प्रदीप कुमार साह की कहानी - चरित्रहीन

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दिसम्बर का अंतिम पखवाड़ा था और सुबह के साढ़े पाँच हो रहे थे. कड़कड़ाती ठंड और घना धुंध फिर इतने सुबह-वातावरण में एक अजीब ठिठुरन और सन्नाटा था....

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दिसम्बर का अंतिम पखवाड़ा था और सुबह के साढ़े पाँच हो रहे थे. कड़कड़ाती ठंड और घना धुंध फिर इतने सुबह-वातावरण में एक अजीब ठिठुरन और सन्नाटा था. किन्तु सुन्दर अपने नियमित दिनचर्यानुरूप टहलने निकला. साथ में घनिष्ठ मित्र श्याम था. दोनों टहलकर टीले के पासवाले रास्ते से लौट रहे थे कि उन्हें 'बचाओ-बचाओ' की आवाज सुनाई दिए. आवाज सुनकर पहले तो दोनों डर गए कि कही वह किसी बुरे आत्मा का भ्रमजाल तो नहीं ? किन्तु सहायता हेतु किसी के लगातार चिल्लाने की आवाज सुनाई देने पर दोनों साहस जुटाकर खोज-बीन करने लगे. वहाँ वातावरण में इतने धुंध थे की टॉर्च की रौशनी में भी दूर की वस्तु नजर नहीं आती थीं. किन्तु उन्होंने खोज जारी रखे और आवाज आने की दिशा में बढ़ते रहे.

टीले पर आकर उन्होंने देखा कि आवाज बगल में खाई से आ रही है. आवाज भी जाना-पहचाना मालूम हुआ. उन्होंने खाई में टॉर्च की रौशनी फेंकी. खाई में घुप अँधेरा था. वह काफी गहरा और घने कँटीली झाड़ियों से भरा मालूम पड़ा. झाड़ियों की वजह से खाई में कोई नजर नहीं आया किन्तु सहायता हेतु अधिकाधिक चिल्लाने की तेज आवाज आने लगी.

आवाज सुनकर दोनों चौंक गए. श्याम ध्वनिस्वादन करते हुए बोला,"वह तो कोकिला है. यह तो वही कुलटा है जिसने साज़िश कर झूठे मुकदमें में तुम्हें सजा भुगतवाये.इसे बचाने के क्या फायदे? चलो वापस चलते हैं."

"नहीं मित्र, वैसा मत कहो. इसने बेशक सबकुछ मेरे प्रति गलत किए किन्तु इसे अभी इस परिस्थिति में छोड़ जाना मनुष्यता के नाते उचित नहीं है." सुन्दर बोला.

"मनुष्यता?.......या लगाव! इसने जो आरोप तुम्हेँ लगाए कहीं वह सच तो नहीं थे." श्याम चिढ़ कर बोला.

"मित्र, यह वक्त बातों में निकाल देने का नहीं है. मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ, जल्दी में गाँव से मेरे खातिर एकबार मदद लेकर आओ. मैं तुम्हारा इन्तजार यही करूँगा."

श्याम बात मानकर मदद हेतु बोझिल मन से गाँव की ओर चल दिए. इधर सुन्दर खाई में टार्च की रौशनी फेंक कर कोकिला को ढूंढने लगा. कोकिला को वह वर्षों पहले से जनता था. वर्षों पहले गाँव में बेहद सीधे-सादे हिरामन भाई रहते थे, कोकिला उन्हीं की मीठे बोल बोलनेवाली हँसमुख पत्नी है. वह जितने सीधे थे, कोकिला उतनी ही धूर्त, चालक और लालची थी. उसमें काम-वासना भी बहुत थे. सुन्दर का उनलोगों से केवल औपचारिक सम्बन्ध ही थे तथापि मौका देख कर एकदिन कोकिला बेवजह उससे इश्क जताने की कोशिश किये.उसके मना करने पर बुरा अंजाम भुगतने के धमकियाँ दिए.

उन दिनों वह एक प्रसिद्ध स्थानीय कॉलेज का छात्र था.वह कॉलेज पास वाले शहर में अवस्थित था. इसलिए उसका प्रायः शहर आना-जाना रहता था. एकदिन वह पढ़ाई कर घर लौट रहा था की उसी शहर में रास्ते में कोकिला भाभी मिली. उसने आवाज देकर सुन्दर को पास बुलाया. सुन्दर जैसे ही कोकिला के पास पहुँचा उसने सुन्दर को जोरदार तमाचा लगाया और चिल्लाने लगी,"बद्तमीज-चरित्रहीन, राह चलते औरतों को छेड़ते हो."

कोकिला के शोर-शराबे पर भीड़ जम गए. सुन्दर भीड़ से अपनी सफाई में कहता रहा. किंतु उसकी सफाई कोकिला के तेज आवाज और अक्रामकता में दब जाती. फिर भीड़ ज्यादा सोच-विचार किये बिना ही सुन्दर की बुरे तरीके से पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया. पुलिस संज्ञान लेकर केस दर्ज किये और उसे तत्कालीन कठोर प्रावधानानुसार जेल भेज दिये. उक्त मामले में अंतत: अदालत से उसे सजा मुकर्रर हुए. कालांतर में उस गम में और गाँव वालों के ताने सुन-सुनकर उसके माता-पिता भी अकाल गुजर गए. उस अघटित अपराध की सजा भुगतने के बावजूद सुन्दर के  आज-तक समाज में पूर्ववत् स्थान प्राप्त न हुए.

किन्तु उस घटना के बाद कोकिला के असंयमित मनोबल बढ़ते गए.कालान्तर में उसके लालच और वासनायुक्त व्यवहार से गाँव के अन्य लोग परीशान रहने लगे. अंततः हिरामन भाई लोक-लज्जा और उसके विश्वासघात के वजह से उसे त्याग कर चुपके से अन्यत्र चले गए. गाँव वालों के उपेक्षा के पात्र बन चुकी कोकिला अपना भरण-पोषण हेतु देह व्यापार में उतर गयी. वह इस सब का कारण गाँव वालोँ को मानने लगी. अपने उस धारणा के वजह से जब उसके सम्बन्ध कुख्यात डाकुओं से बने तो उनलोगों के निमित्त मुखबिरी करने लगी. इससे गाँव वाले उससे नफरत करने लगे.इधर कुछ दिनों से वह गाँव में अनुपस्थित थी तो गाँव वाले सकून महशुश कर रहे थे.

काफी ढूंढ़ने पर सुन्दर का नजर झाड़ी के एक झुरमुट में फँसी एक स्त्री पर पड़ा. वह कोकिला ही थी. वह बेहद कातर स्वर में प्राण रक्षा हेतु सुन्दर से गुहार लगा रही थी. कोकिला को देखकर उस क्षण सुन्दर का मन विषाक्त हो गया. किंतु उसने मन को बड़ी चतुराई से नियंत्रित किया और कोकिला को धैर्य बनाए रखने हेतु प्रोत्साहित करने लगा. तभी कुछ गाँव वालों के साथ श्याम वहाँ मदद हेतु पँहुचा. ग्रामवासी रस्सी की एक सिरा कोकिला के तरफ फेंके और उसे अच्छे से पकड़ने बोला. इस तरह रस्सी के सहारे कोकिला को खाई से बाहर निकाला गया. खाई से बाहर आने पर ग्रामीण उससे जानना चाहा कि वह खाई में किस तरह गिर गई?

उसने रोते हुए आपबीती बताये कि उसके मर्जी के खिलाफ किस तरह रात में डाकू उसे घर से उठा ले गए और उसका कितने क्रूरता से यौन शोषण कितने दिनों से किये. उस शाम वह डाकुओं के चंगुल से किसी तरह निकल भागी तो उन्हें इस बात की भनक लग गई. भनक लगते ही ऊनलोगों ने उसका पीछा किया. उनलोगों से छिपकर भागते-भागते वह बुरी तरह परीशान हो गई. अंततः उसे उसका मन धिक्कारने लगा कि वैसे नारकीय जीवन का त्यागना ही भला. मन में ऐसे विचार आते ही यहाँ उसने खाई में छलांग लगा दिये. किंतु वह झाड़ी में फँस गई और चिल्लाने लगी. उसके शोर मचाने से ग्रामीणों के भय से डाकू भाग गये. किंतु वह पूरी रात खाई में झुरमुट में फँसी असहाय ठिठुरती रही.

"सब तुम्हारे कर्मों के ही फल हैं. एक दिन वैसा ही होना था." ग्रामीण एकमत होकर बोले.

"मैं वैसे नारकीय जीवन नहीं जी सकती. इसलिए आत्म हत्या कर रही थी, तुमलोग मुझे बाहर क्यों निकाले?" कोकिला रुष्ट होकर बोली.

"यह तो बताओ कि पहले आत्महत्या हेतु छलांग लगाती हो फिर प्राण रक्षा हेतु गुहार. लोगों को परेशान करने हेतु वही नये काम चुने हैँ?" ग्रामीण नाराजगी जताए.

"आफत में फँसे लोग गुहार लगाते ही हैं. किसी की गुहार सुनो, यह किसने तुमसब से कहा?" कोकिला बड़े बेशर्मी से बोली. ग्रामीण एक-दूसरे के मुँह तकने लगे.

"मनुष्य आदि काल से सामाजिक प्राणी रहा है. सुख-दु:ख में एक-दूसरे का साथ देना मनुष्यता है. फिर आत्महत्या किसी समस्या का निवारण किस तरह हो सकता है? आत्महत्या करना महज कायरता है. यदि तुम अब भी वैसा करना चाहती हो, तो कोई तुम्हें कबतक रोक सकता." सुन्दर बोला.

पिछली बातों के लिए कोकिला सुन्दर से माफी मांगते हुए पूछने लगी कि अब वह क्या करे?

"ईश्वर की मर्जी समझने की कोशिश करो. सोचो कि खाई में छलांग लगाकर भी किस हेतु तू बच गई? नि:संदेह तुम्हें अपने बुरे कर्मों का प्रायश्चित करने हेतु अभी अवसर मिले हैं. इसलिए सच्चाई को स्वीकारते हुए शेष जीवन प्रायश्चित के प्रयत्न और सत्कर्म करो." सुन्दर बोला.

"मुझे पता है कि मेरी कैसी भलाई तुम सोच सकते हो. मेरे सुख कभी सहन कर ही नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे जैसा चरित्रहीन सदैव दूसरों को दु:खी देखकर स्वयं प्रसन्न होना चाहता है." वह तुनकर बोली.

"फिर उस चरित्रहीन को अपना कर उसके चरित्र सुधार क्यों नहीं देते अथवा स्वयं पर दया कर अपना जीवन ही सफल कर लो." श्याम ने कोकिला को टके सा जवाब दिया.

"इसके प्रति मुझे कभी किसी तरह के लगाव नहीं रहे फिर इसका साथ तो मैं सौ जन्मों तक कबूल ना करुँ. मैं वापस उन्हीं लोगों के पास जा रही हूँ. मेरे पीछे कोई मत आना."  इतना कहकर कोकिला तेजी से वापस डाकुओं के पास चली गयी.

"मैंने कहा था ना,उसे बचाने के कोई फायदा नहीं." श्याम ने सुन्दर से कहा तो सभी ग्रामीणों ने उसमें सहमति जताई. सुन्दर सबको समझाते हुए कहने लगा,"यह सभी जानते हैं कि कर्म-फल अकाट्य होता है. सब कुछ जानते हुए भी बुरे संगति में पड़े लोगों की प्रवृत्ति जिस तरह सत्कर्म की तरफ होना अति कठिन है, उसी तरह सच्चे मनुष्य की प्रवृत्ति मनुष्यता के रक्षा के प्रति होनी चाहिए. उसे सदैव विवेक पूर्वक निर्णय लेने हेतु सतर्क और प्रयत्नशील होने चाहिए."

ग्रामीण हँस कर सुन्दर से बोले,"तुम्हें चरित्रहीन कहते हुए हमें दु:ख होता है, किंतु आनंद इस बात की आती है कि ऐसा करने से उत्तरोत्तर तुम्हारा विवेक अधिकाधिक सबल होता है. फिर हमलोग तुम्हारे प्रति आश्वस्त हैं कि तुम किसी का कभी अहित नहीं कर सकते. चलो गाँव चलते हैं. अभी समाज और संसार में तुम्हारा काफी परीक्षा होना भी तो शेष हैं."

"जीवन स्वयं ही एक परीक्षा है." श्याम ने सुन्दर का हौसला अफजाई किया और सभी खुशी-खुशी वापस गाँव लौट आये.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

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रचनाकार: प्रदीप कुमार साह की कहानी - चरित्रहीन
प्रदीप कुमार साह की कहानी - चरित्रहीन
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