श्री कृष्ण कुमार यादव भारतीय डाक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध लेखक, साहित्यकार, कवि, ब्लॉगर के रूप में भी पूरे देश मे...
श्री कृष्ण कुमार यादव भारतीय डाक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध लेखक, साहित्यकार, कवि, ब्लॉगर के रूप में भी पूरे देश में चर्चित हैं। देश-विदेश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं, ब्लॉग एवं तमाम चर्चित संकलनों में वे ससम्मान स्थान पाते हैं, सराहे जाते हैं और प्रशासन-साहित्य दोनों क्षेत्रों में उनकी अलहदा सुनहरी पहचान है। युवा अधिकारी की खुद्दारी है तो कविता-कानन की मोहक फुलवारी है। उनकी संवेदना, अनुभूति और सोच में सर्वत्र प्रगतिशीलता के लक्षण नजर आते हैं। 10 अगस्त, 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ.प्र.) में जन्मे श्री कृष्ण कुमार यादव इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में परास्नातक हैं और निदेशक डाक सेवाएं, इलाहाबाद परिक्षेत्र के पद पर पदस्थ हैं। उनकी अब तक कुल 7 .तियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं - 'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005) 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श' (निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), *India Post Glorious Years* (2006), 'क्रांति-यज्ञ 1857-1947 की गाथा' ( संपादित, 2007), 'जंगल में क्रिकेट' (बाल-गीत संग्रह-2012) एवं '16 आने 16 लोग' (निबन्ध संग्रह-2014)। सिर्फ विधाओं के स्तर पर ही नहीं 'कंटेट' के स्तर पर वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। आपके व्यक्तित्व-.तित्व पर भी एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर श्री कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित हो चुकी है। श्री कृष्ण कुमार यादव में ईमानदारी है, मुस्तैदी है, संयम है, संतुलन है, पारदर्शिता है, तो वहीं जीवन, समाज तथा देश के प्रति उनका चिंतन भी उतना ही सशक्त है। विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा विशिष्ट .तित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु आपको कई सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त है,
संपर्क : कृष्ण कुमार यादव
टाइप 5, निदेशक बंगला,
पोस्टल ऑफिसर्स कॉलोनी,
जेडीए सर्किल के निकट,
जोधपुर, (राज.)- 342001
ई-मेल : kkyadav.t@gmail.com
ब्लॉग http:/kkyadav.blogspot.in/
फ़ेसबुक https://www.facebook.com/krishnakumaryadav1977
इनमें उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा ''अवध सम्मान'', परिकल्पना समूह द्वारा ''दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगर दंपती'' सम्मान, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डॉक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ''महात्मा ज्योतिबा फुले फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान'' व ''डॉ. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान'', साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा "हिंदी भाषा भूषण", वैदिक क्रांति परिषद, देहरादून द्वारा ''श्रीमती सरस्वती सिंह जी सम्मान'', भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा ''प्यारे मोहन स्मृति सम्मान'', ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा "महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' सम्मान", राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ''भारती रत्न'', अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति मथुरा द्वारा ''कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान'', भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ द्वारा ''पं. बाल कृष्ण पाण्डेय पत्रकारिता सम्मान'', इत्यादि प्रमुख हैं। उनके परिवार में दो प्रतिभावान बेटियाँ और बहुमुखी प्रतिभा की धनी उनकी जीवन-संगिनी आकांक्षा यादव है। फिलहाल आप राजस्थान के जोधपुर में डाक अधीक्षक के पद को सुशोभित कर रहे हैं।
पिछले दिनों वे जब इलाहाबाद में तैनात थे तब मेरी उनसे मुलाकात हुई और कृष्ण कुमार यादव जी ने विभिन्न पहलुओं को लेकर बेबाकी से खुलकर अपनी बात रखी-
प्रश्न : आपने कब से लिखना प्रारम्भ किया और परिवार में कैसा माहौल था ?
कृष्ण कुमार यादव : साहित्य व लेखन में विद्यार्थी काल से ही मेरी अभिरुचि रही है। नवोदय विद्यालय, आजमगढ़ में अध्ययन के दौरान कक्षा आठ में वर्ष 1990 में मैंने अपने जीवन की प्रथम रचना लिखी थी, जिसका शीर्षक था-''हम नवोदय के बच्चे।'' इस कविता का मैंने प्रार्थना सभा के दौरान पाठ किया और गुरुजनों व सहपाठियों की वाह-वाही बटोरी। कक्षा 12 में अध्ययन के दौरान वर्ष 1994 में महादेवी वर्मा पर केन्द्रित एक आलेख जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर-आजमगढ़ की पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जो मेरी प्रथम गद्य रचना थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान तमाम चीजें मुझे उद्धेलित करती थीं, तब इन सब वैचारिक भावों को मैंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के 'पाठकों के पत्र' स्तम्भ में भेजना आरंभ किया। इनमें दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत जैसे समाचार पत्र तो इण्डिया टुडे और माया जैसी चर्चित पत्रिकाएं थीं। फिर तो कुछ न कुछ लिखने का सिलसिला ही चल पड़ा। चूंँकि मेरे पिता श्रीराम शिव मूर्ति यादव जी सामाजिक विषयों पर आरम्भ से ही लिखते रहे हैं। परिवार में तमाम पत्र-पत्रिकाएं किशोरावस्था से देखता व पढ़ता आ रहा हूँ। ऐसे में अध्ययन-लेखन के प्रति परिवार में सकारात्मक माहौल ही था।
प्रश्न : आपकी पहली रचना कब और कहांँ प्रकाशित हुई ? परिवार वालों का कितना सहयोग था और मित्रों की कैसी प्रतिक्रिया रही ?
कृष्ण कुमार यादव : यदि सक्रिय और गंभीर लेखन की बात करूँ तो यह सरकारी सेवा में आने के पश्चात ही आरंभ हुआ। कैरियर निर्माण के प्रति मन में व्याप्त भय जैसे-जैसे कम होता गया, वैसे-वैसे साहित्यिक रचनाधर्मिता भी बढ़ती गईं। प्रशिक्षण के दौरान विभिन्न प्रा.तिक, ऐतिहासिक, धार्मिक स्थलों पर प्रवास साहित्य-साधना व काव्य-बोध की .ष्टि से भी फायदेमंद रहा और इस दौरान मैंने तमाम रचनाएँ रचीं। भोपाल में प्रशिक्षण के दौरान वहाँ से प्रकाशित पत्रिका 'समरलोक' के लिये प्रथम लेख ''युवा भटकाव की स्थिति क्यों'' लिखा जो कि समरलोक के जनवरी-मार्च 2003 अंक में प्रकाशित हुआ। प्रशिक्षण के दौरान ही सर्वप्रथम मेरी कविता 'पागल कौन' और 'ये इन्सान' भी समर लोक के जुलाई-सितम्बर 2003 अंक में ही प्रकाशित हुई। परिवारजनों और मित्रों का इसमें भरपूर सहयोग और प्रोत्साहन मिला।
प्रश्न : लिखने की प्रेरणा आपको कहाँं से मिली ?
कृष्ण कुमार यादव : मैंने किशोरावस्था का अधिकतर समय हॉस्टल में बिताया। परिवार से दूर हमउम्र दोस्तों के साथ रहने के चलते वहाँ शुरू से ही अपनी जिम्मेदारियों का अहसास रहा, वहीं व्यवस्थागत विसंगतियों के विरूद्ध आक्रोश का स्वर भी। सच्चाई को बेलाग बोलना मेरे स्वभाव का अंग रहा। अपने आस-पास हो रही घटनाएं एंव सामाजिक परिवर्तन के दृश्य मुझे चकित ही नहीं बल्कि रोमांचित भी करते थे। पुस्तकालय में घंटों बैठकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं को उलटता-पलटता रहता। लोगों को पढ़ना अच्छा लगता था और कहीं न कहीं मन के अंतस कोने में यह भाव भी था मेरी भी रचना प्रकाशित होती। फिर क्या था लेखनी से भाव स्वतः निःसृत होते गये।
प्रश्न : आपको किस कवि या साहित्यकार ने प्रभावित किया ?
कृष्ण कुमार यादव : तमाम कवियों-साहित्यकारों को आरम्भ से पढ़ता आ रहा हूँ। पर किसी एक ने प्रभावित किया हो, ऐसा नहीं लगता। हर साहित्यकार-लेखक की अपनी अच्छाईयाँ-बुराईयाँ होती हैं, उनमें जो चीज आपको प्रभावित करे, उससे कुछ सीखकर आगे बढ़ने में विश्वास करता हूँ। हाल ही में प्रकाशित मेरी पुस्तक '16 आने 16 लोग' में ऐसे ही 16 साहित्यिक विभूतियों के कृतित्व को मैंने सहेजा है।
प्रश्न : आपकी कलम प्रायः सभी विधाओं में चली है। फिर भी आपकी प्रिय विधा कौन-सी है ?
कृष्ण कुमार यादव : फिलहाल तो मैं कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, हाइकु, व्यंग्य एवं बाल साहित्य इत्यादि तमाम विधाओं में निरंतर लिख रहा हूँ, पर इनमें कविता एवं विभिन्न साहित्यिक व समसामयिक गतिविधियों पर लेख लिखना मुझे बहुत प्रिय लगता है। चूँकि, अध्ययन का मेरा क्रम अभी भी बना हुआ है, अतः जब भी कोई चीज वैचारिक रूप में मुझे उद्वेलित करती है, अपने आप लेख लिखने के लिए प्रवृत्त हो जाता हूँ। अपने लेखों में मैं तथ्य और वैचारिकता, दोनों का समन्वय करने की कोशिश करता हूँ। यहाँ तक कि समय-समय पर उन्हें परिमार्जित भी करता रहता हूँ।
प्रश्न : आज हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श जोर-शोर से चल रहा है। इस पर आपका क्या मत है ?
कृष्ण कुमार यादव : एक आदर्श के तौर पर कहा जाये तो लेखन में इस प्रकार की कोई विभाजक रेखा नहीं होनी चाहिए। परन्तु एक लम्बे समय तक लेखन के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है, जो समाज की व्याख्या अपने नजरिये से करते हैं। इस यथास्थितिवादी विमर्श के समांतर ही 'नारी विमर्श' खड़ा हुआ, जिसमें सामाजिक धरातल के खुरदुरे यथार्थ के बीच नारी के मन की गहरी संवेदना प्रस्फुटित होती हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष, नारी विमर्श पर लेखन नहीं कर सकता, पर उनकी स्वयं की स्वानुभूति उन्हें एक अलग पहचान देती है।
कई बार साहित्यकार नारी विमर्श को छोटे-छोटे विमर्शों की आड़ में केन्द्रीय विमर्श से भटकाव की संज्ञा देते हैं एवं इसके लिए भोगे हुए यथार्थ को जरूरी नहीं मानते पर यथास्थितिवादी विमर्श के कायल ये साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि मात्र दया और सहानुभूति दिखाकर नारी के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। भोगे हुए अनुभवों की प्रमाणिकता नारी विमर्श को जीवंत बनाती है। स्त्री के मजबूरी बने अंतरंग क्षणों को पन्नों पर अपनी कल्पनाओं का रंग देकर उसमें कुछ आधुनिकता व उत्तर आधुनिकता का 'देह विमर्श' का रंग भरकर नारीवादी लेखन का मुलम्मा भरने वाले पुरुषों के विरूद्ध 'नारी विमर्श' की आड़ में महिला साहित्यकार इसलिए आगे आ रहीं हैं, ताकि नारी को एक 'वस्तु' के रूप में पेश न किया जाये।
प्रश्न : आजकल अधिकतर प्रशासनिक अधिकारी समयाभाव की बात कहते हैं, ऐसे में डाक विभाग के निदेशक जैसे उच्च पद पर रहते हुए अपने व्यस्ततम समय में आप साहित्य व लेखन के प्रति तादात्मय कैसे स्थापित कर लेते हैं ?
कृष्ण कुमार यादव : जैसा मैंने कहा कि साहित्य व लेखन में विद्यार्थी काल से ही मेरी अभिरुचि रही है और साहित्य मेरे लिये कार्य नहीं वरन् जीवन का एक अभिन्न अंग है। सामान्यतः लोग नौकरशाहों को असंवेदनशील समझते हैं, पर एक उच्च पद पर रहने के कारण समाज के बारे में हमारे सरोकारों में और भी वृद्धि हो जाती है। समाज के तमाम क्षेत्रों से हमें अच्छे-बुरे जो अनुभव प्राप्त होते हैं, वे अंततः प्रक्रियागत रूप में लेखनी को धारदार शक्ति देते हैं। कई बार ऐसी बातें होती हैं, जो दिल में उतर जाती हैं, चैन से नहीं बैठने देती, उद्वेलित करती हैं। ऐसे में आज जीवन की आपाधापी और मूल्यों में गिरावट के दौर में साहित्य सही राह सुझाता है और सुकून भी देता है। मेरे लिए साहित्य और लेखन महज एक शौक नहीं है, बल्कि समाज के प्रति एक जिम्मेदारी भी है।
प्रश्न : समाज में साहित्य की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?
कृष्ण कुमार यादव : साहित्य अभिव्यक्तियों का सिर्फ एक माध्यम भर नहीं है, बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति भी इसकी भूमिका और कर्त्तव्य है। साहित्य किसी निर्वात में कार्य नहीं करता अपितु इसमें लोकजीवन के प्रति सर्मपण भाव और उत्तरदायित्व का प्रवाह भी होता है। इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। अच्छा साहित्य समाज को सही राह दिखा सकता है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में तमाम ऐसी साहित्यिक रचनायें सामने आयीं, जिन्होंने लोगों को आन्दोलन की ओर न सिर्फ प्रवृत्त किया बल्कि जन-जागरण भी किया। सामाजिक बुराईयों को मिटाने में भी साहित्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यह अनायास ही नहीं है कि अधिकतर आन्दोलनों के नेतृत्त्वकर्त्ता अच्छे लेखक या साहित्यकार रहे हैं। कोई भी रचना अपने समय और समाज की उपेक्षा कर प्राणवान नहीं हो सकती।
प्रश्न : आपने अनुभवजन्य लेखन को तरजीह दिया है तो क्या वह ज्यादा मुकम्मल हो सकता है ?
कृष्ण कुमार यादव : साहित्य जीवन की चुनौतियों, अनुभवों व परिवेश से ही जन्मता है। संवदेनशील लेखक जब अपने परिवेश, समाज की तथ्यगत स्थितियों, विसंगतियों के अनुभव को समेटते हुये साहित्य-सृजन करता है, वह प्रभावी व दीर्घकालिक होती है। ऐसा साहित्य, समग्र समाज का दस्तावेज होता है। मेरे लिए लेखन लोगों को समझने, उनसे संवाद करने और तद्नुसार सृजनात्मकता को धार देने का माध्यम है। नित्य प्रतिदिन की दिनचर्या में हम कई ऐसे सवालों से टकराते हैं, और उनको लेकर मंथन भी चलता रहता है, जो अंततः पन्नों पर उतरकर साहित्य में तब्दील होता है। कई बार घर-परिवेश में ही कुछेक चीजें घटित हुई होती है और मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं। वक्त के साथ वो कहीं न कहीं रचना प्रक्रिया को जीवंत बनाती हैं। सरकारी सेवा में आने के बाद यहाँ के अन्तर्विरोधों को मैंने नजदीक से देखा है और इन पर तमाम कविताएं, कहानी व लघुकथाएं इत्यादि रची हैं। मेरी कई कहानियों के पात्र मेरे आस-पास ही मौजूद हैं। ऐसे में यही कहना उचित होगा कि अनुभवजन्य लेखन ज्यादा मुकम्मल होता है।
प्रश्न : आप लंबे समय से हिन्दी ब्लाँिगंग से भी जुड़े हुये हैं। इस पर लेखन के संबंध में कैसा अनुभव रहा ?
कृष्ण कुमार यादव : मैंने वर्ष 2008 में हिंदी ब्लॉगिंग में पदार्पण किया। उस समय तक मैं तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रहा था। अपनी अभिव्यक्तियों को विस्तार देने के क्रम में एक नए माध्यम के रूप में ब्लॉगिंग की तरफ उन्मुख हुआ। जहाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन की अपनी सीमाएं और बंदिशें हैं, वहीं ब्लॉग अपनी भावनाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाओं को खुलकर कहने-लिखने का अवसर देता है। इसके अलावा ब्लॉगिंग से जुड़कर एक नया पाठक वर्ग भी मिला और बहुत कुछ नया सीखने का मौका भी। ब्लॉगिंग मुझे इसलिए भी भाया कि यहाँ अपनी रचनाओं और अभिव्यक्तियों को सहेज कर रखा जा सकता है, वहीं अन्य लोग जब चाहें-जैसे चाहें, इसे पढ़ सकते हैं। फिलहाल अपने ब्लॉग 'शब्द सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' के माध्यम से यहाँ मैं सक्रिय हूँ।
प्रश्न : आपके साथ-साथ आपकी जीवन-संगिनी आकांक्षा जी भी साहित्य-सृजन में सक्रिय है। ऐसे में पारिवारिक दायित्व के संवहन में सरकारी कामकाज तथा साहित्य लेखन कभी बाधक नहीं होता ?
कृष्ण कुमार यादव : हम अपने जीवन में कई भूमिकाएं निभाते हैं, पर इनमें एक संतुलन होना बेहद जरूरी है। बिना परिवार के समर्थन के साहित्य लेखन तो मेरे लिए कठिन कार्य है। यहाँ मुझे पाश्चात्य विचारक फ्रैंज स्कूबर्ट के शब्द याद आ रहे हैं, ''जिसने सच्चा दोस्त पा लिया, वह सुखी है। लेकिन उससे भी सुखी वह है जिसने अपनी पत्नी में सच्चा मित्र पा लिया है।'' इस रूप में आकांक्षा सिर्फ मेरी जीवन संगिनी नहीं, साहित्य-संगिनी भी हैं। शायद तभी मेरी निगाहों ने इन्हें पहली नजर में पंसद कर लिया था। अपनी प्रशासनिक व्यस्तताओं के बीच यदि मैं निरंतर सृजन-कर्म से जुड़ा हूँ तो इसके पीछे इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक साथ बैठकर साहित्य-सृजन का जो सुख हम उपभोग करते हैं, वह वाकई आनंददायी होता है। कई बार यह सम्मिलन इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि विचार किसी के मन में उभरे और मूर्त्त रूप किसी ने दिया। एक तरफ विविध आयामों के साथ जीवन की सुखद अनुभूतियाँ हैं तो दूसरी तरफ जीवन की जद्दोजहद और विसंगतियाँ भी हैं। इन सबको एक साथ भोगना और उसमें भी रचनात्मकता का पुट ढूूँढ़ लेना अच्छा लगता है और यही जीवन की सार्थकता है।
प्रश्न : आज हर जगह बेटियों के साथ बलात्कार के मामले प्रकाश में आ रहे हैं ? उनकी इस दशा पर आप क्या कहना चाहेंगे ?
कृष्ण कुमार यादव : यह बेहद घृणित एवं कुत्सित मानसिकता का प्रतीक है। समाज में एक लम्बे समय से बेटियों के प्रति दोयम व्यवहार की विसंगति रही है। पर वक्त के साथ समाज की भी सोच में बदलाव आया है और अब बेटियाँ नित-नये प्रतिमान स्थापित कर रही हैं। जहाँ तक बलात्कार की बात है, तो बेटियां ही नहीं, अधिक उम्र की महिलाएं भी इसका शिकार हो रही हैं। समाज में स्त्री को तो छोड़िये, बालकों के साथ भी दुष्कर्म की खबरें सुनने को मिलती है। यह एक मानसिक बीमारी का प्रतीक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि आज बेटियाँ सुरक्षित और शिक्षित रहेंगी, तभी आने वाली पीढ़ियाँ विकसित हो सकेंगी।
प्रश्न : आज की दूषित, भ्रष्ट राजनीति पर आपके क्या विचार हैं ?
कृष्ण कुमार यादव : राजनीति अपने आप में भ्रष्ट या दूषित नहीं होती बल्कि चन्द लोग इसे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ऐसा बनाते हैं। भारतीय राजनीति का यह दुर्भाग्य है कि इसमें युवा अपना कैरियर नहीं बनाना चाहते। प्रतिभाशाली विद्यार्थी मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट से लेकर सिविल सेवाओं की तरफ ही आकर्षित होते है, ऐसे में राजनीति में प्रायः छँटे-छँटाये लोग आते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर श्री आलोक पंत जी अक्सर एक जुमला दोहराया करते थे-''क्लास में आगे की सीटों पर बैठने वाले विद्यार्थी आई.ए.एस. बनने के इच्छुक होते है और नतीजन पिछली सीट वालों के लिए राजनीति का मैदान खुला छोड़ देते हैं। एक दौर ऐसा आता है जब यही पिछली सीट वाले अगली सीट वालों पर रूल करते हैं।'' ऐसे में राजनीति को यदि भ्रष्ट व दूषित होने से बचाना है तो अच्छे लोगों को जनप्रतिनिधि रूप में चुनना होगा और शिक्षित वर्ग को ड्राईंग रूम में व सोशल मीडिया पर राजनीति को कोसने के बजाय स्वयं राजनीति में घुसकर इसे साफ करना होगा।
प्रश्न : आप भारत सरकार में निदेशक डाक सेवाएं जैसे अहम पद पर आसीन हैं और हिन्दी की सभी समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे हैं ? इस नजरिए से आप अपने आपको क्या कहलाना पसंद करेंगे ?
कृष्ण कुमार यादव : मैं पद से परे हमेशा एक अच्छे व संवेदनशील इंसान के रूप में पहचाना जाना चाहूँगा।
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प्रस्तुति- उमेश चन्द्र सिरसवारी
(एम. ए. हिन्दी, संस्कृत, हिन्दी नेट जेआरएफ, एसआरएफ)
शोधार्थी, हिन्दी-विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़ उ.प्र.
स्थायी पता- ग्रा. आटा, पो. मौलागढ़,
तह. चन्दौसी, जि. सम्भल (उ.प्र.)-244412
मो. 09720899620, 08171510093
umeshchandra.261@gmail.com
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