क्वांर नवरात्रि के प्रारंभ होते ही हम प्रतिवर्ष लंकाधिपति रावण के वध की तैयारी में जुट जाते है। धर्म की विजय का प्रतीक पर्व दशहरा प्रत्येक ह...
क्वांर नवरात्रि के प्रारंभ होते ही हम प्रतिवर्ष लंकाधिपति रावण के वध की तैयारी में जुट जाते है। धर्म की विजय का प्रतीक पर्व दशहरा प्रत्येक हिंदू धर्मावलंबी को चेतना और आत्म विश्वास से परिपूर्ण करता रहा है। सवाल यह उठता है कि क्या महज सीता का अपहरण ही रावण के अंत का कारण बना? या फिर इस पर्व को मनाये जाने का और भी कोई कारण है? जहां तक बात की जाये धर्म ग्रंथों की तो उनमें मिलने वाली वर्णन सीता हरण को ही राम-रावण युद्ध का मुख्य कारण बताते है। यदि सीता हरण को भगवान राम ने अपनी अस्मिता और सीता के अपमान से जोड़ कर देखा, तथा रावण के वध का निश्चय किया, तो आज पूरी दुनिया में अपहरण और नारी का अपमान सामान्य घटना बनी हुयी है। साथ ही यदि कोई पति अपनी पत्नि के अपहरण के जुर्म में किसी आरोपी को जान से मार दे तो खुशी में दीवाली नहीं मनायी जाती वरन उस पति को आजीवन कारावास अथवा फांसी की सजा तक दी जा सकती है। जिस रावण को प्रभु राम द्वारा मारा गया, वह वास्तव में घमंड का पुतला था। लंकाधिपति रावण अपना जीवन मरण पहले से ही जान चुका था, ज्योतिष विद्या में पारंगत दशानन को अपने पूर्व जन्म की भूल और उसके पश्चाताप का भी पूर्ण ज्ञान था। रावण को कदम कदम पर श्रापित किये जाने का वर्णन भी दुर्लभ ग्रंथ रावण संहिता में मिलता है।
शिवगण नंदीश्वर ने दिया रावण को श्राप
महा अहंकारी और शास्त्रों वेदों के ज्ञाता रावण को श्रापित होने के कारण ही प्रभु राम के हाथों मृत्यु प्राप्ति हुयी। रावण संहिता बताती है कि अपने भाई कुबेर से पुष्पक विमान बल पूर्वक छीनने के बाद रावण उस पर सवार होकर आकाश मार्ग से वनों का आनंद लेते हुये सैर करने लगा। इसी मार्ग पर उसने सुंदर पर्वत से घिरे वनाच्छादित और मनोरम स्थल को देखकर उस स्थान में प्रवेश करना चाहा। वह पर्वत कोई सामान्य पर्वत नहीं, बल्कि भगवान शंकर का कैलाश पर्वत था। रावण को वहां प्रवेश करते देख शिवगणों ने उन्हें ऐसा करने से मना दिया, किंतु रावण के न मानने पर नंदीश्वर ने रावण को समझाते हुये कहा हे दशग्रीव तुम यहां से लौट जाये, इस पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा कर रहे है। गरूड़, नाग, यक्ष, देव, गंधर्व तथा राक्षसों का प्रवेश यहां निषिद्ध कर दिया गया है।
नंदीश्वर के द्वारा कहे इन शब्दों से रावण तमतमा उठा और उसके कानों के कुंडल हिलने लगे। क्रोध के कारण उसकी आंखे अंगारे बरसाने लगी। वह पुष्पक विमान से उतरकर गुस्से में गुर्राते हुये पूछने लगा यह शंकर कौन है? कहते हुये पर्वत के मूल भाग में जा पहुंचा। रावण ने देखा कि भगवान शंकर के निकट ही चमकते हुये शूल केा हाथ में लिये नंदीश्वर दूसरे शिव के समान खड़े हुये है। उनके वानर जैसे मुख को देखकर रावण ने अवज्ञा करते हुये जलपूर्ण बादल की तरह गरजते हुये हंसना आरंभ कर दिया। तब भगवान शंकर के द्वितीय रूप नंदी ने क्रुद्ध होकर समीप खड़े दशानन को श्राप देते हुये कहा कि तुने मेरे जिस वानर रूप की अवज्ञा की है (मजाक उड़ाया है) उसी रूप वाले मेरे जैसे शक्तिशाली तथा तेजस्वी वानर तेरे कुल का वध करने के लिये उत्पन्न होंगे। वे चलते फिरते पर्वतों के सामान वृहदाकार होंगे। वे तेरे प्रबल दर्प को चूर चूर कर देने वाले होंगें तथा तेरे विशालकाय शरीर को तुच्छ बनाते हुये तेरे मंत्रियों तथा पुत्रों का वध कर डालेंगे। नंदी ने अत्यंत क्रोधित होते हुये यह भी कहा कि मैं तुझे अभी मार डालने की शक्ति रखता हूं, किंतु मारूंगा नहीं, क्योंकि अपने कुकर्मों के कारण तु तो पहले ही मरे हुये जैसा है।
दशानन को भगवान शिव ने दिया रावण नाम
शिवगण नंदी से वार्तालाप और श्रापित होने के बाद राक्षस राज रावण ने पर्वत के समीप खड़े होकर अत्यंत क्रोधित स्वर में कहा कि जिसने मेरी यात्रा के दौरान मेरे पुष्पक विमान को रोकने की चेष्टा की है मैं उस पर्वत को ही जड़ से उखाड़ फेंकूंगा। शंकर किस आधार से इस पर्वत पर क्रीड़ा करते है, उन्हें मालूम होना चाहिये कि अब उनके लिये मैं भय का कारण बनकर उपस्थित हूं। इतना कहकर रावण ने पर्वत को अपने हाथों में उठा लेना चाहा और शक्ति लगाते हुये दहाड़ उठा, जिससे वह पर्वत हिलने लगा। रावण की इस क्रिया से संपूर्ण शिव लोक में हड़कंप मच गया। स्वयं पार्वती जी भगवान शंकर से लिपट पड़ी। ऐसी स्थिति देख भगवान शंकर ने अपने पैर के अंगूठे द्वारा उस पर्वत को दबा दिया। शंकर जी के पैर का दबाव पड़ते ही पर्वत के जैसी रावण की भुजायें नीचे दब गयी। इससे राक्षस राज रावण दर्द से कराह उठा और जोर से आर्तनाद करने लगा। जिससे तीनों लोक कांप उठे। सभी ओर हाहाकार मच गया। रावण को मुसीबत में उसके मंत्रियों ने कहा, हे महाराज आपको इस दर्द से भगवान शंकर ही छुटकारा दिला सकते है। आप उनकी शरण में जाये। इस प्रकार रावण ने मंत्रियेां की बात मानकर वृषभध्वज शिवजी को प्रसन्न करने के लिये सामवेदोक्त स्त्रोतों द्वारा उनकी स्तुति करने लगा और दर्द से कराहते हुये एक हजार वर्ष तक स्तुति करता रहा। भगवान शिव ने प्रकट होकर रावण के भुजाओं को मुक्त करते हुये कहा। हे दशानन तुम वीर हो, मैं तुमसे प्रसन्न हो। पर्वत में दब जाने से तुमने जो दारूण राव (आर्तनाद) किया था, और जिससे भयभीत होकर तीनों लोकों के प्राणी रो उठे थे, उसी के कारण तुम रावण नाम से प्रसिद्ध होओगे।
महर्षि कुशध्वज की पुत्री ने भी किया श्रापित
रावण को उसके कर्मों के कारण मिलने वाले श्राप अनवरत रूप से बढ़ते ही जा रहे थे। भगवान शिव से वरदान और शक्तिशाली खड्ग पानी के बाद अहंकारी रावण और भी अधिक अहंकार से भर उठा। वह पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ हुआ हिमालय के घने जंगलों में जा पहुंचा। वहां उसने एक रूपवती कन्या केा तपस्या में लीन देखा। कन्या के रूप रंग के आगे रावण का राक्षसी रूप जा उठा और उसने उस कन्या की तपस्या भंग करते हुये उसका परिचय जानना चाहा। कामातुर रावण के अचंभित करने वाले प्रश्नों को सुन उस कन्या ने अपना परिचय देते हुये कहा कि मेरे पिता परम तेजस्वी महर्षि कुशध्वज थे। मेरा नाम वेदवती है। मेरे वयस्क होने पर देवता, गंवर्ध, यक्ष, राक्षस, नाग सभी मुझसे विवाह करना चाहते थे, परंतु हे राक्षस राज मेरे पिता की इच्छा थी कि समस्त देवताओं के स्वामी श्री विष्णु मेरे पति बने। मेरे पिता की इस इच्छा से क्रुद्ध होकर शंभु नामक दैत्य ने मेरे पिता की सोते समय हत्या कर दी, और मेरे माता ने पिता की चिताग्नि में कूदकर जान दे दी। मैं अपने पिता की इच्छा पूरी करने इस तप को कर रही हूं। इतना कहकर उस तपस्वी सुंदरी ने रावण से कहा कि मैंने अपने तप बल से तुम्हारी कुइच्छा को जान लिया है।
इतना सुनते ही रावण क्रोधित हो उठा और अपने दोनों हाथों से उस कन्या के केशों को पकड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगा, जिसे उस तपस्वी कन्या ने अपने हाथों से ऐसे काट दिया, जैसे तलवार से काटा गया हो। तत्पश्चात अपने अपमान के बदले आंखों से अंगारे बरसाते हुये उसने दशानन को श्राप देते हुये कहा कि मैं तेरे वध के लिये पुनः जन्म लूंगी और किसी धर्मात्मा पुरूष की पुत्री के रूप में प्रकट होऊंगी। इतना कहते हुये वह प्रज्ज्वलित अग्नि में समा गयी। महान ग्रंथों में शामिल दुर्लभ रावण संहिता में उल्लेख मिलता है कि दूसरे जन्म में वही वेदवती एक सुंदर कमल से उत्पन्न हुयी और उसकी संपूर्ण काया कमल की भांति कांतिमय थी। इस जन्म में पुनः रावण ने उस कन्या को अपने बल के दम पर प्राप्त कर लिया। उस कन्या को लेकर वह अपने महल में पहुंचा और ज्योतिषियों को उस कन्या को दिखाया। रावण संहिता यह भी बताती है कि ज्योतिषियों ने जब कन्या को देखा तेा कहा, यदि यह कन्या इस महल में रही तो अवश्य ही आपकी मौत का कारण बनेगी। यह सुन रावण ने उसे समुद्र में फेंकवा दिया, तब वह कन्या पृथ्वी पर पहुंचकर राजा जनक के यज्ञ मंडप के मध्य भाग में जा पहुंची तथा राज्य द्वारा उस भू-भाग को हल द्वारा जोते जाने पर सती कन्या पुनः प्रकट हुयी। शास्त्रों के अनुसार कन्या का यही रूप सीता बनकर रामायण में रावण के वध का कारण बनी।
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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