हमारी पहचान - भारतवासी या .......? ( डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री पूर्व सदस्य , हिंदी सलाहकार समिति, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार 138 , एम् ...
हमारी पहचान - भारतवासी या .......?
( डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
पूर्व सदस्य , हिंदी सलाहकार समिति, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार
138 , एम् आई जी, पल्लवपुरम फेज़ - 2 , मेरठ 250 110 )
agnihotriravindra@yahoo.com
देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय के एक नेता थे - डा. सैयद महमूद। सुशिक्षित व्यक्ति थे। पत्रकार भी थे । स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के " Indian Diplomat in USA " रहे। इलाहाबाद में नेहरू जी के आनंद भवन में उनका बहुत आना - जाना था और नेहरू परिवार से उनकी बहुत निकटता थी। उन्होंने कई विदेश यात्राएं भी कीं। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान एक घटना ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। उस घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है :
" मेरे साथ जर्मनी में एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरी ज़िंदगी का रुख ही बदल दिया । जब मैंने वह घटना गांधी जी को सुनाई तो उन्होंने कहा कि इसे बार- बार और हर जगह सुनाइए और इसे सुनाते हुए कभी न थकिए।
हुआ यह कि जब मैं जर्मनी पहुंचा तो प्रो. स्मिथ से मेरी मुलाक़ात हुई। वे बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, वेद आदि के बारे में मुझसे कई सवाल किए। जब मैं उनमें से किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे पाया तो डा. स्मिथ बड़े हैरान हुए। मुझे ख्याल आया कि मैं बनारस ( वर्तमान वाराणसी) से आया हूँ। इसीलिए शायद प्रोफ़ेसर मुझे हिन्दू समझ रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि मैं हिन्दू नहीं हूँ ।
उन्होंने कहा, ‘ मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप मुसलमान हैं । आपका नाम महमूद है। आप सैयद खानदान के हैं। मगर क्या आप हाल ही में अरब से जाकर हिन्दुस्तान में बसे हैं ? ‘
इस पर मैंने जवाब दिया , ‘ नहीं, पुश्तों से हमारे आबा व अजदाद हिन्दुस्तान में रहते आए हैं और मैं भी हिन्दुस्तान में ही पैदा हुआ हूँ । ‘
‘ क्या आपने गीता पढ़ी है ? ‘ उन्होंने सवाल किया ।
मैंने कहा, ‘ नहीं । ’
उनकी हैरानी बढ़ती जा रही थी, और मैं उनकी हैरानी और सवालों से परेशान भी था, और शर्मिन्दा भी। उन्होंने फिर पूछा, ‘ मुमकिन है आप अपवाद हों, या क्या सब पढ़े - लिखे हिन्दुस्तानियों का यही हाल है ? ‘
मैंने उन्हें बताया कि ज्यादातर हिन्दुस्तानियों का, चाहे वे मुसलमान हों या हिन्दू , यही हाल है। हम एक - दूसरे के धर्मों और उनके लिटरेचर के बारे में बहुत कम जानते हैं। इस पर वे सोच में पड़ गए।
इस घटना ने मेरी ज़िन्दगी पर भी बहुत गहरा असर डाला। मैंने सोचा, वाकई , हम हिन्दुस्तानियों की कितनी बड़ी बदकिस्मती है कि हम सदियों से एक दूसरे के साथ रहते आए हैं, पर एक - दूसरे के धर्म, सभ्यता और संस्कृति तथा रस्मो - रिवाज़ से कितने अनभिज्ञ हैं। और मैंने जर्मनी में रहते हुए ही हिन्दू धर्म, ख़ास तौर पर गीता का अध्ययन शुरू कर दिया ( विस्तार से पढ़ें , नीति ; भारत विकास परिषद्, नई दिल्ली ; अगस्त 1994 , पृष्ठ 34 ) । "
उक्त घटना लगभग आठ दशक पुरानी है, पर आज भी आए दिन ऐसी घटनाएं सुनने को मिलती हैं जिनसे यही सिद्ध होता है कि हमारे देश की स्थिति में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं आया है , बल्कि अब नई पीढ़ी के सन्दर्भ में तो एक आयाम और जुड़ गया है और वह यह कि " सुशिक्षित " होने के बावजूद वे अपने ही धर्म, उसके ग्रन्थ, उसकी आधारभूत मान्यताओं आदि से अनभिज्ञ हैं। इसीलिए अनेक लोग उनके इस अज्ञान का लाभ उठाते हैं । देश में बढ़ रहे तरह - तरह के अंधविश्वास भी इसी अज्ञान का परिणाम हैं ।
लगभग चार वर्ष पहले का एक समाचार याद आ रहा है। मुंबई के पं. गुलाम दस्तगीर बिराजदार की तरह रामपुर (उत्तर प्रदेश) के श्री सैयद अब्दुल्ला तारिक सुशिक्षित व्यक्ति हैं। उन्होंने कुरान का तो अध्ययन किया ही है, साथ ही वेदों का भी अध्ययन किया है। अतः उन्हें इन महान ग्रंथों की समानताओं एवं विशेषताओं पर व्याख्यान देने के लिए जब - तब आमंत्रित किया जाता है। ऐसे ही एक व्याख्यान के लिए उन्हें हमदर्द विश्वविद्यालय, दिल्ली में बुलाया गया। लगभग दो सौ श्रोता हाल में बैठे हुए थे जिनमें लगभग साठ प्रतिशत ' हिन्दू ' थे ।
श्री तारिक ने श्रोताओं से प्रश्न किया कि जिस प्रकार कुरान मुसलमानों का , या बाइबिल ईसाइयों का आधारभूत ग्रन्थ है, ऐसा हिन्दुओं का कौन - सा ग्रन्थ है ? पर श्रोताओं में से कोई भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। ज़रा ध्यान दीजिए कि दो सौ श्रोताओं में साठ प्रतिशत हिन्दू थे, और ये कोई अनपढ़ नहीं, विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लोग थे , पर इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके। तब श्री तारिक ने स्वयं बताया कि वह ग्रन्थ है “ वेद “ जो संख्या में चार हैं। इसके बाद कुछ पूछने की गुंजाइश तो नहीं थी, फिर भी उन्होंने पूछा कि क्या किसी को कोई वेद मंत्र याद है ? क्या आपने कोई वेद देखा है ? उन्होंने मनुस्मृति और महाभारत के बारे में भी पूछा, पर उत्तर नहीं मिला ( विस्तार से पढ़ें, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली, 2 नवम्बर, 2008 , पृष्ठ 7 ) ।
कुछ वर्ष पहले सोनी टी वी पर एक कार्यक्रम देखा ' कौन बनेगा करोड़पति ' । प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन इसे संचालित कर रहे थे । जो पाठक इसकी संकल्पना से परिचित न हों उन्हें बता दूँ कि यह एक तरह की प्रतियोगिता का कार्यक्रम है और विशेष तैयारी करके ही प्रतियोगी इसमें शामिल हो पाते हैं । इसके चयनित प्रतिभागियों को दस -दस के समूह में बाँट लिया जाता है । फिर एक समूह के समक्ष एक सरल - सा प्रश्न दिया जाता है जिसका उत्तर उन्हें निर्धारित समय में देना होता है । उस समूह का जो प्रतियोगी सबसे कम समय में शुद्ध उत्तर देता है , उसे हॉट सीट के लिए आमंत्रित किया जाता है। ऐसे ही एक सरल से प्रश्न में चार प्रसिद्ध “ धर्म प्रवर्तकों “ के नाम देकर उन्हें ऐतिहासिक काल क्रम से व्यवस्थित करने के लिए कहा गया अर्थात जो पहले हुआ उसका नाम पहले रखना था। नाम थे - गौतम बुद्ध, मोहम्मद साहब, ईसा मसीह और गुरु नानक । जब परिणाम सामने आया तो पता चला कि दस प्रतियोगियों में से केवल दो प्रतियोगी ही इसका शुद्ध उत्तर दे पाए ।
ये सभी घटनाएँ हमारे उसी अज्ञान के प्रमाण प्रस्तुत कर रही हैं । आवश्यक है कि हम अपने इस अज्ञान को दूर करें। अपने देश को यदि हम उसकी " समग्रता में " जानने का प्रयास करेंगे तो हमें अपने धर्म की भी बेहतर जानकारी होगी और इस देश में रहने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के धर्म, रीति-रिवाज़ आदि की भी । इस दृष्टि से महर्षि दयानंद सरस्वती का प्रसिद्ध ग्रन्थ “ सत्यार्थप्रकाश “ भारत में प्रचलित धर्मों का विश्वकोश माना जा सकता है जिसमें हमें अपने वैदिक धर्म की ही नहीं, भारत में प्रचलित विभिन्न धर्मों (पंथों) की भी अपेक्षित जानकारी मिल जाती है । ध्यान रखिए, विश्व में किसी भी व्यक्ति की पहचान इसी रूप में होती है कि वह किस देश का रहने वाला है। हमारी भी पहचान भारतवासी के रूप में होती है, हिन्दू ,मुसलमान, ईसाई के रूप में नहीं। मैं काफी समय आस्ट्रेलिया में रहा । जब भी कोई अपरिचित व्यक्ति मुझसे बात करता था तो उसका प्रश्न होता था , Are you from India ? मेरे yes कहने के बाद वह यह नहीं पूछता था Are you Hindu / Muslim / Christian ? वह अपना परिचय भी इसी रूप में देते हुए बताता था I am from Britain / Spain / Greece / China / Vietnam etc. भारत में रहने वाला कोई ईसाई या मुसलमान जब ईसा मसीह या मोहम्मद साहब को ही अपना आदि - अंत मान लेता है तो वह वैसी ही भूल करता है जैसी बहुत से हिन्दू आठवीं - नवीं शताब्दी के शंकराचार्य और उनके द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद को ही अपना सर्वस्व मान लेते हैं या कुछ सिख यह मान लेते हैं कि गुरुग्रंथ साहब और दस गुरुओं के आगे - पीछे कुछ नहीं। ऐसी सीमित दृष्टि से देखने पर हमारा ध्यान सैकड़ों नहीं, हज़ारों वर्ष पुरानी उस सम्पदा की ओर जाता ही नहीं जो न केवल इस देश की, बल्कि पूरे विश्व की अनमोल थाती है । वह व्यापक दृष्टि हमें तभी मिल सकती है जब हम यह सोचें कि हिन्दू , ईसाई, मुसलमान तो हम बाद में हैं, सबसे पहले हम भारतवासी हैं। जब हमारी सोच ऐसी होगी तब हमें अपने देश के बारे में, उसकी उपलब्धियों और उसकी सम्पदा के बारे में समग्र रूप में जानने की आवश्यकता शिद्दत से स्वयं महसूस होगी ।
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