लेबनान की कविताएँ अदूनीस अदूनीस आधुनिक अरबी कविता के अग्रदूत हैं। उनका पैतृक नाम अली अहमद सईद है और जन्म 1930 में, सीरिया के एक गाँव ...
लेबनान की कविताएँ
अदूनीस
अदूनीस आधुनिक अरबी कविता के अग्रदूत हैं। उनका पैतृक नाम अली अहमद सईद है और जन्म 1930 में, सीरिया के एक गाँव में हुआ। बेरुत स्थित दमिश्क विश्वविद्यालय और सेंट जोसेफ़ यूनिवर्सिटी से उन्होंने दर्शनशास्त्र का उच्च अध्ययन किया। सीरियाई नेशनल सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता हासिल की और उसमें राजनीतिक हिस्सेदारी के कारण छः महीने जेल में रहे। 1956 में स्वदेश का मोह त्याग लेबनान जा बसे और वहाँ की नागरिकता ग्रहण कर ली। देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में अरबी साहित्य के प्रोफे़सर, विज़िटिंग प्रोफे़सर रह चुके हैं और प्रायः एक से दूसरा देश बदलते हुए, यूरोप प्रवासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अदूनीस का पहला कविता संग्रह 1957 में प्रकाशित हुआ। उसके अगले वर्ष 1958 में, उन्होंने ‘मवाकि़फ़’ नाम से एक अदबी रिसाला शुरू किया और उसके जरिये अरबी कविता को रूढ़ियों की जकड़बंदी से बाहर निकालकर अरबी अस्मिता के आधुनिक जलते सवालों से मुख़ातिब किया।
द्वितीय विश्वयुद्धेत्तर आधुनिक अरबी कविता में अदूनीस का नाम इसलिए भी अलग अहमियत रखता है, कि उन्होंने काव्य-सृजन के अलावा, अरबी ज़बान और अदब में आलोचना और सैद्धांतिकी की नयी ज़मीन भी तैयार की और नयी जमातों का मार्गदर्शन दिया। अदूनीस की अनेक काव्य-कृतियाँ और आलोचना पुस्तकें अरबी के साथ-साथ अंग्रेजी अनुवाद में आ चुकी हैं। प्रस्तुत हिंदी अनुवाद उनके दो परवर्ती कविता संग्रहों (अंग्रेजी अनुवाद में) ‘एन इंट्रोडक्शन टू दि हिस्ट्री आफ़ दि पेट्टि किंग्स’, ‘दिस इज़ माइ नेम’ के आधार पर किये गये हैं।
अनुवाद - सुरेश सलिल
1
खुला मैदान मेरा धागा था-
मैं राख से ढका ज्वालामुखी का मुँह,
मैंने शहर को फिर से जोड़ा
और मैंने लिखा शहर को
(शहर जब घसीटा जा रहा था
और उसकी आहोज़ारी बेबीलोनियाई दीवारें थीं)
शहर को मैंने लिखा
ठीक जैसे ककहरा बहता है-
किसी ज़ख़्म को भरने को नहीं
न ही ममियों को फिर से जगाने को,
बल्कि नासाज़ियों को उभारने को_
ख़ून गुलाबों और कौओं को एक करता है
पुलों को टुकड़े-टुकड़े करने को
ग़मजदा चेहरों को नहलाने को
ज़माने से बहते आ रहे ख़ून में
2
ओ ख़ून, जमते हुए, बहते हुए तकरीर के रेगिस्तान के मानिंद
ओ ख़ून, मुसीबत या अँधेरा बुनते हुए
बर्बाद हो जा
बर्बाद हो जा!...
तिरी तारीख़ का जादू टूट चुका
दफ़ना दे उसका पपड़ाया चेहरा
और बाँझ विरासत
माफ़ कर दो और छोड़ दो
ओ चिंकारा के सींगो... ओ जंगली हिरन के सींगो!...
3
मैं भौंचक हूँ, ऐ मेरे वतन,
हर बार तुम मुझे एक मुख़्तलिफ़ शक्ल में नज़र आते हो।
अब मैं तुम्हें अपनी पेशानी पर ढो रहा हूँ
अपने ख़ून और अपनी मौत के दरमियानः
तुम क़ब्रिस्तान हो या गुलाब?
बच्चों जैसे नज़र आते हो तुम मुझे, अपनी अँतड़ियाँ घसीटते
अपनी ही हथकड़ियों में गिरते-उठते,
चाबुक की हर सटकार पर मुख़्तलिफ़ चमड़ी पहनते...
एक क़ब्रिस्तान या एक गुलाब
तुमने मेरा क़त्ल किया, मेरे नग्मों का क़त्ल किया
तुम क़त्लेआम हो?...
या इंक़लाब?
मैं भौंचक हूँ, ऐ मेरे वतन,
हर बाए तुम मुझे एक मुख़्तलिफ़ शक्ल में नज़र आते हो।
4
देखोः तुम ख़त्म हो गये मगर स्वाँग ख़त्म नहीं हुआ
तुम मरे जैसे और सब मरे
जैसे हमारे पुरखों के फेफड़ों में सुबकता हुआ वक़्त
जैसे अपने रंगारंग दरवाज़े तोड़ते बादल
जैसे बालू में सोखता हुआ पानी
जैसे अमरता तोड़ती हुई चण्डूल की गर्दन
औरों की ही तरह से तुम
तुम ख़त्म हो गये मगर स्वाँग ख़त्म नहीं हुआ
औरों की ही तरह थे तुम
ख़ारिज करो औरों को!
5
उन्होंने वहाँ से शुरुआत की, तुम यहाँ से करो
एक बच्चे के इर्द-गिर्द, जो दम तोड़ रहा है
एक ढहा दिये गये मकान के इर्द-गिर्द
क़ब्ज़ाए और दूसरे मकीनों द्वारा हड़प लिये गये
यहाँ से करो शुरुआत,
गली- कूचों की आहों-कराह से
उनकी घुटन से
उस मुल्क से
जिसका नाम एक क़ब्रिस्तान में तब्दील हो गया...
यहाँ से करो शुरुआत
जैसे कोई क़हर बरपा होता है या
या जैसे बिजली गिरती है।
6
क्या तुम मर गये?
देखो, कैसे बिजली की कोख से फटी कड़क के मानिंद
हो गये तुम।
देखो, कैसे पिघले तुम
और पिघल कर नयी शक्ल पा गये।
तुम मर गये, मगर
कड़क नहीं मरी
पता है तुम्हारी जायदाद एक तम्बू की छाँह थी महज़
उसमें चीथड़े थे, कमी कभार पानी, कभी कभार एक रोटी
और तुम्हारी औलादें गंदे जोहड़ में पली बढ़ीं!
7
तुमने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा
बग़ावत की और ख़्वाब हो गये
हो गये आँखें
दरियाए- युर्दान कि किनारे किसी झोपड़ी में नुमायाँ
या गाज़ा में, येरुशलम में
वक़्ते-जनाज़ा कूचे में तूफान बरपा करते हुए और
उसे शादी के जश्न की तरह छोड़कर आगे बढ़ जाते हुए
चारों तरफ़ गूँजती तुम्हारी आवाज़ जैसे कोई समंदर
फ़ौवारे की मानिंद फूटता तुम्हारा ख़ून, जैसे कोई पर्वत
और ज़मीन जब तुम्हें अपने बिस्तर पर ले जाती है
छोड़ देते हो तुम उसे आशिक़ के लिए
और दो बार बहे अपने ख़ून की दो धाराएँ फ़तहमंद के लिए
8
मेरा इश्क़ एक ज़ख़्म है
मेरा जिस्म ज़ख़्म पर एक गुलाब
तोड़ा नहीं जा सकता जिसे मौत से पहले।
मेरा ख़ून एक शाख़ है
जो अपनी पत्तियों से झुकी
और फिर थम गईµ
क्या पत्थर कोई जवाब है?
क्या तुम्हारी मौत, वो नींद की मल्का, तुम्हारी दिलजोई करती है?
मेरे पहलू में तुम्हारे स्तनों के लिए लालसा के हाले हैं
तुम्हारे कमसिन चेहरे के लिए
एक ऐसे चेहरे के लिए, जैसे... तुम!
मैं तुम्हें तलाश नहीं कर पाया
ये मेरी लौ है जो मिटाती है
मैं तुम्हारे बाड़े में दाख़िल हुआ
मेरे दुखों के नीचे एक शहर है
वो है
जो हरी टहनियों को साँपों में तब्दील करता है
सूरज को एक सियाह आशिक़ में
है मेरे पास....
9
मैंने कहा अब मैं खुद को
हमबिस्तरी के जहन्नुम के हवाले करता हूँ, और
आग दुनिया की फ़तह के।
जम जाओ नीरो, मैंने कहा, नेज़े की तरह
क़ाइनात की भौंह में!
रोम हरेक घर है, नीरो,
रोम फंतासी है और हक़ीक़त,
रोम ख़ुदा का शहर है और तारीख़
नीरो, मैंने कहा, धँस जाओ नेज़े की तरह!
नीरो....
ब्यालू में बालू के सिवा मैंने कुछ नहीं खाया
मेरी भूख धरती की तरह घूम रही है
पत्थर, महलों, मंदिरों को मैं अर्याता हूँ बतौर रोटी
अपने तिसरैत ख़ून में मैंने एक मुसाफि़र की आँखें देखीं
लोगों को अपने बेपनाह ख़्वाबों की लहरों से
यक्दिल करते,
वहशी ख़ून में,
पयम्बरी
इल्म में दूरियों की मशाल थामे।
10
इस शहर को कहूँगा मैं लाश
और सीरिया के दरख़्तों को ग़मजदा परिंदे
(इस नामदिहानी से शायद कोई फूल
या कोई नग्मा पैदा हो!)
और सहरा के चाँद को मैं कहूँगा ताड़ का दरख़्त,
शायद ज़मीन की नींद टूटे और फिर
कोई बच्चा या बच्चे का ख़्वाब बन जाये
कुछ भी नहीं बचा गाने के लिए मेरी लय को
ग़ैर मजहबी आयेंगे और
रोशनी अपने तैशुदा वक़्त पर आयेगी...
बची है बस्स् दीवानगी।
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