पारसी-नाट्यात्मचरित का तारीखी पिटारा

SHARE:

  रविकान्त स्टेजेज ऑफ़ लाइफ़ : इण्डियन थिएटर ऑटोबायॉग्रॅफ़ीज कैथरिन हैन्सन पर्मानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2011 मूल्य : 750 रु. पृ.सं. 374. हमा...

image

 

रविकान्त

स्टेजेज ऑफ़ लाइफ़ : इण्डियन थिएटर ऑटोबायॉग्रॅफ़ीज

कैथरिन हैन्सन

पर्मानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2011 मूल्य : 750 रु. पृ.सं. 374.

हमारे पाठक शायद जानते होंगे कि टेक्सॅस ऑस्टिन में फ़िलवक्त एमेरिटस प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत कैथरिन (कैथी) हैन्सन ने भारतीय नाटक को अपनी जिंदगी का मश्ग़ला बना लेने के बहुत पहले हिंदी के हरदिलअजीज लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पर न सिर्फ़ अपना अद्भुत शोध-प्रबंध लिखा था, बल्कि उनकी छोटी-बड़ी गल्प-कृतियों का अंग्रेजी में बखूबी अनुवाद भी किया। उनके पास हिंदुस्तानी साहित्य, भाषा व नाटकीय रियाजतों का भाष्य करने, क्लास के अंदर और बाहर उनकी तर्जुमानी करने का दहाइयों का तजुर्बा है, और यह तजुर्बा इस किताबी पिटारे में कूट-कूट कर भरा है। पिटारा इसलिए क्योंकि इसमें न सिर्फ़ लोकप्रिय नाटक से जुड़ी चार आदिविभूतियों की आत्मकथाओं के संक्षेपणों के कुशल अनुवाद हैं, बल्कि बतौर विधा आत्मकथा और उसकी ऐतिहासिकता पर चिंतन भी है— उस देशकाल और परिवेश पर तो है ही जिनमें इनकी रचना हुई थी। पिटारा इसलिए भी कि इन आत्मकथाओं में और कैथी के हाथों उनके विश्लेषण-संश्लेषण के जरिये व्यावसायिक नाटक मण्डलियों की पूर्वपीठिका, कार्यकलाप, कार्यशैली, अनुशासन, प्रबंधन, चिंताओं, सरोकारों, नफ़ा-नुकसान और संघर्षों का एक पूरा इतिहास जीवंत हो उठता है। हमें पता चलता है कि अलग-अलग सामाजिक-पारिवारिक पृष्ठभूमियों से आकर, अलग-अलग भाषाई और रचनात्मक औजारोंसंस्कारों से लैस इन कलाकारों की एक हद तक समांतर चलती पेशेवर जीवनयात्राएँ ऐसी रहीं तो क्यों, और उनके ये बयान इन अल्फ़ाज और अंदाज में ही हमारे सामने क्यों पेश होते हैं, इनकी खुसूसी उपलब्धियाँ क्या हैं, और खामोशियाँ कौन-सी? हिंदी पाठक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की बहुभाषी मेहरबानी से पत्रिका रंग-प्रसंग व अन्य स्वतंत्र प्रकाशनों के जरिये नारायण प्रसाद ‘बेताब’ (1872-1945),

आग़ा हश्र काश्मीरी (1879-1935), राधेश्याम कथावाचक (1890-1963), जयशंकर सुंदरी (दायें) बाबूलाल नायक के साथ ‘स्नेह सरिता’ में मास्टर फ़िदा हुसैन (1899-2001) व जयशंकर सुंदरी (1989-1975) के जीवन व रचनाकर्म से पहले से वाकिफ़ हैं, और समीक्ष्य किताब अंग्रेजी के पाठकों को सम्बोधित है, लेकिन उन्नीसवीं सदी की करवट से लेकर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक व्यस्त इन आत्मचरितकारों के बकलमखुद बयानों पर ऐसा दुर्लभ और समग्र चिंतन तो उनके लिए भी यकीनन उपादेय है। कई नायाब सफ़ेद-स्याह तस्वीरों, और नाटक-मण्डलियों से जुड़ी शख्सियतों पर दिये गये मालूमात से लबरेज पुछल्लों और सुंदरी के एक चरित्र-चित्र के दिलकश आमुख से सजी यह किताब अपने गद्य में प्रसादगुण-सम्पन्न और विषय के प्रति कैथी के जीवनपर्यंत प्रेम व जिज्ञासु प्रतिबद्धता का सबूत है। इस एक पिटारे में उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टियों को निचोड़ा-भर नहीं है बल्कि अपने चिंतन को यत्किंचित विस्तार भी दिया है।

कथ्य, शिल्प, सौष्ठव, अंदाज्ोबयाँ और पैदाइश के नुक्तों से दो कवि-लेखकों और दो अदाकारों की ये चार आत्मकथाएँ एक-दूसरे से जाहिरा तौर पर अलहदा हैं। फ़िदा हुसैन नरसी की कहानी अंततः दास्तानगोई की ताजपोशी करती है, हालाँकि यह प्रतिभा अग्रवाल के साथ कई सत्रों में की गयी उनकी बातचीत से उपजकर उसी शक्ल में लिखी गयी। उसी तरह कुछ लिख कर, ज्यादातर बोलकर लिखाई और कई संस्करणों से गुजरती हुई गुजराती-उर्दू रंगमंच पर सक्रिय जयशंकर सुंदरी की आत्मकथा कैथी के हिसाब से पाश्चात्य शैली की आत्मकथा है, जिसमें कहानी मिला-जुला कर तारीखवार चलती है। इन दोनों के उपनाम इनके खुसूसी तौर पर मशहूर और बार-बार दुहराए गये पात्राभिनयों (नरसी भगत और सौभाग्य सुंदरी) से निकलकर जनश्रुति में इनकी पहचान का हिस्सा बन गये। जमाने की रिवायत के मुताबिक फ़िदा ने कई सालों तक स्त्री-भूमिकाएँ कीं और सुंदरी ने सिर्फ़ एक बार पुरुष भूमिका निभाने की नाकाम कोशिश की। अलबत्ता दोनों ही ने हिदायतकारी यानी निर्देशन, प्रबंधन और प्रशिक्षण का काम भी लम्बे समय तक अंजाम दिया, और गायन तो उनके अभिनय का अटूट हिस्सा था ही। फ़िदा ने छोटी-मोटी भूमिकाएँ फ़िल्मों के लिए भी कीं, लेकिन बस यूँ ही, उनका ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्डिंग का सिलसिला कुछ ज्यादा जमा। बहुपठित राधेश्याम कथावाचक ने सिनेमा के लिए भी लिखा, लेकिन उतना नहीं, और अल्पपठित बेताब ने बहुत-कुछ, और बाकायदा बम्बई में बसकर लम्बे समय तक लिखा। कथावाचक और बेताब ने— जिन्हें छापाखाने में प्रूफ़रीडरी के जरिये नाटकों में प्रवेश का पास मिला— तो बाकायदा छापाखाने स्थापित किये और चलाए। कैथी यह रेखांकित करना नहीं भूलतीं कि फ़िदा भी किसी समय प्रेस में काम करते थे, और यह कि छापे के कारोबार में उस जमाने के युवा रोजगार का सहल-सुलभ जरिया देखते थे। यानी थिएटर की दुनिया के तार किस तरह भजन-प्रवचन, ग़जल-कव्वालीमुजरे, छापाखाने, ग्रामोफ़ोन और सिनेमा की दुनिया से जुड़े हुए हैं, यह देखना दिलचस्प है।

अर्थार्जन, उत्पादन व सर्जन में लगी शख्सियतों, कथानकों और शैलियों के प्रवाह के दृष्टिकोण से पारसी नाटक अंतर्क्षेत्रीय ही नहीं पराक्षेत्रीय था, वैसे ही जैसे कि शुरू से ही सिनेमा था। गुजराती सुंदरी बड़े अरमान से उर्दू सीखते हैं क्योंकि ग़जलों-नजमों के बिना पारसी नाटक मुमकिन नहीं होता। बोलती फ़िल्मों के बाद तो फ़िल्मी गीत भी अक्सर नाटकों के लिए तर्ज्ं मुहैय्या कराने लगे लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शुरुआती दौर की फ़िल्मसाजी पर पारसी फ़िदा ने कई सालों तक स्त्री-भूमिकाएँ कीं और सुंदरी ने सिर्फ़ एक बार पुरुष भूमिका निभाने की नाकाम कोशिश की।... फ़िदा ने छोटी-मोटी भूमिकाएँ फ़िल्मों के लिए भी कीं, लेकिन बस यूँ ही, उनका ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्डिंग का सिलसिला कुछ ज्यादा जमा।

बहुपठित राधेश्याम कथावाचक ने सिनेमा के लिए भी लिखा, लेकिन उतना नहीं, और अल्पपठित बेताब ने बहुत-कुछ, और बाकायदा बम्बई में बसकर लम्बे समय तक लिखा।

कथावाचक और बेताब ने— जिन्हें छापाखाने में प्रूफ़रीडरी के जरिये नाटकों में प्रवेश का पास मिला— तो बाकायदा छापाखाने नाट्यचर्या की स्पष्ट छाप है। सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर अदायगी की उस शैली से आजन्म उऋण नहीं हो पाए। इस तरह सिनेमा और पारसी रंगकर्म के इतिहास में जहाँ वाचाल सिनेमा द्वारा नाटक को ग्रस लेने का सियापा आम है, लेकिन इस दो-तरफ़ा आवाजाही, लेन-देन या दोनों की रूपगत निरंतरता पर बात कम हुई है। उसी तरह कैथी की उँगली पकड़कर अगर पारसी रंगमंच को अगर औपनिवेशिक मुठभेड़ का नतीजा मानते हुए आधुनिक मनोरंजन का एक घुमंतू शहरी आयोजन स्थापित किये और चलाए।

फ़र्ज कीजिए कि शो का मुकर्रर वक्त साढ़े नौ बजे है, तो आठ बजे मंदिरों में लटकने वाली-जैसा पहला घंटा सौ बार बजेगा, दूसरा 8.15 पर पचास बार और तीसरा पच्चीस बार बजता था 8.30 पर, तब तक आपकी भूमिका चाहे आखिरी सीन में हो लेकिन आपको खुद को रंग-पोत कर मंगलगान के लिए हाजिर हो जाना होता था। रिहर्सल में सबसे उम्मीद की जाती थी कि हर किसी का पार्ट उसको याद हो जाए, ताकि वक्त-बेवक्त काम आये

image

... क्योंकि पितरस बुखारी और नाटक-लेखक इम्तियाज अली ताज के व्यंग्यात्मक मजामीन में चाचा छक्कन जैसे किरदारों का सिनेमा देखने जाने में लेट-लतीफ़ी बरतना उनके उपहास को स्वीकार करें, तो कहना पड़ेगा कि आधुनिकता का ये तजुर्बा हमारे चरितकारों ने एक खास तरह की जिंदगी जीते हुए किया। यह जिंदगी एक खास तरह के आधुनिक समयबद्ध अनुशासन में कई-कई शहरों में रोजाना रियाज और ‘शो’ के प्रति पेशेवर प्रतिबद्धता का नमूना है, जो दर्शकों की पसंद-नापसंद पर टिकी थी। अल्फ़्रेड, न्यू अल्फ़्रेड, कोरिन्थियन या गुजरात नाटक मण्डली-जैसे नाम वाली कम्पनियाँ लम्बी-लम्बी रेलगाड़ियों में तंबू-कनात, झाड़-फ़ानूस, पर्दे-कुर्सियाँ, और प्रकाश व्यवस्था का अपना साजो-सामान लेकर एक शहर से दूसरे शहर, एक मेले से दूसरे में जाती थी। इन आयोजनों में और फ़नकारों में एक बड़ी पूँजी लगी होती थी, जिन्हें कम्पनियाँ ठेके और आकर्षक पगार की डोर से बाँधकर रखती थीं। हर शो एक टीमवर्क होता था, कुशल जन-प्रबंधन की एक मिसाल, जिसके लिए सहयोग और अनुशासन दोनों जरूरी थे।

अब वक्त की बड़ी और अस्पष्ट इकाइयों को छोटी और माप्य इकाइयों में घटा कर जीवन को तदनुरूप ढालने और बरतने का नाम अगर आधुनिकता है तो नाटक कम्पनियों ने इसके कठोर अनुपालन में कोई कसर नहीं छोड़ी। वैसे तो हरेक चरित में इस नये कालबोध से तआरुफ़ हासिल करने का जिक्र है, लेकिन फ़िदा हुसैन के जीवन से मिसाल लेते हैं। वे फ़रमाते हैं कि न्यू अल्फ़्रेड में नाश्ते का एक खास वक्त मुकर्रर था, और अगर आप देर से पहुँचे तो आप चाहे बड़े सितारे ही क्यों न हों, आपको नाश्ता नहीं मिलेगा। कम्पनी ने वक्त की पाबंदी लागू करने के लिए चौथ नामक अमले को एक ज्ोनिथ घड़ी दी हुई थी, जिसे वह सुबह सात बजे समय मिलाने के लिए या तो रेलवे स्टेशन ले जाता था या पोस्ट ऑफ़िस। फ़र्ज कीजिए कि शो का मुकर्रर वक्त साढ़े नौ बजे है, तो 8ः00 बजे मंदिरों जैसा विशालकाय घंटा पहली मर्तबा सौ बार बजेगा, दूसरी मर्तबा 8.15 पर पचास बार और तीसरे दफ़े पच्चीस बार बजता था 8.30 पर। तब तक आपकी भूमिका चाहे आखिरी सीन में हो लेकिन आपको खुद को रंग-पोत कर मंगलगान के लिए हाजिर हो जाना होता था। रिहर्सल में सबसे उम्मीद की जाती थी कि हर किसी का पार्ट उनको याद हो जाए, ताकि वक्त-बेवक्त काम आये। आखिरी मिनट तक बरती गयी इस तरह की पाबंदी का रियाज धीरे-धीरे दर्शकों को भी हो गया होगा। क्योंकि पितरस बुखारी और नाटक-लेखक इम्तियाज अली ताज के व्यंग्यात्मक मजामीन में चाचा छक्कन जैसे किरदारों का सिनेमा देखने जाने में लेट-लतीफ़ी बरतना कारण बनता है। उनके उपहास का कारण बनता है। बाद में चलकर जिसकी घड़ी से सारी घड़ियाँ मिलाई जाती थीं, यानी रेडियो की, उसने अपने कर्मचारियों और श्रोताओं दोनों को समय के आधुनिक पाठ पढ़ाए, ये दीगर बात है कि गायक की भूमिका में उतरे कुंदन लाल सहगल (फ़िल्म दुश्मन, 1939) से लेकर राजेश खन्ना (अनुरोध, 1977) तक रेडियो की इस सख्त पाबंदी की रिवायत से जूझते हैं। किस्सा कोताह यही कि हमारे नाट्यचरितकारों ने कम्पनी नाटकों में अनुशासन, रियाजत और शेवराना रवैये को रेखांकित करते हुए नये तरह के वक्त की नयी पाबंदी को हैरत और प्रशंसा के भाव से याद किया है। फ़िदा किसी भी समुदायगत दिलचस्प यह भी है कि भाषा-व्यवहार को लेकर बरेली से लेकर बुलंदशहर तक फैले उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों-कस्बों के तीन बाशिंदों की संवेदनाएँ भी किंचित भिन्न हैंः फ़िदा किसी भी समुदायगत विभाजन को तूल नहीं देते, राधेश्याम कथावाचक मालवीय के शिष्य और कांग्रेस के सदस्य और उसकी नागरी प्रचारिणी वाली धारा के सेवक और उपासक हैं, लेकिन आर्यसमाजी बेताब का अपना गद्य ज्यादा संकर है, उसमें खिलंदड़पना है तो मौखिक परम्पराओं से काव्यात्मक उद्धरण— रुबाई, शेरो-शायरी या छंदबद्ध कवित्त— के लिए पर्याप्त अवकाश भी। और हो भी क्यों नहीं, आखिरकार नित नये प्रयोग परोस कर मुनाफ़ा कमाने वाले पारसी रंगकर्म में शेक्सपियर से ले कर कालिदास तक के लिए जगह थी, तो लैला-मजनूँ से लेकर यथार्थ घटना पर आधारित कत्ले-नजीर के लिए भी, सामाजिक और धार्मिक खेलों का तो बोलबाला था ही। मानना पड़ता है कि सिनेमा से पहले की अगर कोई संगम-विधा थी तो यही— क्योंकि हरेक आत्मचरितकार अपनी-अपनी सांस्कृतिक विरासत से प्रेरणा लेता है : गीत गोविंद की अष्टपदियाँ, रामायण की चौपाइयाँ, प्रेमानंद के आख्यान, स्वाँग, नौटंकी, भवाई, कठपुतली नाच, रामलीला, रासलीला ये सब उनके संस्कार का हिस्सा थे, क्योंकि व्रत-त्योहार व नौचंदी जैसे मेले-ठेलों में हिंदू-मुसलमानों के मिश्रित सांगीतिक आयोजन आम थे। फ़िदा की हिंदुस्तानी कहन-शैली में निबद्ध आत्मकथा अपने कथ्य में बहुसंख्यक आबादी से घिरे अल्पसंख्यक-मानस की चुग़ली करती है, भले ही अपनी नाटकीय रियाजत के बारे में विश्वस्त वे प्रतिभाजी के नैतिक सवालों को अपने ही अंदाज में कुंद भी करते चलते हैं। कथावाचक का लेखकीय गद्य अपेक्षाकृत ज्यादा सधा हुआ है, लेकिन अनावश्यक विराम-चिह्नों से आक्रांत, जिससे कैथी ने निजात पा ली है, लेकिन इस गद्य में कथावाचन की मौखिकीयता झाँक-झाँक जाती है। जाहिर है कि तर्जुमानी में भाषा के विशिष्ट लबोलहजे का जो ऊबड़-खाबड़पन या लोच-लालित्य है, वह कैथी मानती हैं कि अनुवाद में किंचित चौरस हो गया है। लेकिन अनुवाद में श्रम और सूझ-बूझ की झलक साफ़ है। लेखिका ने हरेक आत्मचरित के उत्पादन के हालात और उनके कई संस्करणों से गुजरते हुए तेवर-कलेवर में हुए बदलाव की कालांकित जन्मकुण्डली विभाजन को तूल नहीं देते, राधेश्याम कथावाचक मालवीय के शिष्य और कांग्रेस के सदस्य और उसकी नागरी प्रचारिणी वाली धारा के सेवक और उपासक हैं, लेकिन आर्यसमाजी बेताब का अपना गद्य ज्यादा संकर है, उसमें खिलंदड़पन है तो मौखिक परम्पराओं से काव्यात्मक उद्धरण— रुबाई, शेरो-शायरी या छंदबद्ध कवित्त— के लिए पर्याप्त अवकाश भी।...

पारसी रंगकर्म में शेक्सपियर से ले कर कालिदास तक के लिए जगह थी, तो लैला-मजनूँ से लेकर यथार्थ घटना पर आधारित कत्ले-नजीर के लिए भी, सामाजिक और धार्मिक खेलों का तो बोलबाला था ही।

मेरे ‘श्रवण कुमार’ की कटु आलोचना निकली— आगरे के एक साहित्यिक पत्र में। श्री आग़ा हश्र ने कहीं देख ली। तो मेरे पास आकर कहा—क्यों छपवाते हो अपने नाटक? नाटक खेलने की चीज है पढ़ने की नहीं। अभी हिंदुस्तान में हिंदी इतनी नहीं उठी है— जितनी पश्चिम में अंग्रेजी। यहाँ थिएटरों में अभी लम्बे अरसे तक खिचड़ी (गिरी-पड़ी) भाषा ही चलेगी। हिंदी के ऊँचे लोग चाहते हैं ऐसी उच्च कोटि की भाषा जिसे स्टेज पर रखा जाय तो उन हिंदी के दिग्गजों के घर वाले तक नाटक देखने आवें तो न समझ सकें। कम्पनी का पहली ही रात ‘टाट’ उलट जाय। फिर इन आलोचकों को न स्टेज का ज्ञान है, न वाकयात जानते हैं। अंधाधुंध लिख मारते हैं। (मेरा नाटककाल, पृ. 176)

बेताब भी आग़ा हश्र की लेखकीय प्रतिभा के प्रशंसक थे, लेकिन यही बात बेताब को लेकर आग़ा हश्र के बारे में शायद नहीं कही जा सकती। कैथी ने ऐसे अंतर्वैयक्तिक मानीखेज प्रसंगों को अपने सम्पादन और अनुवाद में रहने दिया है, और उनकी नजर से यह बात भी नहीं छिपती कि बेताब और कथावाचक दोनों की नजर में आग़ा हश्र की शराबनोशी और तवायफ़बाजी पतनशील सामंतशाही की निशानी, लिहाजा निंदनीय है। फ़िदा हुसैन बताते हैं कि नामचीन और इज्जतदार तवायफ़ों को खास थियेटरों में दर्शक के रूप में भी घुसने की सख्त मनाही थी। हम कह सकते हैं कि आजादी के बाद आकाशवाणी में पटेल द्वारा जलावतनी दिये जाने के बहुत पहले से नृत्य-संगीत के जरिये अपनी रोजी कमाने वाली तवायफ़ों को समाज के कोने में ढकेल देने या सुधर जाने का फ़रमान जारी किया जा चुका था। साथ ही उच्च-भ्रू साहित्यिक छप-संस्कृति और लोकप्रिय रंगकर्म में एक तनाव तो उभर ही रहा था बीसवीं सदी के पहले हिस्से में, जिसके सबूत के तौर पर हम गीतिमयता आदि के लिहाज से पारसी रंगमंच से प्रभावित जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों को ले सकते हैं, जिनके बारे में समकालीन समीक्षकों और नाट्यलेखकों की आम राय बन चली थी कि इनको खेलना बहुत मुश्किल है : हिंदी नाटक पठनीय तो हैं, मंचन के लिए उपयुक्त नहीं। ‘खेल’ और ‘खेल की किताब’ के बीच एक और दिलचस्प तनाव चोरी की सम्भावना से पैदा होता है : छपा नहीं कि लोग नकल कर लेंगे और खेलते फिरेंगे। इन नाटकों के कम छापे जाने की एक वजह शायद यह भी रही। इससे मनोरंजन के बाजार में नाटक कम्पनियों की आपसी होड़ का अंदाजा लगता है।

मार्के की बात है कि अविभाजित भारत के ढेर सारे बड़े-छोटे शहरों की कम्पनियों, खासो-आम और राजे-रजवाड़ों के आश्रय और कभी-कभार दुराश्रय में परवान चढ़ते इन तमाम फ़नकारों में पारसी रंगमंच से जुड़ने की ललक अपने आस-पास पसरी कलात्मक रियाजतों से ही मिली, वैसे ही जैसे शुरुआती दौर के फ़िल्मकारों ने अपना संगीत-नृत्य-अभिनय का ककहरा समाज से ही सीखा, भले ही ज्यादातर मामलों में कलाकर्म से इनका जुड़ना शुरू-शुरू में परिवार के लिए अमंगल और समाजद्रोही कर्म माना गया। संगीत-नृत्य से वाबस्ता नायकों के खानदान में जन्मे सुंदरी को एक हद तक अपनी नातेदारियों का सहारा जरूर मिला, लेकिन अड़चनें कोई कम नहीं आयीं। कथावाचक थोड़े किस्मत वाले थे कि उनके पिता खुद प्रवचन-गायन करते थे, और उन्हें कम्पनियों के नाटक न सिर्फ़ दिखाते थे, बल्कि उस दिशा में प्रेरित भी किया करते थे। इसके बरअक्स हाजी-हाफ़िजों के खानदान में जन्मे फ़िदा को बाल्यकाल में संगीत-प्रेम के चलते बारम्बार पिटना पड़ा, उनके पान में सिंदूर डाल कर उनको महीनों तक गूँगा बना दिया गया, और उन्हें घर से भागना भी पड़ा; सुंदरी का पढ़ाई में मन न लगे, दोनों ही का हस्बेमामूल इलाज शादी में ढूँढा गया, पर मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।

ग़रज कि वो जमाना ही कुछ ऐसा था कि इतने सारे धार्मिक नाटकों को सिरजने और इनमें काम करने के बावजूद इनमें से हरेक की खुदी पर नैतिक प्रदूषण में लिथड़े होने का एक घटाटोप साया मँडराता रहता है जिससे हर चरित अपने-अपने ढंग से निबटता है, और इतने पुरस्कार-मेडल, धन-यश लाभ के बावजूद आजन्म निबटता है। बेताब के शब्दों में :

मैंने हिंदी तेरे साहित्य को बदनाम किया, फिर भी कुछ सोच के खुश हूँ कि कोई काम किया। (बेताबचरित, पृ. 79)

राधेश्यामजी तो जन्मना ग़रीब ब्राह्मण थे, और पुश्तैनी पेशे से वैष्णव कथावाचक भी, इसलिए वे न केवल धार्मिक आभा से आविष्ट आये, बल्कि उन्होंने अपने लेखन-वाचन में सनातन हिंदू धर्म व उदीयमान भाषाई शुद्धता आंदोलन की सबसे पुरजोर वकालत भी की— शायद इसीलिए साहित्य अकादेमी की आधुनिक निर्माता शृंखला में मधुरेश लिखित जीवनी उनका बढ़-चढ़ कर महिमामण्डन करती है—भले ही उन्होंने नाटकों में महिलाओं के प्रवेश का सगर्व विरोध भी किया हो। लेकिन बाकी तीनों को अपेक्षाकृत ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन एक बार राह खुल जाने के बाद फ़िदा एक दिन के लिए भी बेरोजगार नहीं रहे। बेताब ने भी रणजीत फ़िल्म्स और सरोज मूवीटोन में कथा, पटकथा, गीत व संवाद लिखकर आरामदेह जिंदगी बसर की और प्रवचन, पिंगल और उर्दू सिखाने वाले फ़िल्मेतर विषयों पर भी खूब लिखा। ब्राह्मणभट्ट-कुल में जन्मे और पेशे से हलवाई बेताब को आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश में सामाजिक इज्जत और आध्यात्मिक मुक्ति की राह मिली, तो मास्टर फ़िदा हुसैन मास्टर फ़िदा हुसैन की किताब का आवरण नरसी को योग में, और प्रदर्शनात्मक कलाओं के अभ्यस्त नायक कुल के जयशंकर सुंदरी ने पातिव्रत्य के औदात्यपूर्ण चित्रण में पहली दो नाकाम शादियों के बावजूद लम्बे समय तक चलने वाले अपने एकाकी जीवन की सार्थकता व्यक्त की। हालाँकि कैथी हमें अपने उत्तर-कथ्यों में ये बताती चलती हैं कि दुराव-छिपाव भी बहुत है, इन आत्मकथाओं में। मिसाल के तौर पर स्त्री-भूमिका करनेवाले जयशंकर सुंदरी अपनी सखियों और (आध्यात्मिक) प्रेमिकाओं के बारे में तो बताते हैं लेकिन हमजिंसों के साथ किसी आशनाई का कोई जिक्र नहीं है, उल्टे उनके यहाँ अपने मर्दाना आकर्षण और इतर-लिंगी और अलभ्य विवाहेतर प्रेम का दुर्निवार इजहार है। एक बेताब ही हैं, जो नाटक में काम करने वाले एक जवान लड़के पर एकदा दीवानावार मर-मिटने की घटना का ईमानदारी से इकरार करते हैं।

इसलिए जहाँ किताब के पहले हिस्से में कैथी नाट्यात्मचरितों के इस अभिलेखागार में छुपे इतिहासोपयोगी बेशुमार रत्नों में से कुछ की शिनाख्त करती हैं, फिर आत्मकथाओं से पाठकों को गुजार लेने के बाद दूसरे हिस्से में उनकी खामोशियों और विसंगतियों का बारीक पाठ भी। नतीजा निकलता है कि बतौर विधा हमें आत्मकथा में अगर ऐसी कोई शै होती है तो भी सम्पूर्ण सत्य के निदर्शन का मुग़ालता नहीं पालना चाहिए। यह नसीहत कैथी ने आत्मकथा पर हुए सैद्धांतिक चिंतन पर भी नजरे-सानी करते हुए दी है, और इस मामले में तथाकथित पाश्चात्य प्रगल्भता व हिंदुस्तानी संकोच के अपरीक्षित विरोध की भी परीक्षा की है और पौर्वात्य संकोचशीलता को संस्कृत-फ़ारसीउर्दू की अदबी परम्परा की शैलीगत विशिष्टता-भर माना है, यह सलाह देते हुए कि आत्मचरितकारों के बारम्बार घोषित खुदी के नाचीजपन को अक्षरशः मानने का कोई मतलब नहीं। साथ ही वे ये रेखांकित जरूर करती हैं कि आत्मकथाओं की ऐतिहासिक विरासत में एक तर-तमता या पदानुक्रम तो रहा ही है, उनमें वैचारिक आग्रहों-दुराग्रहों का आवेश भी रहा है। लिहाजा हर आत्मकथा अंततः एक प्रदर्शन है, एक तरह का अभिनय, और कैथी जिन पर विचार कर रही हैं, वे तो अभिनय करनेकराने वालों का आत्मकथ्य होने के चलते डबल-प्रदर्शन के तौर पर देखे जाने लायक माना जाना चाहिए। इनके वास्तविक अभिनय को जहाँ टिकटों की बिक्री, और वन्स मोर की माँग की कसौटी पर खरा सिद्ध होना होता था— ऐसा अभिनय जिसके पीछे लम्बी साधना और सीखने की सतत ललक बेशक मौजूद है, वहीं लिखित और छपित रूप में कृत्यों की आत्मकहानी जीवन-भर के संस्मरणों के रूढ़ होते जाने की दास्तान भी तो है। और इस रूप में उसे छप-संस्कृति में पहले से मौजूद ऐसी कृतियों के मुकाबले खड़ा होना पड़ेगा, कथ्य और शिल्प दोनों के हिसाब से। लेकिन सबसे दिलचस्प बात यही कि आत्मकथाकार अपने जीवन को चाहे जैसे लिख दे, आने वाली पीढ़ियाँ तो उसे अपने ही ढंग-ढर्रे से पढ़ेंगी और संस्कृतिकर्म के इतिहास से जुड़े हम विद्यार्थियों को इनका और कैथी का शुक्रगुजार होना चाहिए कि इन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज में अपनी रामकहानी हमारे सामने पेश की, और उनके लिए हमदर्दी की भावना कैथी की नीर-क्षीर-विवेकशीलता की राह में नहीं आती।

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: पारसी-नाट्यात्मचरित का तारीखी पिटारा
पारसी-नाट्यात्मचरित का तारीखी पिटारा
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsVylnYHmhKZEdvGKXeFlD2AAPgaaJ0W2Q350xccZs6VYakqxG3C0X4OpUp-kWc9AZ9nFPCCoUZDR_U9fpO88s-AnkgFgeKNWBzRWI4-OhEn_uqjq8HVw7gaEoFxGlitGX7qMA/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsVylnYHmhKZEdvGKXeFlD2AAPgaaJ0W2Q350xccZs6VYakqxG3C0X4OpUp-kWc9AZ9nFPCCoUZDR_U9fpO88s-AnkgFgeKNWBzRWI4-OhEn_uqjq8HVw7gaEoFxGlitGX7qMA/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2015/10/blog-post_85.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2015/10/blog-post_85.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content