1.0 आक्रमणकारी सिकंदर : अपने देश पर विदेशी आक्रान्ताओं की चर्चा होने पर सामान्य व्यक्ति प्रायः सबसे पहला नाम सिकंदर का लेता है जो यूनान क...
1.0 आक्रमणकारी सिकंदर :
अपने देश पर विदेशी आक्रान्ताओं की चर्चा होने पर सामान्य व्यक्ति प्रायः सबसे पहला नाम सिकंदर का लेता है जो यूनान के उत्तर में स्थित मेसिडोनिया का था और जिसे पहला विश्व विजेता कहा जाता है; पर उसके बारे में हमारी जानकारी प्रायः सिकंदर - पुरु ( पोरस ) के युद्ध में (326 ई.पू.) पुरु की हार, और उस संवाद तक सीमित है जिसमें सिकंदर गर्व से पूछता है कि बता , अब तेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाए, और जंजीरों में जकड़ा पुरु धृष्टता ( या गर्व ? ) से उत्तर देता है कि जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है । कहा जाता है कि इस उत्तर से प्रसन्न होकर सिकंदर ने पुरु को न केवल बंधनमुक्त कर दिया , बल्कि उसका राज्य भी उसे वापस कर दिया । इतना ही नहीं, अपनी ओर से उसे उपहार में पूर्व का एक और प्रदेश भी दे दिया जिसमें लगभग पांच हज़ार नगर और हज़ारों गाँव थे । सिकंदर के इस व्यवहार से यह धारणा बनती है कि वह बहुत महान था, वीरोचित गुणों से युक्त था, वीरता का सम्मान करता था, साथ ही दयालु और बहुत उदार भी था । पर जब मैंने नेहरू जी की प्रसिद्ध पुस्तकें ' विश्व इतिहास की झलक ' और उसी के आधार पर लिखी ' इतिहास के महापुरुष ' पढ़ीं तो सिकंदर के सम्बन्ध में उनकी कुछ टिप्पणियों ने उक्त धारणा पर प्रश्न चिह्न लगा दिया ।
2.0 नेहरू जी की नज़र में सिकंदर :
2. 1 नेहरू जी ने लिखा है, " सिकंदर वास्तव में बड़ा आदमी था या नहीं , यह कहना मुश्किल है । कम से कम मैं अपने अनुकरण करने लायक वीर उसे नहीं मानता ( इतिहास के महापुरुष, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 ; पृष्ठ 13 ) । “
2. 2 “ यह एक दिलचस्प ख्याल है कि अगर सिकंदर भारत के अन्दर के हिस्से की तरफ बढ़ा होता तो क्या हुआ होता । क्या उसकी विजय जारी रहती ? या भारतीय सेनाओं ने उसे शिकस्त दे दी होती ? पोरस के से एक सरहदी राजा ने जब उसे इतना परेशान किया तो यह बहुत मुमकिन था कि मध्य भारत के बड़े - बड़े राज्य सिकंदर को रोकने के लिए काफी मज़बूत साबित होते । लेकिन सिकंदर की इच्छा कुछ भी क्यों न रही हो, उसकी सेना ने उसे एक निश्चय पर पहुँचने के लिए मजबूर कर दिया । बरसों से घूमते - घूमते उसके सिपाही बहुत थक गए थे और ऊब गए थे । शायद भारतीय सिपाहियों के रण - कौशल का भी उन पर असर पड़ा और वे हार की जोखिम नहीं उठाना चाहते थे (उपर्युक्त ,पृष्ठ 15 ) । “
विश्व विजेता को भारत में हार की जोखिम ? मन में उथल - पुथल होने लगी और मैं सिकंदर के बारे में और अधिक जानने की कोशिश करने लगा । यह कोशिश जितनी बढ़ती गई , मेरी सफलता की आशा उतनी ही घटती गई ; और जब यह पता चला कि सिकंदर के बारे में " प्रामाणिक " जानकारी का सर्वथा अभाव है , तब तो मैं हक्का - बक्का रह गया ।
3.0 यूरोपीय साहित्य की विसंगतियां :
3. 1 भारतीय साहित्य में तो उसका कोई विवरण मिलता ही नहीं ; शायद इसलिए क्योंकि , जैसा नेहरू जी ने लिखा है, " उसके आक्रमण का भारत पर कोई असर नहीं पड़ा “ (उपर्युक्त, पृष्ठ 17 ) ।
3. 2 यूरोपीय साहित्य में भी सिकंदर के समकालीन लेखक वियरकच , ओनिसीक्रीटस , केलिस्थनीज़ ( जो सिकंदर के गुरु अरस्तू का भतीजा और सिकंदर का मित्र भी था ), पुटालमी आदि के लिखे ग्रन्थ तो न जाने कब नष्ट हो गए । जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह एरियन , डायोडोरस , प्लूटार्क , जस्टिन ( सभी यूनानी ) और कर्टियस (रोमन ) के लिखे ग्रंथों से मिलती है । संयोग यह है कि ये सभी लेखक सिकंदर के चार - पांच सौ साल बाद के हैं, पर इनमें से किसी को उस समय भी सिकंदर के समकालीन किसी लेखक की कोई रचना नहीं मिली, केवल अस्त - व्यस्त उद्धरण या अंश ही मिले । इन्होंने उपलब्ध जानकारी की प्रामाणिकता की अपने स्तर पर जांच करने के लिए न तो संबंधित स्थानों की यात्रा की, न और कोई प्रयास किया । संभवतः यही कारण है कि इनके विवरणों में काफी अंतर है, कई प्रसंग परस्पर - विरोधी हैं, अनेक स्थानों पर तो उस तटस्थ दृष्टि का भी अभाव है जो इतिहास लेखक से अपेक्षित है । कुछ उदाहरण देखें :
प्लूटार्क के अनुसार पुरु की सेना में बीस हज़ार पैदल, चार हज़ार अश्वारोही , और दो सौ हाथी थे ; पर डायोडोरस के अनुसार पचास हज़ार पैदल , एक हज़ार अश्वारोही और एक सौ बीस हाथी थे । कर्टियस के अनुसार हाथी केवल पचासी ही थे । या एक और उदाहरण युद्ध शुरू होने का देखिए । एरियन के अनुसार जब पता चला कि सिकंदर ने झेलम नदी पार कर ली है, तो उसका सामना करने के लिए पुरु ने अपने पुत्र को भेजा । राजकुमार के एक ही प्रहार से सिकंदर घोड़े से सिर के बल नीचे गिर पड़ा और उसका घोडा ' बकाफल ' मारा गया ; जबकि जस्टिन का कहना है कि युद्ध प्रारम्भ होने पर पुरु ने अपनी सेना को शत्रु सेना पर आक्रमण करने की आज्ञा दी और यूनानियों के अधिपति सिकंदर को अपने व्यक्तिगत शत्रु के रूप में उपस्थित होने की मांग की । इस पर बिना विलम्ब किए सिकंदर आया , परन्तु पुरु के प्रथम वार में ही सिकंदर का घोड़ा मारा गया और सिकंदर स्वयं भी सिर के बल नीचे गिर पड़ा , लेकिन उसके रक्षकों ने उसे बचा लिया वरना युद्ध उसी समय समाप्त हो जाता । इस प्रसंग से संबंधित प्लूटार्क और जस्टिन के प्रारम्भिक विवरण में तो समानता है, पर घोड़े के बारे में प्लूटार्क का कहना है कि वह उस समय केवल घायल हुआ, मरा बाद में ; जबकि डायोडोरस ने इस युद्ध के विवरण में सिकंदर के घोड़े को कहीं घायल बताया ही नहीं है । हाँ, उसके मरने की बात बाद में अवश्य कही है, पर मरने का कारण वृद्धावस्था और थकान बताया है । एक लेखक के अनुसार पुरु घोड़े पर सवार था, दूसरे लेखकों के अनुसार हाथी पर सवार था ।
ऐसा ही एक उदाहरण ईरान के उस भयंकर युद्ध का देखिए जिसमें सिकंदर बुरी तरह घिर गया था और मरने वाला था । उसमें एरियन के अनुसार ईरान के तीन लाख सैनिक , डायोडोरस के अनुसार नब्बे हज़ार सैनिक, और कर्टियस के अनुसार पचास हज़ार सैनिक हताहत हुए जबकि संभवतः सिकंदर को महिमामंडित करने के लिए उसके केवल एक सौ से लेकर पांच सौ सैनिक ही हताहत बताए हैं । ऐसे ही कारणों से अनेक विद्वानों ने इन लेखकों के विवरण को प्रामाणिक नहीं माना है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का एक यूनानी विद्वान है " स्ट्रेबो " जो विश्व यात्रा के आधार पर लिखे गए अपने भूगोल सम्बन्धी ग्रन्थ के लिए विशेष प्रसिद्ध है। उसका कहना है कि इन लोगों ने जो कुछ लिखा है, वह सिर्फ सुनी - सुनाई बातों के आधार पर लिखा है। भारत के सम्बन्ध में इन लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, उस पर स्ट्रेबो ने बड़ी सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि ये सब " झूठे " हैं ।
इस सबके बावजूद , यूरोपीय लोगों द्वारा तैयार किए गए इतिहास में सिकंदर के बारे में आज जो कुछ भी कहा जाता है और जो हमें " प्रामाणिक " बताकर पढ़ाया जाता है, उसका आधार इन्हीं लेखकों के ग्रन्थ हैं । फारसी या अन्य भाषाओँ के ग्रंथों में जो जानकारी मिलती है, उसका इन लोगों ने कोई उपयोग नहीं किया है क्योंकि उनका उद्देश्य तो किसी न किसी तरह यूरोप की श्रेष्ठता प्रमाणित करना रहा है ।
4.0 सिकंदर की विरासत : ईरान से दुश्मनी
सिकंदर को जो राज्य विरासत में मिला , उसके अतीत में ईरान से पुरानी दुश्मनी का इतिहास समाया हुआ है । यूनान में तब " नगर राज्य " होते थे जिन्हें हम अपनी सुविधा के लिए अपने यहाँ की पुरानी रियासतों जैसा मान सकते हैं, जबकि ईरान का साम्राज्य बहुत बड़ा था -- केवल भौगोलिक विस्तार में ही नहीं , बल्कि संगठन में भी । ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ईरानी आर्य सम्राट क्रूश ( Cyrus the Great ) का शासन मध्य एशिया से लेकर भूमध्य सागर तक फैला हुआ था ( ईरान के शासक " आर्य सम्राट “ कहलाते थे, (चौंकिए मत, यह परम्परा वहां अभी हाल ही में लगभग तीस वर्ष पूर्व हुई " इस्लामी क्रान्ति " से पहले तक विद्यमान थी जब वहां के शासक मोहम्मद रज़ा शाह पहलवी की उपाधि " आर्य मेहर " थी जिसका अर्थ है ‘आर्यों का प्रकाश’ ; स्वयं " ईरान " शब्द का अर्थ भी है ' आर्यों का देश ‘) । क्रूश के पुत्र कम्बीसस द्वितीय और उसके बाद दारा - प्रथम ( Darius - I ) ने साम्राज्य का विस्तार करके मिस्र, थ्रास ( वर्तमान बुल्गारिया ) और मेसिडोनिया को जीत लिया , पर ईसा पूर्व सन 486 में उसके देहांत के बाद ईरानी साम्राज्य का प्रभाव यूरोप में घटने लगा ।
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में फिलिप मेसिडोनिया का शासक बना और उसने जल्दी ही मेसिडोनिया को शक्तिशाली राज्य बना दिया । सिकंदर इसी फिलिप का पुत्र था जो ईसा पूर्व सन 326 में 19 - 20 वर्ष की उम्र में शासक बना , पर कैसे बना -- इस बारे में इतिहास - लेखकों में मतभेद है क्योंकि फिलिप की हत्या हुई थी और ह्त्या के षड्यंत्र में प्लूटार्क जैसे इतिहास - लेखक सिकंदर को भी शामिल मानते हैं। इस संदेह के कई कारण हैं । कहा जाता है कि सिकंदर की माँ ओलम्प्यास ( फिलिप की चौथी पत्नी ; फिलिप ने सात - आठ स्त्रियों से विवाह किए ) , विवाह के समय गर्भवती थी, हांलाकि इस बात को ढकने के लिए लोगों ने उसी प्रकार देवताओं वाली कहानी गढ़ी है जैसी हमारे यहाँ महाभारत के पात्र '' कर्ण “ के जन्म की गढ़ी है। बाद में, फिलिप ने जब अपने एक जनरल " अटालस " की भतीजी क्लियोपेट्रा से विवाह किया, तब विवाह के अवसर पर अटालस ने देवताओं से यह प्रार्थना सार्वजनिक रूप से की कि इस विवाह से " वैध उत्तराधिकारी " का जन्म हो । इसका भी संकेत यही है कि सिकंदर वैध संतान नहीं था । प्लूटार्क ने इस अवसर पर पिता - पुत्र के झगड़े की भी चर्चा की है जिसमें फिलिप ने सिकंदर को मारने के लिए तलवार निकाल ली , पर नशे में होने के कारण वह मेज़ से टकरा कर गिर पड़ा । इस पर सिकंदर ने अपने पिता की हंसी उड़ाई । क्लियोपेट्रा से फिलिप का एक बेटा हुआ । कहा जाता है कि सिकंदर की माँ ओलम्प्यास ने उसे सिकंदर के रास्ते का काँटा मानकर ऐसा विष दिया कि वह मानसिक रूप से विकलांग हो गया । जो भी हो, यह निश्चित है कि फिलिप के बाद मेसिडोनिया का शासक सिकंदर ही बना ।
सिकंदर ईरान वालों से बदला लेना चाहता था । वस्तुतः इसकी तैयारी फिलिप भी कर रहा था ( ऊपर जो फिलिप की हंसी उड़ाने की बात कही गई है उसमें सिकंदर ने यह कहा कि देखो, यह व्यक्ति मेरे पास तक तो पहुँच नहीं पाया , पर ईरान जाने की बात करता है ) । सिकंदर को इस तैयारी का लाभ मिला । ईरान का शासक उस समय दारा तृतीय था और उसका शासन मिस्र तक फैला हुआ था। सिकंदर ने अपनी विजय - यात्रा मिस्र से शुरू की और क्रमशः आगे बढ़ते - बढ़ते, विभिन्न प्रदेशों को जीतते - जीतते वह ईरान तक पहुँच गया। ईरान में यद्यपि उसे भयंकर युद्ध करना पड़ा , पर अंततः विजय - श्री उसी के हाथ रही।
5.0 सिकंदर की बर्बरता :
सिकंदर की विजय यात्राओं से यह तो एकदम स्पष्ट है कि वह निडर, बहादुर, साहसी और कुशल सेना - नायक था, पर सभी इतिहास - लेखकों ने उसकी क्रूरता और बर्बरता की बहुत चर्चा की है। शासक बनते ही सबसे पहले उसने अपने उन सभी विरोधियों की हत्या कर दी / करवा दी जिनसे उसे अपनी कुर्सी के लिए ज़रा भी खतरा लगा, फिर वे चाहे उसके परिवार के ही हों या बाहर के। इस काम में उसकी माँ ओलम्पियास भी शामिल थी । क्लियोपेट्रा को उसकी बेटी सहित ज़िंदा जलाया गया और अटालस की सपरिवार हत्या कर दी गई जिसमें उसकी बेटी एवं बेटी के बच्चे भी शामिल थे। साम्राज्य विस्तार के उसके अभियान में वे लोग तो उसके कोप का भाजन बनने से बच गए जिन्होंने बिना लड़े उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, पर जिन्होंने उसका सामना करने की जुर्रत की, वे हार जाने पर उसके कहर से बच नहीं पाए।
युद्ध में जिस स्थान को भी उसने जीता, उसे हर तरह से बरबाद कर दिया । सीरिया के पास टायर नामक प्रदेश को जीतने पर उसने शहर को उजाड़ दिया, सभी युवाओं की हत्या कर दी और बच्चों एवं स्त्रियों को दास बनाकर बेच दिया । मिस्र के गाज़ा में उसे कड़ी टक्कर मिली, पर अंततः वह जीत गया । बस , जीतने पर उसने उस स्थान को बरबाद करना शुरू कर दिया , सभी पुरुषों की बर्बर ढंग से हत्या कर दी और स्त्रियों एवं छोटे बच्चों को दास बना कर बेच दिया । पर्सिपोलस जीतने पर उसने वहां आग लगा कर सब कुछ नष्ट कर दिया । ईरान में उसने विजय के बाद वहां के विशाल महल को , नगर की इमारतों को , सडकों तक को तहस - नहस कर डाला। बख्तर ( बैक्ट्रिया ) ईरान के सम्राट दारा तृतीय के अधीन एक प्रदेश था और वहां का शासक " बेसस " था । सिकंदर ने उस पर आक्रमण किया तो उसने डट कर मुकाबला किया , पर लम्बे संघर्ष के बाद अंतत वह हार गया और पकड़ा गया । सिकंदर के आदेश से उसे बैक्ट्रिया के मुख्य मार्ग पर बिलकुल नंगा किया गया , रस्सी से बांधकर कुत्ते की तरह खड़ा किया गया, कोड़े लगाए गए, नाक और कान काट दिए गए, और इस तरह के अपमान के बाद उसका वध कर दिया गया । नेहरू जी ने भी उसके इस प्रकार के क्रूर व्यवहार का उदाहरण देते हुए लिखा है , " थीब्स नामक यूनानी शहर ने उसके आधिपत्य को नहीं माना और बगावत कर दी । इस पर सिकंदर ने उस पर बड़ी क्रूरता से और निर्दयता के साथ आक्रमण करके उस मशहूर शहर को नष्ट कर दिया , उसकी इमारतें ढहा दीं, बहुत से नगर निवासियों का क़त्ल कर डाला और हज़ारों को गुलाम बनाकर बेच दिया ( विश्व इतिहास की झलक, संक्षिप्त संस्करण, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 , पृष्ठ 29 ) । " सिकंदर का पूरा इतिहास ऐसे ही उदाहरणों से भरा पड़ा है ।
शायद इसी तरह का व्यवहार करने की परम्परा उसे विरासत में मिली थी । उसके पिता फिलिप ने भी अनेक स्थानों को इसी प्रकार नष्ट किया था । अरस्तू के गृह नगर " स्तेगीरा " को भी उसने नेस्तनाबूद करके वहां के सारे निवासियों को दास बनाकर बेच दिया था । बाद में जब अरस्तू सिकंदर का गुरु बना तब उसने अरस्तू पर अहसान करते हुए उस नगर का पुनर्वास कराया ।
6.0 धर्म विजयी बनाम असुर विजयी नृप :
हमारे यहाँ प्राचीन साहित्य में दो शब्द मिलते हैं, " धर्म विजयी नृप " और " असुर विजयी नृप "। धर्म विजयी नृप ऐसा राजा बताया है जो हारे हुए राजा की " श्री " " प्रभुता " ( sovereignty ) तो ले, पर " मेदिनी " अर्थात ज़मीन ( territory ) लौटा दे , राजा को " reinstate " करके उसकी गद्दी पर उसे फिर से बैठा दे । महाकवि कालिदास ने रघु की दिग्विजय में रघु को " धर्म विजयी नृप " कहते हुए " श्रीयं जहार न तु मेदिनीम् " कहा है । हमारी परम्परा धर्म विजयी नृप की ही थी , " चक्रवर्ती सम्राट " ऐसे ही होते थे। इसके विपरीत " असुर विजयी नृप " वह है जो " उत्थाय तरसा " अर्थात विजित को जड़ से उखाड़ दे ।
प्रायः " असुर " का अर्थ " न सुरः इति असुरः " ( जो देवता नहीं , वह असुर ) किया जाता है ; पर सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. भगवत शरण उपाध्याय ने बताया है कि " असुर विजयी नृप " में असुर का सम्बन्ध ऊपर वाले अर्थ से नहीं, बल्कि प्राचीन पश्चिमी एशिया के देश " असीरिया " से है जो सुमेरिया और बाबुलोनिया (बेबिलोनिया) से ही लगा हुआ था। असीरिया के निवासी, उनकी राजधानी , उनके देवता -- सबका नाम " असुर " था । अपने गौरव काल में असीरिया का साम्राज्य मिस्र से ईरान तक फैला हुआ था। यहाँ के शासकों की विशेषता बताते हुए डा. उपाध्याय ने लिखा है कि वे जिस प्रदेश को जीतते थे, उस समूचे राज्य को उखाड़ और उजाड़ देते थे। पूरी आबादी को बदल दिया करते थे और उसे ले जाने का जो तरीका था वह मवेशी की तरह हांक कर ले जाने का था । कोई आदमी इधर - उधर न चला जाए इसलिए एक पतली डोर डालकर ओंठों और नाक को नथ देते थे जिसको अरबों ने बाद में नाकिल कहा। ( प्राचीन पश्चिम एशिया और भारत ; प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली ; 1977 , पृष्ठ 7 ) ।
सिकंदर से संबंधित विभिन्न घटनाएँ पुकार - पुकार कर यही कह रही हैं कि वह इसी प्रकार का ‘ असुर विजयी नृप ‘ था, क्रूरता उसकी रग - रग में भरी हुई थी। तभी तो उसने शत्रु राजाओं / राज्यों के प्रति ही नहीं , अपने मित्रों / शुभचिंतकों तक के साथ भी क्रूरतम व्यवहार किया । सिकंदर के गुरु अरस्तू का भतीजा " केलिस्थनीज़ " सिकंदर का घनिष्ठ मित्र था, लेखक था , युद्ध में उसके साथ था और उसके विजय अभियान को लिपिबद्ध करता जा रहा था ; पर उसकी किसी बात पर नाराज़ होकर सिकंदर ने स्वयं उसकी ह्त्या कर दी । एक और उदाहरण " क्लीटस " का देखिए जो सिकंदर की धाय " लानिके " का भाई और सिकंदर का अभिन्न मित्र था । ईरान के युद्ध में जब सिकंदर घायल हो गया था , शत्रुओं से बुरी तरह घिर गया था और उसका जीवित बचना लगभग असंभव था , तब क्लीटस ने ही अपनी जान जोखिम में डालकर सिकंदर की जान बचाई ; पर उसी क्लीटस की किसी बात पर तैश में आकर सिकंदर ने पहले उसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया और फिर बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी । उसके इसी प्रकार के व्यवहार के कारण नेहरू जी ने सिकंदर को अभिमानी, घमंडी, निर्दयी, बर्बर और क्रूर कहा है । .
क्या ऐसे व्यक्ति से सपने में भी यह आशा की जा सकती है कि उसने पुरु जैसे शत्रु के साथ दया और उदारता का व्यवहार किया होगा जिसने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया, और युद्ध में जिसके पहले ही प्रहार से सिकंदर घोड़े से गिर पड़ा और घायल हो गया ?
7.0 क्षमा दान किसे ? पुरु को या सिकंदर को ?
भारत में सिकंदर द्वारा अपने शत्रु पुरु के " क्षमादान " की चर्चा करने वाले लेखक सिकंदर को महिमा- मंडित करने के चक्कर में यह भूल ही गए कि पहले वे सिकंदर की क्रूरता के भी ढेरों प्रमाण प्रस्तुत कर चुके हैं । यह भी भूल गए कि " क्रूरता " और " क्षमा " परस्पर संचारी नहीं , विरोधी भाव हैं । ऐसा लगता है कि उन्होंने नाटक के पात्र बदल दिए और जो संवाद वास्तव में पुरु के थे, वे सिकंदर से कहलवा दिए । सिकंदर के घमंडी , निर्दयी, और क्रूर व्यवहार के अलावा इस प्रकार की शंका करने के अन्य भी अनेक कारण हैं ।
ये ही लेखक बता चुके हैं कि सिकंदर ने जिस भी स्थान को जीता , उसे उजाड़ कर अपने " असुर विजयी नृप " होने का परिचय दिया , तो फिर भारत इसका अपवाद कैसे बन गया ? इन्ही लेखकों ने यह भी लिखा है कि सिकंदर तो अभी और आगे जाना चाहता था, पर उसकी सेना अब युद्ध करते - करते थक गई थी, ऊब गई थी और उसे घर की याद सताने लगी थी । अतः उसने विद्रोह कर दिया और सिकंदर को वापस जाने का निश्चय करना पड़ा । आश्चर्य होता है कि जो सेना " विश्व - विजय " के लिए निकली थी , जो बराबर विजय प्राप्त करती जा रही थी , और इस प्रकार सफलता जिसके कदम चूम रही थी, वह ( पुरु से युद्ध करने के बाद, और ध्यान रखिए कि यह युद्ध " महाभारत " की तरह कोई अठारह दिन नहीं , एक दिन , केवल एक दिन हुआ था , उसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि सेना ) एकाएक थकान का अनुभव करने लगी , ऊब गई , उसे घर की याद सताने लगी और वह भी इस बुरी तरह कि विजय - अभियान बीच में ही छोड़कर वापस जाने के लिए " विद्रोह " पर आमादा हो गई ? इस एक दिन से पहले तो थकान , ऊब , घर की याद की कोई चर्चा नहीं की गई ! थकान और ऊब विजयी व्यक्ति को सताती है या हारे हुए को ? कहीं ये विवरण अपने गर्भ में सिकंदर की पराजय की कहानी तो नहीं छिपाए बैठे हैं ?
यूरोपीय इतिहासकारों ने जो विवरण प्रामाणिक बताकर प्रसारित किए हैं , उनके विपरीत अन्य देशों के लेखक कुछ और ही कहते हैं ।
8.0 यूरोपीयेतर साहित्य में सिकंदर :
8.1 फारसी साहित्य :
एक ओर तो यूरोपीय लेखकों के परस्पर विरोधी विवरणों में ही अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो तरह - तरह की शंकाओं को बल प्रदान करते है, तो दूसरी ओर जानकारी के कतिपय अन्य स्रोतों से भी चित्र कुछ और ही उभरता है। फारसी के प्रसिद्ध कवि और इतिहासकार " फिरदौसी " ने अब से लगभग एक हज़ार वर्ष पूर्व ईरान के शासकों का सिलसिलेवार इतिहास अपनी प्रसिद्ध कृति " शाहनामा " में लिखा । इसमें प्रसंगवश भारत पर सिकंदर के आक्रमण की चर्चा करते हुए लिखा है :
सिकंदर बद-- ऊ गोफ्त कय नामदार ,
दो लश्कर शेकस्तः शुद अज कारज़ार ,
हामी दामो - ददे मगज़े मर्दुम खरद ,
हमी नअले - अस्प उस्तुखान बेस्परद ,
दो मर्दीम हर दू देलीरो जवान ,
सुखनगूयो वा मगज दू पहलवान
( शाहनामा , भाग 7 , शाहनामा प्रेस, मुंबई, 1916 , पृष्ठ 81 )
अर्थात युद्ध में अपनी सेना का विनाश देखकर सिकंदर व्याकुल हो गया। उसने राजा पुरु से विनीत भाव से कहा, ' हे मान्यवर, हम दोनों की सेनाओं का नाश हो रहा है। वन के पशु सैनिकों के भेजे नोच रहे हैं और घोड़ों की नालों से उनकी हड्डियाँ घिस गई हैं। हम दोनों वीर, योद्धा और बुद्धिमान हैं। इसलिए सेना का विनाश क्यों हो और युद्ध के बाद उनको नीरस जीवन क्यों मिले ?
ज़रा विचार कीजिए, ऐसे शब्द युद्ध जीतने वाला कहेगा या हारने वाला ?
8.2 इथियोपिक टेक्स्ट :
फारसी के अतिरिक्त अन्य प्राचीन भाषाओं में भी ऐसी सामग्री मिलती है जो यूरोपीय लेखकों द्वारा प्रचारित किए गए तथ्यों से मेल नहीं खाती। इथियोपिया (अफ्रीका) में सिकंदर से सम्बन्धित विभिन्न लेखकों के लिखे कतिपय ग्रन्थ मिले हैं जो इथियोपियाई, अरबी, हिब्रू आदि भाषाओं में हैं। इन्हें ब्रिटिश म्यूजियम के बहु -भाषाविद सर अर्नेस्ट अल्फ्रेड वालिस (1857 - 1934 ) ने " The Life and Exploits of Alexander the Great " ( प्रकाशक : सी जे क्ले एंड संस, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस वेयरहॉउस, लन्दन ; 1896 ) नाम से अंग्रेजी अनुवाद सहित संपादित किया है। इसे " इथियोपिक टेक्स्ट " भी कहते हैं। इसके एक ग्रन्थ के अनुसार अपने साथियों को मरते देख सिकंदर के सैनिकों ने शस्त्र फेंक कर शत्रु ( पुरु ) की ओर जाना चाहा । सिकंदर स्वयं बड़े संकट में था। अपने सैनिकों के इरादे का पता चलते ही वह युद्ध रोकने की आज्ञा देकर इस प्रकार विलाप करने लगा , " ओ भारतीय सम्राट, मुझे क्षमा कर। मैं तेरा शौर्य और बल जान गया हूँ। अब यह विपत्ति मुझसे सहन नहीं होती। मेरा हृदय पूरी तरह दुखी है। इस समय मैं अपना जीवन समाप्त करने की इच्छा करता हूँ। परन्तु मैं नहीं चाहता कि ये जो मेरे साथ हैं वे बरबाद हो जाएँ क्योंकि मैं ही वह व्यक्ति हूँ जो इन्हें यहाँ मृत्यु के मुख में ले आया हूँ। यह एक राजा के लिए किसी भी प्रकार उचित नहीं है कि वह अपने सैनिकों को मौत के मुंह में धकेल दे ( पृष्ठ 123 ) ।
सिकंदर की भारत विजय की जो कहानी " प्रामाणिक " बताकर हमें सुनाई जाती है, ये विवरण उससे मेल नहीं खाते। उधर सिकंदर की वापसी यात्रा की जो कहानी बताई जाती है, उसमें भी कई असंगतियाँ हैं।
9.0 सिकंदर की वापसी यात्रा :
जिस मार्ग से वह आया था, उससे वापस नहीं गया। उसने ऐसा क्यों किया, इस पर मतभेद है। कुछ लोगों का कहना है कि आते समय उसने जिन लोगों के साथ विश्वासघात किया था, उसे डर था कि कहीं वे लोग बदला लेने को तैयार न बैठे हों (विश्व विजेता का डर देखिए और यह भी ध्यान रखिए कि जिस एरियन ने सिकंदर का प्रशस्ति गान किया है, उसी ने उसे " धूर्त " भी बताया है, " He was sharp sighted and cunning " Rooke's translation of Arrian's ' History of Alexander's Expeditions ' Vol II, P. 196 ) । दूसरे लोगों का मानना है कि नए स्थान देखने की इच्छा से उसने ऐसा निश्चय किया। उसने सेना को दो भागों में (कुछ लेखकों के अनुसार तीन भागों में ) बाँट दिया ( प्रश्न किया जा सकता है कि जब नए स्थान ही देखने थे तो सेना को दो / तीन भागों में बांटने की क्या आवश्यकता थी ? ) । एक बेड़ा अपने सेनापति निआरकस को सौंप दिया और उसे जलमार्ग से वापस जाने का आदेश दिया। दूसरा बेड़ा अपने साथ रखकर मकरान के मरुस्थल के मार्ग से जाने का निश्चय किया। यह तथ्य फिर ध्यान देने योग्य है कि मकरान के मरुस्थल की दुश्वारियां ' अज्ञात ' नहीं, " सर्व ज्ञात " थीं। फिर भी सिकंदर इसी मार्ग पर चल दिया ( विश्व विजेता था इसलिए, या अन्य कोई विकल्प नहीं था, इसलिए ? ) । .
सिकंदर की इस यात्रा का वर्णन एरियन ने काफी विस्तार से और बड़ी करुण भाषा में किया है। उसने लिखा है कि झुलसाने वाली गर्मी और पानी के अभाव ने सिकंदर , उसके सैनिकों और पशुओं को मौत के मुंह में धकेल दिया। रेत के टीलों पर चढ़ना - उतरना , उसमें पशुओं और सैनिकों का दब कर मर जाना, जैसी असह्य विपदाएं थीं। वे जहाँ रसद के लिए रुकते थे, वहां विरोध का सामना करना पड़ता था। अनेक स्थानों पर तो सैनिकों को जान बचाकर भागना पड़ता था (यह विश्व विजेता होने का परिणाम था या हार कर भागने का प्रमाण ? ) ।. रसद के अभाव में वे अपने ही पशुओं घोड़ों, खच्चरों आदि को मार कर उनका खून पी जाते और मांस खा जाते । दिखावा यह करते कि ये पशु भूख , प्यास और थकान से मरे हैं । रास्ते में जो भी सैनिक या पशु थक कर गिर जाते वे वहीँ तड़प कर मर जाते, कोई भी किसी की सुध नहीं लेता था। जहाँ कहीं पानी दिखाई पड़ता था तो प्यास के मारे वे उसमें कूद पड़ते थे और इतना अधिक पानी पी जाते कि वहीँ मर जाते। उनकी लाशों से वह पानी भी पीने लायक नहीं रहता। कुछ लोग थकान के कारण अगर रास्ते में एक ओर आराम करने को रुक जाते तो बाद में राह भटक कर भूख से मर जाते। कहीं उन्हें ऐसी जगह डेरा डालना पड़ा जहाँ रात में एकाएक बाढ़ आ गई। फलस्वरूप तमाम सामान, पशु, और सैनिक बह गए। भाड़े के अनेक सैनिक तो रास्ते में साथ छोड़कर ही चले गए।
उधर निआरकस और उसके साथ जो सेना थी, उसकी भी दुर्गति हुई। रसद प्राप्त करने के लिए उसने जहाँ - जहाँ लंगर डालने की कोशिश की, उनमें से अनेक स्थानों पर उसके सैनिकों की जान जोखिम में पड़ गई और बिना रसद लिए ही उसे भागना पड़ा (क्या यह सचमुच विश्वविजयी सेना थी ? )। निआरकस की बहुत बुरी हालत हो गई थी। उसकी तमाम सेना नष्ट हो गई। जब वह अपनी नावों को लेकर यहाँ - वहां भटक रहा था, तब उसे किसी प्रकार फारस और ओमान की खाड़ी के मध्य स्थित हरमुज में अनामिस नदी के किनारे लंगर डालने का अवसर मिला। उधर सिकंदर ने एक टुकड़ी निआरकस की खोज - खबर के लिए लगा रखी थी जो अभी तक कहीं भी निआरकस से संपर्क नहीं कर पाई थी। संयोग से हरमुज में उनका आमना-सामना हो गया , पर वे एक - दूसरे को पहचान नहीं सके, बस यही लगा कि ये हमारे जैसे ही लग रहे हैं। जब निआरकस ने उनसे पूछा कि तुम कौन हो तो उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि हम निआरकस और उसके बेड़े की तलाश में हैं। तब निआरकस ने स्वयं कहा कि मैं ही निआरकस हूँ । मुझे सिकंदर के पास ले चलो। मैं मिलकर सिकंदर को सारा हाल सुनाऊंगा।
सैनिकों को कुछ देर तक तो भरोसा ही नहीं हुआ कि यह हमारा सेनापति निआरकस ही है। अपना संतोष कर लेने के बाद जब वे उसे अपने साथ ले गए और निआरकस का सिकंदर से सामना हुआ तब वे भी एक - दूसरे को नहीं पहचान सके। बहुत देर तक एक - दूसरे को घूरते रहे और पहचानने की कोशिश करते रहे। जब पहचान पाए तो फूट पड़े और बहुत देर तक रोते रहे। भारत आने की भूल पर पछताते रहे और अपने भाग्य को कोसते रहे ( भारत आने की भूल ? और उस पर पछतावा ? एरियन के विवरण की इस असंगति की ओर स्वतः ध्यान चला जाता है। सिकंदर भारत में जीता था या हारा था ? अगर जीता था तो पछतावा किस बात का ? क्या जीतने के बाद भी कोई अपने भाग्य को कोसता है ?
10.0 सिकंदर का विलाप और: पश्चात्ताप :
प्लूटार्क ने सिकंदर के विलाप का वर्णन करते हुए लिखा है , " भारत में मुझे हर स्थान पर भारतवासियों के आक्रमणों और विरोध का सामना करना पड़ा ( …among the Indians I was everywhere exposed to their blows and the violence of their rage….) उन्होंने मेरे कंधे घायल कर दिए, गान्धारियों ने मेरे पैर को निशाना बनाया, मल्लियों ( मालव जाति के लोगों ) से युद्ध करते हुए एक तीर सीने में घुस गया और गर्दन पर गदा का ज़ोरदार हाथ पड़ा ........ भाग्य ने मेरा साथ नहीं दिया और ये सब मुझे विख्यात प्रतिद्वंद्वियों से नहीं, अज्ञात बर्बर लोगों के हाथों सहना पड़ा ......" (…..Fortune thus shut me up , not with antagonists of renown but with unknown barbarians ….) । यह भारत को जीतने वाले का अपनी उपलब्धियों पर गर्व से किया गया यशोगान है या हारे हुए का स्यापा ?
उक्त विलाप में सिकंदर ने मल्लियों के जिस तीर की चर्चा की है, उसका उल्लेख प्लूटार्क और एरियन दोनों ने किया है। मल्लियों से युद्ध के दौरान एक मल्ली ने ऐसा तीर मारा जो सिकंदर के कवच को बेधते हुए उसके सीने में घुस गया। सिकंदर उछलकर पीछे की ओर गिर पड़ा। मल्ली उसकी जीवनलीला समाप्त कर पाते, इससे पहले ही सिकंदर के कुछ सैनिक उसे उठाकर ले गए। प्लूटार्क ने लिखा है कि तीर का लकड़ी वाला भाग तो बड़े कष्ट से काटकर अलग किया गया, उतने ही कष्ट से उसका कवच उतारा गया, किन्तु तीर का मुख भाग जो तीन अंगुल चौड़ा और चार अंगुल लम्बा था, वह अन्दर हड्डी में घुस गया था। उसे निकालते समय तो सिकंदर जैसे मर - सा गया।
11.0 विश्व विजय की वास्तविकता :
सिकंदर वस्तुतः ईरान पर हमला करने के लिए मकदूनिया से चला था ; इसी को यूरोपीय लेखकों ने " विश्व विजय " का नाम दे दिया। संभव है कि विश्व की तब वहां यही संकल्पना रही हो ! नेहरू जी ने भी लिखा है, " सिकंदर को विश्व विजेता कहा जाता है, और कहते हैं कि एक बार वह बैठा - बैठा इसलिए रो उठा कि उसके जीतने के लिए दुनिया में कुछ बाकी नहीं बचा था। लेकिन सच तो यह है कि उत्तर - पश्चिम के कुछ हिस्से को छोड़कर वह भारत को ही नहीं जीत सका था। चीन उस वक्त भी बहुत बड़ा साम्राज्य था और सिकंदर उसके नज़दीक तक भी नहीं पहुँच पाया था ( इतिहास के महापुरुष, पृष्ठ 18 ) । "
12.0 सिकंदर का अंत :
सिकंदर का भाग्य देखिए कि अनेक युद्ध जीतने, बार - बार मौत के मुंह से निकल आने और वापसी यात्रा में हर तरह की मुसीबतों का सामना करने के बाद भी वह अपनी मातृभूमि को फिर नहीं देख पाया। बेबिलोनिया ( ईराक ) के पास यह " विश्व विजेता " बीमार पड़ा, अपने किसी महल में नहीं , जंगल में लगे शिविर में, और वहीँ तैंतीस वर्ष की उम्र में 13 जून 323 ( ईसा पूर्व ) को उसके प्राण - पखेरू उड़ गए। पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में रखने का स्वप्न देखने वाले का अंत हो गया। नेहरू जी के शब्दों में, " इस ' महान ' आदमी ने अपनी छोटी - सी ज़िंदगी में क्या किया ? उसने कुछ शानदार लड़ाइयाँ जीतीं। इसमें कोई शक नहीं कि वह बहुत बड़ा सेना - नायक था, लेकिन अपने बनाए साम्राज्य में अपने पीछे वह कोई भी ठोस चीज़, यहाँ तक कि अच्छी सड़कें भी, नहीं छोड़ गया। आकाश से टूटने वाले तारे की तरह वह चमका और गायब हो गया, और अपने पीछे अपनी स्मृति के अलावा और कुछ भी नहीं छोड़ गया ( इतिहास के महापुरुष, पृष्ठ 16 ) । "
उसने अपने जीवन में जारज/ अवैध संतान का दंश झेला। पितृहंता का अपयश भोगा। परिवारीजनों / मित्रों / शुभचिंतकों का ह्त्यारा बना। जिन्होंने अपने प्राण जोखिम में डालकर उसके प्राणों की रक्षा की, उसने उन्हीं के प्राण हर लिए। " राजा " बनकर भी निरपराध नागरिकों का निर्ममता पूर्वक वध किया। बसे - बसाए नगरों को उजाड़ता रहा। " विश्व विजेता " का ताज पहनकर भी अनजान प्रदेशों में भटकता फिरा। भूख - प्यास से तड़पता रहा। बीमार होने पर इलाज के लिए तरसता रहा, घर पहुँचने की साध लिए घर से दूर बीहड़ वन में प्राण त्यागे -- यह था सिकंदर का मुकद्दर !
क्या इन सारी घटनाओं का और सिकंदर के स्वभाव का विवरण पढ़ने के बाद भी आपको लगता है कि सिकंदर और पुरु के युद्ध का जो विवरण हमें बताया जाता है , वह सच है ? या प्रचलित कहानी के विपरीत ऐसा लगता है कि पुरु के साथ युद्ध में सिकंदर हारा होगा, पकड़ा गया होगा, बेड़ियों में जब उसे पुरु के समक्ष लाया गया होगा तो पुरु ने उससे पूछा होगा, बता, अब तेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाए। घमंडी " असुर विजयी नृप " सिकंदर ने कहा होगा , जैसा एक राजा दूसरे राजा से करता है। इस उत्तर के बावजूद, भारतीय परम्परा के अनुरूप " धर्म विजयी नृप " पुरु ने उसे क्षमा कर दिया होगा। प्रतीकात्मक दंड के रूप में उससे भारत का ही वह प्रदेश मुक्त करा लिया होगा जो वह अब तक जीत चुका था। संभव है उससे यह संकल्प भी कराया हो कि अब किसी राज्य पर आक्रमण नहीं करेगा और इसे सुनिश्चित करने के लिए ही उसे अपनी सेना को दो भागों में बांटकर वापस जाने के लिए विवश किया होगा।
यह तथ्य तो अब सर्व विदित है कि यूरोप की हर बात को मानव जाति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सिद्ध करने के दुराग्रह के कारण यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत के इतिहास के साथ बहुत छेड़ - छाड़ की है। अतः इतिहासकारों से अनुरोध है कि इस सम्बन्ध में अनुसन्धान करें तटस्थ दृष्टि से विचार करें।
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( डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री
पी/138, एम आई जी, पल्लवपुरम फेज – 2, मेरठ 250 110)
e-mail : agnihotriravindra@yahoo.com
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