इराक़ की कहानी - सदमा

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इराक़ की कहानी सदमा जाफ़र अल-ख़लीली   अनुवाद - सुरेश सलिल   हज अहमद अल-हलीली जैसा ख़ुदापरस्त और कि़स्मत पर यक़ीन करने वाला दूसरा कोई आदमज़...

इराक़ की कहानी

सदमा

जाफ़र अल-ख़लीली

 

अनुवाद - सुरेश सलिल

 

हज अहमद अल-हलीली जैसा ख़ुदापरस्त और कि़स्मत पर यक़ीन करने वाला दूसरा कोई आदमज़ाद सौदागरों की जानकारी में नहीं था। वह उन इंसानों में से था जो मुसीबत के वक़्त सिर्फ़ ख़ुदा को याद करते हैं। कहता- ‘ख़ुदा ने हमें इस सरज़मीं पर भेजा है और उसी के पास वापस लौटना है।’

हज अहमद ख़ानदानी सौदागर था। पुराने ज़माने के सौदागर ख़ुदा और उसूलों पर कहीं ज़्यादा यक़ीन करते थे। हेरफेर और चालाकी तो जैसे जानते ही न थे। हज अहमद को भी ये ख़ूबियाँ अपने पुरखों से विरासत में मिली थीं। इन्हीं ख़ूबियों पर उनकी आमदरफ़्त क़ायम थी। कई बार हज अहमद का दीवाला निकला, लेकिन हर बार उसने हिम्मत और बहादुरी के साथ बुरे वक़्त का सामना किया। साख और ईमानदारी के बूते अपनी ज़ाती जायदाद में से जो कुछ वह बचा पाया था उससे देनदारी निपटाता रहा। दूसरी जंग के ख़ात्मे के दौरान की बात है, तब तक उसने जो महल असबाब ख़रीद रखा था या बैंक से जो रक़म बतौर कर्ज़ ले रखी थी, यक़ ब यक़ उस सबकी क़ीमत गिर गई। नतीज़तन हज अहमद को बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ा। देनदारों का हिसाब चुकता करने के लिए, घर बार समेत उसे अपना सब कुछ बेच डालना पड़ा। इसके बावजूद हज अहमद के चेहरे पर एक शिकन तक न दिखाई दी। हर वक़्त वह ख़ुशदिल, हौसलामंद और ख़ुदापरस्त नज़र आता। कहता- ‘होनी को तो होकर रहना है! ख़ुदा की मर्ज़ी पर किसका ज़ोर है!’ देनदारी निपटाने के बाद, हज अहमद को बाज़ार का अपना छूटा पड़ा काम धंधा सँभालने की फि़क्र हुई। अब उसके पास जमा पूँजी के नाम पर बीवी और बेटी के कुछ ज़ेवरात ही बचे रह गये थे। उन्हें लेकर जब वह सरार्फ़ की दूकान की ओर चला, तो उसकी बेटी अपने इयरिंग वायस लेने की ज़िद कर उठी। यह देख हज अहमद अपने ≈पर क़ाबू नहीं रख पाया और फफक-फफक रो पड़ा।

हज अहमद के दोस्त, रिश्तेदार और मुलाक़ाती, हमदार्दी जताने के लिए, उसके ग़रीबख़ाने पहुँचे। वे सब यह देख कर हैरान थे कि जिस दरख़्त को उखड़ने में बड़े-बड़े तूफान नाकाम साबित होते हैं, हवा का एक मामूली सा झोंका उसे उड़ा ले जाने में कामयाब हो जाता है। कुछ अर्से बाद जब हज अहमद चुप हुआ तो बोला, ‘भाई मेरे, ये ज़िन्दगी की पेजीदगियाँ बड़ी अजीब चीज़ हैं। बहुत से मामूली वाकि़यात, संगीन मामलों से ज़्यादा ख़तरनाक साबित होते हैं। दरअसल वाकि़यात के असर का ताल्लुक़ उनसे जुड़े इरादों और नज़रिये से होता है...’

इसी सिलसिले में हज अहमद ने एक वाकि़या बयान किया जो हर्फ़-ब-हर्फ़ यहाँ पेश हैः

साल से ऊपर की बात है। मेरे एक पड़ोसी के इकलौते बेटे का इंतिक़ाल हो गया। वह सही मायनों में उसकी आँखों का नूर था। लेकिन इस सदमे का सामना मेरे पड़ोसी ने ठीक उसी तरह किया जैसी कि ज़िन्दगी के कई ऊँच नीच झेल चुके किसी शख्स से उम्मीद की जा सकती है। मातमपुर्सी के लिए घर आये लोगों से वह रोज़मर्राह तरीके़ से पेश आया। अपने मन की कमज़ोरी रत्ती भर ज़ाहिर नहीं होने दी। लोग हैरान, कि कैसा बाप है! लख़्ते-जिगर की मौत पर आँखों में आँसू का एक क़तरा तक नहीं!’ लोग होंठों ही होंठों बुदबुदाते कि भई, ये तो हिम्मत नहीं संगदिली है कि आदमी अपने नूरे-चश्म से बिछुड़ कर भी न रोये! मगर मेरा नज़रिया उन लोगों से अलहदा कि़स्म का था। मैं अपने पड़ोसी के धीरज के पुख्ता बाँध को उस भरोसे से_ उन उसूलों से जोड़ रहा था, जो बेहद नाजुक लम्हों में भी इंसान को कमज़ोर नहीं होने देते और वह फाँसी के तख्ते पर भी इतने सुकून के साथ चढ़ता है, जैसे अपनी आरामगाह की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हो।

दिन गुज़रते गये और मेरे पड़ोसी के तौर-तरीक़े पहले जैसे ही बने रहे। हर रोज़ वह वक़्त से मदरसे जाता, बच्चों को तहेदिल से तालीम देता और मदरसे से लौट कर सीधे घर आता। बेटे की मौत से ग़मगीन अपनी बीवी की दिलजमई के लिए वह उसे कि़सिम-कि़सिम के कि़स्से-कहानियाँ सुनाता, ताकि वक़्त उसके ज़ख़्मों को पूर सके। और यह तरकीब मौक़ा पाकर असरदार भी साबित हुई। कहावत है कि मुसीबत जब आती है तो पहाड़ जैसी लगती है और जैसे वक़्त गुज़रता है छोटी होती जाती है और आख़िरकार उसके हल्के से नक़्श भर बचे रह जाते हैं। बाद में उनका भी नामोनिशां नहीं रहता। इस वाकि़ए को कोई महीना- एक गुज़रा था कि एक रोज़ मेरे उस पड़ोसी की बीवी मेरे ग़रीबख़ाने पर आई। वह बेहद घबराई हुई थी और रो रही थी। मैंने वजह दर्याफ़़्त कहनी चाही, तो उसने बताया कि ‘आज यक्-ब-यक् मेरे शौहर इस क़दरफूट-फूट कर रो पड़े कि मैं सिहर उठी। समझ में नहीं आया कि इस बेवक़्त उनके रोने की आखिरकार क्या वजह हो सकती है। मुझे इस बात का डर महसूस हो रहा है कि कहीं वे ख़ुदकशी न कर लें। बेटे की मौत पर उनकी आँखों में चंदेक क़तरें ही मैंने देखे थे। बाद में ये भी उन्होंने रुमाल से पोंछ डाले और होनी को चुपचाप मंजूर करके मुझे हिम्मत बाँधने की हरचंद कोशिश कहते रहे। लेकिन आज उनका अश्कबार चेहरा देखकर मेरे लिए तै कर पाना मुश्किल हो रहा है कि इसकी क्या वजह हो सकती है आख़िरकार!

यह सारा वाकि़या सुनने के बाद मैं अपने पड़ोसी को देखने उसके घर गया। मेरे पीछे हमारा एक और पड़ोसी भी, वही सारी बातें सुनकर, वहाँ पहुँचा। जाकर देखा कि हमारा वह हौसलामंद मुदर्रिस पड़ोसी ज़ार-ज़ार रोये जा रहा है। इस तरह बेहाल हमने पहले कभी उसे नहीं देखा था। लिहाज़ा इस सबकी वजह जानने को दिल बेताब हो उठा।

मेरे कई बार ज़ोर देने के बाद, आख़िरकार उसने, सुबकियों के दरमियान अपनी ज़ुबान खोली। बोला- ‘दरअसल हुआ यह, कि आज, मेरे घर के सामने वाला लड़का मेरे सामने पड़ गया। वह मेरे गुज़र चुके बेटे का हमउम्र है। दोनों के बीच गहरी दोस्ती भी थी और सामने के मैदान में दोनों रोज़ाना साथ-साथ गेंद खेला करते थे। बेटे के इंतिक़ाल के बाद से वह मेरे देखने में नहीं आया था। आज अचानक उस पर नज़र पड़ गई। अपनी दोनों हथेलियों के दरमियान .गेंद को थामे खड़ा था। मुझे देख कर वह मेरे क़रीब आया और बोला- चचाजान, अब मैं किसके साथ गेंद खेला करूँगा?. ..

...और बस्स, मेरे धीरज का बाँध टूट गया।’ तो, भाई मेरे, सदमा कुछ यूँ ही तारी होता है। हज अहमद ने जब बोलना बंद किया, तो मेरी ज़बान तालू से चिपकी हुई थी और आँसू का एक क़तरा नीचे की पलक पर थर्रा रहा था।

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