सूडान की कहानी - खजूर

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    अनुवाद - सुरेश सलिल   सूडान की कहानी तैयब साले’ह खजूर उस दौरान मैं बहुत छोटा रहा होऊँगा। उम्र तो ठीक-ठीक याद नहीं। हाँ, यह अच्छी ...

 

 

अनुवाद - सुरेश सलिल

 

सूडान की कहानी

तैयब साले’ह

खजूर

उस दौरान मैं बहुत छोटा रहा होऊँगा। उम्र तो ठीक-ठीक याद नहीं। हाँ, यह अच्छी तरह याद है कि दादा जी के साथ जब मैं बाहर जाता, तो लोग मेरा सिर थपथपाते और गालों में चिकोटी काटते। ये हरकतें वे दादा जी के साथ नहीं करते थे। अजीब बात थी कि मैं अपने अब्बाजान के साथ घर से बाहर कभी नहीं निकलता, बल्कि ये मेरे दादा जी ही थे जो मस्जिद में कु़रआन पढ़ने जाने का सुबह का मेरा वक़्त छोड़कर, जहाँ कहीं जाते, मुझे अपने साथ ले जाते। मस्जिद, दरिया और खेत-यही तब हमारी ज़िन्दगी के मील-पत्थर थे। मेरी उम्र के दूसरे बच्चे हालांकि मस्जिद में कु़रआन पढ़ने जाने से कतराते थे, मगर मुझे वहाँ जाना अच्छा लगता था। वजह बेशक यह रही होगी कि मुझे हर बात जल्दी, दिल की गहराई में उतर कर, याद हो जाया करती थी, और जब भी बाहर के लोग वहाँ आते, शेख़ साहब हरदम सिर्फ़ मुझसे ही, खड़े होकर, पाक कु़रआन की आयतें सुनाने को कहते थे। वे लोग भी ठीक उसी तरह मेरा सिर थपथपाते और गालों में चिकोटी काटते, जिस तरह दादाजी के साथ होने पर लोग करते थे। जी हाँ, मस्जिद मुझे अच्छी लगती थी, और दरिया भी। सुबह की कु़रआन की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद तख़्ती एक ओर पटकता, भाग कर अम्मीजान के पास जाता, जल्दी-जल्दी नाश्ता निगलता और दरिया में डुबकी लेने के लिए दौड़ पड़ता। जब तैरते-तैरते थक जाता तो किनारे की गीली रेत पर बैठ कर पूरब की तरफ़ रवाँ पानी की लहरियों को ताकता रहता, जो कीकर के घने जंगल के पीछे मुड़ कर गुम हो जाया करतीं। मुझे हवाई घोड़े दौड़ाना और मन ही मन उस जंगल के पीछे रहने वाले उस जिन्नाती क़बीले की तस्वीर से रू-ब-रू होना अच्छा लगता, जिसके लोग मेरे दादा जी जैसे ही लम्बे और दुबले-पतले होंगे- वैसी ही सफ़ेद दाढ़ी और तीखी नाक होगी उनकी। दादा जी से जब भी मैं कोई बात पूछता, तो पहले वे अपनी तर्जनी से नाक का सिरा रगड़ते, फिर मेरी बात का जवाब देते। और जहाँ तक उनकी दाढ़ी की बात, तो वह इतनी मुलायम-ख़ूबसूरत कपास जैसी थी कि उससे बढ़कर पाकीज़गी और ख़ूबसूरती ज़िन्दगी में किसी और चीज़ में मैंने नहीं देखी।

मेरे दादा जी बहुत लम्बे-तड़ंगे भी रहे होंगे, क्योंकि पास-पड़ोस के किसी भी आदमी को, बिना सिर उँचाये, उनसे बात करते मैंने नहीं देखा। अलावा इसके, मुझे बख़ूबी याद है कि कोई भी चौखट, बिना बदन को मोड़े- हू-ब-हू उस दरिया की तरह, जो मुड़ता हुआ कीकर के जंगल के पीछे गुम हो जाया करता- वे नहीं लाँघ पाते थे। ख़ुद अपने बारे में यह सोचना मुझे अच्छा लगता था कि जब मैं बढ़कर एक पूरा इंसान बन जाऊँगा, तो उन्हीं के जैसा लम्बा-तड़ंगा और दुबला-छरहरा दीखूँगा और लम्बे-लम्बे डग भरता चला करूँगा।

यक़ीनन मैं उनका पसंदीदा पोता था। घर में मेरे हमउम्र जितने बच्चे थे सबके सब बोदे और ज़ाहिल थे, और मैं, जैसा लोगों का मानना था, जहीन और तमीज़दार था। मुझे मालूम रहता था कि दादा जी को किस वक़्त मेरा हँसना किलकना पसंद है और किस वक़्त चुप रहना। मुझे उनकी नमाज का वक़्त भी याद रहता था और मैं बिना उनके कहे मुसल्ला (चटाई) ला दिया करता था- वजू के लिए घड़ा भर दिया करता था। जब दादाजी बिल्कुल ख़ाली होते, तो उन्हें मेरी सुरीली आवाज़ में कु़आर्न की आयतें सुनना पसंद था। उनकी ये ख़्वाहिश भी मैं उनके चेहरे से भाँप लिया करता था। एक रोज़ अपने पड़ोसी मसूद के बारे में मैंने उनका रुख़ जानना चाहा। ‘मुझे लगता है कि आप मसूद को पसंद नहीं करते!’ मैंने दादा जी से पूछा। अपनी नाक का सिरा रगड़ कर वे बोले, ‘वह ठहरा एक निकम्मा आदमी! और निकम्मे लोग मुझे सख़्त नापसंद हैं।’

‘निकम्मेपन से आपका मतलब?’ मैंने अगला सवाल किया। दादा जी पल भर तक सर झुकाये कुछ सोचते रहे, फिर खुले चौड़े मैदान के पार देखते हुए बोले, ‘वह रेगिस्तान के सिरे से दरियाए- नील तक का पूरा इलाक़ा देख रहे हो न! पूरे सौ एकड़ है। वहाँ जितने भी खजूर के बाग़ और कीकर के जंगल हैं, कभी उन सब पर मसूद का मालिकाना हक़ हुआ करता था। उसे अपने वालिद से विरासत में मिला हुआ था यह सब।’

इसके बाद दादा जी ख़ामोश हो गये। उनकी ख़ामोशी का फ़ायदा उठाते हुए मैंने उस पूरे इलाक़े पर नज़र दौड़ाई। परवाह नहीं, मैंने मन ही मन कहा, कि उन खजूरों, उन दरख़्तों या इस स्याह, दरारदार ज़मीन की मिल्कियत किसकी है। मैं तो बस इतना जनता हूँ कि वह मेरे ख़्वाबों की पनाहगाह है, मेरे खेलने की जगह है।...

दादा जी ने अपनी बात का सिरा फिर पकड़ लिया, ‘हाँ, मेरे बच्चे, चालिस साल पहले यह सब कुछ मसूद का था, और अब इसके दो-तिहाई पर हमारा क़ब्ज़ा है।’

यह मेरे लिए हैरतअंगेज़ ख़बर थी, क्योंकि मैं समझता था कि ख़ुदाबंद करीम ने जब यह दुनिया बनाई होगी, तब से यह ज़मीन मेरे दादा की मिल्कियत है।

‘चालिस साल पहले जब मैंने इस मौज़े में क़दम रखे,’ दादा जी ने अपनी बात जारी रखी, ‘मेरे पास एक एकड़ ज़मीन भी नहीं थी, और इस सारी जायदाद का मालिक मसूद हुआ करता था। मगर अब हालात तब्दील हो चुके हैं और मुझे उम्मीद है कि पाक परवरदिगार के यहाँ से पुकार होने स पहले बाक़ी बची ज़मीन भी मेरे क़ब्ज़े में आ चुकेगी।’

न जाने क्यूँ, दादा जी के ये अल्फ़ाज़ मुझे बड़े ख़ाफै़नाक महसूस हुए और मसूद को लेकर मेरे मन में हमदर्दी का जज़्बा सर उठाने लगा। काश, दादा जी ने वह सब न किया होता, जिसका अभी अभी उन्होंने ज़िक्र किया। और मुझे यक्-ब-यक् मसूद की पुरजोशियाँ याद आने लगीं- गाने का वो बालेहाना अंदाज़, वो पुरलुत्फ हँसी और वो ख़नकदार आवाज़ मौजों की सरगोशियों जैसी! और इसके बरअक्स दादा जी को मैंने कभी हँसते नहीं देखा।

मैंने पूछा, ‘मसूद ने अपनी ज़मीन बेची भला किसलिए?’

‘औरतों के लिए!... और किसलिए!’ दादा जी तपाक से बोले। लेकिन उनका लबो-लहज़ा कुछ ऐसा था जैसे ‘औरतें’, हम- आप के बीच की न होकर केई बहुत ख़तरनाक चीज़ हों। ‘बेटे, मसूद को बीवियों का मर्ज़ था। आये दिन वह निकाह करता और हर निकाह के वक़्त एक एकड़ ज़मीन मेरे हाथ बेच देता।

’ मैंने मन ही मन गिनती की, कि इस तरह मसूद ने कोई नब्बे औरतों से तो निकाह किया ही होगा! और अब मुझे उसकी तीन बीवियों का, उसकी तंगहाली का,फटी आस्तीनों वाली ‘गलेबिया’ का और उसके मरियल व लँगड़े खच्चर का ख़याल हो आया। ख़यालात के रेले दिमाग़ में इधर से उधर टक्कर मार ही रहे थे कि मैंने मसूद को अपनी और दादा जी की जानिब आते देखा और हमारी नज़रें आपस में मिलीं।

‘आज हम खजूर कीफ़सल उतारने जा रहे हैं।’ उसने कहा, ‘आप नहीं चलेंगे?’

मुझे लगा कि ल∂़ज़ ठीक वही नहीं कहे गये, जो मसूद का मन कहना चाहता है। याने कि कह तो वह दादा जी से चलने को रहा था, मगर उसका मन चाहता था कि काश वे ‘न’ कर दें। और इधर दादा जी जैसे ख़ुशी से उछल ही पड़े। उनकी आँखें यक्-ब-यक् चमक उठीं और मेरी बाँह पकड़ कर, तक़रीबन खींचते हुए से, खजूर कीफ़सस उतरवाने चल दिये।

बाग़ में पहुँचते ही एक आदमी ने दौड़ कर दादा जी के लिए एक मोढ़ा पेश किया और वे बैठ गये। मैं खड़ा ही रहा। आदमियों का तो जैसे मजमा लगा हो! उन सबको हालाँकि मैं जानता था लेकिन, न जाने क्यों, मेरी निगाह मसूद के चेहरे पर जमी थी, जो खोया-खोया-सा और सबसे बेख़बर नज़र आ रहा था- बावजूद इसके कि फ़सल कटाई उसी के दरख़्तों से होती थी। कभी-कभार जब ख़जूरों का कोई बड़ा गौद ज़मीन पर आकर गिरता तो उसकी तेज़ आवाज़ से वह ऐसे चौंक उठता, मानो नींद से जागा हो। एक बार, जब दरख़्त की चोटी पर जमे छोकरे नफेलों की गौदों पर अपने पैने हँसुए से तेज़ मारें शुरू कीं, तो उसकी एक चीख़ भी सुनाई दी थी- ‘सुन भाई, ज़रा ख़्याल से काम करियो! दरख़्त का दिल न ज़ख़्मी होने पाये।’

मगर किसी ने भी मसूद की हिदायत को गंभीरता से नहीं लिया और दरख़्त के ऊपर सिरे पर जमा छोकरा तब तक अपने पैने हँसुए से कस-कस कर खच्-खच् की हैरतअंगेज़ आवाज़ें उछालता रहा, जब तक एक के बाद एक, खजूर की गौदें नीचे ज़मीन पर बरसनी शुरू नहीं हो गईं। फिर भी_ न जाने क्यूं, मेरे जेहन में मसूद का वह जुमला बार-बार बजता रहा। ‘दरख़्त का दिल.. दरख़्त का दिल!’ और मन के शबीह पर खजूर के दरख़्त की तस्वीर एक ऐसी जीती-जागती शै की तरह उभरने लगी जो अहसास से भरपूर हो, जिसके भीतर एक धड़कता हुआ दिल हो। याद आया कि एक बार जब मैं खजूर के एक नौउम्र दरख़्त के साथ छेड़ख़ानियाँ करते हुए खेल में मश्गूल था, तो इसी मसूद ने कहा था, ‘बर्खुर्दार, इंसान की तरह से खजूर के दरख़्त भी खुश होने पर नाचते गाते और सताये जाने पर रोते और दुखी होते हैं।’ तब मन ही मन मुझे बहुत पछतावा हुआ था। उधर से ध्यान हटा कर जब मैंने अपने आसपास निगाह दौड़ाई तो पाया कि बस्ती के मेरे तक़रीबन सभी हमउम्र बच्चे खजूर के दरख़्तों के आसपास इस तरह आ जमा हुए थे जैसे मिठाई के किसी टुकड़े के पास चींटियों की क़तार लग जाए। उनमें से ज़्यादातर बच्चे फुदक-फुदक कर खजूर बीन रहे थे और खा रहे थे। अलावा इसके, चारों तरफ़ खजूरों के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगे हुए थे और उन्हें तौल-तौल कर बोरों में भरा जा रहा था। भराई के बाद मैंने गिनती की, तो बोरों की तादाद 30 निकली। इसके बाद भीड़ धीरे-धीरे छँटने लगी और आख़िर में मैं, मेरे दादाजी और मसूद के अलावा सिर्फ़ चार लोग वहाँ बाक़ी बचे। हुसैन नाम का सौदागर, हमारे बाग़ के पूरब तरफ़ का मालिक मूसा, और दो मेरे बग़ैर पहचाने हुए चेहरे।

मुड़कर मैंने दादाजी की तरफ़ देखा तो वो सोये पड़े थे और उनके होंठ आहिस्ता-आहिस्ता फड़क रहे थे। मसूद की तरफ़ निगाह लौटी तो पाया कि वह अभी तक गुमसुम है। हाँ, इस बीच, लोगों की नज़र बचा कर, एक खजूर बेशक उसने मुँह में डाल लिया था और इस तरह जबड़े चला रहा था जैसे खाते-खाते अफर चुका कोई आदमी तय न कर पाये कि मुँह में अब तक मौजूद ग़िज़ा का क्या करे!

इसी दरमियान अचानक दादाजी की नींद टूटी। जँभाई लेते वे उठ खड़े हुए और खजूर के बोरों की तरफ़ चल पड़े। उनके पीछे-पीछे हुसैन सौदागर, बग़ली बाग़ का मासिक मूसा और मेरे बेपहचाने बाक़ी दोनों लोग भी हो लिए। मैंने ग़ौर किया कि मसूद भी बहुत धीमी चाल से हमारी तरफ़ आ रहा है। उसकी रफ़्तार उस बेहद थके आदमी जैसी थी जो चाहता तो रुककर आराम करना हो, लेकिन मजबूरी में पैर आगे घसीटने पड़ रहे हों।

खजूर के बोरों के चारों ओर घेरा-सा बना कर वे लोग खड़े हो गये और माल की जाँच-परख की जाने लगी। किसी किसी ने एक दो खजूर खा कर भी देखे। मसूद को मगर, इस दरमियान, मैंने पाया कि वह अपनी दोनों हथेलियों में खजूर लेता उन्हें नाक के बहुत क़रीब ले जा कर सूँघता और वापस बोरों में डाल देता।

फिर माल का बटवारा हुआ। दस बोरे हुसैन सौदागर ने लिये पाँच-पाँच उन दोनों अजनबियों ने, पाँच मूसा ने और पाँच मेरे दादा जी ने। कुछ भी न समझ पाते हुए मैंने मसूद की तरफ़ निगाह फेरी और देखा कि उसकी आँखें, बिल का रास्ता भूल गये दो चूहों की तरह, दाएँ बाएँ भटक रही हैं, तभी दादा जी की आवाज़ सुनाई दी- ‘अब भी तुम्हारे ऊपर मेरे पचास पौंड निकलते हैं। ख़ैर, इस बाबत फिर बात कर लेंगे।’

वे मसूद को मुख़ातिब थे।

हुसैन ने अपने मातहतों को आवाज़ दी और वे खच्चर लेकर हाज़िर हो गये। दोनों अजनबी अपने-अपने ऊँट ले आये। उन पर खजूर के बोरे लादे गये। इसी दरमियान एक खच्चर ने रेंकना शुरू कर दिया, जिससे ऊँटों के मुँह झाग-झाग हो गये और वे अपनी बुलंद आवाज़ में शिकायत दर्ज़ करने लगे।

मुझे लगा कि मैं मसूद के बहुत क़रीब खिंचता जा रहा हूँ और अपनी बाँहों को उसकी तरफ़ इस तरहफैला हुआ महसूस किया मानों वे उसकी गलेबिया की सीवन को छूना चाहती हों- आहिस्ते आहिस्ते सहलाना चाहती हों। लगा कि उसके गले से एक ऐसी आवाज़ निकल रही है, जो किसी मेमने को जिबह करते वक़्त सुनाई देती है। पता नहीं क्यों, उस वक़्त मुझे अपने सीने में दर्द की एक तीखी छटपटाहट महसूस हुई।... और मैं बेसाख़्ता दौड़ पड़ा। दूर तक दौड़ता रहा। पीछे से आती दादा जी की आवाज़ सुन कर पल भर को ठिठका, मगर फिर आगे बढ़ता रहा। उस एक लम्हे में ऐसा महसूस हुआ मानो मैं उनसे नफ़रत करता होऊँ। मैं इस क़दर तेज़तर दौड़े जा रहा था, मानो मैं अपने भीतर एक रहस्य ढो लाया हूँ, और उससे ख़ुद को निजात दिलाती है।

मैं दरिया के किनारे उस मुक़ाम पर पहुँचा, जहाँ वह अपने जिस्म को मोड़ कर कीकर के जंगल के पीछे चला जाता है। वहाँ मैंने अपने हलक में उँगली डाल कर वे सारे खजूर उगल दिये जो कुछ देर पहले खाये थे।

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रचनाकार: सूडान की कहानी - खजूर
सूडान की कहानी - खजूर
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