1 मौन के दरवाजे पर सब आक्षेप आलोचनाएँ तर्क और कुतर्क जुमले और चुटकुले यात्रायें और ठहराव आंदोलन और प्रदर्शन अपना अपना सर पटकते है शायद मौन...
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मौन के दरवाजे पर
सब आक्षेप
आलोचनाएँ
तर्क और कुतर्क
जुमले और चुटकुले
यात्रायें और ठहराव
आंदोलन और प्रदर्शन
अपना अपना सर पटकते है
शायद मौन की भाषा में भी
जिद का सांकल लगा होता है।
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उत्सव के दिनों में
तुम अपनी कोशिशें जारी रखो
और हम अपनी
तुम जितनी लकीरें खींचोगे
और अपने स्वार्थ की कट्टरता से डालोगे दरारें
हम उतने ही उत्सव बचपन की तरह मनाएंगें
समय की मांग भी यही है कि एक जुट होना होगा
उत्सव प्रेमियों को कि धर्म को कीचड़ न बनने दिया जाये
सद्भावनाएँ दो चार या कुछ सैकड़े पन्नों में नहीं सिमटीं
ये तो सदियों से उस भाषा में गाई जाती रही है
जिसके साथ सरस्वती की वीणा और मर्दाने की रबाब
सूफ़ियों की मस्ती तानसेन का राग कानों में शहद की तरह घुलता रहा है
ये तुम्हारे गढ़े हुए मठों से संचालित नहीं होती
और जब भी हुई है लोगों ने खोया है गंवाया है
अपने ही हाथों से सजाये हुए अपनी उम्मीद के सपनों को
और तुम्हें हर बार अपनी ओछी सफलता का भरम हुआ है
पर जुनून और प्रेम में यही अंतर है
एक पानी के बुलबुले सा है और दूसरा शाश्वत
तभी हम हर बार दुबारा दूब की तरह लहराए हैं
भाईचारे के पवित्र जल की बूंदों में स्वयं को डुबा कर
पुनः छींटा देकर वापस साथ साथ सटे अपने
पुकारते घरों में लौट आये है आश्वस्त
कि हर विकार और बुरी दृष्टि को मिटा सके
कट्टरता के दुष्चक्र को तोड़कर रोशन करे
आशाओं और प्रेम के खूबसूरत दीये
तुम अपनी कोशिशें जारी रखो
और हम अपनी।
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अंधी पीसे कुत्ता खाए
अवसर देख पुरस्कार लौटाए
किसान सड़क पर युवा नशे में
वर्षो से रोज लाठी है खाए
कितने मरे कितने ही जल गए
बीच सड़क पर गोली खाय
नहीं दिखे इनको पहले जब
राग दरबार का रहे दुहराय
आँख के अंधे कान के पूरे
अपना अपना नाच नचाय
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दिल ढूंढता है फिर वही.........
रामलीला के दिनों की रातें बड़ी अच्छी थी
बाबा हजार बाग़ लखनऊ में हुआ करती थी
एक खेत जिसमे गोभी बोई जाती थी
और बिलकुल पास ही खेत के किसान मतौड़ी की झोपडी
लालटेन के बगैर मंच की रौशनी में नहा जाती थी
मूंगफली के ठेले पर लगी भीड़ का बचपन कई बार
खट्टे मीठे चूरन वाले के पास जुट जाता
हाथ में चवन्नी और बिना किसी भय के विचरण
उन दिनों की बड़ी नियामतें हुआ करती थी
बाग़ का माली पात्रों के चेहरों पर चेहरे सजाता
सुंगंधित पान खाते हुए राम से लेकर रावण बनाता
बच्चे चिरौरी करते हर पात्र के अभिनय को लेकर
रूठो को मनाने का विकल्प राम रावण सेना में मिलता
दशहरे तक हर दिन उत्सव जैसा होता
रामलीला खत्म तो घंटे बाद सारी रात चलती नौटंकी
लोक कथाओं और सत्यवादी हरिश्चंद्र की गाथा
नगाड़ा,ढोलक और हारमोनियम से सजे संवाद
रंग बिरंगे परिधानों से सजे नायक ,विदूषक
रुलाते हँसाते आम जन का मन परचाते
ब्रह्म मुहूर्त तक सारे सवांदों को गाते सजाते
सब धरोहर की तरह मन में रचे बसे है
अब इस विकसित युग में प्रश्न कचोटता
क्या होगा नयी पीढ़ी के पास सिवाय हत्याओं
बलात्कारों और लूट तंत्र की आस्तिक कथाओं के ।
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हामिद ,गोबर ,सिलिया ,घीसू ,माधव और जबरा
आज भी पूस की रात के फैले अन्धकार में
क्रांति का अलाव जलाने के लिए प्रयासरत है
प्रेमचंद का नमक का दरोगा किडनैप कर लिया गया है
पंच परमेश्वर की पांचों उंगलिया टेढ़ी हो चुकी है
मिर्जा साहेब ने चौराहे पर पान की दुकान खोल ली है
होरी अब भी दबे पैरो के नीचे उन्हें सहलाकर
अपना पिंड छुड़ाने की जुगत में है
इस बात को लगभग 135 साल हो चुके है आज
चिंतन और जप हर वर्ष हो रहा है।
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बुद्धिजीवियों ने किताबों के झोंपड़े सजाये
ताकि लेखन की सतही मर्यादा बनी रहे
सारी विद्वता और नैतिकताओं को जंगल के एकांत में सजा दिया
बाकी बच गए वस्तु बने आदमी के बाज़ार में
स्वार्थों के मीनार सजाये
अपने अहम की मोमबत्तियों से खूब रौशनी की
दरबार के मुताबिक हर राग अलापा
सभ्यता को मानवता की हर ग़लतफहमी से नाप डाला
बीट कवितायें गढ़ी और धर्म अर्थ काम के हित में
बदल डाली सारी परिभाषायें जो मोक्ष को केवल बांटती रही
कुछ के लिए मौज और बहुतों के लिए एक चुप सी मौत में।
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बीच बाजार कोई लूट लिया गया है
पीट दिया गया है
कुचल दिया गया है
ये सब समाचारों की भूमिका बनते है
लोग बाग़ इन्हें पहनते ओढ़ते जरा सी आह भरते
अपने अपने काम की चादर ओढ़ लेते है
शाम को रोजाना लौट आते है घर
कुछ तथाकथित संवेदनायें लिए
दिल बहलाने और ध्यान बंटाने के लिए
उनके पास है खूबसूरत टी वी एंकर
घर की शाश्वत मांगो वाली आदेश देती डिमांड लिस्ट
शाम को पढ़ी जाने वाली ईश्वरीय प्रार्थनाएं
छुपा कर रखी गयी सिगरेट और शराब
रात के अँधेरे में थकी हुयी कुछ उत्तेजनाएं
और पढ़ी जा चुकी कुछ चुनिंदा किताबें
या दोस्तों के साथ एक सामाजिक बहस के बाद
पुराने अश्लील चुटकुलों पर बनावटी ठहाके
अब आदमी दिन ऐसे ही बिताया करता हैं
समाचारों का आवागमन जारी है ।
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अफवाहों के खतरे उठाने ही होगें
भड़कने भड़काने के तमाम गढ़
ध्वस्त करने होंगे
वरना मार दिए जाओगे
जैसे भगदड़ मार देती है
भीड़ का हिस्सा बनी
हर अंध श्रद्धा को ।
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सबसे पहले तुम्हारे अपने (जो वास्तव में शायद हो )
बदलते समय में अपने देवता बदल लेंगे
तुम बड़े चुपचाप ढंग से
एक घटना हो जाओगे
बहुत कुछ कर पाने का दुःस्वप्न ही
लील जायेगा सारी नैतिकताओं की सम्भावना
सत्ता के आसन ऐसे ही जमाये जाते है।
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घर और प्रेम के मध्य
एक पतली रेखा खिंची हैं
गुप्त शिकारियों के प्रति
हर समय चौकन्नापन और
भीतरी भय की हर आवाज को
निर्भयता के सौंदर्य से सजाए रखना
अब रंग ऐसे ही खिलते हैं ।
- हरीश कुमार
बरनाला ,पंजाब
9463839801
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