ताराशंकर वंदोपाध्याय की कहानी – दीपा का प्रेम

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ताराशंकर वंदोपाध्याय की कहानी – दीपा का प्रेम यह मुझे पता था। कितनी बार मैंने कहा था। मगर कौन सुनता है। मैं क्या कोई आदमी हूँ कि मेरी बात स...

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ताराशंकर वंदोपाध्याय की कहानी – दीपा का प्रेम

यह मुझे पता था। कितनी बार मैंने कहा था। मगर कौन सुनता है। मैं क्या कोई आदमी हूँ कि मेरी बात सुनी जाए। अब हुआ, वही बात हुई न?

चटर्जी गृहिणी ने तीन बार ‘अब हुआ’ कहने के बाद अपने माथे को तीन बार पीट लिया।

चटर्जी यानी भवनाथ चटर्जी बंगाल के जाने-माने व्यक्ति थे। सिर्फ बंगाल में ही क्यों, वे भारत भर में प्रसिद्ध थे। वे अध्यापक और दार्शनिक थे। गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। उनकी आर्थिक हालत ठीक थी। उन्होंने गला खंखारकर कहा 'मैं अपनी गलती मानता हूं। बार-बार स्वीकार करता हूं कि मुझे तुम्हारी राय मान लेनी चाहिए थी। अब तुम इस तरह से अपने माथे को पीटना बंद करो। '

चटर्जी -गृहिणी को और गुस्सा आ गया। उन्हें लगा उनके पति ने जैसे इस प्रकार की बातों से उनके बदन को गर्म छत्रे से दाग दिया हो। वे चिल्लाती हुई बोलीं, 'हर्गिज नहीं। मैं चुप नहीं रहूंगी, हर्गिज नहीं।

'क्या करोगी ? बताओ? क्या करना चाहती हो?

'क्या चाहती हूं

'हां ' यह पता हो जाए तो फिर मैं अपने अपराध का प्रायश्चित कर लूंगा।

बताओ, मैं वही करूं।

भवनाथ की पत्नी की उम्र साठ से ज्यादा हो चुकी थी। वे पुराने जमाने की परपंराप्रिय खानदान की बेटी और बहू थीं। उन्हें ज्यादा पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला था। सुविधा होते हुए भी उन्हें पढ़ाई का मामूली अवसर नहीं मिला था।

ग्यारह साल की उम्र में उनकी शादी हो गयी थी। उनके स्कूली जीवन की .वहीं समाप्ति हो गयी। भवनाथ के आज के इस सवाल का वे जवाब कैसे देतीं?

वे शिकायत करके ही खलास हो गयीं। उन्होंने कहा, 'मुझे पता नहीं। मेरा दिल कसक रहा है। मेरे नवेन्दु की इकलौती लड़की दीपा, ओह, तूने यह क्या किया दीपा।

भवनाथ बोले, अरे छी: छी: ऐसे नहीं रोते। तुम भी क्या करती हो। उसने जो कुछ भी किया, आज इस शुभ दिन में इस तरह रोकर उसका अमंगल मत करो। '

भवनाथ गृहिणी को यह बात पसंद नहीं आयी। बोलीं, 'तेरा नाश हो दीपा। भगवान् तुझे उठा लें।'

भवनाथ चटर्जी के बड़े लड़के का नाम था नवेन्दु। आज अठारह साल हुए उसकी अकाल मौत हो गयी थी। उस वक्त दीपान्विता यानी दीपा पांच साल की थी। दीपा की मां शोभा जैसी गुणी औरत आज के जमाने में बहुत कम होती हैं। अठारह साल से वह अपने सास-ससुर के पास नव वधू की तरह ही रह रही थी। नहीं यह कहना भी गलत होगा, वह उनकी बेटी ही बन गयी थी। ससुर अपने स्वास्थ्य के बारे में जरा भी लापरवाही बरतते तो उन्हें डांट देती, सास के हाथों से छीनकर घर का काम करती। अपनो लड़की दीपा के लाड़-दुलार के मामले में वह अकेली ही दोनों से झगड़ा करती।

दीपा के प्यार की भी सीमा नहीं थी, लाड़ की भी नहीं। ससुर भी जब तक विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे-अभी हाल तक वे घर लौटते हुए कोई न कोई चीज जरूर ले आते। उनका मन नहीं मानता था। घर आते ही मीठी आवाज में पुकारते, दी-पा !'

दीपा भी भागती हुई आती-दा-दू 'दा' शब्द पर काफी बल देती, फिर 'दू को संक्षिप्त कर देती। जिस तरह से भवनाथ बाबू दी-पा पुकारते थे। इसमें एक संगीतमय ध्वनि होती। वह सामने आकर अपना हाथ फैलाकर कहती-ला-ओ। ला-ओ वाह, वाह! तुझे दूं क्या ?'

'जो चीज लाये हो।'

'अपना चेहरा करीब लाओ।'

दीपा अपना चेहरा करीब लाती। भवनाथ बाबू उसके गालों को चूमकर कहते, 'यह लो! पुच्च'

दीपा हाथ-पैर झटकते हुए ऊं-ऊं करके रोने लगती। उसके रोने में न कोई वाक्य होता, न आखों में आसू चेहरे पर कातरता, क्षोभ या वेदना की छाया भी नहीं होती थी-बल्कि देखकर लगता शायद वह हंस रही हो; हाथ-पैर झटकने में भी एक लय रहता था। दायां हाथ और बायां पैर एक साथ ही हिलता था और उसी तरह बायां हाथ और दाहिना पैर।

भवनाथ बाबू हंसने लगते। भवनाथ गृहिणी भी हंसतीं। फिर कहती, 'अब जो लाये हो, दे भी दो। नाहक क्यों रुला रहे हो?'

भवनाथ बाबू जेब से लेमनचूस निकालकर उसे देते और अपनी पत्नी को जर्दा का डिब्बा। रंगबिरंगा डिब्बा देखकर दीपा मचलते हुए कहती, 'नहीं, मैं लेमनचूस नहीं लूंगी, मैं वह लूंगी। '

'अरे, यह तो जर्दा है। '

'वही लूंगी। ' आ-आ-आ-आ।

जर्दा लेकर क्या करेगी ?'

'पान में डालकर खाऊंगी। -। '

'अरे तू पान-जर्दा खायेगी?'

'क्यों नहीं खाऊंगी। तुम भी तो खाते हो। '

अब शोभा से बर्दाश्त नहीं होता था। अपना काम छोड्‌कर वह झटपट आकर बिगड़ते हुए कहती, 'तू जर्दा खायेगा? दादी जर्दा खाती है तो तू भी खायेगी ?' 'हां खाऊंगी !'

'ठहर, तुझे खिलाती हूं। जर्दा खायेगी- '

'खाऊंगी।'

चुप

'खाऊंगी।'

'चुप।'

शोभा उसका हाथ पकड़ लेती, दीपा भी जोर-जोर से रोने लगती। भवनाथ बाबू उसे रोकते हुए कहते, 'हाथ छोड़ दो ख मां। छोड़ दो।'

उसका हाथ छोड्‌कर शोभा कहती, 'पिताजी, यह दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। किसी की परवाह नहीं करती। मुझे भले ही न माने, आपकी भी परवाह नहीं बनती। आप इसकी शैतानी नहीं जानते। उस दिन आपकी एक जली हुई चुरुट मुंह में दबाकर कुर्सी पर बैठी हुई थी। मैं देख लेती तो उसका मुंह दाग देती। मां ने देखा था। मां से ही मुझे पता चला था। मां ने मना किया था-नहीं तो- ' अपनी बात अधूरी छोड्‌कर वह बोली, 'अब इसका फल देखिए, अब जर्दा खाना चाहती यह सुनकर भवनाथ बाबू बड़ी गंभीरता से कहते, 'तुमने जली सिगार मुंह में रखी थी? ऐं।' '

दीपा उनकी ओर देखते हुए कहती, 'तुम्हीं तो रख गये थे। मैं क्या करती। ' 'तुमने उसे छुआ क्यों एं

'वाह, मैं तो उसे देख रही थी।'

उसकी मां कहती, 'तुम झूठ बोल रही हो दीपा, तुमने मुंह में नहीं लगाया था?'

'वही तो बताने जा रही थी। मैंने उसे उलट-पुलटकर मुंह में लगाकर देखा कि उससे धुआं निकलता है कि नहीं। उसमें आग है या नहीं।'

भवनाथ बाबू ठठाकर हंसने के बाद कहते, 'वंडरफुल! तुम मुंह में डालकर देख रही थीं कि धुआं निकलता है कि नहीं। वह भी उसमें आग है कि नहीं यह देखने के लिए। यह बात तो छूने से ही पता चल जाती।'

'वाह, हाथ नहीं जल जाता'

भवनाथ बाबू फिर हंसकर कहते, 'तुम्हें फूल मार्क मिला है। सारा कसूर माफ ' अगर गलती किसी की है तो वह इस दादू की है। उसका पनिशमेंट यह है कि चुरुट पीना छोड़ना पड़ेगा। अगर नहीं छोड़े तो दीपा हैजू एवरी राइट टु स्मोक ' उसी के बाद से भवनाथ गृहिणी कहतीं, 'तुम इस लड़की का भविष्य बिगाड़ दोगे।

भवनाथ बाबू ने तभी से चुरुट पीना छोडू दिया था। मगर उनकी पत्नी जर्दा-पान नहीं छोडू पायीं। दीपा ने भी कभी जर्दा-चुरुट यहां तक कि पान भी नहीं छुआ। बल्कि, इनके बारे में उसकी राय थी कि दोनों ही गंदी आदतें हैं। बेहद गंदी आदत। पान-जर्दा ज्यादा गंदी चीजें होती हैं और सिगरेट-चुरुट अनहेल्दी, खतरनाक और दुर्गन्धयुक्त। बाप रे, खांस-खांसकर हालत खराब हो जाती है। एक बार कश लेने से दिन-भर खांसी आती रहती है। उससे तो शराब बेहतर है, अगर वह तेज न हो।

भवनाथ बाबू ने चकित होकर अपनी पोती से पूछा, 'इस मामले में तुम्हारा कोई अपना अनुभव है क्या? तुमने कभी पिया था या पी रही हो?

हंसकर दीपा अपने शैम्पू किये बालों को झटकते हुए बोली, ' अगर अनुभव की बात कहूं तो इसमें भी दादू तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं, लेबोरेटरी में कैमेस्ट्री के प्रैक्टीकल क्लास में जवाब देने के लिए जरूरत भर चखी थी। दैनिक जीवन में इससे कोई लेना-देना नहीं है। गणित के अभ्यास की तरह यह भी पढ़ाई का हिस्सा है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। '

एमए. की पढ़ाई के बाद ये बातें हो रही थीं। भवनाथ बाबू अवाक् होकर कुछ क्षण तक अपनी पोती की ओर देखते रहे, फिर उनका ध्यान टूटा। क्योंकि वर्तमान काल यानी सन् 1962-63 तक के छात्रों का उन्हें भी काफी अनुभव था। उनके जीवन तरंग का उल्लास एवं उच्छ्वास और क्षोभ-विक्षोभ के वेग को उन्हें खींचकर संयत करना पड़ा था। जीवन-भर अपने काम में वे विशिष्ट माने जाते थे। अपना व्यक्तित्व भी उन्होंने अर्जित किया था। मगर उनको भी हार मानकर सिर झुकाकर वहां से चले आना पड़ा था। कॉलेज के अध्यक्ष के पद से करीब आठ महीने पहले वे सेवामुक्त होकर घर बैठ गये थे। दीपा ने उस समय एम. ए की पढ़ाई पूरी ही की थी। वह भी घर में बैठकर संगीत, सिनेमा, साहित्य में अपने को व्यस्त किये हुए थी। उसी ने अपने दादा से कहा था, 'दादू तुम नौकरी छोडू दो। तुम इनसे नहीं जीत सकते। तुम इस युग के आदमी नहीं हो। '

उसकी ओर देखकर भवनाथ ने कहा था, 'ठीक कहती है। ' उसकी सलाह पर भवनाथ ने नौकरी से छुट्टी लेकर उसी बीच सेवा से अवकाश ले लिया था। घर में बैठकर उन्होंने कल्पना की थी कि दीपा की पढ़ाई-लिखाई में वे उसकी मदद करेंगे।

शायद अपने परिपक्व जीवन का रस से भरपूर बीज संपन्न फल भी उसे सौंप सकते हें। उन्होंने आरंभ भी कर दिया था। लेकिन ठीक इसी वक्त दीपा का परीक्षाफल निकला। दीपा इतिहास में फर्स्ट क्लास पास करके अपनी सफलता की खुशी में लगभग तीन महीने तक घर से बाहर उनुक्त विचरती रही थी। भवनाथ बाबू उसकी इस हरकत पर वात्सल्य से हंसे थे। लेकिन दीपा की दादी यानी भवनाथ बाबू की पत्नी शंकित होकर उसका रास्ता रोककर खड़ी हो गयी थीं। उनके पीछे दीपा की मां शोभा भी थी।

दादी ने विरोध करते हुए कहा था, 'इस तरह से घूमना फिरना, मस्ती करना ठीक नहीं है। तूने सोचा क्या है? तू सोच रही है कि एम. ए पास करने के बाद तेरे पंख निकल आये हैं?'

दीपा हंसकर बोली थी, 'ऐसा होता तो मैं अभी आसमान में उड़ जाती। ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे जाने दो, काम है। '

दादी ने अपने पति की ओर देखते हुए कहा, 'मैं जाने कब से कह रही हूं कि दीपा की शादी कर दो। पढ़ना-लिखना भी हो तो शादी के बाद करे। लेकिन मेरी बात कौन सुनता है? लड़की तो अपने दादाजी के बढाबे पर अपने को रानी लक्ष्मीबाई समझती है, अब रानी दुर्गावती बनना चाहती है। '

'नहीं दादी, मैं सिर्फ दीपा हूं-दीपान्विता चटर्जी। लेकिन तुम मेरा रास्ता छोडू दो, मैं इस तरह रोके जाने को अपना अपमान समझती हूं। इसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।'

मां ने पूछा, 'अपमान? अपमान की क्या बात हुई?'

'तुम लोग मुझ पर अविश्वास कर रही हो। परीक्षा खत्म होने के बाद से आज तक मैं पचास बार सुन चुकी हूं कि मुझे ख्याल रहे मैं लड़की हूं। '

'तू लड़की नहीं है?'

'पहले मैं इन्सान हूं फिर लड़की और वह भी सिर्फ दुर्घटनावश। अब पहले का जमाना नहीं रहा। मिसेज भंडारनायके कुछ दिन आगे तक श्रीलंका की प्रधानमंत्री थीं। श्रीमती कृपलानी .अब भी यू पी. र्को चीफ मिनिस्टर हैं। इसलिए लड़की होने के कारण घर में रहना ही सबसे ज्यादा सुरक्षित है और यही कर्त्तव्य है इसे मैं नहीं मानती। दादू से ही पूछकर देख लो। '

दादू ने सिर झुकाकर जमीन की ओर देखते हुए कहा, था, 'वही बात सोच रहा हूं दीपा। तूने कुछ दिन पहले धूम्रपान और मदिरापान के बारे में जो कहा था- ' 'माफ करना दादू तुम्हें टोक रही हूं। धूम्रपान या मदिरापान शब्द का प्रयोग मेरी उस दिन की बातों के संदर्भ में करना उचित होगा? मान लो, बीमारी में किसी को ब्रांडी या अंडा लेना पड़े। काफी लोग ब्रांडी लेते हैं, लेकिन उन्हें पियक्कड़ नहीं कहा जा सकता। उसी तरह इन दोनों का स्वाद जानने की भी अगर कोई कोशिश

करता है तो उसे भी गलत नहीं ठहराया जा सकता। क्या तुमने इन दोनों शब्दों पर अनावश्यक जोर नहीं दिया? लेकिन दादू मुझे देर हो रही है। मेरे दोस्त इंतजार कर रहे हैं। '

भवनाथ बाबू ने कहा था, 'उसे जाने दो बहू मां! और सुनो, तुम भी रास्ता छोड़ दो। '

'रास्ता छोडू दूं?'

'देना पड़ेगा। नहीं तो शायद प्रवाह में तुम्हें भी बह जाना पड़ेगा। विष्णु के चरणों से उत्पन्न गंगा को ब्रह्मा ने कमंडल में रखा था। गंगा बूंद-बूंद बढ़ते हुए जिस दिन उफना गई, उस दिन उसने ऐरावत को भी बहा दिया था। '

'दादू तुम भी क्या खूब हो! यह सब पुराण-बुराण मुझे ज्यादा अच्छा नहीं लगता। लेकिन तुम इतनी बढ़िया उपमा देते हो कि क्या कहूं! वंडरफुल! तुम चिंता मत करो। आई मीन डोंट वरी। तुम्हारे ऐरावत सरीखे बदमाशों को बहाने की क्षमता वाकई मुझमें है। '

यह सब झूठ हो गया था। आज ही अभी सांझ के वक्त किसी अनजान महिला ने टेलीफोन पर यह भयानक सूचना दी थी। वह बोली थी, 'आप लोग मुझे पहचानते नहीं हैं। मैं दीपा-दीपान्विता- आपकी पोती के साथ पड़ती थी, एक साथ ही पास भी किया है। दीपान्विता की आज शादी हो गयी है। करीब दो घंटे पहले। दीपा ने अपनी चिट्ठी में सारी बातें स्पष्ट रूप से लिख दी हैं। वह चिटुईा मैं खिड़की से भीतर फेंक आयी हूं। मैंने सोचा था, आपके हाथ में ही दूंगी, लेकिन घर के दरवाजे पर पहुंचकर हिम्मत नहीं हुई-डर गयी। आप ढूंढेंगे तो वह चिट्ठी मिल जायेगी। '

इतना कहकर उसने टेलीफोन रख दिया था। वृद्ध भवनाथ बाबू नं .कई बार हैलो-हैलो करके रिसीवर रखकर लगभग हड़बड़ाते हुए नीचे उतरकर बैठकखाने में ?? जाकर उस चिट्ठी को छूकर उसे पढ़ा। पढ़ने के बाद एकाएक उनकी समझ में नहीं आया कि वे क्या करें।

'दादू तुम लोग मुझे माफ करना। खासकर तुम। क्योंकि तुमसे लेन-देन का मैंने पूरा हिसाब रखा हुआ है। जो मुइाए मिलना चाहिए तुमने मुझे उससे कहीं ज्यादा दिया है। दूसरों की मैं चिंता नहीं करती। उनसे मैं क्षमा भी नहीं मांग्ती। जरूरत भी नहीं है। मैंने आज शादी कर ली है। उसे मैं काफी दिनों से प्यार करती हूं। जाने कब से। इतने दिनों तक शादी इसलिए नहीं की थी क्योंकि इसे लेकर मैं ही अंतर्द्वद्व में थी। अब तक कुछ फैसला नहीं कर पा रही थी। आज शादी कर ही ली। लड़के को तुम जानते हो। हमने घर में जो सत्यदासी थीं, उन्हीं सत्यदासी का नाती देवप्रिय हालदार है। उसकी तुम्हें जरूर याद होगी- वह अक्सर हमारे यहां आता

था तुमने उसकी अनेक बार सहायता की थी। हायर सेक.डरी की फीस के लिए तुमने उसे पचास रुपये दिये थे। आज मैंने उसी से शादी कर ली। हम दोनों काफी दिनों से एक-दूसरे से प्यार करते थे। देवप्रिय का परिचय आज सिर्फ सत्यदासी के नाती के रूप में ही नहीं है, बल्कि अब वह एम. ए पास करके नौकरी करता है। मेंने भी कल से एक नयी नौकरी पकड़ ली है, तुम्हें नहीं बता पायी थी। मैं एक कॉलेज में पड़ाने लगी हूं।

अब तुम लोगों से मुझे कुछ और नहीं लेना है। मकान या जो भी रुपये उत्तराधिकारी के तौर पर मुझे मिलने हों, मैं उन सवसे अपना दावा खारिज कर रही हूं। मैंने अन्याय किया है इसलिए अपना दावा खारिज कर रही हूं ऐसी बात नहीं है; यह तो इसलिए कर रही हूं क्योंकि तुम लोग मुझे दंड देने के लिए एक यही काम करके खुश हो सकते हो। इसीलिए यह काम मैं खुद ही कर रही हूं।

तुम हम लोगों का प्रणाम स्वीकार करना। दादी और मां को हमारा प्रणाम ग्रहण करने में कोई बाधा है या नहीं, पता नहीं, 'कहीं इसमें उनके परलोक जाने वाली साफ-सुथरी चिकनी सड़क पर मैं कांटे न बिछा दूं। इति।

दीपान्विता

2

किसी ने ध्यान नहीं दिया था। ध्यान देने लायक वह बात भी नहीं थी। ऐसा तो इस पूछी पर हमेशा ही घटता रहता है।

सत्यदासी उस घर की चौबीस घंटे की नौकरानी थी। भवनाथ बाबू के यहां ही उसने लगभग अपना अंतिम समय बिताया था। सत्य मर गयी थी लेकिन सत्यन्यात्या नामक शब्द आज भी मौजूद है। भवनाथ गृहिणी अभी तक कहती हैं, 'सत्य तो चली गयी लेकिन सत्यन्यात्या' नित्य सत्य कर गयी है।

'नित्य सन्द' शब्द भवनाथ बाबू का ही था। वह भवनाथ गृहिणी के अंतर में वैठ गया था। सत्य जिस लत्ते से जूठी जगह साफ करती थी, उसे कभी धोती नहीं थी अंतत: कभी ऐसा नजर नहीं आया। भवनाथ बाबू की पत्नी इस बात को लेकर उसे झिड़कती थीं लेकिन सत्य उसे अनसुनी कर देती। वह चुपचाप अपना काम किये जाती। वह लत्ता बरामदे के किनारे पड़ा रहता था-जब भी कोई खाकर उठता सत्य जूठी थाली उठाकर उस लत्तें से उस जगह पर पोंछा मारकर जूठी थाली लेकर बाहर निकल जाती। बरामदे के निर्धारित स्थान पर उस लत्ते को धप्प से गिराकर -टूटे बर्तन लेकर नल के नीचे रख आती।

बहू की नजर पड़ने पर वह कहती 'सत्य, यह क्या कर रही हो? जूठी जगह इस तरह साफ हो गयी?'

लेकिन कौन किसकी सुनता? सत्य रसोई के दरवाजे पर आकर रसोइये से

झगड़ा या बातें करने लगती।

गृहिणी नाराज होकर चीखतीं-सत्य।

इस बार सत्य गर्दन घुमाकर पूछतीं, 'क्या कह रही हो?

'इस तरह से झूठा फर्श साफ किया जाता है? लत्ता तो खुद ही जूठा था। उसे धोया तक नहीं। '

'जूठन साफ करने वाला लत्ता भी भला कितनी बार धुलता है? अगर साफ करने बैठूं तो कितनी बार कचारंग और तुम लोग भी मुझे लत्ते के लिए कितने कपड़े दोगी'

'लेकिन यह तो जूठा है।'

'नहीं, जूठा कैसे हुआ?'

'जूठन साफ करने पर वह जूठा नहीं हुआ पा '

'नहीं, मैं लत्तें को तड़के धोकर उस पर रोज गोबर छिडक देती हूं। गोबर देने से ही तो वह शुद्ध हो जाता है।'

भवनाथ बाबू सुनकर हंसते हुए बोले थे, 'उसका नाम है सत्य! और उसका लत्ता। वह तो एक साथ ही सत्य और नित्य वस्तु है। सत्यनित्य लता। उससे पूरी दुनिया पवित्र और साफ हो जाती है।'

? 'यह बात आपने ठीक कही बाबूजी! दिन-रात जूठे का चक्कर, जब देखा तब जात चली जाने का डर, छूत का चक्कर-यह सब क्या है? बच्चा खाकर कपड़े .! में हाथ पोंछकर उठ जाता है। बाबू लोग दावत खाकर गिलास में हाथ डुबोकर ! रूमाल से हाथ पोंछकर उसे जेव में रखकर उठ जाते हैं। अगर ऐसी बात है तो फिर ६ पहनावे के शाल-दुशाले सभी जूठे हो जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं होता। कौन यह सब कचारता है? जूठा समझो तो जूठा, नहीं तो नहीं।'

सत्य दखिनही थी। चौबीस परगना की रहने वाली। जात की कावड़ा जोगी या ऐसी ही किसी जात की रही होगी, इस बारे में किसी ने जानने की जरूरत नहीं समझी थी। भवनाथ बाबू वगैरह सब कलकत्ता के निवासी थे। उस पर सन् 1930 के बाद का समय था। छुआ-छूत, जात-पांत सव खत्म करने का जमाना आ गया था इसके अलावा लड्‌कियां भी रसोईघर से कड़ाही कलछुल छोड्‌कर घर कै कामकाज की दुनिया से बाहर आकर सम्मानजनक काम करेंगी-वातावरण में ऐसी हवा चलने लगी थी घरेलू काम के लिए अब किसी भी जात की होने से काम चलने लगा था। यही प्रचलन में आ गया था। भवनाथ बाबू की गृहिणी की घर से बाहर नौकरी करने की न रुचि थी और न क्षमता ही, लेकिन घरेलू काम करने की भी रुचि और क्षमता दोनों ही नहीं थीं। इसीलिए जात-पांत मानकर चलने से कोई लाभ नहीं था 1 सिर्फ काम करने वाली का चेहरा ही उन्होंने देखा था, जिसके हाथ का पानी पीने में कोई अरुचि न हो। सत्य का चेहरा बुरा नहीं था। इसके अलावा

सत्य का एक और गुण था, वह विपत्ति के समय खूब सेवा करती थी। सत्य का दिल भी बड़ा कोमल था। वह सबसे प्रेम का व्यवहार करती थी।

यह उसी सत्यबाला का नाती था। सभी को उसकी याद थी। एक आठ-नौ साल का काले रंग का स्वस्थ बालक जिसका नाम देबू था, उनके यहां आया करता था। वह अपनी नानी के पास ही आता। वह नानी के पास किताब के लिए या अपने कपड़ों के लिए रुपये लेने आता। सिर पर तेल, वह भी सरसों का, खूब चुपड़े होता। पहनावे में पेंट बल्कि कहा जाए तो छींट का जांघिया और एक हाफ शर्ट होता। वह बच्चा पाठशाला में पड़ता था। पढ़ने-लिखने में होशियार था, लेकिन उसका बाप उसे किताब, कापी, लेट, पेंसिल, कपड़ों के लिए पैसा नहीं देता था, इसलिए उसकी मां उसे अपनी मां के पास भेज देती थी।' मां कलकत्ता में एक बाबू के यहां काम करती है, बाबू कॉलेज में मास्टर हें, भले आदमी हैं। सत्य को भी खुराकी के अलावा हर महीने पांच रुपये मिलते थे। -उसके रुपये खर्च नहीं होते थे, बचते ही थे; उन जमा रुपयों से वह पांच-सात रुपये, जो संभव होते, नाती की पढ़ाई में खर्च कर देती।

भवनाथ बाबू को वह लड़का अच्छा लगा था। वे हर साल दुर्गापूजा के वक्त उसके लिए खाकी पेंट-शर्ट, गंजी और सैंडिल खरीदते थे। इसके अलावा स्कूल का सत्र शुरू होते समय किताब-कापियां, उसकी जरूरत के अनुसार उपलब्ध कराते

उस समय दीपा कितने साल की थी?

जब देबू पहली बार आया उस वक्त उसकी उम्र आठ-नौ साल की थी, दीपा पांच-छह साल की। छह नहीं-पांच ही, क्योंकि उसी साल दीपा के पिता नवेन्दु की मृत्यु हुई थी।

दीपा का लाड़-प्यार उस समय सावन-भादों की अमावस्या की बढ़ी नदी की तरह उफना उठा था।

अपने पिता का अभाव वह न महसूस कर पाए, इस मर्मभेदी वियोग की असहनीय वेदना उसके मन को आहत न करे इसलिए वह जव भी जो कुछ भी मांगती उसे दिया जाता और न चाहते हुए भी उसे ढेर सारी चीजें लाकर दी जाती और वह भी सब महंगी-महंगी। महंगे कपड़े, जूते से लैकर महंगे खिलौने, रेलगाड़ी, उड़ने वाला जहाज वगैरह ढेरों चीजें। सुबह से शाम तक वह कम से कम छ: बार अपना फ्रॉक बदलती। ढेर सारे खिलौनों के बीच बैठकर वह खेला करती। उसके पास एक खूबसूरत सेत्थूलॉयड की गुड़िया थी, जिसे लिटाने पर वह आख बंद कर लेती थी और उठाकर खड़ी कर देने पर वह आ की आवाज करके औखें खोलती थी। उसे दूध पिलाने के लिए उसने उसके होंठ की जगह पर एक छेद कर दिया था और उसे वाकई सुतई या चम्मच से दूध भी पिला देती थी।

देबू चकित होकर उसे देखता और दीपा के किसी भी आदेश के पालन में खुद को धन्य महसूस करता।

सिर्फ खिलौने, कपड़े-जूते में ही दीपा का ऐश्वर्य सीमित नहीं था, उसके पास ढेरों चित्रों वाली किताबें भी थीं। भारतीय, विलायती, रूसी, अमरीकी हर तरह की। इसके अलावा तस्वीर बनाने का सामान भी था। सुंदर कापी, रंगीन पेंसिलें, वाटर कलर बाक्स, बुश, हारमनिका-उसके साथ खिलौना बंदूक-पिस्तौल-क्या कुछ नहीं था!

देबू ललचायी नजरों से इन सबको देखता। कभी-कभी डरते-डरते बड़े संकोच से इन्हें छूता, इन्हें हाथ में लेकर देखता।

कभी दीपा उसके हाथ से छीन लेती। कभी कहती, लेगा? तुझे चाहिए? तुझे खरीद दूंगी। दादू से कह दूंगी वे ला देंगे।

कभी-कभी थोड़े समय के लिए वह एक-आध चीज दे भी देती। कहती-ले, तुझे दे रही हूं मगर बाद में उसे छीन भी लेती-मुझे लौटा दे।

देबू सारे समय खामोश बैठा रहता। उससे अच्छी बात कही जाती तब भी खामोश रहता, बुरी बात कही जाती तब भी। सत्यदासी और भी पांच साल तक जिंदा रही थी। देबू इस बीच दस-बारह बार आया होगा। आखिरी बार जब वह आया था तब वह चौदह-पंद्रह साल का रहा होगा। वह अपने गांव के स्कूल में कक्षा सात में पड़ता था। सत्यदासी का निधन हो गया था, उसके श्राद्ध के लिए वह अपनी मां को लेकर कुछ रुपयों की सहायता लेने आया था।

हायर सेकेंडरी इन्तहान के वक्त उसकी मां की चिट्ठी आयी थी कि उसके पास देबू की फीस भरने के लिए रुपये नहीं हैं। रुपये न जमा करने पर देबू इन्तहान नहीं दे पाता। भवनाथ बाबू ने रुपये भेज दिये थे। पचास रुपये! उनकी पत्नी ने 1, एतराज किया था मगर भवनाथ बाबू ने कहा, 'जब चिट्ठी आयी है तो रुपये भेज ही दूं। जरा यह भी देखो, उसकी नानी नौकरानी का काम करती थी। उसके ' मां-बाप बेहद गरीब हैं। अगर उनका लड़का पढ़-लिखकर लायक बन जाए तो उसका कुछ पुण्य हम सबको भी मिलेगा। वह हर जगह तुम्हारा एहसान मानेगा। ' पत्नी ने इसके बाद कुछ नहीं कहा। दीपा भी खुश हुई थी। और वह सीधा- सादा लड़का भी हैरान हुआ था। ओफ दादी तुम्हें क्या बताऊं कि वह कितना सीधा और डरपोक था। वह सारे समय मुंह बाये मुझे ही देखता रहता था।

दीपा उस वक्त नवीं पास करके दसवीं' में गयी थी। उसके बाद फिर ' सत्यदासी के नाती की खबर किसी ने नहीं रखी।

इं भवनाथ बाबू की पत्नी माथा पीटकर रोने लगीं। छि: छि: छि:! सत्यदासी के ऐ उसी नाती के साथ-ओह आखिरकार उसमें उसे क्या नजर आया? उसे क्या मिल गया? उसने भी एम. ए तक पढ़ाई की है, दीपा ने भी की है। न वह कोई डाक्टर-

बैरिस्टर है, न कोई प्रेमचंद-रायचंद। तब? क्या है वह? रूप? गुण? क्या है उसमें उसे कौन-सी सुंदरता नजर आयी?

3

गाढ़े शहद जैसा रंग था देवप्रिय हालदार का। वह कम बोलता था, हरदम खामोश रहने वाला या कहा जाए बेहद अहंकारी था। वह लगभग छ: फुट लम्बा था।

देखने में हष्ट-पुष्ट था। तीखी नाक थी। आखें कुछ छोटी थीं लेकिन असाधारण रूप से तेज थीं। सिर के बाल घने कड़े और सीधे खड़े रहते थे। सिर के बाल काफी छोटे कटवाने के कारण वे कटे धान के को की तरह खड़े रहते थे।

यूनिवर्सिटी में वह औसत दर्जे का ही विद्यार्थी था, उससे ज्यादा कुछ नहीं।

.नहीं-दादू वह खेलकूद में अर्जुन-कर्ण कुछ भी नहीं है न पढ़ाई-लिखाई में बुध-बृहस्पति। अभिनय-वभिनय में भी वह शिशिरकुमार, उत्तमकुमार यहां तक कि अधमकुमार भी नहीं है। गाने में भी वह पंकज मलिक, हेमंत मुकर्जी नहीं है।

उसमें यह सब कोई प्रतिभा नहीं है। फिर भी वह मुझे क्यों अच्छा लगा, कह नहीं सकती। बस, वह मुझे अच्छा लग गया। यहां तक कि सत्यदासी के नाती होने के कारण भी वह मुझे अच्छा नहीं लगा था। क्योंकि तब तक मैं उसके बारे में कुछ ' नहीं जानती थी। मैंने उसे पहचाना भी नहीं था। देबू को मैं देबू के रूप में ही ' जानती थी, उसका पूरा नाम देवप्रिय हालदार मैंने नहीं सुना था।

मुझे वह अच्छा लगा था।

.. .यूनिवर्सिटी में एक ऐसा लड़का पड़ता था जो पेंट नहीं पहनता था, टी-शर्ट नहीं पहनता था। कोछ।' मारकर धोती पहनता और शेक्सपियर कालर वाला पूरे हाथ का टेनिस शर्ट; पैरों में सैंडल के बजाय कपड़े के जूते पहनता, बालों में तेल लगाता, आमना-सामना होने पर वह चुपचाप बगल से निकल जाता। उसकी दोस्ती भी काफी कम लड़कों से थी। इसके बावजूद उसकी ओर मेरा ध्यान गया।

यूनिवर्सिटी में भर्ती होने के बाद जब मैंने उसे शमि के यहां देखा था, तब उससे पूछा था, 'यह बांगहसा दिखने वाला लड़का कौन है'

शमि को तुम जानते हो दादू! मैंने शमि को ही तुम्हें चिट्ठी देने भेजा था। उसी ने तुम्हें फोन किया था। वह घर के बारह पहुंचकर भी तुमसे भेंट करने का साहस नहीं जुटा पायी। उसने तुम्हारे कमरे में चिट्ठी डालकर घर वापस लौटकर तुम्हें फोन किया था। हालांकि तुम जानते ही हो कि शमि कितनी प्रोग्रेसिव है, अपने घर में वह किसी की परवाह ही नहीं करती।

शमि ने मुझे बताया कि वह उसके बड़े भाई के साथ पता है। नाम है देवप्रिय हालदार। हमारे भतीजों को पड़ाने आता है, क्या तुमने उसे किसी दिन देखा नहीं? '

भवनाथ बाबू ने दीपा का पता ढूंढ निकाला। उनके साथ वहां उनकी पत्नी और दीपा की मां शोभा भी गयीं। दीपा के साथ ही उनकी ये सब बातें हो रही थीं। दो कमरे का छोटा-सा फ्तैट था। इयूवमेंट ट्रस्ट ने आम लोगों के रहने के लिए जो नये फ्लैट बनाये थे, मानिकतला नाले के इस तरफ के उन्हीं फ्लैटों में से वह एक फ्लैट था। इसी में उसने अपनी गृहस्थी संवार ली थी। सामान के नाम पर बस थोड़ी-सी चीजें थीं। दो सिंगल बेड तख्तपोश को एक-दूसरे से सटाकर उसने डबल बेड बना लिया था। बिस्तर नये थे। सस्ती लकड़ी की चार मेजें थीं। दो मेजों को जोड़कर उस पर प्लास्टिक का टेबल क्लॉथ बिछाकर खाने की मेज बना ली गयी थी। और एक मेज ड्रेसिंग टेबल थी। दीवार से सटाकर उस मेज को रखकर उस पर एक आईना और प्रसाधन सामग्री रखी थीं। एक मेज पर उनकी किताब-कापियां थीं। घर में 'एक काम करने वाली नौकरानी थी। रसोई वह खुद ही 1 पकाती थी। दीवाल पर उनकी कई तस्वीरें लगी थीं। देखकर साफ लगता था यह मामला काफी दिनों से चल रहा था। बीज धीरे-धीरे जमीन के नीचे से अंकुरित होकर बड़ा होकर पुष्पित-पल्लवित हुआ था।

भवनाथ बाबू दीपान्विता की इस नयी गृहस्थी का रूप देखकर अवाक् या हतवाक् रह गये। इतने अभाव और दीनता के बीच दीपान्विता एक दिन भी बिता सकेगी, यह उन्होंने सोचा तक नहीं था।

भवनाथ बाबू ने जीवन में कम नहीं कमाया था। उन्होंने सरकारी कॉलेज में। लम्बे- समय तक पढ़ाया था। पूरे चालीस साल तक। चालीस साल पहले डेढ़ सौ रुपयों से उन्होंने शुरुआत की थी। इसके बाद उनकी तनख्वाह हजार से ऊपर हो 1 गयी थी। इसके अलावा एक-दो छात्रों को भी वे पढ़ाते थे-राजा-महाराजाओं के। इसके अलावा कुछ किताबें भी उन्होंने लिखी थीं। वे बिकने वाली किताबें थीं। उन्होंने अपना मकान बना लिया था। बाकी रुपये उन्होंने समझ-बूझकर अच्छे शेयरों में लगा दिये थे। आज भी किताबों और शेयरों से उन्हें आठ-नौ सौ रुपये मिल जाते थे। उनके घर में दीपा ही उन सभी का भरोसा और आशा थी। उसे उन्होंने विलासिनी नहीं बनाया था। दीपा के प्रसाधन की मेज पर कभी रूज-लिपस्टिक नजर नहीं आया था लेकिन उसके कपड़े चाहे वे सफेद हों या रंगीन वे कभी गंदे या फीके नजर नहीं आते थे। वह इतिहास की छात्रा थी। लेकिन उसके कमरे में भवनाथ बाबू ने साहित्यिक किताबों का अच्छा खासा संग्रह सजा दिया था। दीपा को यामिनी राय गोपाल घोष के चित्र पसंद थे। उन्होंने खुद वे चित्र खरीदकर दीपा के कमरे में लगा दिये थे। उसे अच्छे रेकार्ड खरीद दिये थे। उसके कमरे में एक सुंदर सिंगल पलंग पर बढ़िया बिस्तर बिछा रहता था। इसके अलावा एक सिंगापुरी बेंत का सोफा सेट भी था। अभी तक उसकी दादी अपने सामने उसे दोनों वक्त दूध पिलाती थीं। वह मजबूरी में छोटी बच्ची की तरह बाप रे-बाप रे, ग्रैनी तुम्हारे पांव पड़ती हूं प्लीज प्लीज' करके उछलती-कूदती। कहती, प्लीज ग्रैनी माफ करो। मैं इतनी मोटी हो जाऊंगी। प्लीज !'

फिर भी वह बच नहीं पाती थी। उसकी दादी वैसे तो ठीक-ठाक थीं लेकिन बिगड़ने पर शामत आ जाती। फिर तो वे दूध का गिलास नाली में उड़ेलकर भी शांत नहीं होती थीं, गुस्से में वे दूध की पूरी कड़ाही ही उलट देती थीं। मुंह फुलाकर वे एक तरफ बैठ जातीं। उनसे किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी। कुछ देर बाद किसी बहाने से फर्श पर उनका सिर पटकना बालू हो जाता। वे दीपा की गृहस्थी को खुद देखने आयी थीं और बेहद चकित होकर यह सोच रही थीं कि इतनी तकलीफ में दीपा खुश कैसे है? किस बात ने उसे भुला लिया? किस आशा का फूल उसके मन में खिल गया?

दीपा ने कहा 'दादू उसके रूप में मैंने एक शिष्ट और समर्थ व्यक्ति को महसूस किया है। मैं यह नहीं कह रही कि उसे मैं दुनिया का श्रेष्ठ पुरुष मानती हूं। इस तथ्य से मैं परिचित हूं।'

वह एक मामूली लड़का है। यूनिवर्सिटी में किसी रूप में भी लोकप्रिय नहीं था। उस तरह होना भी उसने नहीं चाहा था। फिर भी मुझे वह अच्छा लगा। मैं उसके प्यार में पड़ गयी।

हमारे उस प्यार में कोई चालू रोमांस नहीं था। शमिता के यहां मैंने उसे पहली बार देखा था। शमिता के बड़े भाई के साथ देवप्रिय पड़ता था। उसके अभावों की बात तो तुम्हें बताने की जरूरत नहीं; वह तुम्हारे घर की सत्यदासी नौकरानी का नाती है। हायर सेकेन्टरी पास करने के बाद उसने इतिहास से आनर्स लेकर सेकेंड क्लास में पास किया था। एम. ए पढ़ने की भी उसकी कोई कल्पना नहीं था। बी ए पास करने के बाद वह बारासात में एक हायर सेकेंडरी स्कूल में नौकरी करने लगा था। साल-भर पूरे होने के पहले ही उसकी मां ने मरकर उसे मुक्ति दे दी। उसके बाप ने तुरंत दूसरी शादी कर ली। उसका एक छोटा भाई था, वह कक्षा आठ तक पढ़ने के बाद पॉलिटिकल लीडर बनने की ख्वाहिश में बहक गया, वह भी घर-बार का मोह त्यागकर निकल गया। देवप्रिय स्कूल की नौकरी छोड़कर एम. ए. पढ़ने कलकत्ता चला आया।

उसके बाप ने कहा था, “मैं कानी कौड़ी नहीं दूंगा। जो कुछ जमीन-जायदाद है वह भी तुम लोगों को नहीं मिलेगी। मैंने पढ़ा लिखाकर लायग बना दिया है, अब खुद कमा-धमाकर खाओ।” उसने शमिता के भाई के साथ यूनिवर्सिटी में नाम लिखा लिया। वह रोज बारासात से आता-जाता था। सीधा-सादा, शर्मीले स्वभाव का देवव्रत शमिता के भाई रंजित का बड़ा अनुगत था। रंजित पढ़ने-लिखने में अच्छा था, इतिहास लेकर उसने प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया था। लेकिन स्वभाव का बहुत चंचल था। ऐसा न होता तो वह स्टैंड कर सकता था। शांत, औसत बुद्धि वाले देवव्रत ने रंजित से उसकी नोट-बुक नकल करने के लिए मांगी थी। दोनों में परिचय का सूत्र यही हुआ। अनुगृहीत व्यक्ति के प्रति स्नेह हो ही जाता है। रंजित को भी उससे स्नेह हो गया था। इसके अलावा देवप्रिय में एक खूबी है, उसके हाथ की लिखावट बहुत अच्छी है। रंजित के नोट की वह नकल करता था, मगर दूसरों के नोट की भी नकल करके वह रंजित को देता. था। स्कूल में नौकरी करके उसने थोड़े रुपये बचाये थे। उनके खर्च हो जाने के बाद उसे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। उसकी कठिनाई का समाधान करने के लिए रंजित ने उसे अपने यहां अपने दो भतीजों को ह्यशन पड़ाने का काम दिलवा दिया। वह रोज शाम को उन्हें पढ़ाकर बारासात लौट जाता।

हम लोग उस वक्त कॉलेज में पढ़ते थे। यूनिवर्सिटी पहुंचने में अभी दो साल की देर थी। मैं शमिता के यहां आया-जाया करती थी। लेकिन यकीन करो दादू साल-भर तक वह मुझे नजर नहीं आया। शमिता को भी उसका आना पता नहीं चलता था। उसने कभी उसके बारे में मुझसे चर्चा भी नहीं की थी। उसने कभी उसके बारे में मुझसे चर्चा भी नहीं की थी। देवप्रिय ने कभी शमिता की ओर औख उठाकर देखा भी नहीं। शमिता ने भी उसकी परवाह नहीं की।

सालभर बाद एक दिन यूनिवर्सिटी में यूनियन के किसी मामले में एक लम्बे ' धोती-कुर्ता के इस पहने युवक को रंजित के साथ देखकर मैं चौंकी। बालों में उसने ' खूब तेल लगा रखा था। मैंने शमि से पूछा, 'यह बेवकूफों जैसा नजर आने वाला ?? कौन है रे? तेरे भाई के साथ धूम रहा है। '

शमि बोली ' भैया के साथ पढ़ता है, भैया का चला है। नाम है देवप्रिय '' हालदार। मेरे दोनों भतीजों को पढ़ाता है। उसे हमारे यहां देखा नहीं ?'

मैंने कहा 'नहीं तो। तूने कभी बताया नहीं।'

'नहीं बताया? मुझे याद नहीं।'

' अच्छा यह वाकई ऐसा सीधा-सादा है या कोई स्टाइल है?

ँ क्त उक्का अल्पभाषी होना स्टाइल है, या वह वाकई ऐसा है? ' वाकई ऐसा ही है। '

'ऐसा ही? पैरों के कपड़े वाले जूते से लेकर डवल शर्ट तक !'

“अब कसम खाकर तो यह बात नहीं कह सकती। लेकिन यह विनयी और कुछ शर्मीला भी है। थोड़ा अक्खड़ भी है। जिसे बुलडॉग टेनासिटी कहते हैं, कुछ उस प्रकार का, जैसा भैया ने मुझे बताया है। मैं ज्यादा बात नहीं करती, बस नमस्कार वगैरह तक ही सीमित है। मुझे वह बेहद अनइंटरेस्टिंग लगता है।“

दो महीने बाद रंजित के जन्मदिन पर उससे मेरा परिचय हुआ, निहायत मामूली परिचय। उसका नाम देवप्रिय हालदार, रंजित दा का दोस्त और मेरा नाम दीपान्विता चटर्जी, शमिता की दोस्त हूं-बस इतना ही परिचय हुआ, इससे ज्यादा नहीं।

वह सीधा-सादा व्यक्ति मुझे अच्छा ही लगा, लेकिन कोई राग-अनुराग पैदा करने वाली या लड़कियों को पागल बनाने वाली बात उसमें नहीं थी। उस वक्त मैं क्षण-भर के लिए भी इस बात पर यकीन नहीं कर -सकती थी कि मैं कभी उसके प्रति आकर्षित हो सकती हूं। इसके बावजूद मैंने एक दिन महसूस किया कि वह मुझे बेहद अच्छा लगने लगा है, इसका कारण क्या था पता नहीं, फिर भी वह मुझे अच्छा लगने लगा था। इम्तहान की तैयारी के कारण उसने ट्यूशन छोड दी थी, शमि के यहां अब वह नहीं आता था। यूनिवर्सिटी भी नहीं जाता था। उसे बिना देखे मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मुझ पर उदासी छा गयी। दादू मैंने इस पर खूब सोचा है। जो कुछ निर्णय मैंने किया है, उसे सुनकर तुम्हें दुःख होगा, तुम सिहर उठोगे। मुझे इस रोमान्स का कोई अपराध बोध नहीं है। यह किसी घटनाचक्र के लेन-देन के बावत ऋणी मन का, कृतज्ञ मन का आत्मसमर्पण नहीं है; यह सिर्फ बॉयलॉजी है। मनुष्य की सभ्यता की दृष्टि से शायद शर्मनाक बात, लेकिन यथार्थ यही है। पुराने जमाने में स्वयंवर सभा में राजकुमारी से विवाहेच्छुक राजकुमार कतार में बैठे रहते थे, वह राजकुमारी हाथ में माला लेकर हर व्यक्ति के सामने खड़ी होकर उसे देखती चारण का विवाह तय कराने वाला उस राजकुमार के गुणों का बखान करता। आखिरकार राजकुमारी अपनी पसंद के युवक के गले में वरमाला डाल देती। किसी को देखकर अच्छा लगने की बात हर युग में रही है, आगे भी रहेगी। धन मान, गुण, यश, प्रतिष्ठा सबका स्थान इसके बाद है।

हृदय का मेल मन का मेल तो बाद में आता है, नजरों से अच्छा लगने की बात पहले आती है। उसके प्रति मेरे आकर्षण की वात मेरी समझ में तब आयी जब मैंने देवप्रिय को कई दिनों तक नहीं देखा।

अचानक एक दिन शमि ने मुझसे कहा, ‘आज बड़ी गड़बड़ हो गई है रे दीपा! मुझे बहुत खराब लग रहा है’

‘क्या हुआ?’

“आज सुबह देवप्रिय हमारे यहाँ आया था। इंद्रजित और अभिजित को पढ़ाने के एवज में उसके सौ या अस्सी रुपये बकाया थे। उसने जरूरत पड़ने पर लेने के लिए ही उन रुपयों को हमारे यहाँ छोड़ रखा था। मगर उन रुपयों को भैया ने पिताजी से लेकर खर्च कर दिया। उसे यह बात मालूम नहीं थी। देवप्रिय जब सुबह आया था तब रंजित घर में नहीं था। विवश होकर देवप्रिय ने एक स्लिप लिखकर इंद्रजित के हाथों पिताजी के पास भिजवा दिया। उसे रुपयों की सख्त जरूरत थी। मेरे पिताजी इन मामलों में बड़े टची हैं। वे मारे क्रोध के वहाँ आकर बोले, रुपए? किस बात के रुपए?अपने हिसाब के पाई-पाई पैसे तो तुम ले गये हो।” उस बेचारे के मुंह से निकल गया, 'जी नहीं उसे मैंने बाद में लेने की सोचकर उस वक्त नहीं लिया था।' पिताजी बोले, 'नहीं, रंजित ने तुम्हें जरूर दे दिया होगा, मैंने खुद तुम्हें देने के लिए उसके हाथों में दिये थे, मुझे खूब याद है। उसने मुझसे कहा था, पिताजी देवप्रिय को पैसे की सख्त जरूरत है। मैंने कहा, 'ठीक है, उसे जाकर दे दो। उसने तुम्हें दिया नहीं होगा, ऐसा हो ही नहीं सकता। ' वह अचंभे में पड़ गया। उसके दो-तीन बार नासमझ की तरह जी-जी करते ही पिताजी ने आवेश में उसे खरी-खोटी सुना दी। इंद्रजित का रिजल्ट अच्छा नहीं हुआ था, इसलिए पिताजी ने कहा, 'रुपये तो तुमने बिना पढाये ही ले लिये। ऊपर से एक बार रुपये पाने के बाद भी इस तरह दुबारा मांगने चले आये? गेटआउट गेटआउट बेचारा वहीं से सिर झुकाकर चला गया। बाद में भैया ने आकर मुझसे कहा, 'वाकई शमि, यह तो बड़े अन्याय की बात हो गयी। रुपये तो उसके बकाया हैं ही। मैंने उन्हें खर्च कर दिया है.। मुझे उसे यह बात बता देनी चाहिए थी कि जरूरत पढ़ने पर रुपये मुझसे ले लेना, पिताजी के पास मत चले जाना, या उनसे मत मांग बैठना। मेरे भैया आज उससे मिलने बारासात जायेंगे। मुझे बहुत बुरा लग रहा है। '

... .यह बात सुनकर उस दिन मुझे भी बहुत खराब लगा था। शमि के पिता या भैया का देवप्रिय के साथ दुर्व्यवहार या अन्याय किया जाना उतना नहीं खल रहा था, खल रहा था देवप्रिय की हालत के बारे में सोचकर। मुझे सुनकर बहुत खराब लगा, साथ ही साथ उस पर विचित्र किस्म का गुस्सा भी आया, जिसमें उसके प्रति सहानुभूति ही मुख्य थी। एक सीधे-सादे आदमी को कैसा भुगतना पड़ा। वह इस तरह क्यों भुगतता है? क्यों वह सिर झुका लेता है? वह विरोध क्यों नहीं करता?

देवप्रिय ने हंसते हुए कहा था, 'मैं गुस्सा नहीं कर पाता। यह मुझसे नहीं होता। मुझे अच्छा नहीं लगता। '

शमि ने उसके बारे में जिस दिन हमें यह सब बताया उस वक्त हम दोनों यूनिवर्सिटी में क्लास से निकलकर लाइब्रेरी जा रहे थे। इसके बाद लाइब्रेरी से निकलकर शाम को शमि के यहां न जाकर मैं सीधे घर लौट रही थी। मेरी बस श्याम बाजार पंचमुहानी के मोड़ से बाग बाजार स्ट्रीट जंक्शन पार करके एक जगह रुक गयी थी। तभी मैंने देखा कि थोड़ी दूर से एक आदमी लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चला आ रहा है। उसका सिर एकदम तना हुआ था और उसकी चाल में जरा भी थकान नहीं थी। मुझे रानी रोड तक जाना था लेकिन उसे देखकर मैंने अपने मन में उस क्षण एक विचित्र आकर्षण अनुभव किया, जिसकी उपेक्षा करके बस मैं बैठे रहना मेरे लिए असंभव हो गया। मैं बस से उतर गयी। और जरा ऊंचे स्वर में उसे पुकारा 'देवप्रिय बाबू! देवप्रिय बाबू !'

वह चौंककर रुक गया और इधर-उधर देखने लगा। मैंने फिर पुकारा। इस बार उसकी नजरें मुझसे मिलीं। मैंने उसी क्षण सड़क के इस तरफ खड़े होकर महसूस किया कि सड़क के दूसरी तरफ खड़े देवप्रिय बाबू के चेहरे पर सहसा किसी ने टार्च की रोशनी फेंकी हो। मैं भी शायद शर्म से लाल हो गयी थी।

4

दीपा कहते-कहते रुक गया। इसके बाद हंसते हुए बोली, 'यही शायद सनातन स्थायी एक्सप्रेशन है दादू! एक-दूसरे को देखकर खुश हो जाना, शर्मा जाना। तुम लोग जो बुजुर्ग लोग हो, तुम लोगों से प्रेमी या प्रेम की खबर जरूर छिपायी जाती है लेकिन आज की मतलब सन् 1960 के बाद की किसी कुमारी युवती के लिए रास्ते के लोगों के सामने अपने प्रेमी को देखकर शर्माने का कोई सवाल नहीं पैदा होता।

खैर। हम दोनों ने ही अपने को संभाल लिया। बल्कि उस वक्त मैं थोड़ा चकित भी हुई थी क्योंकि मैं उसे प्यार- करती थी यह तो उस वक्त भी बहुत स्पष्ट नहीं था। बल्कि मैं खुद चकित होकर सोच रही थी कि उसे बुला तो लिया, मगर बुलाया क्यों? उससे बात क्या करूं यह भी नहीं सूझ रहा था। लेकिन उसके चेहरे पर क्षण-भर के लिए जो रोशनी नजर आयी थी उसने मुझे बेहद पुलक से भर दिया था। उसने आकर बड़ी इज्जत से पूछा, 'आप मुझसे कुछ कहना चाहती हैं? मैंने कहा, 'हां ओं लेकिन कहूं क्या? अचानक मेरे मुंह से निकला, 'आप अब कैसे हैं?' 'कैसा हूं!' उसने बड़े शांत भाव से पूछा।

' शमि के पिताजी द्वारा किया गया अपमान आपने खामोशी से बर्दाश्त क्यों कर लिया? जरा भी विरोध नहीं किया। छि: छि:? '

वह सिर झुकाकर हंसा।

मैंने कहा, 'उनसे पैसे अब आप मत लीजियेगा। '

बिलकुल नहीं लूंगा। इसका फैसला मैं कर चुका हूं।'

'रंजित आपके यहां बारासात गया हुआ है। '

'मुझसे उसकी यहीं भेंट हो चुकी है। उसे वहां जाना नहीं पड़ा। वह मुझे रुपये दे रहा था मैंने नहीं लिये। रंजित के पिता ने अपने बच्चों के रिजल्ट के बारे में जिस तरह मुझसे कहा, उसके बाद रुपये लेने का कोई मतलब नहीं है। लेना उचित भी नहीं होगा। मेरी रंजित से थोड़ी कहा-सुनी भी हो गयी। '

'इधर कहां गये थे?'

'जरा काम से गया था।'

'क्या रुपये के लिए 7 माफ कीजिए, यह पूछने का मुझे अधिकार तो नहीं है।' 'नहीं आप कुछ भी पूछ सकती हैं। सब कुछ आपके अधिकार में है। '

मेरे मन में कुछ उमड़ने-घुमड़ने लगा। दिल में एक विचित्र किस्म का बोझ-सा

महसूस हुआ। कुछ खटका, 'इसके कहने का आशय क्या हे?'

शायद यही सुनना चाहती थी-उसने कहा 'ठीक है, मुझे भी नाराजगी जाहिर करनी ही पड़ेगी। दिखावे की नहीं। उचित ही। '

उसने कहा ' आपके 'अधिकार की परिधि में मेरा जीवन और जगत् समाया हुआ है।'

उसके बातों के लहजे से मैं नाराज नहीं हो पायी, उसे चकित होकर देखती रही। उसने कहा, आप लोगों का मैं काफी आभारी हूं। '

'हम लोगों का? ऐसा क्या किया?'

' आप सबके ढेरों उपकार हैं। जब मेंने हायर सेकेंडरी का इन्तहान दिया था तव आपके नाना ने मेरी. फीस भरी थी। इसके पहले हर साल आपके नाना मेरी किताब-कापी खरीदने के पैसे देते थे। कमीज, हाफपैंट, जूते खरीद देते। तभी से केड्‌स शू पहनने की आदत पड़ गयी है। मेरी नानी आपके यहां की नौकरानी थीं।

मैं सत्यदासी का नाती हूं। आपको उनकी याद है?'

.. .दादू मुझे उसी दिन उसे घर लाकर तुमसे मिला देना उचित होता। शायद तब उससे हमारी अंतरंगता प्रेम. में परिणत नहीं होती। अंतरंगता को एक संकोचपूर्ण गोपनीयता की आड़ में न छिपाने से बीज से फिर प्रेम का अंकुर नहीं फूटता। दादू ' शायद मैं भी उसे मन ही मन चाहने लगी थी इसीलिए उसे तुम्हारे यहां न ले जाकर ' मैंने उससे कहा था, ' आप कल बेलेगेछे के परेशनाथ के बगीचे में आइयेगा। बारह बजे। मैं वहां मिलूंगी। आपको कितने रुपये चाहिए, बता दीजिए ले आऊंगी। आपको कितने रुपये चाहिए, बता दीजिए मैं ले आउंगी। आप मुझसे रुपये लेने में कतई संकोच न कीजिए। अगर संकोच हो तो बाद में नौकरी मिल जाने के बाद मुझे चुका दीजियेगा।

दूसरे दिन बेलेगेछे के परेशनाथ के बगीचे में मैंने उसे डेढ़ सी रुपये दिये थे।

इसके बाद हम दोनों काफी हाउस जाकर दिन-भर साथ रहकर शाम को लौटे थे।

उस वक्त हम दोनों एक-दूसरे के लिए 'आप' से 'तुम' हो गये थे। देवप्रिय ने अपनी जेब से एक फोटो निकालकर मुझे दिखाकर कहा था, 'बचपन में तुम्हारे यहां से मेंने यह तस्वीर चुरायी थी। इसे मैं हमेशा जेब में रखे रहता हूं। ' यह कहकर वह हंसने लगा था। मैं शर्म से लाल हो गयी। प्रेम जैसे कि उस तस्वीर में ही छिपा हुआ था। वह तस्वीर तब की थी जब मैं सात-आठ साल की थी।

.दूसरे दिन शमि ने बड़ी चिंता से कहा, 'कल बारासात में उनके यहां बैठकर दिनभर इंतजार करती रही, मगर उनसे भेंट नहीं हुई। न जाने कहां चले गये थे।'

.दादू कुल मिलाकर कहानी यह है। तुम लोगों को मेरी बातों से तकलीफ हुई होगी, दादू तुम्हें तो ज्यादा नहीं, मगर मां तथा दादी को ज्यादा हुई होगी, मुझे पता है कि सबके कलेजे पर चोट लगी होगी। तुम भी ऊपर से भले ही हंसो लेकिन दुःख तुम्हें भी हुआ है। '

.दादी और मां जात-धर्म मानती हैं, शायद उसकी आर्थिक हैसियत का भी ख्याल होगा। सत्यदासी-मेरी दासी सास ही इस घटनाक्रम मैं मुख्य हैं। तुम लोगों के लिए यह बड़ी अहम् बात है। लेकिन हम लोगों के लिए यह कोई समस्या की बात नहीं है दादू!

प्रेम तो हमेशा से ही अस्तित्व मैं रहा है। राजकुमारी का प्रेम चरवाहे से हो जाता है। चरवाहा अपनी शक्ति से रोजा बनता है। वह राजकुमारी का दिल जीत लेता है। हार जाने पर वह जान दे देता है। राजकुमारी वियोग में रोती है या तो वह भी जान दे देती है या फिर आसू पोंछकर, माथे, का सिंदूर पोंछकर दुबारा शादी करके प्रेम पर्व की समाप्ति कर देती है। जो बिना शादी किये प्रेम के लिए अपनी जान देता है, वही जीतता है।

... .लेकिन आज का जमाना दूसरा है। वक्त भी अलग है। इस जमाने में अव किसी चीज की बाधा नहीं है दादू! अब सत्यदासी का नाती होने के कारण उसे दोषी नहीं ठहराया (ना सकता। वह ब्राह्मण नहीं है इस बात से भी उसकी पात्रता में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। उससे मैं प्रेम करती हूं इसीलिए मैंने शादी की है। . मेंने तो चिट्ठी में लिखा था दादू-तुम सबको दुःखी करके मुझे भी कम दुःख नहीं हुआ। आपकी जवान से भी यही बात कहती हूं। दुःख मैंने तुम सबको हमेशा ही पहुंचाया है, लेकिन अन्याय, पाप या अपराध मैंने जरा भी नहीं किया है। इसके लिए मैं तुम लोगों का तिरस्कार क्यों सहूं

भवनाथ बाबू स्तब्ध बैठे थे। थोड़ी दूर बैठी हुई शोभा-दीपा की मां रो रही थी। भवनाथ बाबू की पत्नी पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी हुई थीं।

दीपा ने फिर कहा, 'दादी कहेंगी-ब्राह्मण की लड़की होकर-सीता, सावित्री के देश की कन्या होकर-देवप्रिय से शादी करके मैंने महापाप किया है। मगर दादी, बुरा मत मानना ब्राह्मण युग की वात उाब ध्यान से निकाल देनी पड़ेगी। जात-पांत भी अब कोई नहीं मानता। तुम्हें पता है मैं भी नहीं मानती। तुम लोगों ने भी मुझे इसी तरह बड़ा किया है। लेकिन देखा जाए तो एक दृष्टि से मैंने सावित्री जैसा ही काम किया है जिसे मेंने मन ही मन प्यार किया, दूसरी जात का होने के कारण उसे छोड़कर मेंने किसी और से शादी नहीं की। सावित्री ने जब मन ही मन सत्यवान का वरण करके अपने पिता से आकर कहा था कि सत्यवान को उसने मन ही मन अपना पति मान लिया है, उस वक्त नारद वहां मौजूद थे, उन्होंने ठीक अइया लगाते हुए कहा था 'ऐसा कैसे हो सकता है, सावित्री, सत्यवान तो राजपाट खोया हुआ राजपुत्र है। ' सावित्री ने कहा था, 'फिर भी वह मेरा पति है। वे लोग वनवासी हैं फिर भी वह मेरा पति है। ' आखिरकार नारद बोले, 'सवसे खराव बात यह है कि सत्यवान की आयु कम है। ' सावित्री ने कहा, 'फिर भी वही मेरा पति है।

-मैं भी यही कहती हूं दादी, भले ही मैंने रजिस्ट्री से शादी की है। चाहे तो इसे अपराध कह सकती हो, पर अपराध ही क्या है, अगर प्रेम झूठा साबित हो, यदि जीवन असहनीय हो जाए तब में तलाक भी ले सकती हूं लेकिन अब तक जो कुछ मेंने किया है, उसमें अन्याय जरा भी नहीं है। बिल्कुल नहीं है।'

में तुम लोगों से कुछ मांग भी नहीं रही हूं।

न तम लोगों की जमीन, न तुम लोगों की जायदाद। अगर संपर्क नहीं रखना चाहोगे तौ उसके लिए भी नहींर कहूंगी। मैंने उसके साथ घर बसा लिया है, अपनी गृहस्थी को लेकर मैं खुश रहूंगी।'

भवनाथ बाबू ने अब मुंह खोला। बोले, 'चलो जी, अब यहां से चलें। शोभा बेटी, जरा सोचकर देखो। मैं जरा भी बाधा नहीं दूंगा। अगर तुम चाहो-।'

शोभा मुंह से कुछ वॉल नहीं पायी, लेकिन इकार मैं जौर से गर्दन हिलाने लगी-नहीं, नहीं, नहीं।

१ भवनाथ बाबू बोले, 'तब तो बेटी यह बात भूल जाओ कि दीपा नाम की तुम्हारी कोई थी। आओ चलें।'

वे लोग चले गये।

।र दीपा खामोश बैठी रही। उसके अंदर जो अंतर्मथन चल रहा था, लग रहा था .' उसके दबाव- से उसकी पसलियां टूट जायेंगी। लेकिन नहीं-हर्गिज नहीं-।

'दीपा !'

दीपा ने मुड़कर देखा। देवप्रिय कमरे में आ गया था। वे लोग जब तक यहां थे वह तव तक बाहर ही था। सड़क पर घूम रहा था। दीपा ने ही उससे कहा था, 'तुम यहां मत रहना। तुम रहोगे तो वे लोग खासकर दादी अगर बुरा-भला कह, तो मुझसे वर्दाश्त नहीं होगा।' तुम बाहर ही रहना।'

'वे लोग चले गये?'

दीपा से जबाव देते नहीं बना। वह कुर्सी से उठ खडी हुई, उसके साथ ही उसके आसुओं का बांध टूट पड़ा।

'दीपा।'

दीपा ने देवप्रिय को बांहों से जकड़कर उसके सीने में अपना सिर रखकर कहा 'तुम मेरे अतीत को विस्मृत करा दो। अपने प्रेम से सब कुछ विस्मृत करा दो।'

देवप्रिय ने उसे जोर से अपनी बांहों में भींच लिया।

5

भवनाथ बाबू ने अपनी पुत्रवधू से कहा था, ‘दीपा नाम की कोई थी, इसे बहू तुम भूल जाओ।’ भवनाथ बाबू की पत्नी को भी यह कहने की जरूरत थी, भवनाथ

बाबू के यह ध्यान में नहीं आया था। उनकी पत्नी ने उस दिन भी दीपा के यहां से निकलकर टैक्सी में सवार होते वक्त कहा था, 'अरी दीपा, में प्रार्थना करती हूं कि तू मर जा!

विचित्र व्यक्ति थीं न, लेकिन सिर्फ वही क्यों विचित्र थीं, वे सभी लोग जो भवनाथ बाबू की पत्नी की तरह पहले जमाने के अपरिपक्व लोग थे, दुर्बल लोग थे, वे ही शायद इसी तरह के विचित्र लोग हो सकते थे। अपनी आखिरी बीमारी के दिनों में वे दीपा के लिए बेचैन हो गयीं, 'दीपा, ओ दीपा, तुझे मैं एक बार देखना चाहती हूं। दीपा....।'

दो साल बाद!

भवनाथ बाबू कलकत्ता छोड्‌कर काशी चले गये थे। वे वहीं रहने लगे थे। कलकत्ता से अपना संपर्क उन्होंने खत्म कर लिया था। अपना मकान बेचकर सारा रुपया बैंक में रखकर पति-पत्नी अपने जीवन के बाकी दिन वहीं बिता रहे थे। पुत्रवधू शोभा अब उनके साथ नहीं रहती थी। वह अब एक गुरु का सहारा लेकर उन्हीं के साथ जगह-जगह घूमती रहती थी। उस घटना के कुछ दिन बाद ही-लगभग तीन महीने बाद- शोभा अपने गहने और पति के लाइफ इंश्योरेंस के रुपये, जो उसके नाम बैंक में फिक्सड डिपोजिट थे, उन्हें लेकर एक दिन घर से चली गयी। भवनाथ बाबू ने सोचा था शायद दीपा के आकर्षण के कारण शोभा वहीं चली गयी होगी। लेकिन नहीं। उन्होंने पता लगाकर देखा कि शोभा वहां नहीं थी।

शोभा-दीपा की मां की उम्र पैंतीस-छत्तीस की थी। वह देखने में सुंदर थी। दीपा से कहीं ज्यादा सुंदर। दीपा आधुनिक जमाने की लड़की थी, थोड़ी कड़क और तेज-पुरुषों की तरह। शोभा कोमल और संकोची थी। इसलिए भवनाथ बाबू उसके लिए चिंतित हो गये। लेकिन बाद में उन्हें खबर मिली कि शोभा अपने मायके चली गयी थी। वहां उस वक्त उनके संन्यासी गुरु आये थे। उनसे दीक्षा लेकर अब वे गुरु के साथ ही घूमती थी। गुरु का बहुत बड़ा आश्रम था। वे पूरे देश में घूमते रहते थे। शोभा वहां प्रसन्न थी। उसने अतीत को भुला दिया था। निंदा करने वाले तरह-तरह की बातें करते थे। उसे परवाह नहीं थी।

सब कुछ रहने के बाद भवनाथ बाबू अपनी पत्नी को लेकर काशी मैं रहने लगे थे। अचानक भवनाथ बाबू की पत्नी ने खाट पकड़ ली। उन्हें अपनी पुत्रवधू को देखने की ख्वाहिश नहीं हुई, मगर दीपा को देखने के लिए वै तड़पने लगीं। 'दीपा को एक बार दीपा को देखना चाहती हूं। उसे बुला दो।'

भवनाथ बाबू से इनकार करते नहीं बना। उनका हृदय भी प्रतिदिन तूफान से लाये हुए बालू की तरह मरुभूमि बनता जा रहा था। निरंतर तृष्णा से उनका मन व्याकुल रहता था। पत्नी की उस कातर इच्छा की ध्वनि जैसे वहां प्रतिध्वनित होने लगी। उन्होंने दीपा के पते पर तार भेज दिया। साथ ही दीपा जिस कॉलेज में पढाती थी. वहां भी टेलिग्राम किया। इसके अलावा जिन छात्रों को वे बेटों की तरह मानते थे और जो शिक्षा विभाग में काम करते थे, उन्हें भी चिट्ठी लिखी उनमें दीपा के नाम चिट्ठी भी रख दी। उन्हें लिखा-मेरी पौत्री दीपा-दीपानिता, जो अब हालदार हो गयी है, वह हम लोगों की इच्छा के विरुद्ध शादी करके अलग गृहस्थी बसाकर हमसे अपना रिश्ता तोड़ चुकी है। मेरी पत्नी इस वक्त मृत्युशप्या पर हैं। किसी तरह दीपा का पता लगाकर उसे यहां भेज दो। मेरी पत्नी की सांसें इतनी तकलीफ में भी सिर्फ उसी के लिए अटकी हुई हैं।

आखिरकार दीपा आयी।

उस दिन अपराह्न बेला थी। एक टैक्सी आकर खड़ी हुई, जिसमें से दीपा उतरी। टैक्सी का होंने सुनकर भवनाथ बाबू खिड़की पर आकर खड़े हो गये। हां दीपा ही तो थी। उन्होंने उसी क्षण एक नजर में दीपा को पहचान लिया। दीपा कुछ लम्बी लग रही थी। लम्बी हुई थी या दुबली हो गयी थी? वे ठीक समझ नहीं पाये।

वह अकेली ही आयी थी। साथ में देवप्रिय नहीं था। वह खुद नहीं आया था ३ या दीपा ने साथ आने से मना किया था? दीपा ने ही नहीं आने दिया होगा। यही हुआ होगा। मगर यह बड़े अन्याय की बात है?

भवनाथ बाबू झटपट दरवाजा खोलकर बाहर निकल आये। उन्होंने अपने नौकर रामभरोसे को आवाज लगायी- भरोसे बाहर से सामान ले आओ।

दीपा ने नजदीक आकर कहा, 'दादू !'

उसकी छुट्टी के नीचे हाथ लगाकर उसका चेहरा ऊपर करके भवनाथ बाबू उसे देखने लगे। उनके होंठ थर-थर कांप रहे थे। आखें आसुओं से भर गयीं।

दीपा की आखें भी भर आयीं; लेकिन उसने मुस्कराने की कोशिश की। दोनों ने ही अपने आंसू पोंछे। दीपा बोली, 'दादी कैसी हैं?'

'तेरे लिए ही अब तक जिंदा है। बुढ़ापे की बीमारी है। ऐसे तो कुछ नहीं है मगर कब क्या हो जाए कोई कह नहीं सकता। लेकिन-तू देवप्रिय को साथ क्यों नहीं लायी? अकेली क्यों आयी दीपा?'

क्या?

'उसे साथ क्यों नहीं लायी? तूने क्या यह सोचा कि हमने तुझे बुलाया है, उसे नहीं? मैंने तो लिखा था- '

'हां, दादू!'

'तो फिर तूने क्या सोचा-कुछ और- '

'दादू!' कुछ कहते हुए रुक गयी।

'तू उसे टेलीग्राम कर दे। '

वह-वह तो- '

दीपा का गला भर आया।

'दीपा!'

अपना गला झाडकर दीपा बोली, 'दादू वह तो अब इस दुनिया में नहीं रहा।' दी-पा भवनाथ बाबू के गले से चीख निकल गयी। वे थर-थर करके कांपने लगे। दीपा उनसे लिपटकर बोली--दादू! दादू!

'दीपा !' भवनाथ बाबू सिसककर रोने लगे। आंसुओं के कारण उन्हें कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। उन्होंने अपने आंसुओं के पर्दे को भेद करके दीपा को देखने की कोशिश की। हां वाकई। दीपा के शरीर पर सफेद-काले रंग को छोड्‌कर और दूसरा रंग नहीं था। काला भी थोड़ा-सा, ज्यादा सफेद ही था। वह सफेद रंग, जैसे आंसुओं के कुहासे में और सफेद नजर आ रहा था। उसके हाथ में चूड़ी और गले में एक पतला सोने का हार था। शायद इतने से ही किसी को विधवा नहीं कहा जा सकता था-लेनिक विधवा होने के बाद इससे ज्यादा गहने कोई नहीं पहनता, न उसके। कपड़ों का इससे अलग कोई रंग ही होता है।

वह लम्बी नहीं, दुबली-कमजोर हो गयी थी। दीपान्विता म्लान हो गयी थी। दीपा विधवा हो गयी थी।

दादू ''

'दीपा !'

'तुम दादी से मत कहना। मैं उसे नहीं बताना चाहती। '

'दीपा, यह कब की बात है?'

' आठ महीने होने को आये दादू !'

'तूने -खबर तक नहीं भेजी। '

'हां, खबर नहीं भेजी। '

'हम लोगों पर नाराज थी। तुझे लगता था- '

तुझे अभिमान हुआ था। वह भी अकारण। लेकिन उसे खत्म नहीं कर पायी थी। लेकिन तुम्हारे अभिशाप से ऐसा हुआ, यह मैं सोच भी नहीं सकती। यह तो एवसर्ड है। ' दीपा के चेहरे पर फीकी मुस्कान थी, 'उसकी अचानक मौत हो गयी। वह इंटरव्यू देने दिल्ली गया था। मैं भी साथ गयी थी। वहां हम लोग खूब। घूमे-फिरे। अचानक एक दिन उसका हार्टफेल हो गया। '

भवनाथ बाबू स्तब्ध हो गये।

दीपा भी खामोश थी। वह उदास नजरों से सामने देख रही थी। भीतर से भवनाथ बाबू की पत्नी की आवाज आयी-दीपा ' दीपा!

- - - ''

' दीपा जैसे चौंककर जाग उठी। गहरी सांस लेकर बोली, 'दादू चलो, दादी बुला रही हैं। '

साथ चलते हुए वह बोली, 'रंजित से मुझे मां की खबर मिली। उसने कहा- बहुत खराब बात उसने कही दादू! मतलब बहुत खराब ढंग से उसने कहा। बीस्ट! ब्रूट! मुझसे आकर कहने लगा, 'मैं तुम्हें प्यार करता हूं। ' मैं बोली, 'मगर मैं नहीं करती। जिसे मैंने प्यार किया था, उसे ही आज भी प्यार करती हूं रंजित! मैं मानती हूं कि इस दुनिया में धर्म, ईश्वर-सब झूठ है, लेकिन प्यार झूठा नहीं होता। अगर एक बार किसी से प्यार हो जाए तो उसे छोड्‌कर दूसरे से प्यार नहीं किया जा सकता। मैंने देवप्रिय से ऐसा ही प्यार किया था। उसे इसी तरह सारी जिंदगी चाहती रहूंगी। उसे भुला नहीं सकती। कम से कम इस वक्त तो यही लगता है। ' फिर वह थोड़ा मुस्कराकर बोली, 'रंजित ने मुझे व्यंग्य करते हुए मेरी मां के बारे में बताया। कहा 'ठीक है, अंत में अपनी मां की तरह ही किसी बाबाजी की चेली बन जाना।' उसे मैंने भगा दिया।'

उसकी आवाज रूखी हो गयी थी। उसने कहा, 'दादू! प्रेम से बड़ी, किसी को चाहने से बड़ी चीज और कोई नहीं होती। यही मधुरतम है। मिलन में मधुर, विरह में मधुर-हंसी में रुदन में-। जरा ठहरो दादू मैं खुद को संभाल लूं। दादी से छिपाना होगा न! आह !'

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रचनाकार: ताराशंकर वंदोपाध्याय की कहानी – दीपा का प्रेम
ताराशंकर वंदोपाध्याय की कहानी – दीपा का प्रेम
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