ के कुछ रूप मूर्त हुए। लेकिन १९६० के बाद मराठी कथात्मक साहित्य में इसका विपुल मात्रा में अंकन हुआ जिससे इसे यथार्थवादी युग कहा जा सकता है। अर्थात इसके कारण सामाजिक और सांस्कृतिक रहे हैं। छठे दशक का बदला हुआ नक्शा भी इसके लिए सहायक रहा। १९६० से १९६३ के दौरान भालचंद्र नेमाडे का ‘कोसला’, भाऊ पाध्ये के उपन्यास, उध्दव ढोळके का ‘धग’, जयवंत दळवी का ‘चक्र’ आदि उपन्यास प्रकाशित हुए। इन उपन्यासों में बडे पैमाने पर यथार्थवाद का समर्थन किया गया। इनमें महाराष्ट्र के समाज जीवन का यथार्थ चित्रण आया है।
छठे दशक में तथा साठोत्तरी काल में महाराष्ट्र में कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन निर्माण हुए। लघुपत्रिका आंदोलन, तथा दलित और ग्रामीण साहित्य आंदोलन निर्माण हुए। इन आंदोलनों की भूमिका और दबाव से नया साहित्य निर्माण हुआ। सनातन संकेतशरण साहित्य के प्रति द्रोह व्यक्त हुआ। संस्कृति के उपगुट, समूह, प्रदेश का चित्रण हुआ। तो अगले पडाव पर अस्मिता केंद्रित सांस्कृतिक आंदोलन निर्माण हुए। इसके परिणामस्वरूप उपन्यासों में समाज जीवन का सूक्ष्म अंकन हुआ।
मराठी साहित्य में यथार्थ समाज चित्रण की दृष्टि से भालचंद्र नेमाडे के उपन्यास और उनका आलोचनात्मक लेखन प्रभावी रहा। इसी कारण उन्हें अर्धशती का मराठी उपन्यासकार कहा जाता है। उन्होंने ‘कोसला’ उपन्यास के माध्यम से मराठी उपन्यास लेखन में नये युग का सूत्रपात किया। मराठी सांस्कृतिक जगत इस उपन्यास से काफी प्रभावित हुआ। इस उपन्यास का आकर्षक आवाहनपरक शिल्प नेमाडे ने अगले उपन्यास में प्रयुक्त नहीं किया। ‘चांगदेव चतु टय’ में उन्होंने प्रभावी यथार्थ चित्रण का जोरदार समर्थन किया। इस उपन्यासों में महाराष्ट्र की एक चौथाई सदी का ताना-बाना मिलता है। उनके उपन्यासों में शिक्षा, समाज, राजनीति, और परिवर्तित सामाजिक मानसिकता, भाषा इनका विस्तृत चित्रण मिलता है। यह बाहय यथार्थ का अंतर्गत चित्रण है। नेमाडे द्वारा प्रतिपादित आलोचना भी मराठी साहित्य विश्व के केंद्र में और चर्चित रही है। सांस्कृतिक आलोचना के रूप में उसका अलग महत्त्व है। नेमाडे के पश्चात लिखे उपन्यासों पर उनके उपन्यास और आलोचना का प्रभाव मिलता है। हाल ही के उपन्यास ‘चाळेगत’ का समर्पण ‘कोसला’ के नायक और उनके समानधर्मा नायकों को है। इससे इसके प्रभाव को समझा जा सकता है। इतना ही नहीं तो नेमाडे के उपन्यास और आलोचना के प्रभाव से ग्रामीण साहित्य और उपन्यासों का स्वरूप ही बदल गया।
१९८० के बाद महाराष्ट्र के भौगोलिक नक्शे पर कई सामाजिक गतिविधियाँ घटित हुई। इन गतिविधियों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध इस काल के साहित्य पर पाया जाता है। नवम दशक में भारत में नई अर्थनीति, गैट संधि की स्वीकृति, निजीकरण, वैश्वीकरण का आरंभ हुआ। इस काल में प्रादेशिक राजनीतिक दलों की महत्ता बढ़ गई। समाज पर भूमंडलीकरण के दूरगामी परिणाम हुए। पूँजीवादी व्यवस्था का महत्त्व बढ़ गया। विज्ञान-तंत्रज्ञान में बड़े पैमाने पर बढोतरी हुई। इस काल में गरीब और शिक्षित युवकों में कई जटिल प्रश्न निर्माण हुए। कृषि, औद्योगीकरण और प्रकृति से संबंधित समस्याएँ बढ़ गई। महानगर और गाँव में अंतर बढ़ता गया। देहातों में दृश्य रूप में कुछ मात्रा में भौतिक सुविधाएँ बढ़ गई। इस परिवर्तित समाज व्यवस्था ने लोगों की जीवन शैली और चिंतन को प्रभावित किया। सांस्कृतिक परिवेश से इस काल को कैसा प्रतिसाद मिला, रचनाकोरों ने समकालीन जीवन का पुर्नवाचन किस तरह किया यह इस दृष्टि से देख सकते हैं। इस काल के मराठी उपन्यासों का स्वरूप पाँच सूत्रों में देख सकते हैं। इस काल के उपन्यास को विशेष वर्गीकृत सूत्रों में नहीं देख सकते इतना इस उपन्यास में मिश्रण मिलता है। उसका एक निश्चित स्वरूप में विचार नहीं कर सकते। लेकिन विवेचन की सुविधा के लिए मराठी उपन्यासों में चित्रित सामाजिक परिवेश की निम्न दिशाएँ सूचित की है।
इस काल के उपन्यासों की एक धारा आधुनिक जीवन दृष्टि से प्रभावित है। मराठी में याम मनोहर, मकरंद साठे, अवधूत डोंगरे इन उपन्यासकारों के उपन्यासों से आधुनिक सामाजिक यथार्थ बडी मात्रा में प्रकट हुआ है। इसमें मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, भाषिक सर्जनात्मकता पर बल है। विखंडित जीवन के चित्रण की दृष्टि मराठी उपन्यास में एक धारा विकसित हुई। महानगरीय जीवन की जटिलता और औद्योगीकरण ने व्यक्ति तथा आम आदमी के जीवन में जो प्रश्न निर्माण किए उनका आविष्कार इन उपन्यासों में मिलता है। याम मनोहर के उपन्यासों में आम आदमी के जीने का प्रश्न तात्विक ढंग से प्रस्तुत किया है। इन उपन्यासों पर उत्तर आधुनिकता का प्रभाव मिलता है।
समकालीन मराठी उपन्यासों की एक धारा प्रतिक्रियात्मक रूप में भी व्यक्त हुई है। इन उपन्यासों में जीवन के प्रति होनेवाली अस्वस्थता प्रकट हुई है। आनंद विंगकर का ‘अवकाळी पावसा दरम्यानची गोष्ट’, रमेश इंगळे उत्रादकर के ‘निशानी डावा अंगठा’, ‘सर्व प्रश्न अनिवार्य’, प्रवीण बांदेकर का ‘चाळेगत’ ये उपन्यास इस दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करते हैं। पहली पीढी के रंगनाथ पठारे, राजन गवस, सदानंद देशमुख इनके उपन्यासों में यह दृष्टिकोण मिलता है। धर्म व्यवस्था मनुष्य, स्त्री के शोषण को कैसी कारक होती है इसका चित्रण राजन गवस, उत्तम बंडू तुपे, बळवंत कांबळे इनके उपन्यासों में मिलता है। इसे देवदासी समूह की दीर्घकालीन शोषण परंपरा का संदर्भ है। इस चित्रण में धर्म संस्था के दमन की कारण मीमांसा है। इस उपन्यास को महाराष्ट्र की प्रगतिवादी विचारधारा, आंदोलन की पार्श्वभूमि है।
साहित्य में १९९० के बाद के बदलते सामाजिक विजन का चित्रण मूर्त हो रहा है। समकालीन मराठी उपन्यासों में १९९० के बाद गति से परिवर्तित सामाजिक विजन का अंकन हुआ है। विशेषतः इन दो दशकों में भूमंलीकरण ने जो यथार्थ निर्माण किया उस यथार्थ का भौतिक और मानसिक विजन मराठी उपन्यासकारों ने प्रकट किया है। इस भूमंडलीकरण ने एक साथ नगर से देहात और कृषि पर जो परिणाम किया उसका चित्रण मराठी साहित्य में मिलता है। मराठी समूह मन में इस भूमंडलीकरण को लेकर पेंच भी है। इससे इस साहित्य में भूमंडलीकरण को लेकर एक साथ उसकी अनिवार्यता की स्वीकृति और उसको लेकर विरोध का एहसास प्रस्तुत किया है। ग्रामीण कथात्मक साहित्य में बदलते कृषिजन संस्कृति मानस का बडी मात्रा में अंकन हुआ है। इन उपन्यासों में नवशिक्षित समूह की व्यथा, भ्रष्ट राजनीति, कृषि उत्पादन पर हुए विपरीत परिणाम व्यक्त हुए हैं।
राजन गवस की ‘ब-बळीचा’ और प्रवीण बांदेकर की ‘चाळेगत’ यह दो उपन्यास इस पडाव पर ग्राम संवेदना के चित्रण की दृष्टि से दो उल्लेखनीय प्रयास है। ‘ब-बळीचा’ उपन्यास में बदलते समय में कृषिजन संस्कृति के वैचारिक आधार को खोजने का प्रयत्न मिलता है। समकालील ग्राम जीवन को महात्मा फुले के विचार के जरिए तराशा है। ‘चाळेगत’ उपन्यास को बहुमुखी परिमाण है। एखाद प्रदेश, वहाँ की लोकसंस्कृति, प्रकृति क्रमशः कैसे बेचिराग और बंजर होती जाती है इसका चित्रण इसमें मिलता है।
इस काल के उपन्यासों की एक धारा ग्रामीण समूह की संवेदना व्यक्त करने के दृष्टि से प्रकट हुई है । अर्थात इन उपन्यासों का गतकालीन प्रचलित ग्रामीण उपन्यासों से संबंध नहीं है। महाराष्ट्र के विभिन्न प्रदेश के ग्रामीण जीवन के अनेक प्रदेश वहाँ के समाज समूह के यथार्थ चित्रण के साथ उनमें प्रकट हुए हैं। वे ग्रामीण संस्कृति के बिखराव को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं। इस समय की राजनीति और सहकार ने धारण किए विपरीत मोड़ की यात्रा इसके माध्यम से मूर्त हुई है ।
मराठी उपन्यासों में इस समय के विविध संदर्भों का प्रवेश हुआ है। अगर कृषि का उदाहरण लिया जाय तो उसमें जजमानी पद्धति की बदलती स्थितियाँ चित्रित करने वाले कई उपन्यास लिखे गए हैं। किसान जीवन पर आने वाले कई संकटों का चित्रण उनमें हैं। किसान आत्महत्या जैसी तीव्र और ज्वलंत समस्या उपन्यासों में चित्रित हो रही है। ‘अवकाळी पावसाच्या दरम्यानची गोष्ट’ (२०१०) जैसे उपन्यासों में समकालीन किसानों की दुर्दशा का अत्यंत प्रभावी चित्रण है। इस समय के कई उपन्यास भूमंडलीकरण से प्रभावित हैं। भूमंडलीकरण के दौर की जटिलता के अंतर्विरोध का चित्रण मराठी उपन्यासकारों ने किया है। सदानंद देशमुख के ‘बारोमास’ उपन्यास में इसका चित्रण मिलता है। शंकर सखाराम के ‘एस ई झेड’ उपन्यास में सेझ की समस्या को उजागर किया है।
इन उपन्यासों का और एक सूत्र यह है कि इनमें ग्रामीण परिपाटी के सुशिक्षित नायक को मिलने वाली असफलता और निराशा प्रतीत होती है। पुरुषोत्तम बोरकर के ‘मेड इन इंडिया’ से लेकर ‘आगळ’(महेंद्र कदम), ‘भोत’(महेश निकम), ‘बारोमास’(सदानंद देशमुख), ‘देशोधडी’(सीताराम सावंत) इन उपन्यासों के माध्यम से इस समस्या को प्रकट किया है। ग्रामीण स्तर के समाजकारण और राजनीति का सूक्ष्म अवलोकन करने वाले उपन्यास इस दौर में लिखे गए। .ष्णात खोत का ‘रौंदाळा’ तथा आनंद विंगकर का ‘अवकाळी पावसाच्या दरम्यानची गोष्ट’ इन उपन्यासों में भ्रष्ट और कुटिल राजनीति का चित्रण किया गया है। कई उपन्यासों में पारिवारिक झगड़ों का चित्रण मिलता है। ‘ऐसा कुनबी भूपाळ’ (भारत काळे) में किसान अस्मिता और संघर्षकेंद्री संवेदना का सूत्र पाया जाता है। शेषराव मोहिते के उपन्यासों में किसान आंदोलन और किसानों के शोषण का चित्रण है। ग्रामीण जीवन की पार्श्वभूमि होनेवाले कुछ उपन्यासों में सहकार में आये ठहराव का अंकन हुआ है। ‘विषवृक्षाच्या मुळ्या’ (वासुदेव मुलाटे), साखरफेरा (मोहन पाटील) से लेकर ‘कोयता’ (सरदार जाधव) तक के उपन्यासों में सहकार क्षेत्र के विपरीत मोड़ का चित्रण है। इसीके साथ इस काल में ग्रामीण स्तर पर के शिक्षा विषयक अनुभवों का चित्रण करने वाले उपन्यास भी प्रकाशित हुए हैं। रमेश इंगले उत्रादकर (निशानी डावा अंगठा, सर्व प्रश्न अनिवार्य), वामन जाधव (वान्टेड) से लेकर महेंद्र कदम (आगळ) तक के उपन्यासों में शिक्षा क्षेत्र का व्यंग्यात्मक रूप में चित्रण हुआ है। इन उपन्यासों पर नेमाडे के उपन्यासों का प्रभाव पाया जाता है।
उपन्यासों की एक धारा विविध जाति समूह और स्त्रियों का नया विश्व आविष्कृत करने के दृष्टि से व्यक्त हुई है। इस काल के उपन्यासों का समस्या प्रधान उपन्यास यह एक रूप रहा है। सफेदपोश मध्यमवर्गीय जीवन परिधि के बाहर की दुनिया इन उपन्यासों में पहली बार प्रस्तुत हुई है। इन उपन्यासों में उपसमूहों की जीवनशैली तथा समस्याओं का सूक्ष्मता से चित्रण हुआ है। इस काल में मातंग, आदिवासी, कैकाडी, पारधी से लेकर मछुआरों तक की जनजातियों का यथार्थ चित्रण करने वाले उपन्यासों का सृजन हुआ। इन उपन्यासों ने साहित्य के जीवनानुभव को विस्तृत करने का कार्य किया। जी.के. ऐनापुरे के उपन्यासों में बदलते नगरीय जीवन से विस्थापित हो रहे मजदूर वर्ग का तथा दलित आंदोलन के अंतर्विरोधों का प्रभावी अंकन मिलता है। इस दृष्टि से उनके ‘रिबोट’ और ‘अभिसरण’ उपन्सास उल्लेखनीय है। अशोक पवार के ‘इळनमाळ’, ‘बि-हाड’, ‘तिसव्या’ इन उपन्यासों में बेलदार इस घुमंतू समूह का अंतरंग चित्रण मिलता है। इनमें उनके यथार्थ और भयावह अभावग्रस्त जीवन के संघर्ष का चित्रण है। मधुकर वाकोडे, नजुबाई गावित आदि के उपन्यासों में आदिवासी समाज का चित्रण है। इन उपन्यासों में मुस्लिम, अल्पसंख्य समूह का चित्रण है।
इस दौर में स्त्रियों द्वारा लिखे उपन्यासों में नई बदलती सामाजिक स्थितियों का चित्रण है। कमल देसाई, गौरी देशपांडे, शांता गोखले, मेघना पेठे, कविता महाजन आदि ने भी कुछ महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे हैं। गौरी देशपांडे के उपन्यासों में भारतीय तथा अंतरराष्ट्रीय परिवेश के संदर्भ मिलते हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों की खोज है। आसपास के परिवेश से नया बोध और आत्मसम्मान की संवेदनाओं का चित्रण उसमें है। इसमें शिक्षित और कमाने वाली स्त्रियों की दुनिया का चित्रण है। घर से लेकर कार्यालय तक सार्वजनिक जीवन में उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। इसको लेकर जो प्रतिक्रियाएँ और अस्मिता की आवाज है वह इन उपन्यासों में मिलती है। स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में इस स्त्री की स्वतंत्र भूमिका और आचरण ‘नातिचरामि’ ‘रीटा वेलणकर’ इन उपन्यासों द्वारा व्यक्त हुआ है। कविता महाजन के वृत्तान्तपरक डॉक्यूमेंटरी प्रकार के उपन्यासों में गाँव की राजनीति में स्त्रियों का दोयम स्थान और एड्सग्रस्त स्त्रियों की दुनिया का चित्र सामने रखा है।
समकालीन उपन्यासों की एक धारा वैचारिकता के दृष्टि से भी आविष्कृत हुई है। पिछले दशक में मराठी में कुछ उल्लेखनीय उपन्यास प्रकाशित हुए। इसमें भालचंद्र नेमाडे का ‘हिन्दूः जगण्याची समृद्ध अडगळ’, नंदा खरे का ‘अंताजीची बखर’ तथा ‘बखर अनंतकाळाची’ और अनंत जातेगावकर का ‘अस्वस्थ वर्तमान’ आदि हैं। इन उपन्यासों के पीछे ठोस वैचारिक सूत्र है। ‘हिन्दू’ में भालचंद्र नेमाडे ने एक बड़े समूह की संवेदना रेखांकित की है। इसमें इतिहास, संस्कृति, समाज इनका बहुस्तरीय चित्रण है। इसमें कृषि संस्कृति वाले गाँव का स्वरूप किस तरह क्रमशः बदलता है इसकी खोज है। उनके महाउपन्यास की परियोजना का यह पहला खंड है। आनंद जातेगांवकर का ‘अस्वस्थ वर्तमान’ उपन्यास आधुनिक महाराष्ट्र के नवजागरण का पुनर्पाठ है। नंदा खरे के उपन्यास में इतिहास कथन को नया परिमाण दिया है। उन्होंने ऐतिहासिक संहिता का बेहतरीन सृजनशील प्रयोग किया है। इस प्रकार के उपन्यास रचना के द्वारा लेखक के सामाजिक इतिहास और संस्कृति के बारे में महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त हुए हैं।
कुल मिलाकर पिछले दशक के मराठी उपन्यासों ने सामाजिक यथार्थ का कौनसा रूप मराठी पाठकों के सामने रखा है इसका स्वरुप हमने देखा है। इस काल के उपन्यासों ने अपने समय को उपर्युक्त प्रतिसाद दिया है इसका विवेचन इस लेख में है। समकालीन मराठी उपन्यास की धारा यह अधिक यथार्थवादी धारा है। इन उपन्यासों में अनेक समाज समूह उपस्थित हैं। अनुभव के क्षेत्र का विस्तार हुआ है। भूमंडलीकरण की समस्या, ग्रामीण संरचना का हृास और इतिहास संहिता का उसने खोजा हुवा नया अन्वयार्थ यह इन उपन्यासों की उपलब्धि है। किन्तु यह करते समय जीवन के प्रत्येक आयाम का चित्रण इसमें अधिक मात्रा में आ रहा है। अर्थात यह समकालीन विकीर्ण, विभाजित, हडबडाहट वाली या विचलित अवस्था का चित्रण है। वह अलग-अलग रूप में व्यक्त हुआ है। ऐसे दिखाई देता है कि वे पूरे समाज के समग्र रूप को चित्रित करने में तथा समग्र मराठी समूह की संवेदना को साकार करने में असफल हुए हैं। उपन्यास के सृजन के लिए वास्तविक समकाल अधिक ही पोषक और ऊँचाई प्रदान करने वाला काल रहा है। उपन्यासकारों की सृष्टि से यह काल संवेदना रेखांकित करने की कमी उपन्यासकारों में दिखाई देती है। ऐसे उपन्यासकारों की प्रतीक्षा मराठी पाठकों को करनी पडेगी।
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डॉ. रणधीर शिंदे
मराठी विभाग,
शिवाजी विश्वविद्यालय,
कोल्हापुर
अनुवादः
डॉ.गिरीश काशिद
अध्यक्ष,हिंदी विभाग,
एस.बी.झेड.महाविद्यालय,
बार्शी,जिला-सोलापुर ४१३४०१
०९४२३२८१७५०
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