सातवें वेतन आयोग की जो सिफारिशें आई हैं,उससे समाज में विभिन्न तबकों के बीच आयगत असमानता की खाई और चौड़ी होगी। इससे न केवल विकास के रास्ते मे...
सातवें वेतन आयोग की जो सिफारिशें आई हैं,उससे समाज में विभिन्न तबकों के बीच आयगत असमानता की खाई और चौड़ी होगी। इससे न केवल विकास के रास्ते में मुश्किलें खड़ी होंगी,बल्कि जो लोग क्रयशक्ति की दृष्टि से हाशिए पर हैं,उन्हें जीवन-यापन में और काठर्नइयां पेश आएंगी। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की जो ताजा रिपोर्ट आई है,उसने संकेत दिए हैं कि आयगत विसंगतियों के चलते करीब साढ़े चार करोड़ लोगों के और गरीबी रेखा के नीचे आने की आशंका है। दूसरी तरफ ज्यादातर राज्य अपना खर्च अनी आय के स्रोतों से उठाने में सक्षम नहीं हैं। ऐसे में यदि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप राज्य-कर्मचारियों को भी वेतन दिए जाते हैं तो राज्यों का खर्च और बढ़ जाएगा। जाहिर है,ये सिफारिशें यदि नई आर्थिक गतिविधियां नहीं बढ़ाई गईं तो देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ साबित होंगी।
सरकारी कर्मचारियों के लिए एक तय समय सीमा में वेतन आयोग गठित होता है। आयोग की सिफारिशों के मुताबिक भेतन-भत्तों में बढ़ोत्तरी भी की जाती है। ताकि उन्हें,बढ़ती महंगाई और बदली परिस्थितियों के परिदृश्य में आर्थिक काठनाईयों का सामना नहीं करना पड़े। इसीलिए 69 साल पहले 1946 में जो पहला वेतन आयोग बना था,उसने 35 रूपए मूल वेतन तय किया था। 1959 में दूसरे आयोग ने इसे बढ़ाकर 80 रुपए किया। 1973 में तीसरे ने 260,चौथे ने1986 में 950 किया। वहीं पांचवें आयोग ने इसे एक साथ तीन गुना बढ़ाकर 3050 रुपए कर दिया। छठें ने इसे बढ़ाकर 7730 रुपए किया और सातवें आयोग ने न्यूनतम वेतन बढ़ाकर 18000 और अधिकतम सवा दो लाख रुपए कर दिया है। साथ ही यह भी अनुशंसा की है कि केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन में सालाना तीन फीसदी वृद्धि अनिवार्य रूप से हो।
इन वेतन वृद्धियों से केंद्र सरकार के 47 लाख कर्मचारियों और 52 लाख सेवानिवृत्त कर्मचारियों को लाभ मिलेगा। किंतु ये सिफारिशें जस की तस अमल में लाई जाती हैं तो राजकोषीय घाटे पर 0.65 प्रतिशत का असर पड़ेगा। मसलन पहले वित्तीय वर्ष 2016-17 में ही खजाने पर 1.2 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ बढ़ने की उम्मीद है। तय है,राजकोषीय घाटे को पूर्व निश्चित सीमा में लाने की सरकार की कोशिश खटाई में पड़ने जा रही है। क्योंकि आम बजट में राजकोषीय घाटे को 2015-16 में सकल घरेलू उत्पाद दर के 3.9 फीसदी तक और 2017-18 तक तीन फीसदी तक लाने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन लगता है,इन सिफारिशों के लागू होने के बाद अगले दो-ढाई साल तक सरकार इससे उपजने वाली आर्थिक खाई में संतुलन बिठाने में ही लगी रहेगी। नए औद्योगिक विकास और खेती को किसान के लिए लाभ का धंधा बनाए जाने के उपायों से बुरी तरह पिछड़ जाएगी। इन वेतन वृद्धियों से मंहगाई का ग्राफ भी उछलेगा। जिसका सामना न केवल किसान-मजदूर,बल्कि असंगठित क्षेत्र से आजीविका चला रहे हर व्यक्ति को करना पड़ेगा। वेतन-वृद्धि से उपजने वाली विसंगति की खाई को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने समझ लिया है। इसलिए उनका कहना है कि 'इस असंतुलन से निपटने का यह उपाय है कि आमदनी बढ़ाई जाए। इस मकसद पूर्ति के लिए विदेशी पूंजी निवेश लाकर अर्थव्यवस्था को गतिशीलता देना जरूरी है।' हालांकि यह अलग बात है कि पिछले डेढ़ साल की तमाम कोशिशों और अनेक विदेश यात्राओं के बावजूद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को इस उद्देश्य में कोई खास सफलता नहीं मिली है। ऐसे में इन सिफारिशों को लागू करना,बादल देखकर मटका फोड़ देने वाली कहावत को ही चरितार्थ करना होगा।
सरकार को इस बाबत यह भी सोचने की जरूरत है कि देश में मौजूद कुल नौकरियों में से करीब 85 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में हैं। जहां न तो वेतन-भत्तों में सामानता है और न ही सामाजिक सुरक्षा की गारंटी है। देश की सबसे बड़ी आबादी कृषि और कृषि आधारित मजदूरी पर आश्रित है। लेकिन इन दोनों ही वर्गों की आमदनी की कोई गारंटी नहीं है। ऐसे में जो सूखा व ओलावृष्टि से प्रभावित राज्य हैं,उन्हें फसल उत्पादन से जुड़े वर्गों की रक्षा करना मुश्किल होगा। इस साल मध्यप्रदेश भयकंर सूखे की चपेट में रहा है। शिवराज सिंह चौहान ने किसानों के प्रति उदारता दिखाते हुए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर 9000 करोड़ का अनुपूरक बजट पारित कराया है। जिससे प्राकृतिक आपदा से पीड़ित किसानों को फौरन राहत दी जा सके। जाहिर है,इस अतिरिक्त खर्च से राज्य सरकार का लंबे समय तक उभरना मुश्किल है। ऐसे में यदि सरकार इन सिफारिशों को लागू करती है तो उस पर 4000 करोड़ का और अतिरिक्त भार पड़ेगा। फिलहाल सरकार प्रदेश के 5 लाख नियमित और 4 लाख अनियमित कर्मचारियों पर प्रतिवर्ष 22 हजार करोड़ रुपए वेतन व भत्तों के रूप में खर्च कर रही है।
संकटकाल इस भीषण त्रासदी में भी मध्यप्रदेश के पटवारी वेतनवृद्धि को लेकर हड़ताल पर चले गए हैं। यह हड़ताल पटवारियों ने उस नाजुक दौर में की है जब सरकार को किसानों के हित साधन के लिए मुआवजा राशि बांटी जानी है। इस एक उदाहरण से पता चलता है कि देश का सरकारी कर्मचारी कितना निरकुंश और हृदयहीन होता जा रहा है। ऐसे में बढ़े वेतन उसे और स्वार्थी व अनुदार बनाने का ही काम करेंगे। इन सब हालातों को ही दृष्टिगत रखते हुए स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की थी कि हर फसल पर किसान को लागत से डेढ़ गुना दाम दिया जाए। डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने तो इसे नजरअंदाज किया ही,नरेंद्र मोदी की राजग सरकार ने भी इसे सिरे से नकार दिया है। जबकि पिछले आम चुनाव में भाजपा ने इसे अपने चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल किया था। सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका के सिलसिले में मोदी सरकार ने न्यायालय को उत्तर दिया है कि सरकार किसान को फसल उत्पादन के लागत मूल्य की डेढ़ गुना धनराशि देने पर कोई विचार नहीं कर रही है। जबकि जरूरी तो यही था कि सरकार खेती-किसानी से जुड़े लोगों की आमदनी बढ़ाने के उपाय तो करती ही,असंगठित क्षेत्र में कार्यरत करोड़ों लोगों की आय बढ़ाने के तरीके भी तलाशती ?
दरअसल केंद्र सरकार और उसके रहनुमाओं को यह भ्रम है कि महज केंद्रीय कर्मचारियों की वेतनवृद्धि से बाजार में तेजी आ जाएगी। सरकार को उम्मीद है कि इस राशि को जब कर्मचारी खर्च करेंगे तो भवन,वाहन और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की बिक्री बढ़ेगी। लेकिन सरकार को यहां विचार करने की जरूरत है कि केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या बहुत सीमित है और इनमें से ज्यादातर सभी आधुनिक सुविधाओं से अटे पड़े हैं। अधिकांश कर्मचारियों के पास हर बड़े शहर में आवास हैं और परिवार के हरेक सदस्य के पास वाहन सुविधा है। लिहाजा इस इजाफे से अर्थव्यवस्था को बहुत बड़े पैमाने पर गति मिलने वाली नहीं है। तत्काल मिलती भी है तो वह लंबी कालावधि तक टिकने वाली नहीं है। यह तो तभी संभव है,जब उन असंगठित क्षेत्रों के भी समूहों की आमदनी बढ़े,जो देश की बड़ी आबादी का हिस्सा हैं।
हालांकि पहली बार किसी वेतन आयोग ने यह नया सुझाव दिया है कि कर्मचारियों को कार्य-प्रदर्शन के आधार पर पुरस्कृत व पदोन्नत किया जाए। एक तरह से इस उपाय को जवाबदेही सुनिश्चित करने का तरीका कहा जा सकता है। हालांकि सरकारें ऐसे उपायों पर अमल से कतराती हैं। लेकिन बढ़े हुए वेतन के साथ भ्रष्टाचार मुक्त लोकदायित्व की अपेक्षा तो करनी ही चाहिए। क्योंकि अंततः कर्मचारियों को जो वेतन भत्ते मिलते हैं,उसकी रीढ़ कृषि, प्राकृतिक संपदा का दोहन,पशुधन और उद्यमियों से मिलने वाले कर ही हैं। इसलिए समूची प्रशासनिक व्यवस्था को समाज के प्रति उत्तरदायी बनाए जाने के साथ-साथ पारदर्शी भी बनाया जाना जरूरी है। इस नजरिए से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने 45 वरिष्ठ अधिकारियों को 'सरकारी काम और जनसेवा में असंतोषजनक प्रदर्शन'के कारण या तो हटा दिया है या उनकी पेंशन काट ली गई है। यह जानकारी खुद प्रधानमंत्री ने ब्रिटेन प्रवास के दौरान दी है। उनकी इस सूचना से इस दावे की पुष्टि होती है कि भ्रष्टाचारियों के साथ उनकी सरकार कोई उदारता नहीं बरतेगी। देश की उच्च पदस्थ नौकरशाही को यह दो-टूक संदेश है कि 'न खाऊंगा और न ही खाने दूंगा। 'इन सख्तियों के चलते केंद्र सरकार के कार्यालयों में तो अनुशासन दिखाई देने लगा है,लेकिन राज्य सरकारों के दफ्तर फिलहाल यथास्थिति में ही हैं। इसका ताजा उदाहरण मध्य प्रदेश के पटवरियों का है कि जब उन्हें आत्महत्या कर रहे किसानों को राहत राशि बांटने का दायित्व निभाना था,तब वे वेतन बढ़ाने को लेकर हड़ताल पर चले गए हैं। यह अनुशासनहीनता और स्वार्थपरकता बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए।
प्रमोद भार्गव
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।
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