10 दिसंबर मानव अधिकार दिवस पर विशेष∙∙∙ कहां है मानव अधिकार कानून और उसके रखवाले? 0 कानून की बैशाखी का हो रहा गलत उपयोग मानव अधिकार के संरक्...
10 दिसंबर मानव अधिकार दिवस पर विशेष∙∙∙
कहां है मानव अधिकार कानून और उसके रखवाले?
0 कानून की बैशाखी का हो रहा गलत उपयोग
मानव अधिकार के संरक्षण में आम लोगों को उनके अधिकारों के प्रति सजग कर अन्याय और अत्याचार को नियंत्रित करने एक अच्छा प्रयास किया है। बाल अधिकारों से लेकर महिला अधिकार, विकलांगों के अधिकार और अल्प संख्यकों के अधिकारों को मानव अधिकार एक्ट में सम्मिलित किया गया है। मानव अधिकार एक्ट में बहुत हद तक पुलिस द्वारा अपराधियों को दी जाने वाली यातनाओं से उन्हें सुरक्षा प्रदान की है। बाल अधिकारों के संरक्षण मामले में भी एक्ट ने अपनी प्रभावी भूमिका का असर दिखाया है। अब छोटे बच्चों का कामगार होना या उनसे श्रम करवाना आसान नहीं रह गया है। मानव अधिकारों की पैनी दृष्टि ने वास्तव में समाज में व्याप्त कुरीतियों पर भी अंकुश लगाया है। आज मालिक और मजदूर की स्थिति में भी मधुर परिवर्तन स्पष्ट नजर आने लगे है। इन सारी सुव्यवस्थाओं के बीच कहीं न कहीं मानव अधिकारों की बैशाखी गलत लोगों के हाथ पहुंचकर त्रासद तस्वीर भी दिखा रही है। आयोग में शामिल पदाधिकारियों और सदस्यों द्वारा कानून का दुरूपयोग करते हुए अपनी रोजी रोटी का आधार पुष्ट किया जाना भी समय समय पर प्रत्यक्ष रूप में सामने आता रहा है। एक अच्छे और जुल्म के खिलाफ लड़ने वाले कानून की धज्जियां भी उड़ाई जाती रही है। तब लगता है कि ऐसे कानून भलाई कम, कठिनाईयां ही अधिक उत्पन्न कर रहे है।
आतंकी और नक्सली वारदातों पर मौन क्यों है कानून?
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ जैसे वेद वाक्यों पर चलने वाले भारत वर्ष में दोनों वेद वाक्यों की परिभाषा अथवा अर्थ को अनर्थ करने में मानवाधिकार कानून और उसके संरक्षकों ने प्रभावी भूमिका अदा की है। मानव गरिमा को अक्षुण्णता प्रदान करने अथवा बनाये रखना ही वास्तविक मानव अधिकार माना जाता है। हमारे देश में आतंकी गतिविधियों और नक्सलियों की वारदातों ने जो खून खराबा किया है, और लगातार उसी परिपाटी पर चल रहे है, उनके लिए मानव अधिकार का महत्व शून्य है। आश्चर्य तो तब होता है, जब हमारे अपने भाईयों की जान आतंकियों और नक्सलियों द्वारा ले ली जाती है और कानून आंख में पट्टी बांधे बैठा रहता है। दूसरी ओर जब हमारी देश की सरकार ऐसे ही हत्यारों पर कड़े निर्णय लेने बैठकें करती है तो मानव अधिकार आयोग में बैठे ऐसे लोग जिनकी आंखों पर पट्टी बंधी है, घोर अंधियारी रात में भी देखने लगते हैै। आतंकी और नक्सलियों के खिलाफ जवाबी कार्यवाही की उद्घोषणा भर इनकी कुंभकरणीय नींद तोड़ जाती है। मानव अधिकार के कानून ऐसी दशा में गला फाड़कर चिल्लाते हुए कहने लगते है कि यह मानवता के विपरीत है। मनुष्य ही मनुष्य की खून कैसे कर सकता है? नक्सलियों के ठिकानों पर गोली बारी भी इन्हें अंदर तक मानवता के प्रति जगा जाती है, किंतु उस समय कान और आंख दोनों ही विकल हो जाते है, जब आतंकी और नक्सली खून खराबे में मशगूल होते हैं।
कानून का बेजा लाभ भी लिया जा रहा
महिला का सम्मान भारतीय संस्कृति की मजबूत नींव मानी जाती है। कारण यह कि हमारे वेदों में भी कहा गया है कि ‘यत्र नारयस्ते पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवताः’ अर्थात जहां नारी की पूजा होता है, देवताओं का निवास भी वहीं होता है। हमारे देश में रोज महिलाजन्य अपराध हो रहे है। अपहरण से लेकर समाज को हिला देने वाले दृष्कृत्य भी सामान्य घटनाक्रम में शामिल होने लगे है, जब किसी महिला अथवा युवती के साथ ऐसे ही अपराध होते है, तो हमारे अंदर नारी अस्मिता और नारी सम्मान का भाव एकदम से जागृत हो उठता है। हम आंदोलन की राह पकड़ सड़कों पर उतर आते है, किंतु जब वही नारी घर के अंदर सताई जाती है, तो हम मुकबधिर बन जाते है। ऐसे ही मामलों में सिक्के का दूसरा पहलु भी काफी स्याह दिखाई पड़ता है। मानव अधिकार से लेकर अन्य प्रकार के कानून भी दुष्कृत्य के मामले में महिलाओं के पक्ष में खड़े दिखते है। एक नारी या युवती के साथ किया जाने वाला दुष्कृत्य का मामला गर्भावस्था तक गुपचुप तरीके से दबा रहता है, किंतु बात न बनने पर वहीं बाद में अपराध में तब्दील हो जाता है। सजा भुगतनी पड़ती है, दूसरे पक्ष अर्थात पुरूष वर्ग को। दोनों को समान रूप से आज तक दोषी करार नहीं दिया गया है। महिला अथवा युवती तो कभी अपराधी मानी ही नहीं गई। क्या इसे संरक्षात्मक कानून का बेजा लाभ नहीं माना जाना चाहिए? क्या उस युवती को यह समझ नहीं कि उसके साथ चोरी छिपे जो किया जा रहा है, वह कानून सम्मत नहीं? क्या वैसे गलत काम में संलिप्तता उसकी स्वीकृति का परिणाम नहीं? फिर मानव अधिकार कानून का डंडा एकतरफा वार क्यों कर रहा है?
कारावासों में दम तोड़ रहा मानव अधिकार कानून
मानवाधिकारों की बात करने वालों को अपनी एक नजर भारतवर्ष के कारावासों और वहां सजा काट रहे सजायाफ्ता लोगों की ओर भी उठाना चाहिए। 20 से 25 कैदियों की बैरक में जानवरों की तरह ठूंस ठूंस कर भरे गये कैदी नारकीय जीवन जीने विवश है। मानवाधिकार आयोग के पदाधिकारियों द्वारा निरीक्षण की जानकारी पहले से जेलर तक पहुंचा दी जाती है, ताकि वह आयोग के जवाबदार अधिकार के पहुंचने से पूर्व कैदियों को स्थानांतरित कर उचित व्यवस्था बना लें। मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष सहित अन्य पदाधिकारियों को जेलों का औचक निरीक्षण कर वस्तुस्थिति का दर्शन करने का प्रयास करना चाहिए। यह तो कैदियों के रहने की व्यवस्था पर उठाया गया सवाल है। जरा एक नजर उनकी खाने की थाली पर भी डाली जाए तो जानवरों से भी बदत्तर भोजन कैदियों की थाली में दिखाई पड़ेगा। आयोग की सदस्यता और पदों पर आसिन होने तक खुद को सीमित करने वाले समाज सेवियों की समाचार पत्रों तक उपदेश झाड़ने की आदत ने भी मानव अधिकार कानून पर से लोगों को विश्वास को खत्म कर दिया है। क्या जेलों की साफ सफाई, कैदियों के शौचालयों का बदत्तर स्थिति और उनके बीमारी पर जेलों में डॉक्टर्स का न होना मानव अधिकार आयोग का विषय नहीं है? आयोग के ऐसे सदस्य भी नजरों से ओझल नहीं है, जो स्वयं के घर में नौकरों का शोषण करने से बाज नहीं आ रहे है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले खुद अपने गिरेबां में झांके तो मानव अधिकार कानून सही राह पर लाया जा सकता है।
मानव अधिकार कानून को शिक्षा का अंग बनाने आज से लगभग 22 वर्ष पूर्व विएना (आस्ट्रिया) में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इससे पूर्व सन 1968 में भी ऐसे प्रयास किया गया था, किंतु अब तक मानवाधिकार कानून का पाठ्यक्रम तैयार कर शालाओं को उपलब्ध नहीं कराया जा सका है। हमारे देश में मानवाधिकार की स्थापना 1993 में हुई। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मानवाधिकार को एक विषय के रूप में शामिल करने के बावजूद हमारा स्कूल प्रशासन मंत्रालय अब तक मौन है। मानवाधिकार कानून का हनन रोकने और जागरूकता का प्रचार प्रसार ही स्थिति को नियंत्रण में ला सकता है। स्कूली पाठ्यक्रम में इसे अनिवार्य करने से मानवाधिकार कानून को समझने और समझाने में आसानी हो सकेगी। शोषणमुक्त समाज की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त किया जा सकता है।-
(डॉ∙ सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो∙ नंबर 94255-59291
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