रविकान्त स्टेजेज ऑफ़ लाइफ़ : इण्डियन थिएटर ऑटोबायॉग्रॅफ़ीज कैथरिन हैन्सन पर्मानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2011 मूल्य : 750 रु. पृ.सं. 374. हमा...
रविकान्त
स्टेजेज ऑफ़ लाइफ़ : इण्डियन थिएटर ऑटोबायॉग्रॅफ़ीज
कैथरिन हैन्सन
पर्मानेंट ब्लैक, रानीखेत, 2011 मूल्य : 750 रु. पृ.सं. 374.
हमारे पाठक शायद जानते होंगे कि टेक्सॅस ऑस्टिन में फ़िलवक्त एमेरिटस प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत कैथरिन (कैथी) हैन्सन ने भारतीय नाटक को अपनी जिंदगी का मश्ग़ला बना लेने के बहुत पहले हिंदी के हरदिलअजीज लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पर न सिर्फ़ अपना अद्भुत शोध-प्रबंध लिखा था, बल्कि उनकी छोटी-बड़ी गल्प-कृतियों का अंग्रेजी में बखूबी अनुवाद भी किया। उनके पास हिंदुस्तानी साहित्य, भाषा व नाटकीय रियाजतों का भाष्य करने, क्लास के अंदर और बाहर उनकी तर्जुमानी करने का दहाइयों का तजुर्बा है, और यह तजुर्बा इस किताबी पिटारे में कूट-कूट कर भरा है। पिटारा इसलिए क्योंकि इसमें न सिर्फ़ लोकप्रिय नाटक से जुड़ी चार आदिविभूतियों की आत्मकथाओं के संक्षेपणों के कुशल अनुवाद हैं, बल्कि बतौर विधा आत्मकथा और उसकी ऐतिहासिकता पर चिंतन भी है— उस देशकाल और परिवेश पर तो है ही जिनमें इनकी रचना हुई थी। पिटारा इसलिए भी कि इन आत्मकथाओं में और कैथी के हाथों उनके विश्लेषण-संश्लेषण के जरिये व्यावसायिक नाटक मण्डलियों की पूर्वपीठिका, कार्यकलाप, कार्यशैली, अनुशासन, प्रबंधन, चिंताओं, सरोकारों, नफ़ा-नुकसान और संघर्षों का एक पूरा इतिहास जीवंत हो उठता है। हमें पता चलता है कि अलग-अलग सामाजिक-पारिवारिक पृष्ठभूमियों से आकर, अलग-अलग भाषाई और रचनात्मक औजारोंसंस्कारों से लैस इन कलाकारों की एक हद तक समांतर चलती पेशेवर जीवनयात्राएँ ऐसी रहीं तो क्यों, और उनके ये बयान इन अल्फ़ाज और अंदाज में ही हमारे सामने क्यों पेश होते हैं, इनकी खुसूसी उपलब्धियाँ क्या हैं, और खामोशियाँ कौन-सी? हिंदी पाठक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की बहुभाषी मेहरबानी से पत्रिका रंग-प्रसंग व अन्य स्वतंत्र प्रकाशनों के जरिये नारायण प्रसाद ‘बेताब’ (1872-1945),
आग़ा हश्र काश्मीरी (1879-1935), राधेश्याम कथावाचक (1890-1963), जयशंकर सुंदरी (दायें) बाबूलाल नायक के साथ ‘स्नेह सरिता’ में मास्टर फ़िदा हुसैन (1899-2001) व जयशंकर सुंदरी (1989-1975) के जीवन व रचनाकर्म से पहले से वाकिफ़ हैं, और समीक्ष्य किताब अंग्रेजी के पाठकों को सम्बोधित है, लेकिन उन्नीसवीं सदी की करवट से लेकर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक व्यस्त इन आत्मचरितकारों के बकलमखुद बयानों पर ऐसा दुर्लभ और समग्र चिंतन तो उनके लिए भी यकीनन उपादेय है। कई नायाब सफ़ेद-स्याह तस्वीरों, और नाटक-मण्डलियों से जुड़ी शख्सियतों पर दिये गये मालूमात से लबरेज पुछल्लों और सुंदरी के एक चरित्र-चित्र के दिलकश आमुख से सजी यह किताब अपने गद्य में प्रसादगुण-सम्पन्न और विषय के प्रति कैथी के जीवनपर्यंत प्रेम व जिज्ञासु प्रतिबद्धता का सबूत है। इस एक पिटारे में उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टियों को निचोड़ा-भर नहीं है बल्कि अपने चिंतन को यत्किंचित विस्तार भी दिया है।
कथ्य, शिल्प, सौष्ठव, अंदाज्ोबयाँ और पैदाइश के नुक्तों से दो कवि-लेखकों और दो अदाकारों की ये चार आत्मकथाएँ एक-दूसरे से जाहिरा तौर पर अलहदा हैं। फ़िदा हुसैन नरसी की कहानी अंततः दास्तानगोई की ताजपोशी करती है, हालाँकि यह प्रतिभा अग्रवाल के साथ कई सत्रों में की गयी उनकी बातचीत से उपजकर उसी शक्ल में लिखी गयी। उसी तरह कुछ लिख कर, ज्यादातर बोलकर लिखाई और कई संस्करणों से गुजरती हुई गुजराती-उर्दू रंगमंच पर सक्रिय जयशंकर सुंदरी की आत्मकथा कैथी के हिसाब से पाश्चात्य शैली की आत्मकथा है, जिसमें कहानी मिला-जुला कर तारीखवार चलती है। इन दोनों के उपनाम इनके खुसूसी तौर पर मशहूर और बार-बार दुहराए गये पात्राभिनयों (नरसी भगत और सौभाग्य सुंदरी) से निकलकर जनश्रुति में इनकी पहचान का हिस्सा बन गये। जमाने की रिवायत के मुताबिक फ़िदा ने कई सालों तक स्त्री-भूमिकाएँ कीं और सुंदरी ने सिर्फ़ एक बार पुरुष भूमिका निभाने की नाकाम कोशिश की। अलबत्ता दोनों ही ने हिदायतकारी यानी निर्देशन, प्रबंधन और प्रशिक्षण का काम भी लम्बे समय तक अंजाम दिया, और गायन तो उनके अभिनय का अटूट हिस्सा था ही। फ़िदा ने छोटी-मोटी भूमिकाएँ फ़िल्मों के लिए भी कीं, लेकिन बस यूँ ही, उनका ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्डिंग का सिलसिला कुछ ज्यादा जमा। बहुपठित राधेश्याम कथावाचक ने सिनेमा के लिए भी लिखा, लेकिन उतना नहीं, और अल्पपठित बेताब ने बहुत-कुछ, और बाकायदा बम्बई में बसकर लम्बे समय तक लिखा। कथावाचक और बेताब ने— जिन्हें छापाखाने में प्रूफ़रीडरी के जरिये नाटकों में प्रवेश का पास मिला— तो बाकायदा छापाखाने स्थापित किये और चलाए। कैथी यह रेखांकित करना नहीं भूलतीं कि फ़िदा भी किसी समय प्रेस में काम करते थे, और यह कि छापे के कारोबार में उस जमाने के युवा रोजगार का सहल-सुलभ जरिया देखते थे। यानी थिएटर की दुनिया के तार किस तरह भजन-प्रवचन, ग़जल-कव्वालीमुजरे, छापाखाने, ग्रामोफ़ोन और सिनेमा की दुनिया से जुड़े हुए हैं, यह देखना दिलचस्प है।
अर्थार्जन, उत्पादन व सर्जन में लगी शख्सियतों, कथानकों और शैलियों के प्रवाह के दृष्टिकोण से पारसी नाटक अंतर्क्षेत्रीय ही नहीं पराक्षेत्रीय था, वैसे ही जैसे कि शुरू से ही सिनेमा था। गुजराती सुंदरी बड़े अरमान से उर्दू सीखते हैं क्योंकि ग़जलों-नजमों के बिना पारसी नाटक मुमकिन नहीं होता। बोलती फ़िल्मों के बाद तो फ़िल्मी गीत भी अक्सर नाटकों के लिए तर्ज्ं मुहैय्या कराने लगे लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शुरुआती दौर की फ़िल्मसाजी पर पारसी फ़िदा ने कई सालों तक स्त्री-भूमिकाएँ कीं और सुंदरी ने सिर्फ़ एक बार पुरुष भूमिका निभाने की नाकाम कोशिश की।... फ़िदा ने छोटी-मोटी भूमिकाएँ फ़िल्मों के लिए भी कीं, लेकिन बस यूँ ही, उनका ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्डिंग का सिलसिला कुछ ज्यादा जमा।
बहुपठित राधेश्याम कथावाचक ने सिनेमा के लिए भी लिखा, लेकिन उतना नहीं, और अल्पपठित बेताब ने बहुत-कुछ, और बाकायदा बम्बई में बसकर लम्बे समय तक लिखा।
कथावाचक और बेताब ने— जिन्हें छापाखाने में प्रूफ़रीडरी के जरिये नाटकों में प्रवेश का पास मिला— तो बाकायदा छापाखाने नाट्यचर्या की स्पष्ट छाप है। सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर अदायगी की उस शैली से आजन्म उऋण नहीं हो पाए। इस तरह सिनेमा और पारसी रंगकर्म के इतिहास में जहाँ वाचाल सिनेमा द्वारा नाटक को ग्रस लेने का सियापा आम है, लेकिन इस दो-तरफ़ा आवाजाही, लेन-देन या दोनों की रूपगत निरंतरता पर बात कम हुई है। उसी तरह कैथी की उँगली पकड़कर अगर पारसी रंगमंच को अगर औपनिवेशिक मुठभेड़ का नतीजा मानते हुए आधुनिक मनोरंजन का एक घुमंतू शहरी आयोजन स्थापित किये और चलाए।
फ़र्ज कीजिए कि शो का मुकर्रर वक्त साढ़े नौ बजे है, तो आठ बजे मंदिरों में लटकने वाली-जैसा पहला घंटा सौ बार बजेगा, दूसरा 8.15 पर पचास बार और तीसरा पच्चीस बार बजता था 8.30 पर, तब तक आपकी भूमिका चाहे आखिरी सीन में हो लेकिन आपको खुद को रंग-पोत कर मंगलगान के लिए हाजिर हो जाना होता था। रिहर्सल में सबसे उम्मीद की जाती थी कि हर किसी का पार्ट उसको याद हो जाए, ताकि वक्त-बेवक्त काम आये।
... क्योंकि पितरस बुखारी और नाटक-लेखक इम्तियाज अली ताज के व्यंग्यात्मक मजामीन में चाचा छक्कन जैसे किरदारों का सिनेमा देखने जाने में लेट-लतीफ़ी बरतना उनके उपहास को स्वीकार करें, तो कहना पड़ेगा कि आधुनिकता का ये तजुर्बा हमारे चरितकारों ने एक खास तरह की जिंदगी जीते हुए किया। यह जिंदगी एक खास तरह के आधुनिक समयबद्ध अनुशासन में कई-कई शहरों में रोजाना रियाज और ‘शो’ के प्रति पेशेवर प्रतिबद्धता का नमूना है, जो दर्शकों की पसंद-नापसंद पर टिकी थी। अल्फ़्रेड, न्यू अल्फ़्रेड, कोरिन्थियन या गुजरात नाटक मण्डली-जैसे नाम वाली कम्पनियाँ लम्बी-लम्बी रेलगाड़ियों में तंबू-कनात, झाड़-फ़ानूस, पर्दे-कुर्सियाँ, और प्रकाश व्यवस्था का अपना साजो-सामान लेकर एक शहर से दूसरे शहर, एक मेले से दूसरे में जाती थी। इन आयोजनों में और फ़नकारों में एक बड़ी पूँजी लगी होती थी, जिन्हें कम्पनियाँ ठेके और आकर्षक पगार की डोर से बाँधकर रखती थीं। हर शो एक टीमवर्क होता था, कुशल जन-प्रबंधन की एक मिसाल, जिसके लिए सहयोग और अनुशासन दोनों जरूरी थे।
अब वक्त की बड़ी और अस्पष्ट इकाइयों को छोटी और माप्य इकाइयों में घटा कर जीवन को तदनुरूप ढालने और बरतने का नाम अगर आधुनिकता है तो नाटक कम्पनियों ने इसके कठोर अनुपालन में कोई कसर नहीं छोड़ी। वैसे तो हरेक चरित में इस नये कालबोध से तआरुफ़ हासिल करने का जिक्र है, लेकिन फ़िदा हुसैन के जीवन से मिसाल लेते हैं। वे फ़रमाते हैं कि न्यू अल्फ़्रेड में नाश्ते का एक खास वक्त मुकर्रर था, और अगर आप देर से पहुँचे तो आप चाहे बड़े सितारे ही क्यों न हों, आपको नाश्ता नहीं मिलेगा। कम्पनी ने वक्त की पाबंदी लागू करने के लिए चौथ नामक अमले को एक ज्ोनिथ घड़ी दी हुई थी, जिसे वह सुबह सात बजे समय मिलाने के लिए या तो रेलवे स्टेशन ले जाता था या पोस्ट ऑफ़िस। फ़र्ज कीजिए कि शो का मुकर्रर वक्त साढ़े नौ बजे है, तो 8ः00 बजे मंदिरों जैसा विशालकाय घंटा पहली मर्तबा सौ बार बजेगा, दूसरी मर्तबा 8.15 पर पचास बार और तीसरे दफ़े पच्चीस बार बजता था 8.30 पर। तब तक आपकी भूमिका चाहे आखिरी सीन में हो लेकिन आपको खुद को रंग-पोत कर मंगलगान के लिए हाजिर हो जाना होता था। रिहर्सल में सबसे उम्मीद की जाती थी कि हर किसी का पार्ट उनको याद हो जाए, ताकि वक्त-बेवक्त काम आये। आखिरी मिनट तक बरती गयी इस तरह की पाबंदी का रियाज धीरे-धीरे दर्शकों को भी हो गया होगा। क्योंकि पितरस बुखारी और नाटक-लेखक इम्तियाज अली ताज के व्यंग्यात्मक मजामीन में चाचा छक्कन जैसे किरदारों का सिनेमा देखने जाने में लेट-लतीफ़ी बरतना कारण बनता है। उनके उपहास का कारण बनता है। बाद में चलकर जिसकी घड़ी से सारी घड़ियाँ मिलाई जाती थीं, यानी रेडियो की, उसने अपने कर्मचारियों और श्रोताओं दोनों को समय के आधुनिक पाठ पढ़ाए, ये दीगर बात है कि गायक की भूमिका में उतरे कुंदन लाल सहगल (फ़िल्म दुश्मन, 1939) से लेकर राजेश खन्ना (अनुरोध, 1977) तक रेडियो की इस सख्त पाबंदी की रिवायत से जूझते हैं। किस्सा कोताह यही कि हमारे नाट्यचरितकारों ने कम्पनी नाटकों में अनुशासन, रियाजत और शेवराना रवैये को रेखांकित करते हुए नये तरह के वक्त की नयी पाबंदी को हैरत और प्रशंसा के भाव से याद किया है। फ़िदा किसी भी समुदायगत दिलचस्प यह भी है कि भाषा-व्यवहार को लेकर बरेली से लेकर बुलंदशहर तक फैले उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों-कस्बों के तीन बाशिंदों की संवेदनाएँ भी किंचित भिन्न हैंः फ़िदा किसी भी समुदायगत विभाजन को तूल नहीं देते, राधेश्याम कथावाचक मालवीय के शिष्य और कांग्रेस के सदस्य और उसकी नागरी प्रचारिणी वाली धारा के सेवक और उपासक हैं, लेकिन आर्यसमाजी बेताब का अपना गद्य ज्यादा संकर है, उसमें खिलंदड़पना है तो मौखिक परम्पराओं से काव्यात्मक उद्धरण— रुबाई, शेरो-शायरी या छंदबद्ध कवित्त— के लिए पर्याप्त अवकाश भी। और हो भी क्यों नहीं, आखिरकार नित नये प्रयोग परोस कर मुनाफ़ा कमाने वाले पारसी रंगकर्म में शेक्सपियर से ले कर कालिदास तक के लिए जगह थी, तो लैला-मजनूँ से लेकर यथार्थ घटना पर आधारित कत्ले-नजीर के लिए भी, सामाजिक और धार्मिक खेलों का तो बोलबाला था ही। मानना पड़ता है कि सिनेमा से पहले की अगर कोई संगम-विधा थी तो यही— क्योंकि हरेक आत्मचरितकार अपनी-अपनी सांस्कृतिक विरासत से प्रेरणा लेता है : गीत गोविंद की अष्टपदियाँ, रामायण की चौपाइयाँ, प्रेमानंद के आख्यान, स्वाँग, नौटंकी, भवाई, कठपुतली नाच, रामलीला, रासलीला ये सब उनके संस्कार का हिस्सा थे, क्योंकि व्रत-त्योहार व नौचंदी जैसे मेले-ठेलों में हिंदू-मुसलमानों के मिश्रित सांगीतिक आयोजन आम थे। फ़िदा की हिंदुस्तानी कहन-शैली में निबद्ध आत्मकथा अपने कथ्य में बहुसंख्यक आबादी से घिरे अल्पसंख्यक-मानस की चुग़ली करती है, भले ही अपनी नाटकीय रियाजत के बारे में विश्वस्त वे प्रतिभाजी के नैतिक सवालों को अपने ही अंदाज में कुंद भी करते चलते हैं। कथावाचक का लेखकीय गद्य अपेक्षाकृत ज्यादा सधा हुआ है, लेकिन अनावश्यक विराम-चिह्नों से आक्रांत, जिससे कैथी ने निजात पा ली है, लेकिन इस गद्य में कथावाचन की मौखिकीयता झाँक-झाँक जाती है। जाहिर है कि तर्जुमानी में भाषा के विशिष्ट लबोलहजे का जो ऊबड़-खाबड़पन या लोच-लालित्य है, वह कैथी मानती हैं कि अनुवाद में किंचित चौरस हो गया है। लेकिन अनुवाद में श्रम और सूझ-बूझ की झलक साफ़ है। लेखिका ने हरेक आत्मचरित के उत्पादन के हालात और उनके कई संस्करणों से गुजरते हुए तेवर-कलेवर में हुए बदलाव की कालांकित जन्मकुण्डली विभाजन को तूल नहीं देते, राधेश्याम कथावाचक मालवीय के शिष्य और कांग्रेस के सदस्य और उसकी नागरी प्रचारिणी वाली धारा के सेवक और उपासक हैं, लेकिन आर्यसमाजी बेताब का अपना गद्य ज्यादा संकर है, उसमें खिलंदड़पन है तो मौखिक परम्पराओं से काव्यात्मक उद्धरण— रुबाई, शेरो-शायरी या छंदबद्ध कवित्त— के लिए पर्याप्त अवकाश भी।...
पारसी रंगकर्म में शेक्सपियर से ले कर कालिदास तक के लिए जगह थी, तो लैला-मजनूँ से लेकर यथार्थ घटना पर आधारित कत्ले-नजीर के लिए भी, सामाजिक और धार्मिक खेलों का तो बोलबाला था ही।
मेरे ‘श्रवण कुमार’ की कटु आलोचना निकली— आगरे के एक साहित्यिक पत्र में। श्री आग़ा हश्र ने कहीं देख ली। तो मेरे पास आकर कहा—क्यों छपवाते हो अपने नाटक? नाटक खेलने की चीज है पढ़ने की नहीं। अभी हिंदुस्तान में हिंदी इतनी नहीं उठी है— जितनी पश्चिम में अंग्रेजी। यहाँ थिएटरों में अभी लम्बे अरसे तक खिचड़ी (गिरी-पड़ी) भाषा ही चलेगी। हिंदी के ऊँचे लोग चाहते हैं ऐसी उच्च कोटि की भाषा जिसे स्टेज पर रखा जाय तो उन हिंदी के दिग्गजों के घर वाले तक नाटक देखने आवें तो न समझ सकें। कम्पनी का पहली ही रात ‘टाट’ उलट जाय। फिर इन आलोचकों को न स्टेज का ज्ञान है, न वाकयात जानते हैं। अंधाधुंध लिख मारते हैं। (मेरा नाटककाल, पृ. 176)
बेताब भी आग़ा हश्र की लेखकीय प्रतिभा के प्रशंसक थे, लेकिन यही बात बेताब को लेकर आग़ा हश्र के बारे में शायद नहीं कही जा सकती। कैथी ने ऐसे अंतर्वैयक्तिक मानीखेज प्रसंगों को अपने सम्पादन और अनुवाद में रहने दिया है, और उनकी नजर से यह बात भी नहीं छिपती कि बेताब और कथावाचक दोनों की नजर में आग़ा हश्र की शराबनोशी और तवायफ़बाजी पतनशील सामंतशाही की निशानी, लिहाजा निंदनीय है। फ़िदा हुसैन बताते हैं कि नामचीन और इज्जतदार तवायफ़ों को खास थियेटरों में दर्शक के रूप में भी घुसने की सख्त मनाही थी। हम कह सकते हैं कि आजादी के बाद आकाशवाणी में पटेल द्वारा जलावतनी दिये जाने के बहुत पहले से नृत्य-संगीत के जरिये अपनी रोजी कमाने वाली तवायफ़ों को समाज के कोने में ढकेल देने या सुधर जाने का फ़रमान जारी किया जा चुका था। साथ ही उच्च-भ्रू साहित्यिक छप-संस्कृति और लोकप्रिय रंगकर्म में एक तनाव तो उभर ही रहा था बीसवीं सदी के पहले हिस्से में, जिसके सबूत के तौर पर हम गीतिमयता आदि के लिहाज से पारसी रंगमंच से प्रभावित जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों को ले सकते हैं, जिनके बारे में समकालीन समीक्षकों और नाट्यलेखकों की आम राय बन चली थी कि इनको खेलना बहुत मुश्किल है : हिंदी नाटक पठनीय तो हैं, मंचन के लिए उपयुक्त नहीं। ‘खेल’ और ‘खेल की किताब’ के बीच एक और दिलचस्प तनाव चोरी की सम्भावना से पैदा होता है : छपा नहीं कि लोग नकल कर लेंगे और खेलते फिरेंगे। इन नाटकों के कम छापे जाने की एक वजह शायद यह भी रही। इससे मनोरंजन के बाजार में नाटक कम्पनियों की आपसी होड़ का अंदाजा लगता है।
मार्के की बात है कि अविभाजित भारत के ढेर सारे बड़े-छोटे शहरों की कम्पनियों, खासो-आम और राजे-रजवाड़ों के आश्रय और कभी-कभार दुराश्रय में परवान चढ़ते इन तमाम फ़नकारों में पारसी रंगमंच से जुड़ने की ललक अपने आस-पास पसरी कलात्मक रियाजतों से ही मिली, वैसे ही जैसे शुरुआती दौर के फ़िल्मकारों ने अपना संगीत-नृत्य-अभिनय का ककहरा समाज से ही सीखा, भले ही ज्यादातर मामलों में कलाकर्म से इनका जुड़ना शुरू-शुरू में परिवार के लिए अमंगल और समाजद्रोही कर्म माना गया। संगीत-नृत्य से वाबस्ता नायकों के खानदान में जन्मे सुंदरी को एक हद तक अपनी नातेदारियों का सहारा जरूर मिला, लेकिन अड़चनें कोई कम नहीं आयीं। कथावाचक थोड़े किस्मत वाले थे कि उनके पिता खुद प्रवचन-गायन करते थे, और उन्हें कम्पनियों के नाटक न सिर्फ़ दिखाते थे, बल्कि उस दिशा में प्रेरित भी किया करते थे। इसके बरअक्स हाजी-हाफ़िजों के खानदान में जन्मे फ़िदा को बाल्यकाल में संगीत-प्रेम के चलते बारम्बार पिटना पड़ा, उनके पान में सिंदूर डाल कर उनको महीनों तक गूँगा बना दिया गया, और उन्हें घर से भागना भी पड़ा; सुंदरी का पढ़ाई में मन न लगे, दोनों ही का हस्बेमामूल इलाज शादी में ढूँढा गया, पर मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।
ग़रज कि वो जमाना ही कुछ ऐसा था कि इतने सारे धार्मिक नाटकों को सिरजने और इनमें काम करने के बावजूद इनमें से हरेक की खुदी पर नैतिक प्रदूषण में लिथड़े होने का एक घटाटोप साया मँडराता रहता है जिससे हर चरित अपने-अपने ढंग से निबटता है, और इतने पुरस्कार-मेडल, धन-यश लाभ के बावजूद आजन्म निबटता है। बेताब के शब्दों में :
मैंने हिंदी तेरे साहित्य को बदनाम किया, फिर भी कुछ सोच के खुश हूँ कि कोई काम किया। (बेताबचरित, पृ. 79)
राधेश्यामजी तो जन्मना ग़रीब ब्राह्मण थे, और पुश्तैनी पेशे से वैष्णव कथावाचक भी, इसलिए वे न केवल धार्मिक आभा से आविष्ट आये, बल्कि उन्होंने अपने लेखन-वाचन में सनातन हिंदू धर्म व उदीयमान भाषाई शुद्धता आंदोलन की सबसे पुरजोर वकालत भी की— शायद इसीलिए साहित्य अकादेमी की आधुनिक निर्माता शृंखला में मधुरेश लिखित जीवनी उनका बढ़-चढ़ कर महिमामण्डन करती है—भले ही उन्होंने नाटकों में महिलाओं के प्रवेश का सगर्व विरोध भी किया हो। लेकिन बाकी तीनों को अपेक्षाकृत ज्यादा मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन एक बार राह खुल जाने के बाद फ़िदा एक दिन के लिए भी बेरोजगार नहीं रहे। बेताब ने भी रणजीत फ़िल्म्स और सरोज मूवीटोन में कथा, पटकथा, गीत व संवाद लिखकर आरामदेह जिंदगी बसर की और प्रवचन, पिंगल और उर्दू सिखाने वाले फ़िल्मेतर विषयों पर भी खूब लिखा। ब्राह्मणभट्ट-कुल में जन्मे और पेशे से हलवाई बेताब को आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश में सामाजिक इज्जत और आध्यात्मिक मुक्ति की राह मिली, तो मास्टर फ़िदा हुसैन मास्टर फ़िदा हुसैन की किताब का आवरण नरसी को योग में, और प्रदर्शनात्मक कलाओं के अभ्यस्त नायक कुल के जयशंकर सुंदरी ने पातिव्रत्य के औदात्यपूर्ण चित्रण में पहली दो नाकाम शादियों के बावजूद लम्बे समय तक चलने वाले अपने एकाकी जीवन की सार्थकता व्यक्त की। हालाँकि कैथी हमें अपने उत्तर-कथ्यों में ये बताती चलती हैं कि दुराव-छिपाव भी बहुत है, इन आत्मकथाओं में। मिसाल के तौर पर स्त्री-भूमिका करनेवाले जयशंकर सुंदरी अपनी सखियों और (आध्यात्मिक) प्रेमिकाओं के बारे में तो बताते हैं लेकिन हमजिंसों के साथ किसी आशनाई का कोई जिक्र नहीं है, उल्टे उनके यहाँ अपने मर्दाना आकर्षण और इतर-लिंगी और अलभ्य विवाहेतर प्रेम का दुर्निवार इजहार है। एक बेताब ही हैं, जो नाटक में काम करने वाले एक जवान लड़के पर एकदा दीवानावार मर-मिटने की घटना का ईमानदारी से इकरार करते हैं।
इसलिए जहाँ किताब के पहले हिस्से में कैथी नाट्यात्मचरितों के इस अभिलेखागार में छुपे इतिहासोपयोगी बेशुमार रत्नों में से कुछ की शिनाख्त करती हैं, फिर आत्मकथाओं से पाठकों को गुजार लेने के बाद दूसरे हिस्से में उनकी खामोशियों और विसंगतियों का बारीक पाठ भी। नतीजा निकलता है कि बतौर विधा हमें आत्मकथा में अगर ऐसी कोई शै होती है तो भी सम्पूर्ण सत्य के निदर्शन का मुग़ालता नहीं पालना चाहिए। यह नसीहत कैथी ने आत्मकथा पर हुए सैद्धांतिक चिंतन पर भी नजरे-सानी करते हुए दी है, और इस मामले में तथाकथित पाश्चात्य प्रगल्भता व हिंदुस्तानी संकोच के अपरीक्षित विरोध की भी परीक्षा की है और पौर्वात्य संकोचशीलता को संस्कृत-फ़ारसीउर्दू की अदबी परम्परा की शैलीगत विशिष्टता-भर माना है, यह सलाह देते हुए कि आत्मचरितकारों के बारम्बार घोषित खुदी के नाचीजपन को अक्षरशः मानने का कोई मतलब नहीं। साथ ही वे ये रेखांकित जरूर करती हैं कि आत्मकथाओं की ऐतिहासिक विरासत में एक तर-तमता या पदानुक्रम तो रहा ही है, उनमें वैचारिक आग्रहों-दुराग्रहों का आवेश भी रहा है। लिहाजा हर आत्मकथा अंततः एक प्रदर्शन है, एक तरह का अभिनय, और कैथी जिन पर विचार कर रही हैं, वे तो अभिनय करनेकराने वालों का आत्मकथ्य होने के चलते डबल-प्रदर्शन के तौर पर देखे जाने लायक माना जाना चाहिए। इनके वास्तविक अभिनय को जहाँ टिकटों की बिक्री, और वन्स मोर की माँग की कसौटी पर खरा सिद्ध होना होता था— ऐसा अभिनय जिसके पीछे लम्बी साधना और सीखने की सतत ललक बेशक मौजूद है, वहीं लिखित और छपित रूप में कृत्यों की आत्मकहानी जीवन-भर के संस्मरणों के रूढ़ होते जाने की दास्तान भी तो है। और इस रूप में उसे छप-संस्कृति में पहले से मौजूद ऐसी कृतियों के मुकाबले खड़ा होना पड़ेगा, कथ्य और शिल्प दोनों के हिसाब से। लेकिन सबसे दिलचस्प बात यही कि आत्मकथाकार अपने जीवन को चाहे जैसे लिख दे, आने वाली पीढ़ियाँ तो उसे अपने ही ढंग-ढर्रे से पढ़ेंगी और संस्कृतिकर्म के इतिहास से जुड़े हम विद्यार्थियों को इनका और कैथी का शुक्रगुजार होना चाहिए कि इन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज में अपनी रामकहानी हमारे सामने पेश की, और उनके लिए हमदर्दी की भावना कैथी की नीर-क्षीर-विवेकशीलता की राह में नहीं आती।
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