भूमिका- राउत नाचा छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला परंपरा है। यह यदुवंशियों की संस्कृति के रूप में प्रचलित है जो कि समय-समय पर और विभिन्न त्यौहारों...
भूमिका- राउत नाचा छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला परंपरा है। यह यदुवंशियों की संस्कृति के रूप में प्रचलित है जो कि समय-समय पर और विभिन्न त्यौहारों में एक नृत्य के रूप में यादवों (राउतों) द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। उसी नृत्य के दौरान राउतों द्वारा दोहों का उक्तिकरण किया जाता है। समग्र रूप से राउत नृत्य तथा उसके अंतर्गत कहे जाने वाले दोहे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। राउतों का दोहा ही नृत्य में ऊर्जा क्रियान्वित करता है। नृत्य के मध्य में समूह नृत्य का कोई भी सदस्य एक दोहा कहने के लिये उई...ई.....ई.... का संकेत करता है, उसके पश्चात नृत्य करते हुए सभी सदस्य कुछ क्षण के लिये रूक जाते हैं, तभी नृत्य रूकवाने वाला सदस्य अपनी इच्छा के अनुसार ‘दोहा‘ समूह में लय के साथ प्रस्तुत करता है जिसको सुनकर समूह के सदस्य अपने नृत्य के साथ पुनः अपनी प्रसन्नता जाहिर करते हैं। दोहों के अंतर्गत वीर, हास्य, व्यंग्य की प्रस्तुति होती है। दोहा के इन्हीं रूपों के अंतर्गत एक रूप शृंगार का भी होता है। शृंगार के अंतर्गत विभिन्न दोहे हैं जिसमें छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक झलक दिखायी देती है।
‘‘भाठा देखेंव दुमदुमिया उल्हरे देखेंव गाय हो
ओढे देखेंव कारी कमरिया ओही ननंद के भाय हो‘‘
शृंगार की एक आरंभिक झलकी के रूप में हम एक दोहे का भावार्थ देखते हैं उक्त दोहे में एक छत्तीसगढ़ी महिला अपने शृंगार का रूपक बांधते हुए अपने पति का परिचय देते हुए कह रही है कि जो भाठा (मैदान) में गायों के समूह में है और जो काला कंबल ओढ़कर गाय चरा रहा है, वही मेरी ननंद का भाई अर्थात मेरा पति है।
उक्त दोहे में हमें छत्तीसगढ़ी महिला के शृंगार में भी मर्यादा एंव लज्जा के दर्शन होते हैं। वह सादगी के साथ अपनी श्रृंगारिता का परिचय दे रही है तथा अपने पति के प्रति अपने हृदय के निश्छल और निःस्वार्थ तथा सात्विक प्रेम को उजागर कर रही है।
इसी तरह दोहों में शृंगार को प्रकट करने के लिये राउत नृत्य में परी नाच की परंपरा है। परी नाच के माध्यम से परियों के दोहों के द्वारा शृंगार के विभिन्न पहलुओं को प्रकट किया जाता है। परी अपनी विलक्षण वेषभूषा और अदाओं के माध्यम से परी शृंगार को साकार करने का प्रयास करती है।
जैसा कि राउत दोहा राउतों द्वारा समय-समय पर प्रस्तुत किये जाने वाले नृत्यों में उक्त होता है। प्रायः राउतों द्वारा वर्ष में एक बार मड़ई का आयोजन किया जाता है जिसमें बाजा-गाजा के साथ घर-घर जाकर राउत नृत्य एवं दोहा की प्रस्तुति दी जाती है। इस नृत्य में श्रृंगारिक दोहों के साथ-साथ वीर एवं हास्य दोहों का भी भरपूर प्रयोग होता है। जिन घरों में जाकर राउत बंधु नृत्य प्रस्तुत कर रहे होते हैं, उस घर के मुखिया के प्रति सुसंबोधन जताने हेतु भी दोहों का प्रयोग किया जाता है जिसमें हास्य एवं श्रृंगार दोहों का समावेश होता है।
इसी तरह दीपावली के द्वितीय दिवस (गोवर्धन पूजा के दिन) भी राउत बंधु गॉवों में गोबर का गोवर्धन पर्वत बनाकर सभी गायों को एकत्रित करते हैं और उन गायों के पैरों के द्वारा गोबर से बने गोवर्धन पर्वत को रौंदवाया जाता है तदुपरांत पटाखे एवं आतिशबाजियों के साथ यादव बंधु ग्रामवासियों को गोवर्धन पूजा की बधाइयां देते हैं और साथ एक-दूसरे को गोबर का तिलक लगाया जाता है। ग्रामवासी भी इस आयोजन में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। तदुपरांत रात्रिकालीन राउत बंधुओं द्वारा घर-घर जाकर नृत्य प्रस्तुत किया जाता है जिसके अंतर्गत शृंगार एवं हास्य के दोहों को प्रस्तुत किया जाता है।
राउत दोहों में शृंगार की परंपरा अति प्राचीन है। राउत बंधु श्री कृष्ण के वंशज माने जाते हैं और श्री कृष्ण को शृंगार कला का नायक माना जाता है। यह भी मान्यता है कि द्वापर युग में श्रृंगारिक दोहों की रचना स्वतः ही हो जाती थी। जो ग्वाले द्वापर युग में श्री कृष्ण के साथ गाय चराने जाते थे वे स्वाभाविक रूप से श्रृंगारिक दोहों की रचना कर प्रस्तुत किया करते थे।
इसी तरह मान्यता है कि गोपियां भी अपने आराध्य श्री कृष्ण के लिये श्रृंगारिक दोहों की रचनाएं किया करती थीं तथा अवसरानुसार श्री कृष्ण को सुनाया भी करती थीं। कालांतर में इन्हीं दोहों का प्रयोग राउत बंधु अपने नृत्य के साथ करने लगे। और आज वर्तमान स्वरूप में राउत नृत्य एवं दोहों का श्रृंगारिक रूप हमारे सामने है।
उक्त तथ्यों के अंतर्गत ही हम एक दोहे में गोपियों का श्रृंगारिक भाव देखते हैं।
‘‘ चलो सखि! जहं जाइये, बसै जहां चित चोर।
मन अति आनंद भयो, मिल गै नंद किशोर॥ ‘‘
उक्त दोहे में हम देखते हैं कि एक गोपी अपने हृदय की सात्विक भावना को प्रकट करते हुए अपनी सखि से कह रही है कि हे सखि! चाहे जहां भी जाना हो, मन में हमेशा चित को चुराने वाले चित चोर अर्थात श्री कृष्ण का ही वास होना चाहिये। क्योंकि नंद किशोर अर्थात् श्री कृष्ण के हृदय में वास करने से मन को अनुपम आनंद की प्राप्ति होती है।
इस तरह हमें उस काल के दोहों में पारंपरिक एवं सात्विक शृंगार की छटा दिखायी देती है किंतु कालांतर में पारंपरिक शृंगार के दोहों के स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। राउत बंधु अपने दोहों में शृंगार में हास्य पुट का भी समायोजन करने लगे। जैसा कि-
‘‘ डोकरी दाई के मया म बबा लाय हे पान रे।
अउ डोकरी दाई हे घर म बबा रहे दइहान रे॥ ‘‘
उक्त दोहे में हमें शृंगार के साथ हास्य का पुट देखने को मिलता है। इस दोहे में गाँव की बुजुर्ग महिला अर्थात दादी के साथ श्रृंगारिक दोहे में हास्य का समन्वय करके हंसी-ठिठोली की जा रही है और कहा जा रहा है कि दादा ने दादी के लिये प्रेम से पान बनवाकर लाया है और उन्हीं के प्रेम में दादाजी दइहान (गायों के ठहरने का स्थान) में गोबर एकत्रित करने के लिये गये हैं।
राउत दोहों का अपना एक अलग उद्देश्य होता है। जिस तरह राउत बंधु वीर रस के दोहों के माध्यम से श्री कृष्ण की वीरता एवं अन्याय पर न्याय की जीत को दर्शाते हैं। उसी तरह हास्य दोहों के माध्यम से वे श्री कृष्ण द्वारा किये गये हास्य लीलाओं को दर्शाते हैं और यह अनुभूत कराते हैं कि जीवन में हास्य कितना आवश्यक है। इसी तरह श्रृंगारिक दोहों के माध्यम से राउत बंधु यह दर्शाते हैं कि जीवन में प्रेम कितना आवष्यक है। श्रृगार के बिना जीवन शून्य है। राउत दोहे हमें सतत् यह स्मरण दिलाते हैं कि संसार को केवल और केवल प्रेम के माध्यम से ही जीता जा सकता है। श्री कृष्ण ने भी अपने शृंगार में इसी दार्शनिकता को प्रकट किया था।
इस तरह राउत बंधु वर्ष के अलग-अलग चरणों में विभिन्न आयोजन करते हैं जिसमें नृत्य के साथ दोहों का विलक्षण एवं अद्भुत प्रयोग होता है जो उनकी सांस्कृतिक पहचान एवं विशेषता होती है। समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि राउत दोहों में शृंगार की अपनी अलग पहचान तथा महत्व है जिसके कारण राउत नृत्य एवं राउत दोहे छत्तीसगढ़ी संस्कृति में ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति में विशेष रूप में जाने जाते हैं। हमें यह संस्कृति अक्षुण्ण बनाये रखने की आवश्यकता है।
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मनोज कुमार श्रीवास्तव
शंकरनगर नवागढ़, जिला-बेमेतरा
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