मिस्र की कहानी तौफीक़ अल-हकीम तरबूजों का मौसम अनुवाद - सुरेश सलिल तौफ़ीक़ अल-हकीम 1898-1957, मूलतः नाटककार। कहानियाँ और उपन्यास भी...
मिस्र की कहानी
तौफीक़ अल-हकीम
तरबूजों का मौसम
अनुवाद - सुरेश सलिल
तौफ़ीक़ अल-हकीम 1898-1957, मूलतः नाटककार। कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे और मध्यवर्ग की जहनीयत को ड्रामाई अंदाज़ में पेश करते हैं।
गर्मियाँ शुरू हो चुकी थीं। एक रोज़ शेव कराने के इरादे से मैं बारबर के यहाँ गया। ज़िन्दगी को लेकर मैं ख़ुशी से ऊबचूब था कि बदी परफ़तह आख़िरकार नेकी की ही होती है। और दिल में एक नग्मा घुमड़ रहा था। वो नग्मा मैंने काहिरा की सबसे फैशनेबुल गलियों में तरबूज ले जाते ऊँटों की क़तार के आगे-आगे चलते किसानों से सुना था। कुर्सी पर धँसते हुए मैंने अपना सिर बारबर के हवाले कर दिया और आँखें बंद कर लीं और बक़ीर् पंखे की नक़ली हवा की अपने चेहरे से ख़ुशआमदीद करते हुए ख़यालों में खो गया।
बारबर जब मेरी ठुड्डी पर साबुन का झाग मल रहा था, मैं पुरसुकून था। फिर भी वह उस्तरे पर सान चढ़ाते हुए उसे तब तक रगड़ता रहा, जब तक कि उस्तरे की धार ख़ूब तेज़ होकर लपलपाने नहीं लगी।
मेरा सिर अपने हाथों की गिरफ़्त में लेते हुए एक अजनबी-सी आवाज़ में वो बुदबुदाया उम्मीद है मेरे यह कहने का आप बुरा नहीं मानेंगे कि मैं बारीकी से आपका जायज़ा लेता रहा हूँ- और मेरा अंदाज़ा कभी ग़लत नहीं होता। आपसे एक छोटी-सी अर्ज़ है मेरी।
उम्मीद से पुर, उसने मेरी कनपटी पर से उस्तरा उठाया, और मैंने तुरंत जवाब दिया, हाँ-हाँ, बोलो!
मेरे सिर को अपनी जकड़बंदी में लेकर शेव बनाना शुरू करते हुए उसने पूछा- सा’ब, क्या आपकी वाक़फ़ीअत पागलों के अस्पताल में किसी से है?
मैं हैरत से भर उठा, फिर भी सधी हुई आवाज़ में मैंने जवाब दिया - अगर तुम्हारे अंदाज़े ने, जो कभी ग़लत नहीं होता, बारीकी से मेरा जायज़ा लेकर यह खुलासा किया है कि मेरा रिश्ता पागलों के अस्पताल से हो सकता है, तो मैं तहे-दिल से तुम्हारा शुक्रिया अदाफ़र्माता हूँ।
उसने हड़बड़ा कर सफ़ाई देने की कोशिश की, सिनहीं-नहीं, सा’ब, वैसा कोई मेरा मक़्सद नहीं। मैं दरअसल सिफ़र् यह कहना चाहता था कि आप यक़ीनन दूसरों का भला करने और भला सोचने वाले इंसान हैं और इतने रसूख़दार, कि पागलों के अस्पताल में किसी डॉक्टर से आपकी वाक़फ़ीअत ज़रूर होगी।
किसलिए?
सा’ब, मेरा एक ख़ब्ती भाई है। मैं उसे वहाँ से छुड़ाना चाहता हूँ।
वैसा ख़ब्ती थोड़ी ना है बारबर ने अपने भाई की कैफि़यत देनी शुरू की- अस्पतालवालों ने बिला वजह ज़बर्दस्ती उसे ख़ब्ती क़रार दे दिया। सा’ब आप तो बख़ूबी जानते हैं कि उन लोगों को हरदम किसी न किसी शिकार की तलाश रहती है। सो, वो उनका शिकार हो गया।... कुल मामला इतना सा है कि कभी-कभार वो सनकिया जाता है और ऐसी बातें सोचने लगता है, जिन्हें ऐतराज़ तलब या नुकसानदेह नहीं माना जा सकता। वो ऐसी-वैसी हरकतें नहीं करताµ न चीख़ता-चिल्लाता है, न किसी से मारपीट करता है। उस अस्पताल के पागल जिस तरह का शोरगुल मचाते और हंगामा करते हैं, वैसा उसके साथ क़तई नहीं है।
हैरत है!... तब फिर ऐसा क्या हुआ कि हस्पताल वालों को उसे पकड़ कर बंद करने की वजह मिल गई?
कुछ भी नहीं, जनाब! बात दरअसल बहुत मामूली-सी है। मेरा भाई भी मेरी तरह बारबर का और उसका अच्छा-ख़ासा सैलून था- ठीक-ठीक धंधा पानी चल रहा था। एक सुबह अच्छा-भला वो अपने काम पर गया। गर्मी के दिन थे। और आप तो जानते ही हैं सा’ब, कि तपिश क्या तो आदमी- क्या जानवर, सभी का हलक़ प्यास से तड़का डालती है। मेरे भाई का हाथ आप जैसे ही एक ग्राहक की खोपड़ी पर था। उसकी सनक ने उसके दिमाग़ में यह फि़तूर भर दिया कि यह ग्राहक का सिर नहीं, बल्कि तरबूज है। उसके हाथ में उस्तरा था ही- जैसे इस वक़्त मेरे हाथ में है।... तो सा’ब, उसने उसे लम्बा-लम्बा चीरना चाहा?...
मुझे कँपकँपी छूट गई। मैं बेसाख़्ता चीख़ पड़ा- लम्बा-लम्बा... क्या?
तरबूज!... मेरा मतलब है ग्राहक की खोपड़ी। प्यास की छटपटाहट में उसे ग्राहक की खोपड़ी तरबूज जैसी नज़र आई। सधी हुई सहज आवाज़ में बारबर ने जवाब दिया। मेरी नसों में ख़ून जम गया हो जैसे! उस वक़्त मेरी खोपड़ी उसके हाथों की गिरफ़्त में थी और उस्तरे की तेज़ लपलपाती धार मेरी गर्दन के इर्द-गिर्द उड़ाने भर रही थी। ख़ाफै़ से मेरी साँस घुटने सी लगी
ख़ैर, उसे ख़ुश देखने और तसल्ली देने के ख़्याल से ज़ल्दी ही मैंने खुद को सँभाल लिया, और अपनी आवाज़ को सम पर लाते हुए मैंने कहा, सिबेशक तुम्हारा भाई, तुम्हारे घर में, अलग कि़स्म के मिज़ाज वाला होगा!...
बारबर का उस्तरा मेरे गले के मुक़ाबिल था, और पहले जैसे ही लबो-लहजे में आहिस्ते-आहिस्ते उसने कहा- सिहक़ीक़त ये है जनाब, कि मेरे घर में सब एक जैसे हैं। मैं ख़ुद कभी-कभी अजोबो-ग़रीब अंदाज़ में सोचने लगता हूँ... ख़ासकर तरबूजों के मौसम में। मैं पूरे यक़ीन से कह सकता हूँ कि मेरे भाई पर बे-सिर पैर का इल्जाम नहीं थोपा जाना चाहिए।...
मेरे गले पर दौड़ते उस्तरे की धार जैसी ही ख़ाफै़नाक चमक मुझे बारबर की आँखों में नज़र आई। मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि अब मेरी ज़िन्दगी बस्स् चंदेक लम्हों की है, और ख़ुद को मैंने ख़ुदा के रहमोकरम पर छोड़ दिया।
आँखें बंद करके मैंने ख़ुद को ख़ुद में डुबो दिया। इस बार ख़ुशनुआ ख़यालों में नहीं, बल्कि ऐन सिर पर आ खड़ी हुई मौत, और रूह कफे़ना होने के ख़यालों में। दुनियाए-फ़ानी के सिवा उस वक़्त मेरे ज़ेहन में कुछ न था।
मैंने तब तक आँखें नहीं खोलीं जब तक कि कोलोन की फुहार चेहरे पर नहीं महसूस हुई और बारबर की ‘मुबारकबाद’ देती आवाज़ मैंने ठीक-ठीक नहीं सुन ली।
जिस्म को हिलाया-डुलाया और कुर्सी पर से इस तरह उठा जैसे कोई ठीक उसी लम्हें पैदा हुआ हो। मैंने पैसे चुकाये और बारबर ने एक बार फिर मुझसे गुज़ारिश की, कि मैं उसके भाई को पागलखाने से छुड़ाने में मदद करूँ। मैंने एक कान से सुना और दूसरे से बाहर निकाल दिया और ख़ुदा का लाख-लाख शुक्रिया अदा करता हुआ बारबर की दुकान से बाहर निकला।
गली की ओर बढ़ते हुए मैंने गहरी साँस ली और तय किया कि ख़ासकर तरबूजों के मौसम में अपनी शेव खुद किया करूँगा, या कम से कम इस बारबर के पस तो नहीं ही जाऊँगा।
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