हिंदी नाट्य परंपरा में ‘जयशंकर प्रसाद’ और ‘मोहन राकेश’ की संवेदना को विकसित करने में ‘सुरेन्द्र वर्मा’ की प्रमुख भूमिका रही है। सुरेन्द्...
हिंदी नाट्य परंपरा में ‘जयशंकर प्रसाद’ और ‘मोहन राकेश’ की संवेदना को विकसित करने में ‘सुरेन्द्र वर्मा’ की प्रमुख भूमिका रही है। सुरेन्द्र वर्मा समकालीनता के सिद्धहस्त नाटककार हैं। सन् 1972 में प्रकाशित ‘तीन नाटक संग्रह’(जिसमें सेतुबन्ध, नायक खलनायक विदूषक और द्रौपदी) से लेकर ‘रति का कंगन’(2011) में उन्होंने पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथा-प्रसंगों के माध्यम से परिवर्तित काम-चेतना को अंतर्वस्तु बनाया है। सुरेन्द्र वर्मा ने सन् 1970 के दशक में विवाह के बाद के काम-संबंध की मर्यादा को तोड़कर प्रेम के मूल्य को स्थापित किया था, तो कुछ मर्यादावादी लोगों को यह बेईमानी लगी थी। अब उनके देखते यह भी धसक रहा है कि अब प्रेम के औजार को और धारदार करने के लिए स्त्री-विमर्श स्त्रीत्व की खोज में देह के लिए देह की प्रवृत्ति तक चल पड़ा है। बहरहाल, काम-चेतना के चित्रण के लिए सुरेन्द्र वर्मा की जितनी तीखी आलोचना हुई, उतनी उन्हें अपार लोकप्रियता हासिल हुई।‘काम’ वर्णन को हीन मानने वाली मानसिकता के विरोध में एक ऐसी रंगभाषा का निर्माण करते हैं, जो ‘काम’ की महनीयता को रंग-क्षेत्र में स्थापित करती है।
हिंदी साहित्य में ‘अकविता’ के रूप में कविता अपनी मानवीय-सांस्कृतिक जमीन से थोड़ा नीचे जरूर खिसक गई थी। इसी तर्ज पर कहानी ‘अकहानी’ बन गई। लेकिन यह साफ है कि कलात्मक उधेड़-बुन और नये साहित्यिक ट्रेंड के बीच भी नाटक अपनी संवेदना नहीं खोता। समकालीन नाटक की परंपरा और धारदार हुई है। रंगमंच की एक विशेषता यह है कि समकालीनता से उसका स्वाभाविक जुड़ाव रहता है। शेक्सपियर ने ‘मानव जीवन को एक रंगमंच’ माना है। इसका स्वाभाविक अर्थ यह हुआ कि नाटक एक सामूहिक कला है। समूह की मांग का आह्वान नाटक और रंगमंच के साथ जुड़ा हुआ है। सुरेन्द्र वर्मा अपने नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में शीलवती का शब्दों में – “मर्यादा !... धर्म !... वैवाहिक सम्बन्ध । ...सब मिथ्या । ...सब पुस्तकीय... लेकिन मुझे पुस्तक नहीं जीना अब ।...मुझे जीवन जीना है।”1 शीलवती भी अपने पत्नीत्व के परंपरागत संस्कारों के कारण अपने स्त्रीत्व की हत्या कर देती है। लेकिन अंत में परपुरुष प्रतोम के साथ रात गुजारने के बाद वह स्त्रीत्व के आधुनिक सत्य तक पहुंचती है और जीवन का एक नया अर्थ लेकर लौटती है।
सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में यौन-चेतना के चित्रण के साथ-साथ कतिपय स्थलों पर उसकी जनाकांक्षा, विडंबना व विद्रूपता का भी प्रयोग हुआ है, जिसमें विचार और व्यवस्था विमर्श की उपस्थिति है। वे ऐसे नाटककार हैं जिन्होंने किनारे बैठकर जीवन की ठाह को नहीं समझा, बल्कि वे गहरे उतरते हैं और जीवन की ऊपरी चकाचौंध के भीतर के स्याह अंधेरे को बखुबी बयां करते हैं। ‘सेतुबंध’ नाटक में प्रभावती जब अपनी मां से यह कहती है- “भावना के बिना शारीरिक संभोग बलात्कार होता है और मैं उसी का परिणाम हूं”1। ‘सेतुबंध’ नाटक में कालिदास और प्रभावती के परस्पर प्रेम और यौन संबंधों की अवांछनीयता और असमाजिकता से उत्पन्न तनाव, छटपटाहट और बिखराव जनित त्रासदी को रेखांकित किया गया है। प्रभावती अपने पिता के दबाव में आकर एक अनचाहे पुरुष वाकाटक नरेश से विवाह कर लेती है, किंतु हृदय से वह अपने प्रेमी कालिदास की ही बनी रहती है। प्रवरसेन की मां बनकर भी वह पत्नी नहीं बन पाती । ऐसी स्थिति में यदि परपुरुष पति और पति परपुरुष बन जाए तो क्या आश्चर्य ! आधुनिक जीवन का विवाह का ‘काम’ संबंधी समीकरण कुछ इस प्रकार है- ‘यदि पुरुष अविवाहित है तो स्त्री विवाहित, यदि पुरुष विवाहित है तो स्त्री अविवाहित’। ‘सेतुबंध’ नाटक की यही विडंबना है। मुक गुडि़या की भांति जीवन की अवहेलना करके अपनी समस्त सूक्ष्म भावनाओं को तिलांजलि देने वाली जैसी स्त्री उनके नाटकों की नायिका नहीं है। सुरेंद्र वर्मा नाटक में आधुनिकतावाद के मनमाने सुख के खुले खेल के प्रतिवाद का मानक है। नाटक का पात्र मल्लिनाग उच्च शिक्षा ग्रहण करने जाता है और शोध-निर्देशिका लवंगलता द्वारा अनचाहे यौन-शोषण का शिकार हो जाता है। वर्मा जी ने विश्वविद्यालयों में चल रहे अनैतिक कार्यों एवं गुरु-शिष्य संबंधों का विकृत रूप उजागर किया है।
स्त्री का तेवर आदर्शों को ही सत्य मानने वाली व्यवस्था को झकझोर देती है और हर परंपरा पर नए सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करती है। ‘आठवां सर्ग’ के माध्यम से लेखक ने कला-क्षेत्र में श्लील-अश्लील और लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न उठाया है। ‘आषाढ़ का एक दिन ’ का कालिदास यदि दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार ढलकर या स्वयं की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण अपनी रचना-भूमि से उखाड़ दिया जाता है तो ‘आठवां सर्ग’ का कालिदास अनेक प्रकार की धार्मिक रूढि़ग्रस्तता और राजनैतिक दबावों से ग्रस्त है। नाटककार ने कालिदास के काव्य ‘कुमारसंभव ’ के आठवें सर्ग में शिव और पार्वती की प्रेम क्रीड़ाओं को साधारण पति-पत्नी के प्रेम-प्रसंगों के रूप में देखा और उसका वर्णन किया है। लेकिन धर्माध्यक्षों के द्वारा उसकी अश्लीलता पर आपत्ति की गई । यथा “जगतपिता महादेव और जगतजननी पार्वती के भोग विलास का ऐसा उद्याम, ऐसा स्वच्छन्द, ऐसा नग्न चित्रण . . .इसका रचयिता पापी है। इसके श्रोता पापी हैं।. . .ऐसे अधर्मी और अनाचारी कवि के सम्मान में समारोह में जो भाग ले, वह पापी है।...यह सर्ग अत्यंत मर्यादाहीन है।...यह सर्ग बहुत अश्लील है। ‘कुमारसंभव’ पर प्रतिबंध लगाया जाए, क्योंकि कच्चे मस्तिष्कों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा।”3 यौन चेतना के अतिवाद की एक घिनौनी, विद्रूप ,सड़ान्ध भरी सच्चाई है। पद और प्रतिष्ठा पाने के लिए वह दर्शन विभाग के अध्यक्ष तुंगभद्र के समक्ष स्वयं को समर्पित करती है, उसकी दमित वासना का शिकार होती है लेकिन अपना अभीष्ट पाने के बाद वह इस ‘बूढ़े प्रेमी ’ से मुक्ति चाहती है क्योंकि इस संबंध में अब उसे अतृप्ति, अकेलेपन व घुटन का अनुभव होने लगा है। वह अपने शिष्य मल्लिनाग की ओर आकर्षित होती है। तुंगभद् को यह अच्छा नहीं लगता और वह परीक्षकों पर दबाव बनाकर मल्लिनाग के शोध प्रबंध को अस्वीकृत करवा देता है। मल्लिनाग शिक्षा विभाग में शिकायत करना चाहता है तो लवंगलता उस पर बलात्कार का आरोप लगाने की धमकी देती है। तुंगभद्र, लवंगलता व मल्लिनाग शोध कर्म से जुड़ी तीन पीढि़यों के प्रतिनिधि हैं जिनके बीच परस्पर स्वार्थपूर्ण यौन संबंध रहा है। यह नाटक सेक्स के विकृत मूल्यों के विरुद्ध खड़ा है।
सुरेंद्र वर्मा का दृष्टिकोण प्रगतिशील है। वह स्त्री का अस्तित्व मां, बहन, पत्नी और सहचरी के रूप में तलाशने के बजाय ‘स्त्री’ रूप में ही तलाशते हैं। वे सभी सड़ी-गली, अंधी परंपराओं को सिरे से नकार देते हैं। ‘द्रोपदी’ नाटक में विवाहेतर जीवन की विसंगतियों से उत्पन्न त्रासदी है। सुरेखा के पति मनमोहन का व्यक्तित्व खंडित है। वह अनैतिक है, महत्वाकांक्षी है, अर्थ-लोलुप है, कामुक है और आत्मान्वेषी भी। उसके ये विभाजित रूप ही सुरेखा के लिए पांच पति बन जाते हैं। मनमोहन के स्वच्छन्द और कुत्सित रूपों का प्रतिबिम्ब उसके दोनों बच्चों (अलका, अनिल) के जीवन में पूर्णत: लक्षित होता है। अलका, राजेश,अनिल और वर्मा यौन कुंठाओं से ग्रस्त हैं तथा उन्हीं की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील भी। यह नाटक आधुनिकताबोध के विसंगतियों का दस्तावेज है और अपनी संवेदना में मोहन राकेश के ‘आधे-अधूरे’ के करीब है। जीवन की विसंगति कैसे एक स्त्री को ‘वस्तु’ में तब्दील कर देती है, इसका बेहतरीन चित्रण ‘द्रोपदी’ में हुआ है। वर्मा जी का दर्शन स्त्री के वस्तुकरण करने वाली प्रक्रिया का शख्त विरोधी है। कला-क्षेत्र में श्लील-अश्लील का प्रश्न अत्यंत विवादास्पद रहा है। अश्लीलता को परिभाषित करना दुष्कर कार्य रहा है। सेक्स संबंधों का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अध्ययन अश्लील नहीं है, उसका खुला, सक्रिय प्रदर्शन अश्लील है। पति-पत्नी का यौन-संबंध तो भावनामयी होते हैं। नाटककार कहते हैं - “पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध भी कहीं अश्लील होते हैं, अश्लीलता आरोप करने वालों की दृष्टि में है, उनकी आंखों में है।”4 कालिदास ने स्वयं भी चंद्रगुप्त को ‘स्त्री-पुरुष के बीच के यौन-संबंध अश्लील नहीं है, का स्पष्टीकरण देते हुए कहा है- “संसार में भावना की गहराई और सघनता सबसे अधिक स्त्री-पुरुष संबंध में ही मानी गयी है।”5 नाटक में पूर्वाग्रहों और हीन भावनाओं से ग्रस्त लोगों की ओछी मानसिकता पर तीखा व्यंग्य है। नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में स्त्री अपनी शक्ति से वह शक्तिशाली आमात्य, परिषद और राजा साहब को धाराशायी कर देती है। कामनटी बनकर वह सबसे अशिष्ट और अभद्र वार्तालाप करती है। सुरेन्द्र वर्मा स्त्री के इस उग्र, उद्धत, उन्मादपूर्ण और प्रचंड छिन्नमस्ता रूप के जरिए स्त्री के चुप्पी वाले मिथ को तोड़ते हैं।
‘सुरेन्द्र वर्मा’ जीवन की अनुभूति का सूक्ष्म चित्रण करते हैं। वे आधुनिक संदर्भ में परंपरागत मूल्यों को चुनौती देते हैं। वर्मा जी आधुनिकता के नाम पर सेक्स के अतिवाद और दुरुपयोग के खिलाफ हैं। स्त्री-पुरुष के बीच संबंध किस प्रकार के हों और उन्हें किस परिधि व सीमा में रखा जाए ? इन सवालों पर विचार करना होगा ।
संदर्भ सूची
1> वर्मा, सुरेन्द्र, ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली,1975,
पृ0-51
2> वर्मा, सुरेन्द्र, ‘तीन नाटक’, ‘सेतुबंध’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005, पृ0-35
3> वर्मा, सुरेन्द्र, ‘आठवां सर्ग’, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1976, पृ0-38-39
4> वही, पृ0-39
5> वही, पृ0-54
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शोधार्थी
आनंद दास
कलकत्ता विश्वविद्यालय
कोलकाता
मो. नं. – 9804551685
ईमेल- anandpcdas@gmail.com
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