पहचान-पत्र आधार को अनिवार्य करने के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को एक बार फिर झटका दिया है। हालांकि केंद्र को मामूली राहत भ...
पहचान-पत्र आधार को अनिवार्य करने के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को एक बार फिर झटका दिया है। हालांकि केंद्र को मामूली राहत भी मिली है। अब इसका उपयोग स्वैच्छिक रूप से मनरेगा, भविष्यनिधि,पेंशन और जन-धन योजना में किया जा सकेगा। पीडीएस और एलपीजी में सब्सिडी के लिए आधार की मंजूरी न्यायालय ने पहले ही दे दी थी। न्यायालय ने 15 अक्टूबर 2015 के फैसले में आधार का दायरा जरूर बढ़ा दिया,लेकिन 11 अगस्त 2015 को दिए अंतरिम आदेश में आमूलचूल संशोधन करने से मना कर दिया। सरकार ने अदालत में दलील दी थी कि आधार के जरिए अकेली गैस सब्सिडी में सरकार को 14,000 करोड़ रुपए का फायदा हुआ है और देश के करीब 92 करोड़ लोगों की पहचान को आधार से जोड़ दिया गया है। इसलिए आधार को सभी कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने का उपाय बेहतर होगा। यही नहीं सेवी ने इसे कालाधन पर अंकुश और ट्राई ने इसे मोबाइल सिम के वितरण से जोड़ने की सिफारिश भी की थी। लेकिन अदालत ने नहीं सुनी। न्यायाधीश जे चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने आधार को जो संस्थाएं स्वैच्छिक आधार पर अपनाना चाहती हैं, उनको अनुमति के प्रावधान तय करने के लिए बड़ी संविधान पीठ को सौंपा था। इस पीठ ने व्यक्ति के निजता के हनन से संबंधित याचिकाओं का निराकरण करते हुए इस आधार की अनिवार्यता को खारिज कर दिया। सरकार को इस स्थिति का सामना इसलिए करना पड़ा है, क्योंकि अभी तक आधार को संसदीय वैधता हासिल नहीं है।
आधार के जरिए संप्रग सरकार ने लोक कल्याणकारी योजनाओं की नकद सब्सिडी देने की शुरूआत कुछ राज्यों के चुनिंदा जिलों से की थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर इसकी अनिवार्यता देश की पूरी आबादी पर थोप दी। ऐसा करते हुए इसके कानूनी पहलू को नजरअंदाज किया गया। आधार के साथ सबसे बड़ी समस्या इसकी कानूनी वैधता नहीं होना है। बावजूद योजना को गतिशीलता देने के लिए केंद्रीय मंत्रीमण्डल ने 1200 करोड़ रूपए की मंजूरी सितंबर 2014 में ही दे दी थी। यह राशि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश में नए आधार पहचान-पत्र बनाने के लिए दी गई थी। इसके साथ ही मोदी सरकार ने यह भी घोषणा कर दी थी कि आधार के जरिए ही लाभार्थियों की सब्सिडी सीधे उनके खाते में नकद राशि के रूप में जमा होगी। अब तक 60,000 करोड़ रूपए खर्च करके करीब 92 करोड़ कार्ड बन चुके हैं। सरकार की मंशा थी कि कालांतर में आधार को सभी लोक कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ दिया जाए। इनमें वृद्धावस्था पेंशन,सभी तरह की छात्रवृत्तियां और उवर्रक पर मिलने वाली सब्सिडी को आधार से जोड़ने की पैरवी की थी। किंतु अदालत ने इसे एलपीजी, पीडीएस, मनरेगा भविष्यनिधि,पेंशन और जनधन तक ही आधार को सीमित रखा है।
इतनी उपयोगी बहुउद्देश्यीय योजना होने के बावजूद आधार के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल उठते रहे हैं और इसके क्रियान्वयन के बाबत भी कई पेचेदगियां जताई जाती रही हैं। बावजूद न तो इनके समाधान तलाशे गए और न ही इसे कानूनी रूप देने की पहल हुई। मनमोहन सिंह और उनकी संप्रग सरकार हर समय संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देते रहे, लेकिन 66000 करोड़ की लागत वाली इस आधार योजना की संसदीय वैधता को टालते रहे। योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और उनके मातहत रहे सूचना तकनीक विशेषज्ञ नंदन नीलकेणी के बरगलाने पर संसद के दोनों सदनों को दरकिनार कर 'भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण' को मंजूरी दे दी गई और तत्काल देश भर में आधार पहचान-पत्र बनाने का काम भी युद्धस्तर पर शुरू हो गया।
बाद में जब इसे संवैधानिक दर्जा देने की पहल शुरू हुई तो संसद की स्थायी समिति ने इसे खारिज कर दिया। समिति ने अपनी दलील को पुख्ता बनाने के लिए रक्षा संबंधी सुरक्षा को आधार बनाया। सुरक्षा के लिहाज से यह योजना निरापद नहीं है। क्योंकि इसके तहत व्यक्ति, मूल दस्तावेजों और उसकी स्थानीयता की जांच-पड़ताल किए बगैर कार्ड प्राप्त करने में सफल हो जाता है। आधार कार्ड देश के ज्यादातर साइबर कैफों में बनाए जा रहे हैं। इस कारण बांग्लादेशी घुसपैठियों, कश्मीरी आतंकियों और नेपालियों को भी बड़ी संख्या में कार्ड बना दिए गए हैं। गोया, देश की नागरिकता के प्रमाण के रूप में आसानी से प्राप्त हो जाने वाले ऐसे पहचान-पत्र पर अंकुश जरूरी था। अलबत्ता अब न्यायालय के फैसले के बाद भी सरकार आधार कार्ड बनाने का सिलसिला जारी रखना चाहती है तो उसे कड़ी शर्तें अमल में लाने की जरूरत है। देश की नागरिकता में जो 18 तरह की व्यक्तिगत पहचानें शामिल हैं,उनमें से कोई एक नागरिक पहचान हासिल करने वाले व्यक्ति के पास हो ? साथ ही 33 प्रकार के निवास प्रमाण वाले दस्तावेजों में से भी कोई एक प्रमाण होना जरूरी हो,तभी व्यक्ति आधार का हकदार होना चाहिए ?
आधार पत्र बनाना कितना आसान व सतही है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि कुछ समय पहले भगवान हनुमान के नाम से ही सचित्र कार्ड बन गया था। हरेक खानापूर्ति व पंजीयन क्रंमाक के साथ यह कार्ड बैंग्लुरू से बना था। पता फर्जी था, इसलिए कार्ड राजस्थान के सींकर जिले के दाता रामगढ़ डाकघर पहुंच गया और सार्वजनिक हो गया। इससे पता चलता है कि नागरिक की पहचान और मूल-निवासी की शर्त जुड़ी नहीं होने के कारण कार्ड बनाने में कितनी लापरवाही बरती जा रही है। इस मामले में हैरानी में डालने वाली बात यह भी थी कि कार्ड बनाने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर और कार्ड का सत्यापन करने वाले अधिकारी ने हनुमान के चित्र को व्यक्ति का फोटो कैसे मान लिया ? जाहिर है, केवल धन कमाने के लिए कार्ड बनाने की गिनती का ख्याल रखा गया है ?
आधार को जब मंजूरी मिली थी,उसके पहले से ही भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत 'राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर ऑफ इंडिया' के माध्यम से व्यक्ति को नागरिकता की पहचान देने वाले कार्ड बनाए जाने की कार्रवाई चल रही थी। लिहाजा देश के नागरिक को बायोमैट्रिक ब्यौरे तैयार करने की प्रक्रिया में किस विभाग की भूमिका को तार्किक व अह्म माना जाए,इस नजरिए से संसद व सरकार के स्तर पर भ्रामक स्थिति बन गई थी। विधेयक के प्रारूप को खारिज करने का यही प्रमुख कारण संसदीय समिति ने माना था। दरअसल एनपीआर के कर्मचारी घर-घर जाकर लोगों के आंकड़े जुटाने का काम कर रहे थे। सरकार के सीधे नियंत्रण में होने के साथ यह प्रणाली विकेंद्रीकृत थी। गोया,इसकी विश्वसनीयता आधार प्राधिकरण की तुलना में कहीं ज्यादा थी। दोनों संस्थाओं के कामों की प्रकृति और उद्देश्य एक जैसे थे,इसलिए यहां यह सवाल भी उठा था कि एक ही कार्य दो भिन्न संस्थाओं से क्यों कराया जा रहा है ? यह विरोधाभास मोदी सरकार ने भी दूर नहीं किया। यही नहीं मोदी सरकार ने आधार विधेयक को संसद से पारित कराने की भी कोई पहल अब तक नहीं की। पहचान-पत्र निर्माण की प्रक्रिया निर्बाध चलती रहे इस हेतु धनराशि जरूर आवंटित की जाती रही।
अब तीन सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट कर दिया है कि आधार पत्र पहचान का वैकल्पिक जरिया है न कि बाध्यकारी। आधार कार्ड नहीं होने की वजह से किसी व्यक्ति को सब्सिडी-लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता है। इस क्रम में मोदी सरकार के समक्ष यह चुनौती बनी हुई है कि वह पहले आधार कार्ड बनाने वाले 'भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण' को संसद से विधेयक पारित कराकर कानूनी मान्यता हासिल कराए ? अन्यथा इसकी वैधानिकता को जब तब चुनौतियां पेश आती रहेंगी।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।
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