हमारा यह शरीर परमात्मा की अनुपम कृति है। यह समस्त ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करने का सामथ्र्य रखता है। ब्रह्माण्ड भर में जो कुछ है ...
हमारा यह शरीर परमात्मा की अनुपम कृति है। यह समस्त ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करने का सामथ्र्य रखता है। ब्रह्माण्ड भर में जो कुछ है उस तक पहुँचने का शोर्ट कट इंसान की देह में सूक्ष्म रूप में विद्यमान होता ही है। चाहे इंसान किसी भी वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, लिंग, क्षेत्र या आयु का क्यों न हो।
इस दृष्टि से पिण्ड अपने आपमेंं अनुपम ईश्वरीय कृति है। इस सत्य को जानने वाले लोग बहुत कम हैं लेकिन जो जान जाते हैं उनका जीवन धन्य हो जाता है। शेष लोग अपने तुच्छ सांसारिक स्वार्थों को ही जीवन का परम लक्ष्य मानकर श्वानों की तरह इधर-उधर भटकते ही रहते हैं।
इस पिण्ड में वो सारी ताकत है जो ब्रह्माण्ड के संचालन में समर्थ है। इसीलिए पिण्ड की शक्तियों के जागरण पर जोर दिया गया है। यह स्पष्ट है कि पिण्ड का जागरण होने पर ब्रह्माण्ड से सीधा सम्पर्क जोड़ कर दैवीय और पारलौकिक ऊर्जाओं को पाया एवं उनका उपयोग किया जा सकता है।
विज्ञान और मूर्ख लोग इस बात को मानें या न मानें, लेकिन जो अनुभवातीत शाश्वत सत्य और सनातन तथ्य है उसे कभी झुठलाया नहीं जा सकता। कोई इस पर विश्वास करे या न करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। यों भी धर्म, न्याय और सत्य नास्तिकों, विधर्मियों और कुतर्कियों के विषय नहीं हैं।
हमारा शरीर निरन्तर समुद्र मंथन की तरह वैचारिक मंथन करता रहता है। कभी नकारात्मक भाव पैदा हो जाते हैं तब गरल का अहसास होता है। जब कभी सकारात्मक भावों का उद्गम होता है अमृत तत्व का अनुभव होने लगता है।
यह इंसान की सोच और मनःस्थिति, संकल्पों की दृढ़ता और ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था के साथ ही मानवोचित मौलिक गुणों, धर्माचार और हमारे स्वभाव पर निर्भर करता है। हम जब दैवीय भावभूमि में होते हैं तब अमृत झरने लगता है और आसुरी भावभूमि में होने पर विष झरने लगता है।
हमारे शरीर में ही दोनों का सृजन, स्फुरण और संग्रहण करने वाली पृथक-पृथक ग्रंथियां होती हैं। ये निर्झरण हमारे मन, मस्तिष्क और शरीर की हलचल, संकल्पों, आवेग-संवेगों और हरकतों पर निर्भर करता है।
जब हम वजह-बेवजह क्रोध में होते हैं तब हमारी आँखें लाल हो जाती हैं, दाँत दिखाने और चिल्लाने लगते हैं, पूरे शरीर की समस्त ऊर्जा मुँह में एकत्रित कर जोर-जोर से चिल्लाने लगते हैं। यही पिण्ड का वह समय होता है जब उसकी विष ग्रंथियों में विष निर्माण और इसका झरना आरंभ होने लगता है।
हम देखते हैं जिस प्रकार साँप के दाँतों से जहर निकलता है उसी प्रकार इंसान जब तीव्र गुस्से में होता है जब उसकी दाढ़ों से विशेष प्रकार का थूक निकलने लगता है जिसमें विष होता है। जैस-जैसे उसका क्रोध बढ़ता जाता है, विष सृजन और स्फुरण का घनत्व बढ़ता चला जाता है।
इस वजह से क्रोधग्रस्त इंसान का मुँह उस थूक से भरता रहता है जिसे विषैला अथवा विष कहा जा सकता है। यह विष पेट में जाकर पाचन होकर रस व उसके बाद रक्त में घुलकर सारे शरीर में फैल जाता है। इससे हमारा पूरा शरीर जहरीला होने लगता है।
यही कारण है कि क्रोध के बाद काफी समय और दिनों तक क्रोध का वेग और दुष्प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर पर देखा जा सकता है। किसी भी इंसान में क्रोध का असर निरन्तर रहने पर उसके शरीर में विष बनने, नाड़ियों में प्रवाह और अन्ततोगत्वा शरीर, मन एवं दिमाग पर घातक प्रभाव बढ़ता चला जाता है और इससे इंसान की कार्यक्षमता, शारीरिक सौष्ठव और ओज-तेज-ताजगी से लेकर शरीर से संबंधित तमाम क्रियाओं पर खराब असर पड़ता है।
इंसान को असाध्य बीमारियां घेर लेती हैं, चिड़चिड़ापन तथा सभी के प्रति अविश्वास का भाव व्याप्त होने लगता है तथा इंसान को लगता है कि सारी दुनिया बेकार है, उसके काम कोई नहीं आता। इस प्रकार मनुष्य में आत्महीनता के भाव घर कर लिया करते हैं।
अधिकांश लोगों के जीवन में असफलता, हीनता और निराशा का यही कारण है। इस किस्म के लोगों का शरीर भी समय से पहले ही बूढ़ा या समाप्त हो जाता है। इस तरह शरीर में ही निर्मित विष कितना घातक होता है, इसका हम संसारी मनुष्यों को कोई ज्ञान नहीं है। यह अज्ञानता हमारे विनाश का प्रमुख कारण बनी हुई है।
दूसरी ओर हमारे शरीर की ग्रंथियों से अमृत का स्त्राव भी होता रहता है। जिस समय हम चरम आनंद भाव में होते हैं उस समय दैवीय भावभूमि और आत्म आनंद की वजह से मस्तिष्क की गुहा से संबंधित गले से जुड़े ऊपरी हिस्से से हमारे मुँह में अमृत की बूँदें टपकती हैं।
जिस समय हम प्यार, श्रद्धा या स्नेह के चरमोत्कर्ष पर होते हैं, किसी अप्रत्याशित सफलता की सूचना या पुरस्कार-सम्मान प्राप्त होता है अथवा किसी सिद्ध संत या कृपालु बुजुर्ग का हाथ हमारे सर पर फिरता है, उन्मुक्त प्रकृति या देवदर्शन का सुकून मिलता है, तब कुछ-कुछ क्षणों में हमारे कण्ठ में ऊपर से महीन बूँद कण्ठ पर गिरती है और उदर तक पहुंच जाती है।
यह अहसास हममें से हर किसी को हो सकता है। एक बार हम समझ जाएं तो इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी आसानी से कर सकते हैं। लेकिन यह अमृत तत्व तभी झरता है जबकि हम आनंद के क्षणों में हों, हर प्रकार से आनंद भाव में रमण कर रहे हों।
हमारे शरीर में अमृत और विष दोनों को पैदा करने तथा झराने वाली ग्रंथियाँ विद्यमान हैं। इनका अनुभव करने और लाभ पाने के लिए सजग रहना हमारी अपनी जिम्मेदारी है।
जो लोग अमृत के सृजन और इसके झरने के क्रम को निरन्तर बनाए रखते हैं उनका यह स्रोत ज्यादा सक्रिय रहता है और इन लोगों में अमृत का संग्रहण अधिक से अधिक होने लगता है जो इनके मुख मण्डल के ओज-तेज और शारीरिक सौंदर्य की अभिवृद्धि करता है, साथ ही आयु भी बढ़ती है तथा कर्मयोग में दिव्यता आने से अतुलनीय यश-कीर्ति प्राप्त होती है।
यह हम पर है कि हम अमृत चाहते हैं या जहर। अमृत चाहें तो सभी से प्यार करें, अच्छे कर्म करें और आनंद भाव में रमण करते रहें। एक बार यह रहस्य समझ में आ जाने पर इंसान मृत्युंजयी और यशस्वी जीवन प्राप्त कर सकता है।
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- डॉ0 दीपक आचार्य
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