मेरी कविता कविता है मेरी चिर अनंत ढूँढ़ो ना इसका आदि-अंत। हर अंकुर में छिपी हुई यह आकाश भूमि पर विद्यमान। यह तो गूँजेगी बार-बार आय...
मेरी कविता
कविता है मेरी चिर अनंत
ढूँढ़ो ना इसका आदि-अंत।
हर अंकुर में छिपी हुई यह
आकाश भूमि पर विद्यमान।
यह तो गूँजेगी बार-बार
आयेगा जब भी मधु बसंत।
कविता है मेरी चिर अनंत
ढूँढ़ो ना इसका आदि-अंत।
हर यौवन की यह है पुकार
हर जीवन का है छिपा सार।
होगी मुखरित अंतर्मन से
आयेगा ज्यौं ही निकट कंत।
कविता है मेरी चिर अनंत
ढूँढ़ो ना इसका आदि अंत।
युवती के दिल में सहज ठहर
माँ के आँचल से गई सवर।
बालक की कोमल सी पुकार
हर दिन को करती है सुखांत।
कविता है मेरी चिर अनंत
ढूँढ़ो ना इसका आदि अंत।
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गाँधी के झंडे के नीचे
गाँधी के झंडे के नीचे
पलते भ्रष्टाचार हैं।
जनता सारी मूक हो गई
कर्णधार लाचार हैं।
मजबूरी इतनी गहरी है
अपनों ही से हार गए।
लीपा-पोती की बहुतेरी
खुल सारे व्यापार गए।
झुका शर्म से शीश हमारा
जीभ हुई बेकार है।
गाँधी के झंडे के नीचे
पलते भ्रष्टाचार हैं।
जनता सारी मूक हो गई
कर्णधार लाचार हैं।
इस कुर्सी की खातिर हमने
देखो क्या-क्या झेल लिया।
आतंकी काला बाजारी
लूट-पाट से मेल किया।
यहाँ बेबसी वहाँ बेबसी
प्रजातन्त्र की हार है।
गाँधी के झंडे के नीचे
पलते भ्रष्टाचार हैं।
जनता सारी मूक हो गई
कर्णधार लाचार हैं।
सत्ता में बैठे वो देखो
घोटालों को घोट रहे।
दोष नहीं है उनका कोई
बार-बार यह बोल रहे।
देश चलेगा ऐसे ही अब
उनके यही विचार हैं।
गाँधी के झंडे के नीचे
पलते भ्रष्टाचार हैं।
जनता है अब खड़ी हो गई
कर्णधार लाचार हैं।
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सरेआम
घर की न सोच पाये
बाहर की सोच लेते।
मजबूर ही अगर थे
अय बादशाह अपने।
दिल में ही उसको रखते
सरेआम तो न कहते।
मजबूर यदि तुम हो
बुधिया क्या करेगा?
फरियाद अपनी लेकर
किस ठौर को चलेगा?
थे धोती कुर्ता वाले
बालिश्त भर की टोपी।
दुश्मन से लड़ गए वे
मजबूर न हुए थे।
यह लोकतंत्र अपना
सबसे बड़ा जहाँ में।
कैसे यह चलेगा?
इस पर भी बोल देते।
सियासत में क्यों फँसे हो?
उम्र सन्यास की तुम्हारी।
मजबूरी कुर्सी की है
त्यागपत्र की नहीं है।
उम्मीदों को बचा लो
पगड़ी जरा सम्भालो।
अपनी बचा न पाये
पंजाब की बचा लो।
ये मीडिया की नजरें
देखती हैं तुमको।
घर की न सोच पाये
बाहर की सोच लेते।
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पेंशन
झाड़ती-बुहारती, सहेजती-संवारती,
काढ़ती-बुनती, सींती-पिरोती,
छानती-बीनती, कूटती-पीसती,
गूंथती-माँडती, छौंकती-भूनती,
माँ
बूढ़ी हो गई एक दिन।
बेटा इंजीनियर बना,
इंजीनियर लड़की से शादी हो गई।
बेटी डॉक्टर बनी,
डॉक्टर से ब्याही गई।
पति सरकारी दफ्तर से रिटायर हुए
पेंशन पा गए।
माँ के पास कोई प्रमाण-पत्र न था।
उसका कोई कार्य-अनुभव न था।
उसका कोई कार्य-विवरण भी न था।
वह केवल
जवान से बूढ़ी हुई थी।
उसने किसी वेतनमान में
कार्य नहीं किया था।
तब वह पेंशन कैसे पाती?
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ओ बीज
इसके पहले कि तुम उगो
ओ बीज, मैंने तुम्हें मिट्टी से ढाँपा था।
साथ रोपे थे
अपनी उम्मीदों के बीज।
मेरे मन ने दिया था मुझे
एक ऐसा प्रलोभन
कि तुम उगोगे, फैलोगे
और छा जाओगे मेरे आँगन में।
मैं निरंतर तुम्हें सींचते हुए
देखूंगी हर दिन बढ़ते,
फूलते और फलते।
मैं तुम्हें सहेजूंगी
तुम्हारा अंश पोषित करेगा
मेरी आने वाली पीढ़ियों को।
आह, मगर मैं तुम्हें रोपते और ढाँपते हुये
जान नहीं पाई,
तुम तो वंशहीन हो।
तुम उगोगे, फूलोगे और फलोगे
मात्र पेट भरने के लिये।
तुम्हारा सहेजा जाना
पुनः फल नहीं दे सकेगा मेरी सन्तानों को।
इसके पहले कि तुम उगो
ए बीज मुझे बताओ-
अपनी भूखी सन्तानों को
रोपने और ढाँपने को
मैं क्या दे सकूँगी?
ए बीज तुमने बीज होकर भी
अपना बीजत्व क्यों खो दिया?
कुछ तो कहो
शायद तुम्हारी दर्द दास्ताँ ही
मेरी सन्तानों की
मुक्ति का मार्ग खोल दे।
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तुम क्या जानो?
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
खुले गगन में तारे गिनना,
बड़े-बड़े तारों को चुनना।
तरह-तरह के सपने बुनना,
सपनों ही में खोते जाना।
बड़े थाल सा चमके चंदा,
बदली में उसका गुम जाना।
लुका-छिपी का खेल खेलना,
नये नाप में हर दिन आना।
सुबह हुई चंदा खो जाना,
नदी पार सूरज उग आना।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
बैठ छाँव में बादल तकना,
बादल का बदली रह जाना।
नन्हें टुकड़ों में बँट जाना,
नई-नई आकृतियाँ गढ़ना।
बादल के छोटे टुकड़ों का,
थके पथिक की छाया करना।
छाते जैसा उस पर तनना,
दूर राह उसको पहुँचाना।
चलते-चलते यूँ सुस्ताना,
बीच राह अमियों का खाना।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
रस्ता पगडंडी का चलना,
पौधों से गलबहियाँ मिलना।
अगल-बगल लहलाती फसलें,
हँसती खिलती कलियाँ उनमें।
उगते नन्हें उन अंकुरों का,
धीरे से पौधे बन जाना।
वहीं फुकती नन्हीं चिड़िया,
देख मुझे फुर्रर से उड़ जाना।
बड़े मोर का नाच देखना,
औ कोयल का गीत सुनाना।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
सुख कितना गहरा देता है,
खुले हुए अँगना का होना।
चाहे जैसे पसरो बैठो,
धूम सुबह की जी भर लेटो।
आड़ी टेढ़ी खींच लकीरें,
उछल-कूद कर खेल खेलना।
अम्मा के खर्राटों से बच,
अंगना में गिट्टु का चुनना।
दादी के गीतों का सुनना,
गुड़िया के टोपे का बुनना।
हर दिन उसका ब्याह रचाना,
गुड्डे के संग विदा कराना।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
सावन के झूले का डलना,
होली के फोगों का सुनना।
डाली से फूलों का चुनना,
तितली जैसी दौड़ लगाना।
सखियों के संग धना-चौकड़ी,
कभी रुठना कभी हँसाना।
किस्सा सात रानियों वाला,
कई दिनों तक चलते रहना।
सुनना नानी के घर जाकर,
दूध-मलाई, रबड़ी खाना।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की ये अजब कहानी।
तुमने तो देखा है कमरा,
देखी है फ्लैटों की दुनियाँ।
बंद कमरे में टी.वी. देखा,
सीखा है कम्प्यूटर तुमने।
भरी भीड़ में धक्का देकर,
खुद आगे बढ़ना सीखा है।
मोटर के पीछे हो दौड़ी,
बहु मंजिल चढ़ना सीखा है।
मोटा चश्मा लगा नाक पर,
बस पुस्तक पढ़ना सीखा है।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
गिरते को दे हाथ सहारा,
बीच सड़क से पार लगाना।
दादी की मंदिर की डलिया,
हौले से उन तक पहुँचाना।
बाबा के चश्में से तुमने,
देखी नहीं बड़ी आकृतियाँ।
अरे नहीं देखा है तुमने,
ताऊ जी का छड़ी घुमाना।
डाँट अगर मुझको दे भाई,
दादा का उस पर गुर्राना।
बिटिया रानी तुम क्या जानो,
बचपन की वे अजब कहानी।
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बाँटना सब लम्हें खुशी के
बाँटना सब लम्हे खुशी के
दर्द को रखना छिपाकर।
दर्द ही है
जो तेरी
तन्हाइयों में
साथ देगा।
इन्सान जीना चाहता बस
सुखद जीवन ही हमेशा।
है मगर क्षण मात्र
रंगीन दुनियाँ
भ्रम है केवल।
है निरंतर,
है अटल जो
दर्द से ही जन्मता है।
है मधुरता उन क्षणों में
कष्ट सहकर जो मिले हैं।
छोड़ देंगे जब तुझे
स्वप्न ये सारे सजीले।
दर्द हर क्षण साथ होगा
दर्द से जीवन मिलेगा।
बाँटना सब लम्हें खुशी के
दर्द को रखना छिपाकर।
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गाज गिरती है
चारों ओर गाज गिरती है,
बिजली नहीं चमकती है।
जिसे देख द्रवित हों कवि,
बदली नहीं वह उठती है।
शरशैय्या पर भीष्म पितामह,
बाट जोहते उत्तरायण की।
पल में प्राण निकल जाता अब है,
इच्छित मौत नहीं मिलती है।
भौतिक सुख से घिरा है मानव
प्राकृतिक दृश्य अलभ्य हो रहे।
उषा की लालिमा किधर है
इसकी पहचान नहीं मिलती है।
बचपन बौना होता जाता
पलक झपकते यौवन आता।
माँ की गोदी में माखन खा लें
इतनी फुरसत नहीं मिलती है।
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बिगड़ी बात
समय गुजर जाता है लेकिन,
बिगड़ी बात नहीं बनती है।
ऐसी एक आँधी आई जो,
उड़ा ले गई कितने साये।
लाख ढाप दो हमदर्दी से,
उजड़ी बस्ती कब बसती है?
समय गुजर जाता है लेकिन,
बिगड़ी बात नहीं बनती है।
मिटा दिया कुलदीपक जिसका,
अश्रुपूर्ण हो गया सबेरा।
चाहें लाख यत्न कर लो तुम,
दिल से आह नहीं मिटती है।
समय गुजर जाता है लेकिन,
बिगड़ी बात नहीं बनती है।
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जलधारा
मैं बहती स्वछंद जलधारा हूँ,
तुम तटस्थ किनारा हो।
छू भर लो मुझे बस,
बढ़ने का प्रयास न करना।
ढह जाओगे, बह जाओगे,
बिछड़ जाओगे अपनों से,
अस्तित्व भी न रहेगा तुम्हारा।
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दो बर्र
पिछले दो दिनों से
मेरी खिड़की के शीशे में
फँसे दो बर्र
आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं।
अन्तर्मन ने कई बार
प्रेरित किया
कि मैं उन्हें आजाद कर दूँ।
परन्तु बचपन में गहरे बैठे
भय ने रोक दिया।
मैं दिन में तीन-चार बार
उनकी जंग देखती हूँ।
उनका क्रोधित स्वर
मुझे परेशान करता है।
मुझे उनकी नादानी पर
तरस आता है-
आखिर इतने लम्बे समय से
ये शीशे की ओर ही
क्यों सिर पटक रहे हैं
कमरे का रास्ता
क्यों नहीं अपनाते।
ये पाठशाला नहीं गए हैं
इसीसे जीने के
कृत्रिम तरीकों को नहीं सीखा है।
ये मात्र अंधेरे और उजाले के
अर्थ समझते हैं
तभी तो बार-बार
उजाले की ओर सिर पटकते हैं।
न, न, ऐसा नहीं है
मैं ही नादान हूँ
जो अंधेरे और उजाले के
अर्थ नहीं समझ पाई।
ये मूक पतंग
इन अर्थों को
बखूबी समझते हैं-
उजाला ही तो आजादी है
कैद का सही अर्थ
अंधेरा ही तो है।
............
सभ्य हो रहे हम!
किस कद्र सभ्य हो रहे हम!
जानते हैं, हैं कई घुसपैठिये
तार-तार कर रहे जमीर को
जानकर भी आज सब
मौन हो रहे हम।
किस कद्र सभ्य हो रहे हम!
जानते हैं मानते हैं डिग गए ईमान से
कदम अपने बढ़ रहे हैं
खुदकुशी की राह पर।
हार को भी जीत की
झूठी दिलासाओं से ढक रहे हम।
किस कद्र सभ्य हो रहे हम!
सामने हैं दृश्य घृणित दीखते
हादसे कितने गुजरते हैं मगर
आँख खोलकर भी आज
क्यों सो रहे हम?
किस कद्र सभ्य हो रहे हम!
सभ्य का पर्याय मौन बन रहा
देखले, समझे, सुने और चुप रहें
आज ऐसा ही चरित्र चाहिये
सभ्य होने की आड़ में कितनी ही
अनहोनियों को ढो रहे हम।
इस कद्र सभ्य हो रहे हम।
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अपर्णा शर्मा
डॉ0 (श्रीमती) अपर्णा शर्मा ने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय (मेरठ विश्वविद्यालय), मेरठ से एम.फिल. की उपाधि 1984 में, तत्पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि 1991 में प्राप्त की। आप निरंतर लेखन कार्य में रत् हैं। डॉ0 शर्मा की एक शोध पुस्तक - भारतीय संवतों का इतिहास (1994), एक कहानी संग्रह खो गया गाँव (2010), एक कविता संग्रह जलधारा बहती रहे (2014), एक बाल उपन्यास चतुर राजकुमार (2014), तीन बाल कविता संग्रह, एक बाल लोक कथा संग्रह आदि दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साथ ही इनके शोध पत्र, पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं, कहानियाँ, लोक कथाएं एवं समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी बाल कविताओं, परिचर्चाओं एवं वार्ताओं का प्रसारण आकाशवाणी, इलाहाबाद एवं इलाहाबाद दूरदर्शन से हुआ है। साथ ही कवि सम्मेलनों व काव्यगोष्ठियों में भागीदारी बनी रही है।
शिक्षा- एम0 ए0 (प्राचीन इतिहास व हिंदी), बी0 एड0, एम0 फिल0 (इतिहास), पी-एच0 डी0 (इतिहास)
प्रकाशित रचनाऍ-
भारतीय संवतों का इतिहास (शोध ग्रंथ), एस0 एस0 पब्लिशर्स, दिल्ली, 1994, ISBN: 81-85396-10-8.
खो गया गॉव (कहानी संग्रह), माउण्ट बुक्स, दिल्ली, 2010, ISBN: 978-81-90911-09-7-8.
पढो-बढो (नवसाक्षरों के लिए), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2012, ISBN: 978-81-8097-167-9.
सरोज ने सम्भाला घर (नवसाक्षरों के लिए), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2012, ISBN: 978-81-8097-168-6.
जलधारा बहती रहे (कविता संग्रह), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2014, ISBN: 978-81-8097-190-7.
चतुर राजकुमार (बाल उपन्यास), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-800-0 (PB).
विरासत में मिली कहानियॉ (कहानी संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-801-7 (PB).
मैं किशोर हॅू (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-802-4 (PB).
नीड़ सभी का प्यारा है (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-808-6 (PB).
जागो बच्चो (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014, ISBN: 978-81-7309-803-1 (PB).
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख पुस्तक समीक्षाऍ, कहानियॉ, कविताऍ प्रकाशित । लगभग 100 बाल कविताऍ भी प्रकाशित । दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं काव्यगोष्ठियों में भागीदार।
व्यक्तिगत विवरण -
जन्मतिथि : मार्च 14, 1961 निवास : उ0प्र0 (जन्म से)
जन्म स्थान : मेरठ राष्ट्रीयता : भारतीय
पिता का नाम : श्री देवकरण शर्मा
माता का नाम : श्रीमती रतन देवी (स्वर्गीय)
वैवाहिक स्थिति : विवाहित
पति का नाम एवं पता : डॉ0 सुशील कुमार शर्मा, आचार्य, अंग्रेजी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (उ0प्र0)। पिनः 211002
सम्पर्क : डॉ0 (श्रीमती) अपर्णा शर्मा, "विश्रुत", 5, एम.आई.जी., गोविंदपुर, निकट अपट्रान चौराहा, इलाहाबाद (उ0प्र0), पिनः 211004
दूरभाषः +91-0532-2542514 दूरध्वनिः +91-08005313626
ई-मेलः <draparna85@gmail.com>
पुरस्कार एवं सम्मान : 1. मेरा नाम इन्टरनेशनल हूज हू ऑफ प्रोफेशनल एण्ड बिजनेस वीमेन, छठा संस्करण, अमेरिकन बायोग्रेफिकल इन्स्टीट्यूट, रैले, नार्थ केलिफोर्निया, यू0 एस0 ए0 (International WHO’s WHO of Professional and Business Women, 6th edition, published by American Biographical Institute, Raleigh, North California, U.S.A.) में सम्मिलित है।
2. मेरे सम्पूर्ण कार्य कलापों, उपलब्धियों एवं सामाजिक योगदान के लिये मुझे इन्टरनेशनल बोर्ड आफ रिसर्च आफ अमेरिकन बायोग्रेफिकल इन्स्टीट्यूट, यू0 एस0 ए0 (International Board of Research of American Biographical Institute, U.S.A.) द्वारा "वूमेन आफ द इयर 1998" (‘Woman of the Year 1998’) हेतु नामित किया गया।
(अपर्णा शर्मा)
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