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अपनी उपलब्धियों को बताने और दिखाने की ललक , आदमियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसी प्रकार दूसरों की उपलब्धियों को जानने की उत्सुकता , यह भी मानवीय स्वभाव है। वर्तमान में व्यवस्थित , सभ्य – समृद्ध समाज पर , पूर्वजों का ऋण है। समग्र समृद्धि के लिए , विचारों के आदान प्रदान की आवश्यकता महसूस की , समाज सृष्टा लोगों ने। श्रमजीवी , किसानों , उत्पादकों और जानकार अनुभवी लोगों ने एक स्थान पर एकत्र होना निश्चित किया। फिर मिलने पर , इनमें परस्पर चर्चाएं भी हुई। अपने अपने उत्पादों को भी एक दूसरे को दिखलाया , उन लोगों ने। श्रेष्ठतम उपलब्धियों के लिये विचार मंथन किया गया। परिणामतः उत्पादों की समीक्षा , आने वाले वर्षों के लिए लाभकारी सिद्ध हुई। फिर दूसरे वर्ष ये मिले। बीते वर्ष की तुलना में इस वर्ष की चर्चा में भागीदारी निबाहने वालों की संख्या बढ़ी। इस प्रकार फसल काटने के बाद हर साल , किसान का एक दूसरे से मिलने का सिलसिला चालू हो गया।
किसानों के साथ साथ , वनोपज संग्राहक , खनिज कर्मी , कारीगर , व्यवसायी लोग ऐसे आयोजनों में अधिकाधिक संख्या में भाग लेने आने लगे। मन से मन मिला , तो मेला। किसान से किसान मिला , बस देखते ही देखते शुरू हो गया किसान मेला। यह हजारों वर्ष पहले प्रारम्भ सिलसिले की बात है। किसान , मेलों में दिखलाने लायी गई वस्तुओं को , वापसी के समय एक दूसरे को भेंट कर देते थे। इसी भेंट व्यवहार ने कुछ समय बाद विनिमय का रूप ले लिया। इससे प्रत्येक इलाके के लोगों को अपने इलाके से बाहर की वस्तुओं का उपयोग करने का अवसर मिलने लगा। उन्हें उक्त वस्तुओं के उत्पादनके लिए प्रेरणाएं मिलने लगी। वे उत्साहित होते रहे। जलवायु के अनुसार श्रम सुविधा सुलभ होते ही अनेकों प्रकार की फसलें उगाने लगे लोग। दैनिक उपयोग की सामाग्रियां भी प्रचूर मात्रा में तैयार होने लगी। खपत की परेशानियां नही थी। मुद्रा का चलन भी शुरू हो चुका था। विक्रेता – क्रेता की आवाजाही , रास्ते की भीड़ , लेन देन , बन गया बाजार। किसान मेले का बाजार। जिसका स्वरूप समय के साथ बदलता गया – कहीं धीरे - धीरे तो कहीं जल्दी - जल्दी।
पहले - पहल , अपने - अपने लिए , बाद में , सामूहिक भोज की व्यवस्था रखी जाती थी। भीड़ बढ़ने के कारण अनेकों कठिनाइयां सामने आने लगी। सुविधा के लिए , पाक कला कुशल लोगों की सेवाएं ली गईं। फिर भोजन बनाने का काम मजदूरी में होने लगा। धीरे धीरे इसने व्यवसाय का रूप धारण कर लिया और भोजनालय चालू हो गए। मिठाइयां और खाने पीने की चीजें , कपड़ों की दुकानें , बच्चों के लिए तरह तरह के खिलौने ,खेल कूद और दैनिक उपयोग की सामग्रियां आने लगी। मनोरंजन के लिए सरकस , खेल तमाशे , रहिचुली , प्रदर्शनियां , अनोखे करतब - यह सब देखकर चंचल मन का उत्साह बढ़ जाता है। अधेड़ स्त्री – पुरूष भी अपनी उमंग रोक नही पाते , वे भी बन ठन कर निकल पड़ते हैं मेले के लिए। खो जाते हैं - चुलबुल बच्चे भीड़ में और होशियार - सयाने आनंद में। प्रदर्शन का जो अवसर मिल जाता है किशोर किशोरियों और युवक युवतियों को। ये सज धज कर भीड़ भाड़ , धक्कापेल करते आकर्षक बने रहते हैं आखिरी तक। बच्चे से लेकर बूढ़े तक , सबका मन जहां ले रहा होता अंगड़ाई , ऐसे ही मेले को लोग कहते हैं मड़ाई।
मड़ाई निर्विघ्न समपन्न हो , इसके लिए क्षेत्रीय देवी देवताओं की पूजा – मनौतियां की जानी चाहिए , बुजुर्गों का यह प्रस्ताव मान लिया गया। अलग अलग क्षेत्रों से आये लोगों की अलग अलग पहिचान होनी चाहिए , यह भी तय हुआ। वर्ग की पहिचान के लिए कोई संकेत अर्थात प्रतीक चिन्ह बनाये गये , जिसे दूर से देखकर जानना सरल हो गया। वह था – बड़े बड़े बांस में बांधें गए अलग अलग रंगों के कपड़े। वर्गों के पहिचान का यह माध्यम अर्थात बांस का रंगीन कपड़ा बरग (बैरक) कहलाया। पत अर्थात इज्जत या शाख। आका अर्थात मुल्यांकन दर्शाया गया। पत + आका अर्थात पताका , शक्ति का पता बताने वाला। त्रिकोण आकार का कपड़ा पताका कहलाया। ध से धारित , व से वर्ग , ज से जानकारी अर्थात धारित वर्ग की जानकारी – ध्वज कहलाया। चौकोर और आयताकार कपड़े को ध्वज कहा गया। जिसे प्रतीक के साथ साथ समूह के सम्मानित गौरव के रूप में स्वीकर कर फहराया जाने लगा। ध्वज पताके के तारतम्य में आने वाले कपड़े या कागज के छोटे छोटे टुकडों को तोरण कहते हैं। रस्सी के झुंड के झुंड गुंथे व लटकाये होने के कारण कोई इसे झंडी भी कहते है।
बहुत पुराने सयाने और जानकार लोगों से अद्भुत और प्रामाणिक जानकारियां मिलती है। ये लोग बताते रहे है कि दो या दो से अधिक त्रिकोण व लम्बे कपड़े के बैरक को पालो कहते हैं। बैरक के कपड़े का रंग देवी देवताओं के स्वभाव और शक्ति के अनुसार चुना गया। जैसे – काला बैरक कंकाली का , और मेघहिन बैरक काली देवी का , लाल बैरक दंतेश्वरी का , सफेद बैरक शीतला माता का , केशरिया बैरक सत्ती देवी के लिए है। छतीसगढ़ में पूर्व की भांति आज भी देवी देवताओं को मानते हैं। रिच्छिन , सतबहिनी , लश्गरहिन , नौगड़हिन , गोंड़िन , मौली माता और ठाकुरदेव , दूल्हा देव , बूढ़ा देव , बरर्रहिया जैसे नाम के स्थापित देवी देवताओं की मनौतियां तरह तरह से करते हैं - देवी उपासक गण। चूड़ी - फुंदरी , बंदन , पान - सुपारी , काजल , धजा , नारियल , नीबू आदि के चढ़ावे का रिवाज आज तक बनाये रखे हैं। क्षेत्रीय देवी देवताओं , जैसे कचना धुरवा , गढ़िया देव के साथ साथ अंधविश्वासों में उलझे लोग भूत प्रेत मशान के अस्तित्व को स्वीकरते और विचित्र - विचित्र उपासनाएं भी करते कराते देखे जा सकते हैं। पीला चांवल छिड़ककर आपनी मानंदी को नेवता देते हैं। फिर कहीं कहीं मन तृप्ति को मंद तर्पण समझ कर शराब का तर्पण करते हैं। कहीं चोरी छिपे , तो कहीं - कहीं प्रगट भी , भेंड़ बकरी , सुअर और मुर्गा की बलि आज भी देते हैं। कुछ लोग गुड़ घी , धूप , अगरबत्ती जलाकर फूल दूब , नारियल सुपाड़ी भेट कर , चंदन – रोरी - गुलाल - सिंदूर लगाकर पूजा करते हैं। समझे बूझे पुजारियों के द्वारा प्रचलित पूजा पद्धतियां की सरल सात्विक और शिष्ट – विशिष्ट पहचान आज भी है।
कुछ पुराने लोगों का मत यह है कि कंदई मड़ई ही मड़ाई की प्रतीक देवी है। कंदई मड़ई को केंवट ढीमर , कंडरा और देवार जाति के लोग हर साल कार्तिक अमावस्या को बनाते व फाल्गुन पूर्णिमा को विसर्जित कर देते हैं। २१ व २७ गांठ वाले लम्बे बांस में कंदई मड़ई को बनाया जाता है। दंहिगला गोजा के मेड़रा स्थित रिंग , जो १८ अंगुल त्रिज्या का होता है , इसी में धन चिन्ह आकार वाले बांस को फाल ( चीरा ) लगाते हैं। इसे बोलचाल में पंक्ति या सीढ़ी कहते हैं। सत्तीदेवी के सात , नवम के नौ और बर्ररहिया के उपासक लोग बारह पंक्ति की कंदई बनाते हैं। नीचे से ऊपर तक बंधी रस्सी काशी या मुवा नाम की घांस से बनायी जाती है। रस्सी में गुथा हुआ कागज जैसे दिखते पत्र , एक कंद के होते हैं - जो सफेद होता है। यह कंद किसी किसी नदी नाले के किनारे मिलता है। वैसे यह जंगली कंद है। पुराने जमाने में इस कंद को बला निरोधक बनाकर तांत्रिक लोग इसका प्रयोग करते थे। कंदई मड़ई को दुल्हन की तरह सजाते हैं अर्थात कपड़ा पहनाते , श्रृंगार करते , माउर बांधते हैं , फिर दूल्हादेव के साथ इनके फेरे लगवाते हैं। बाद सत्ती चुरा में पधारकर पूजा अर्चना करते हैं। श्रद्धा के प्रतीक कंदई मढ़ई के ऊपर में मयूर पंख और सफेद चंवर जैसे जटा मुकुट बांधते हैं। मयूर पंख प्रेम मूर्ति परात्पर ब्रम्ह श्रीकृष्ण का , तो सफेद जटा – बूढ़ा देव विश्वास मूर्ति भगवान शिव का प्रतीक है। बूढ़ा देव सनातन होते हुए भी नवीनतम अर्थात मौलिक भी है। कालांतर में मौलिक शब्द का उच्चारण कुछ लोग मालिक करने लगे , तो कुछ लोग इन्हे मौला , मौली या मावली भी कहने लगे।
अभिप्राय यह कि खेतिहर मजदूर – किसान , मेला मड़ाई में प्रेम और विश्वास की स्थापना और प्रचार प्रसार करते कराते रहे हैं। फरी फुलेता तलवार चलाते , शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और विश्वास दिलाते हैं मातृभूमि के रक्षक होने का। उत्पादन , समृद्धि , एकता और सफलता के उल्लास में , ये लोग बैरक और मड़ाई के रूप में अपनी विजय - वैजंती को फहराते हैं। कृषि कार्य के प्रमुख सहयोगी गोचारक ग्वाले भी इन मड़ाई मेला में नाचते गाते उत्सव मनाते हैं।
किसान मेला और मड़ाई का औचित्य आज भी बरकरार है और भविष्य में भी रहेगा। कृषि प्रधान धरती है हमारी , और हमारा भारत गांवों का देश है , जहां प्रेम और विश्वास की लहरों से लेता जन मन अंगड़ाई , अनूठी है पूरे देश में भइया , छत्तीसगढ़ का मेला मड़ाई।
गजानंद प्रसाद देवांगन , छुरा , जिला गरियाबंद
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