लीबिया की कहानी अब्देल राज़िक़ अल-मंसूरी 1954 में पैदा हुए अब्देल राज़िक़ अल-मंसूरी पेशे से पत्रकार हैं और अफ़साने लिखते हैं। यह कहानी 200...
लीबिया की कहानी
अब्देल राज़िक़ अल-मंसूरी
1954 में पैदा हुए अब्देल राज़िक़ अल-मंसूरी पेशे से पत्रकार हैं और अफ़साने लिखते हैं। यह कहानी 2005 में लिखी गई थी और प्रस्तुत तर्जुमा अंग्रेजी तर्जुमे की मदद से किया गया है।
मरने के बाद
अनुवाद - सुरेश सलिल
आरिफ़ ने अपने अपार्टमेंट का दरवाज़ा खोला और, चलन के मुताबिक़, सामने खड़े लोगों से गर्मजोशी के साथ गले मिला। वे लोग उसके बहुत पुराने दोस्त थे और लम्बी दूरियाँ तै करके आये थे। उन्हें बाइज़्ज़त बैठक में ले जाकर बिठाने और आवभगत करने के बाद मुस्कुराते हुए उसने पूछा, ‘इस बार किसका इंतिकाल हुआ?’ ज़िन्दगी के तजुर्बों ने आरिफ़ को पहले से वाकिफ कर रखा था कि उसकी उम्र के दोस्त अक्सर जीते-जागते लोगों के यहाँ नहीं जाते।
‘फ़हीम भाई गुज़र गये। उनकी याद तो तुम्हें होगी न!’ उनमें से एक ने मुस्कुराते हुए ही जवाब दिया। आरिफ़ की यादों में फ़हीम का चेहरा यक्-ब-यक् कौंध गया, और वे ख़ूबसूरत दिन भी जो दोनों ने त्रिपोली में साथ-साथ गुज़ारे थे। जज़्बात ने कुछ ऐसा जोर मारा, कि लगा वह रो पड़ेगा। इधर अरसे सफे़हीम से उसकी मुलाक़ात नहीं हुई थी। ख़ुद आरिफ़ के दिमाग़ में भी पिछले पाँचे सालों के दरमियान कभी उसके यहाँ जाकर मिलने का ख़याल नहीं आया, हालाँकि उसका वह प्यारा दोस्त उसी शहर में, क़रीब ही रहता था।... मगर तब भी उसने अपने जज़्बात को क़ाबू में रखा और रोया नहीं।
फ़ातेहा पढ़े जाने के दौरान आरिफ़ दोस्तों के साथ क़तार में खड़ा बेशक था, मगर उसका दिमाग़ कहीं और भटक रहा था। वह दरअसल उस मैदान के खुलेपन का जायज़ा ले रहा था जहाँ दफ़्नाए जाने से पहले,फ़हीम का ताबूत रखा गया था।
फ़हीम की मातमपुर्सी में तीन दिन तक दोस्तों के साथ बैठने और उनकी उबाऊ ज़िन्दगी की बकवास झेलने के बाद, आरिफ़ ने उन्हें अलविदा कहा। घर वापस लौट कर वह अपनी इमारत की बाहरी सेहन में, दीवार की टेक लगा कर बैठ गया और सामने की तंग गली का जायज़ा लेते हुए अरसे तक ख़यालों में गुम रहा। इस दरमियान वह इस फि़क्र में मुब्तला रहा कि जब उसकी रुख़सती का दिन आयेगा तो लोग आख़िरकार शामियाना कहाँ लगायेंगे? इन सारे ख़यालात में गुम रहने के दौरान अचानक उसकी निगाह अपने अपार्टमेंट के निकास की सँकरी चौखट की जानिब गई और उसे यह सोच कर बड़ी कोफ़्त हुई कि दोस्तों को उसका ताबूत बाहर निकालने में, ख़ासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
आरिफ़ आमतौर पर रात में जल्दी सो जाने का आदी था। लेकिन उस रात उसे देर तक नींद नहीं आई। लिहाज़ा वह बिस्तर से उठा और अपने दफ़्तरी काम वाले कमरे में जाकर एक कुर्सी पर जम गया। उसकी निगाह सामने की दीवार के उस ऊपरी हिस्से पर गई जहाँ पर मढ़ा उसका डिप्लोमा टँगा था और उस पर सजावटी लिखाकर में उसका नाम दूर से चमक रहा था। यह डिप्लोमा एक अमरीकी यूनिवर्सिटी से की गई उसकी पीएच-डी. का था। मेज़ की दराज से उसने एक लेजर निकाला जिसमें वह अपनी बचत के सारे ब्योरे दर्ज़ करता था। पता चला कि उसके बैंकखाते में एक लाख दीनार जमा हैं। यह रकम आरिफ़ ने इसलिए रख छोड़ी थी कि उसका जो भी बेटा ऊँची तालीम हासिल करना चाहेगा उसके लिए मददगार साबित होगी। मगर उस लम्हे उसने अपना इरादा बदल दिया।
अगली सुबह, थोड़ी-सी भागादौड़ी के बाद, आरिफ़ ने शहर के एक प्रापर्टी डीलर से मुलाक़ात की और एक मकान ख़रीदने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। कहा, मुझे एक ऐसा मकान चाहिए जो किसी आम चौराहे या खुले चौड़े मैदान के ठीक सामने हो और मकान की मोहार खुला और चौड़ा हो।
आरिफ़ की इस शर्त पर प्रापर्टी डीलर को थोड़ी हैरत हुई। उसका वास्ता अक्सर ऐसे लोगों से पड़ता था, जो मकान की बनावट और भीतरी सहूलियतों को ख़ास तवज्जुह देते थे। इस बात से उन्हें कोई ख़ास मतलब न था कि मकान मेन मार्केट में हो या शहर के चौक पर हो, या ऐसी ही दूसरी बातें।. .. बहरहाल, उसने आरिफ़ से कहा, कि वह उसकी ज़रूरियात का ख़्याल रखेगा और, जैसे ही ऐसा कोई बिकाऊ मकान नज़र आया, वह उसे ख़बर करेगा।
कोई महीने भर बाद प्रापर्टी डीलर का फ़ोन आया, क्या आज दोपहर बाद मुलाक़ात मुमकिन है? आरिफ़ तो इंतिज़ार ही कर रहा था-फटाफट तैयार हुआ, गैराज से गाड़ी निकाली और प्रापर्टी डीलर के बताये मुताबिक जगह पर पहुँच गया। प्रापर्टी डीलर ने दरअसल आरिफ़ की पसंद का एक मकान तलाश कर लिया था और उसे दिखाना व मकान के मालिक से मुलाक़ात कराना चाहता था।
तैशुदा जगह पर आरिफ़ के पहुँचने के बाद प्रापर्टी डीलर ने बाहर से उसे मकान दिखाया और उसके मालिक से मिलाया। मकान एक खुले-चौड़े मैदान के ऐन सामने था। सरसरी तौर पर मकान का जायजा लेने के बाद आरिफ़ ज़्यादा वक़्त सामने के मैदान को ही ग़ौर फ़र्माता रहा। बातचीत के दरमियान, मकान मालिक ने,फाइनल सौदे से पहले थोड़ी सी मोहलत चाही क्योंकि मकान की मरम्मत का कुछ काम अभी बाक़ी था। मगर मकान के सामने खुले-चौड़े मैदान को देखकर आरिफ़ ऐसा खो-सा गया कि उसे और सारी बातें ग़ैर ज़रूरी महसूस हुईं। ‘मरम्मत बरम्मत की बात अभी तर्क करिए, वो सब बाद की चीज़ें हैं।’ आरिफ़ ने कहा।
उसका यह रवैया मकान मालिक और प्रापर्टी डीलर, दोनों को ही हैरत में डालने वाला था।
मैदान के बीचो-बीच खड़ा आरिफ़ चारों ओर नज़र दौड़ा रहा था। किसी फुटबाल फील्ड से भी बड़े उस मैदान की ज़मीन चौरस थी और शोर शराबे का नामोनिशान तक न था। मैदान की हदबंदी के किनारे-किनारे बिजली के खंभे लगे थे और हरेक खंभे पर दो-दो ताक़तवर फ्लड लाइट्स लगी थीं।
इस सब कुछ का तफ़सील से जायज़ा लेने के बाद, आरिफ़ प्रापर्टी डीलर की ओर मुड़ा।
‘सौदा पक्का! मैं यह मकान ख़रीद रहा हूँ।’ उसने कहा, हालाँकि मकान के अंदर अभी उसने क़दम भी नहीं रखा था। अपने इस ग्राहक के तौर तरीकों से प्रापर्टी डीलर, और मकान मालिक के चेहरों पर जो नक्श उभर रहे थे आरिफ़ ने उनका कोई नोटिस नहीं लिखा। जो तै कर लिया वो तै कर लिया उसका लबो-लहज़ा कुछ यूँ ही था।
उसी रात आरिफ़ ने नये मकान की ख़रीद के क़रारनामे पर दस्तख़त किये और नव्बे हज़ार दीनार की रक़म अदा कर दी।
अगले दिन शाम को, सूरज डूबने के थोड़ा बाद, आरिफ़ एक बार फिर नये ख़रीदे मकान के सामने वाले मैदान में गया। उस वक़्त पूरा मैदान भरपूर रौशन था- फ्लडलाइट्स की रौशनी इतनी तेज़ थी कि ज़मीन पर पड़ी सुई भी साफ़ नज़र आये। यह सब देखकर आरिफ़ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा।
कोई एक महीने बाद आरिफ़ को अपने पुराने अपार्टमेंट में, जिसे वह दिलो-जाँ से चाहता था और जहाँ पर उसकी आख़िरी रात थी, पहली बार गहरी और पुरसुकून नींद मयस्सर हुई। अब उसे इस बात की फि़क्र नहीं करनी थी कि उसके मरने के बाद शामियाना कहाँ खड़ा किया जाएगा, कहाँ उसका ताबूत रखा जाएगा और कफ़न-दफ़न के बाद, मातमपुरसी के लिए दूरदराज से आये उसके रिश्तेदार और दोस्त कहाँ बैठेंगे!
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