- डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com शिक्षा-दीक्षा पिछले कुछ वर्ष तक व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का मूलाधार हुआ करती...
- डॉ. दीपक आचार्य
शिक्षा-दीक्षा पिछले कुछ वर्ष तक व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का मूलाधार हुआ करती थी। लेकिन अब शिक्षा केवल एकांगी होकर रह गई है जिसमें पढ़ाई ही सर्वोपरि हो गई है, बाकी सब कुछ गौण होकर रह गया है। घर-परिवार में शैशव से ही केवल और केवल पढ़ाई पर ही जोर देने की बात कही जाती है, इसी एक काम पर बल दिया जाता है। इसका नई पीढ़ी पर बुरा असर ये हुआ कि लोग किताबी और विदेशी सूत्रों पर आधारित पढ़ाई में तो खूब आगे बढ़ चुके हैं लेकिन जीवन-व्यवहार के मामले में दूसरा सब कुछ नगण्य हो गया है।
केवल किताबी ज्ञान और वर्तमान शिक्षा से जीवन की पूर्णता प्राप्त नहीं हो पा रही है। यहाँ तक कि पढ़ाई ही पढ़ाई इतनी हावी है कि हमारी पीढ़ियां नौकरी या काम-धंधों के माध्यम से कमाने वाली मशीनों के रूप में हमारे सामने नज़र आने लगी है।
बचपन से लेकर पचपन और उसके बाद मौत होने तक के लिए निर्धारित परंपरागत कर्म, जीवन व्यवहार, आदर्श, संस्कार, घर-परिवार के प्रति जवाबदेही, कुटुम्बियों और क्षेत्रवासियों के प्रति संवेदनशीलता, राष्ट्रीय चरित्र और देशभक्ति भावना, सेवा, परोपकार, मातृभूमि का कल्याण आदि सब कुछ खत्म होता जा रहा है।
इंसान पैदा होने के बाद शैशव से ही कोल्हू के बैल या बेगारी काट रहे मजूर की तरह ठेल दिया जाता है। पढ़ाई के फोबिया ने उसे घर-परिवार और अपनों से दूर कर दिया है। उसके जीवन से खेल छीन लिए हैं। खेल मैदान ही नहीं रहे, तो बच्चे खेलने कहां जाएं। विवश होकर खेलना-कूदना सब बंद हो गया है। खेलना कितना जरूरी है यह वे लोग क्या जानें जो ऎषणाओं से लवरेज पदों की रेस में रमे रहते हैं, रुपयों-पैसों, ज़ज़्बातों और अधिकारों से खेलते हैं।
शारीरिक सौष्ठव और योगाभ्यास का माहौल खत्म है। पढ़ाई के महाभूत ने खेलकूद के साथ ही अभिव्यक्ति कौशल विकास से जुड़ी रचनात्मक गतिविधियों और सहशैक्षिक प्रवृत्तियों का गला घोंट डाला है। शरीर के केवल एक ही अंग मस्तिष्क का विस्फोटक सीमा तक इस्तेमाल दूसरे सारे अंगों की अपेक्षा हद से ज्यादा हो रहा है। यह कहें कि दिमाग जबर्दस्त शोषण और इस्तेमाल का शिकार हो गया है तो ज्यादा ठीक रहेगा।
यही कारण है कि कम उम्र में हर तरफ चश्मों की विवशता है। शरीर बेड़ौल और विकृतियों से भरा होता जा रहा है। कोई बहुत कृशकाय है तो कोई हद से ज्यादा मोटापे का शिकार। एलर्जी और दूसरी बीमारियां घर करती जा रही हैंं। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में घातक स्तर तक कमी आती जा रही है।
पहले शिक्षा इंसान को परिपूर्ण मानव के रूप में प्रतिष्ठापित कर समाज को सौंपती थी और वैसे ही समर्थ लोग समाज के लिए उपादेय सिद्ध होते थे। पुराने जमाने में शिक्षा का सीधा सा अर्थ यही होता था कि जो शिक्षा पा चुका है वह अपने जीवन, समाज और जमाने के सारे जरूरी कार्यों में दक्ष है और कहीं भी किसी भी क्षेत्र में वही अपने आपको अनभिज्ञ या अनुभवहीन नहीं मानता था।
आज वह स्थिति नहीं है। पढ़ाई-लिखाई के मामले में इंसान चाहे कितना आगे निकल गया हो, पैसे कमाने और भोग-विलासी व्यक्तियों, अनुचरों और उपकरणों तथा आरामदेही संसाधन जुटाने में माहिर हो गया हो लेकिन अपने दैनंदिन कर्मों और जीवन के मौलिक गुणधर्म से संबंधित गतिविधियों के प्रति न उसकी रुचि रही है, न उनका व्याहारिक ज्ञान ही है।
यही कारण है कि आज का इंसान सर्वांगीण विकास की बजाय एकांगी विकास ही पाने में सक्षम हो सका है, दुनियादारी और जीवन विकास के मौलिक तत्वों और प्रयोगों से बहुत दूर है। आज किसी को भी न तो पूर्ण इंसान के रूप में स्वीकारा जा सकता है, न किसी को भी यह कहा जा सकता है कि उसका व्यक्तित्व विकास आदर्श है।
वर्तमान पीढ़ी केवल पढ़ाई के नाम पर ही दिन-रात का अधिकांश समय गुजार रही है। मैकाले अंकल की शिक्षा पद्धति ने हमारी मौजूदा पीढ़ी की आत्मनिर्भरता और व्यक्तित्व विकास का बहुआयामी पक्ष छीन लिया है।
आज हम संस्कारों, सिद्धान्तों और आदर्शों को छोड़ चुके हैं। अपनी पुरातन परंपराओं का हमें न तो ज्ञान है, न उस दिशा में रुचि है। न हम खाना बनाना जानते हैं, न कपड़े धोना, बरतन माँजना। चौका-चूल्हा से हमारा कोई रिश्ता नहीं रहा। हम उन सभी कामों में फिसड्डी हो गए हैं जो हमारे जीवन का प्रमुख अंग रहे हैं।
इन अनभिज्ञता का खामियाजा हम सभी को भुगतना पड़ रहा है। हम अपने आप को किसी भी मामले में स्वावलम्बी या आत्मनिर्भर नहीं कह सकते। हर मामले में हम पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हैं। केवल पढ़ाई और पढ़ाई के नाम पर हम बाकी सब जरूरी बातों को भुला चुके हैं।
इस स्थिति में हमें किसी संकट के समय अकेले रहने की विवशता हो, सारे नौकर-चाकर और सुख-सुविधाएं कुछ दिन के लिए छीन ली जाएं तो हमारे भूखों मरने की नौबत ही आ जाए। क्योंकि हमें पढ़ाई-लिखाई के सिवा कुछ आता ही नहीं, न हमने सीखने की कोई कोशिश की। बहुत सारे विद्यार्थी पढ़ाई के बहाने घर के कामों और लोक व्यवहार से जी चुराते हैं।
इंसान के रूप में हम परिपूर्णता तभी प्राप्त कर सकते हैं जबकि हम उन सारे कार्यों में दक्षता रखते हों जो एक आम इंसान के लिए जरूरी है और इसके बगैर किसी का जीवन सामान्य नहीं चल सकता। पढ़ाई अपनी जगह है लेकिन उन सारे कामों को भी व्यवहार में उतारने, सीखने की जरूरत है जो हमारे काम के हैं।
एक इंसान के रूप में हमें हर मामले में आत्मनिर्भरता पाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि दूसरे व्यक्तियों या संसाधनों के हम गुलाम न रहें और पूरी आजादी एवं आनंद के साथ चाहे जहाँ रहते हुए अपने व्यक्तित्व के बहुआयामी पक्षों की छाप छोड़ सकें।
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