हिंदी एक उदार भाषा है। हिंदी को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक कहा जाना तार्किक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से संगत प्रतीत होता है। हिंदी...
हिंदी एक उदार भाषा है। हिंदी को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक कहा जाना तार्किक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से संगत प्रतीत होता है। हिंदी को जब हम विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा कहते हैं तो इस भाषा के बोलने,पढ़ने,लिखने तथा समझने वालों की संख्या परिप्रेक्ष्य में रहती है। भाषा के रूप में हिंदी का विकास और विस्तार भारत राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया के उपजात के रूप में ही हुआ। देश के स्वाधीनता संग्राम में हिंदी भाषा ने उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक संवाद के सबसे सबल सूत्र के रूप में स्वयं को स्थापित किया। इस क्रम में हिंदी भाषा ने अनेक दबावों को झेला, विरोधों को सहा, प्रतिक्रियाओं को आत्मसात किया और हिंदी देश की पहचान हिंदी के रूप में अपने को स्थापित किया। भारत को स्वतंत्र हुए 68 साल हो गए फिर भी हिंदी भाषा राष्ट्रीय पहचान नहीं है। हिंदी की इस प्राथमिकता की गुजरात में स्वामी दयानंद सरस्वती ने, असम में लोकप्रिय गोपीनाथ बदरले ने, बंगाल में केशवचंद्र सेन ने, तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास) में सुब्रह्ण्यम भारती ने सराहना की तथा अपने अभियान में हिंदी को साथ लिया। महात्मा गांधी तथा उनके अनुयायी विनोवा भावे ने हिंदी को राष्ट्रीय आंदोलन के रचनात्मक कार्यक्रम में स्थान इसीलिए दिया कि हिंदी के प्रति भारतीय जन समुदाय में अपनापन का भाव भरा था । महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, केशवचन्द्र सेन ऐसे अनगिनत नाम मिल जाएंगे, जिन्होंने क्षेत्रीय स्तर से ऊपर उठकर राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने के लिए हिन्दी भाषा को चुना। महात्मा गांधी ने हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय चरित्र से जोड़कर सही अर्थों में राष्ट्रभाषा का एक आंदोलन खड़ा कर दिया। उनका मानना था कि अंग्रेज और उपनिवेशवाद से भी ज्यादा खतरनाक अंग्रेजी है। इस लिहाज से हमें सबसे पहले अंग्रेजी को अपने देश से विदा कर देना चाहिए और अंग्रेजी की जगह अपनी भाषा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए। सही मायने में गांधी ने ही हिन्दी की संकल्पना राष्ट्रभाषा के रूप में की। डॉ. शंकर दयाल सिंह शब्दों में –“राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का श्रेय पूर्णतया महात्मा गांधी को है जिन्होंने आजादी अथवा राष्ट्रीय संघर्ष के साथ इसे जोड़ा। यों उनके पहले स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन और मदन मोहन मालवीय जी ने इसे सर्वव्यापक बनाने की दिशा में काफी प्रयास किया।” 1 हिंदी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को आत्मसात किया तथा देश के विभिन्न भागों में हुए आंदोलनों, अभियानों, क्रांतियों के संदेश को जन-जन तक पहुंचाया। इस क्रम में हिंदी कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
हिंदी का आदर्श भारतीय राष्ट्रवाद रहा है। अमीर खुसरो के काल से लेकर डॉ. रामविलास शर्मा तक के इस समकालीन भारत में हिंदी ने भारतीय राष्ट्रवाद को ही अपने समक्ष रखा है स्वाधीनता आंदोलन के सेनानियों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया। भाषा के साथ धर्म और उग्र जातीयता का ऐसा गहरा संबंध बन चुका है कि भाषा किसी की मजहबी पहचान, तो किसी के लिए राष्ट्र से अधिक अपनी जातीय पहचान का मुद्दा है। अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं, हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी हिन्दी और उर्दू को लेकर इतने विवाद हैं कि हिन्दी को हिन्दू धर्म का पर्याय बना दिया गया है। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं – “भाषा-समस्या का घनिष्ठ संबंध राष्ट्रीय एकता से है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। जिस राष्ट्र में जितनी ही आंतरिक दृढ़ता होगी उतनी ही वह हर तरह के तनाव और बोझ सह लेने की स्थिति में होगा।. . .भाषा-समस्या का सही समाधान राष्ट्रीय एकता को दृढ़ करके उसे अजेय बना सकता है, भाषा-समस्या का गलत समाधान लोगों में असंतोष पैदा करके राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकता है।”2
हिंदी साहित्य का स्वर राष्ट्रवादी रहा है । हिंदी के आरंभिक साहित्य से लेकर इसके वर्तमान साहित्य तक की प्रवृत्तियों का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट होती है कि इसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों, प्रदेशों और भू-भागों की सामाजिक चेतना को लगातार प्रतिष्ठा मिली है। हिंदी का अपना कहा जानेवाला कोई प्रदेश नहीं है। साहित्य में पूर्वोत्तर भारत की सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पहचान मिलती है तो सुदूर केरल और कन्याकुमारी के रमणीय समुद्री तटों की अभिराम शोभा का वर्णन मिलता है। 15 अगस्त 1947 ई. को जिस स्वाधीन राष्ट्र भारत का उदय हुआ वह कई मामलों में अपने अतीत से एकदम अलग है। यह राष्ट्र, जैसा कि इसके संविधान ने घोषित किया एक पंथनिरपेक्ष, समाजवादी, प्रजातांत्रिक गणराज्य है। समाजशास्त्रियों के अनुसार भारत बहुलता प्रधान राष्ट्र है। भाषा, उपासना, सांस्कृतिक पहचान, रीति-नीति किसी भी आधार पर भारत की परिभाषा सरलता से नहीं की जा सकती । यानी न तो भाषा के आधार पर और न ही उपासना के बल पर भारत को कोई एक परिधान भारत की पहचान बन सकता है और न ही कोई एक विश्वास ही पूरी तरह इसकी अभिव्यक्ति कर सकता है। भारतीय राष्ट्र के भूगोल ने इसे एक उप-महाद्वीप (सब-कैंटिनेंट) का दर्जा दे दिया है और भारतीय इतिहास के चित्रपट पर इस राष्ट्र की पहचान एक मानवता के महासागर की तरह है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसी संदर्भ में लिखा है- ‘एक भारतेर महामानवेर सागर तीरे।’ ऐसे में भारत की पहचान के लिए किसी एक लक्षण को रेखांकित करना कठिन हो गया। परंतु हिंदी भाषा की विशेषताओं पर यदि गौर करें तो बहुत हद तक लगता है कि इसे भारत की राष्ट्रीय पहचान के लक्षण के रूप में ग्रहण किया जा सकता है।
हिंदी भाषा के साहित्य में, अनूदित रूप में, समस्त भारत की विभिन्न भाषाओं में निवद्ध उत्कृष्ट साहित्य, अनुकरणीय जीवन चरित तथा गहनीय घटनाक्रमों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। पंजाबी की लेखिका अमृता प्रीतम अथवा उर्दू के लेखक रघुपति सहाय फिराक हिंदी के साहित्य में रचे-बसे हैं। उर्दू से अपना साहित्यिक सफर आरंभ करनेवाले प्रेमचंद को अंतत: हिंदी ने उपन्यास सम्राट के रूप में अपना बना लिया। बेल्जियम से धर्म प्रचार के निमित्त भारत आए फादर मामिल बुल्के ने शीघ्र ही यह समझ लिया कि भारत की आत्मा का सर्वथा अविकलक प्रतिबिंब हिंदी में ही मिलता है।। डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है-- “भारत एक राष्ट्र है। हमारी राष्ट्रीयता केवल अंग्रेजों का विरोध करने के लिए नकारात्मक रूप से किन्हीं विशेष परिस्थितियों में उत्पन्न नहीं हो गई। उसकी जड़ें हमारी ऐतिहासिक और आर्थिक परंपराओं में बहुत गहरी पैठ हैं।”3 डॉ. शर्मा का मानना है कि हमारी भाषा-समस्या दरअसल हमारी जातीय समस्या है। भारत में बहुभाषिक जातियां रहती हैं। भारत एक बहुजातीय राष्ट्र है। इन जातियों के बीच संपर्क भाषा की समस्या अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। एक तरह से यह हमारी राष्ट्रीय एकता का भी प्रश्न है। मातृभाषा और अपनी भाषा का प्रश्न इस कारण ही और भी गैरवाजिब हो गया है। भारत जैसे बहुजातीय समाज में जहां भाषा की एक अहम् भूमिका है, और जब हम भाषा , संपर्क भाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा के प्रश्नों से लगातार जूझ रहे हैं, हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम भाषा को अपने राष्ट्रीय हित से जोड़कर देखें और भाषा को राष्ट्रीय पहचान का सबब बनाएं।
संदर्भ- सूची
1> | सिंह, शंकर दयाल, राष्ट्रभाषा राजभाषा जनभाषा, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2011, पृष्ठ- 72 |
2> | शर्मा, रामविलास, राष्ट्रभाषा की समस्या, अक्षर प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, प्रथम संस्करण-1965,भूमिका से। |
3> | शर्मा, रामविलास, राष्ट्रभाषा की समस्या, अक्षर प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, प्रथम संस्करण-1965, भूमिका से। पृष्ठ सं.-180 |
शोधार्थी
आनंद दास
कलकत्ता विश्वविद्यालय
कोलकाता
संपर्क - 9804551685
ईमेल- anandpcdas@gmail.com
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