जन्मदिवस पर खास छत्तीसगढ़ के उध्दारक गुरु घासीदास अनामिका गुरु घासीदास जी का अवतरण छत्तीसगढ़ के लिए, उस युग की आर्थिक, सामाजिक और राजन...
जन्मदिवस पर खास
छत्तीसगढ़ के उध्दारक गुरु घासीदास
अनामिका
गुरु घासीदास जी का अवतरण छत्तीसगढ़ के लिए, उस युग की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आवश्यकता थी। संत गुरु घासीदास आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है। गुरू घासीदास का अवतरण जिस समय हुआ, उस समय पूरे छत्तीसगढ में अराजकता थी। अंग्रेज और मराठा शाही भूलभुलैया खेल रही थी। मराठों की राज्य व्यवस्था शक्तिहीन हो चली थी। लूटखसोट का व्यवसाय अंतिम चरण पर पहुंच चुका था। सामाजिकता का मूल्य नहीं था। सूबेदार अपने स्थानों के स्वतंत्र राजे हो चुके थे। जिसकी लाठी उसकी भैंस चरितार्थ हो रही थी। धर्म के पहरेदार धर्म छोड़ चुके थे। मठ-मंदिर महाजनी अड्डा में परिवर्तित हो चुका था। यहां की जनता मांस, मदिरा, मैथुन में अपने को भुलाने की प्रयत्न कर रही थी। सामाजिक एवं आर्थिक न्याय पाने के लिए संघर्ष करने की शक्ति खो चुकी थी। तभी इस अंचल के उध्दार के लिए गुरुघासीदास का अवतरण हुआ था।
गुरु घासीदास का जन्म 1756 ई. में वर्तमान छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में गिरौद नामक ग्राम में हुआ था। इनकी माता का नाम अमरौतिन तथा पिता का नाम मंहगूदास था। युवावस्था में घासीदास का विवाह सिरपुर की सफुरा से हुआ। भंडापुरी आकर घासीदास सतनाम का उपदेश निरंतर देते थे। घासीदास की सत्य के प्रति अटूट आस्था की वजह से ही इन्होंने बचपन में कई चमत्कार दिखाए, जिसका लोगों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में सतनाम पंथ की स्थापना हुई। गुरु घासीदास को अवतारी पुरुष के रूप में मानते हैं। गुरु घासीदासजी के सप्त सिद्धांत में सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं। इनके द्वारा दिये गये उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ। सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में ये सफल हुए और छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ के आज भी लाखों अनुयायी हैं।
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में छतीसगढ के लोगों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये यदि किसी महापुरूष का योगदान रहा है तो सतनाम के अग्रदूत, समता के संदेश वाहक और क्रांतिकारी सद्गुरू घासीदास का है। समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छतीसगढ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छतीसगढ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च औ र महान थे।
गुरू घासीदास एक प्रकाशमान संत थे। वे यश के लोभी नहीं थे। इसीलिये उन्होंने अपने नाम और यश के लिये कोई चिन्ह, रचना या कृतित्व नहीं छोड़ी। उनके शिष्यों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप आज उनके बारे में लिखित जानकारी पूरी तरह नहीं मिलती। सतनाम का संदेश ही उनकी अनुपम कृति है, जो आज भी प्रासंगिक है। डॉ. हीरालाल शुक्ल प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने गुरू घासीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्र रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। गुरू घासीदास पर उन्होंने तीन ग्रंथ क्रमश: हिन्दी में गुरू घासीदास संघर्ष समन्वय और सिद्धांत, अंग्रेजी में छतीसगढ रिडिस्कवर्ड तथा संस्कृत में गुरू घासीदास चरित्रम् लिखा है। ये पुस्तकें ही एक मात्र लिखित साक्ष्य हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार चोपड़ा, पुरी और श्रीदास ने मैकमिलन कम्पनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ए सोसल कल्चरल एंड इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ के भाग तीन में लिखा है -‘18वीं शताब्दी में अवध के बाबा जगजीवनदास ने एक अलग धार्मिक पंथ बनाया जो कि सतनाम पंथ कहलाया-सत्य और ज्ञान पर विश्वास करने वाला..। इस पंथ के लोग उत्तरी भारत में दूर तक विस्तृत रूप में फैले हैं। इस पंथ को दो भागों में बांटा गया है- एक गृहस्थ और दूसरा भिक्षुक।
गुरू घासीदास ही थे जो मध्य युगीन सतनामी समाज में विश्वास और उपासना विधि को जीवित रखना चाहते थे तथा उनमें अभिनव चेतना लाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रचारित किया कि वास्तविक भगवान उनके सतनाम में प्रकट होते हैं। ईश्वर की नजर में सभी समान हैं। इसलिये मानव समाज में कोई भेद नहीं होना चाहिये जैसा कि जाति प्रथा से भेदभाव परिलक्षित होता है। छतीसगढ में सतनाम आंदोलन पिछड़े, निम्न और अछूत समझे जाने वाले वर्गो में धार्मिक और सामाजिक चेतना लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 19वीं सदी में इस आंदोलन ने अंधविश्वासी हिन्दू जाति विशेषकर प्रिस्टली क्लास के लोगों को भयभीत किया और समस्त लोगों के बीच आपसी सद्भावना हेतु बाध्य कर दिया।’’ गुरु घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। ये आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है। हम उनके सिद्धांतों का अंश मात्र भी पालन करें तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समास्याओं का निराकरण स्वमेव हो जायेगा। इन अर्थो में गुरू घासीदास आज भी प्रासंगिक हैं।
छत्तीसगढ़ के उध्दारक गुरु घासीदास
अनामिका
गुरु घासीदास जी का अवतरण छत्तीसगढ़ के लिए, उस युग की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आवश्यकता थी। संत गुरु घासीदास आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है। गुरू घासीदास का अवतरण जिस समय हुआ, उस समय पूरे छत्तीसगढ में अराजकता थी। अंग्रेज और मराठा शाही भूलभुलैया खेल रही थी। मराठों की राज्य व्यवस्था शक्तिहीन हो चली थी। लूटखसोट का व्यवसाय अंतिम चरण पर पहुंच चुका था। सामाजिकता का मूल्य नहीं था। सूबेदार अपने स्थानों के स्वतंत्र राजे हो चुके थे। जिसकी लाठी उसकी भैंस चरितार्थ हो रही थी। धर्म के पहरेदार धर्म छोड़ चुके थे। मठ-मंदिर महाजनी अड्डा में परिवर्तित हो चुका था। यहां की जनता मांस, मदिरा, मैथुन में अपने को भुलाने की प्रयत्न कर रही थी। सामाजिक एवं आर्थिक न्याय पाने के लिए संघर्ष करने की शक्ति खो चुकी थी। तभी इस अंचल के उध्दार के लिए गुरुघासीदास का अवतरण हुआ था।
गुरु घासीदास का जन्म 1756 ई. में वर्तमान छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में गिरौद नामक ग्राम में हुआ था। इनकी माता का नाम अमरौतिन तथा पिता का नाम मंहगूदास था। युवावस्था में घासीदास का विवाह सिरपुर की सफुरा से हुआ। भंडापुरी आकर घासीदास सतनाम का उपदेश निरंतर देते थे। घासीदास की सत्य के प्रति अटूट आस्था की वजह से ही इन्होंने बचपन में कई चमत्कार दिखाए, जिसका लोगों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में सतनाम पंथ की स्थापना हुई। गुरु घासीदास को अवतारी पुरुष के रूप में मानते हैं। गुरु घासीदासजी के सप्त सिद्धांत में सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं। इनके द्वारा दिये गये उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ। सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में ये सफल हुए और छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ के आज भी लाखों अनुयायी हैं।
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में छतीसगढ के लोगों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये यदि किसी महापुरूष का योगदान रहा है तो सतनाम के अग्रदूत, समता के संदेश वाहक और क्रांतिकारी सद्गुरू घासीदास का है। समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छतीसगढ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छतीसगढ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च औ र महान थे।
गुरू घासीदास एक प्रकाशमान संत थे। वे यश के लोभी नहीं थे। इसीलिये उन्होंने अपने नाम और यश के लिये कोई चिन्ह, रचना या कृतित्व नहीं छोड़ी। उनके शिष्यों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप आज उनके बारे में लिखित जानकारी पूरी तरह नहीं मिलती। सतनाम का संदेश ही उनकी अनुपम कृति है, जो आज भी प्रासंगिक है। डॉ. हीरालाल शुक्ल प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने गुरू घासीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्र रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। गुरू घासीदास पर उन्होंने तीन ग्रंथ क्रमश: हिन्दी में गुरू घासीदास संघर्ष समन्वय और सिद्धांत, अंग्रेजी में छतीसगढ रिडिस्कवर्ड तथा संस्कृत में गुरू घासीदास चरित्रम् लिखा है। ये पुस्तकें ही एक मात्र लिखित साक्ष्य हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार चोपड़ा, पुरी और श्रीदास ने मैकमिलन कम्पनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ए सोसल कल्चरल एंड इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ के भाग तीन में लिखा है -‘18वीं शताब्दी में अवध के बाबा जगजीवनदास ने एक अलग धार्मिक पंथ बनाया जो कि सतनाम पंथ कहलाया-सत्य और ज्ञान पर विश्वास करने वाला..। इस पंथ के लोग उत्तरी भारत में दूर तक विस्तृत रूप में फैले हैं। इस पंथ को दो भागों में बांटा गया है- एक गृहस्थ और दूसरा भिक्षुक।
गुरू घासीदास ही थे जो मध्य युगीन सतनामी समाज में विश्वास और उपासना विधि को जीवित रखना चाहते थे तथा उनमें अभिनव चेतना लाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रचारित किया कि वास्तविक भगवान उनके सतनाम में प्रकट होते हैं। ईश्वर की नजर में सभी समान हैं। इसलिये मानव समाज में कोई भेद नहीं होना चाहिये जैसा कि जाति प्रथा से भेदभाव परिलक्षित होता है। छतीसगढ में सतनाम आंदोलन पिछड़े, निम्न और अछूत समझे जाने वाले वर्गो में धार्मिक और सामाजिक चेतना लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 19वीं सदी में इस आंदोलन ने अंधविश्वासी हिन्दू जाति विशेषकर प्रिस्टली क्लास के लोगों को भयभीत किया और समस्त लोगों के बीच आपसी सद्भावना हेतु बाध्य कर दिया।’’ गुरु घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। ये आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है। हम उनके सिद्धांतों का अंश मात्र भी पालन करें तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समास्याओं का निराकरण स्वमेव हो जायेगा। इन अर्थो में गुरू घासीदास आज भी प्रासंगिक हैं।
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