विवेक रंजन श्रीवास्तव का आलेख - सम्मान लौटाते साहित्यकार

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  (निम्न आलेख सिक्के का एक पहलू दर्शाता है . दूसरा पहलू यह है कि क्या यह "बकौल कृष्ण कल्पित, पुरस्कार लौटाऊ प्रहसन" इन मार्क्सवा...

 

(निम्न आलेख सिक्के का एक पहलू दर्शाता है. दूसरा पहलू यह है कि क्या यह "बकौल कृष्ण कल्पित, पुरस्कार लौटाऊ प्रहसन" इन मार्क्सवादी रूझान के रचनाकारों द्वारा ध्यानआकर्षित करने और चर्चित होने का एक नवीन औजार तो नहीं है - जैसा कि प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का मानना है?)

कैसा हो साहित्य कि जब साहित्यकार सम्मान लौटाने पर विवश हो तो भव्य जन आंदोलन खड़े हो जावें

 

देश के विभिन्न अंचलों से रचनाकारों , लेखकों , बुद्धिजीवियों द्वारा साहित्य अकादमियों के सम्मान वापस करने की होड़ सी लगी हुई है . संस्कृति विभाग , सरकार , प्रधानमंत्री जी मौन हैं .जनता चुप है .  यह स्थिति एक सुसंस्कृत सभ्य समाज के लिये बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती . शाश्वत सत्य है , शब्द मरते नहीं . इसीलिये शब्द को हमारी संस्कृति में ब्रम्ह कहा गया है . यही कारण है कि स्वयं अपने जीवन में विपन्नता से संघर्ष करते हुये भी जो मनीषी  निरंतर रचनात्मक शब्द साधना में लगे रहे , उनके कार्यो को जब साहित्य जगत ने समझा तो  वे लब्ध प्रतिष्ठित हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हुये हैं . लेखकीय गुण , वैचारिक अभिव्यक्ति का ऐसा संसाधन है जिससे लेखक के अनुभवों का जब संप्रेषण होता है , तो वह हर पाठक के हृदय को स्पर्श करता है . उसे प्रेरित करता है , उसका दिशादर्शन करता है . इसीलिये पुस्तकें सर्व श्रेष्ठ मित्र कही जाती हैं .केवल किताबें ही हैं जिनका मूल्य निर्धारण बाजारवाद के प्रचलित सिद्धांतों से भिन्न होता है . क्योंकि किताबों में सुलभ किया गया ज्ञान अनमोल होता है .  आभासी डिजिटल दुनिया के इस समय में भी किताबों की हार्ड कापी का महत्व इसीलिये निर्विवाद है . और इसीलिये लेखक की सामाजिक प्रतिष्ठा है . लेखकों को विभिन्न संस्थायें व शासन उनकी रचनात्मकता के लिये पुरस्कृत और सम्मानित करता रहता है . येन केन प्रकारेण  सम्मान पाने के लिये भी रचनाकारों में प्रतिस्पर्धा तक होती है किन्तु विचारणीय है कि किन परिस्थितियों में लेखक ये अकादमिक पद छोड़ रहे हैं ? और सम्मान लौटाने पर विवश हैं . प्रश्न है कि क्या समाज में इन सम्मानों की वापसी के चलते वह वैचारिक प्रतिक्रिया हुई जो होनी चाहिये थी ? यदि ऐसा नहीं हुआ तो क्या  यह पठनीयता की कमी है ? साहित्य की समाज पर पकड़ की कमी है ? साहित्य के स्तर की कमी है ?  जब सामान्य पाठक कृष्णा सोबती , नयनतारा सहगल , अशोक बाजपेयी , सच्चिदानंदन , जैसे नामो से उसे उद्वेलित कर सकने वाले साहित्य से ही परिचित नहीं होंगे तो इन लोगो द्वारा सम्मान लौटाने से भला उसे क्या लेना देना होगा ? जब साहित्य को सामान्य आदमी की नैसर्गिक पीड़ा से परे खेमों में बांटकर प्रयोजन वश कथित जनवादी या प्रगतिशील साहित्य , वामपंथी साहित्य लिखा जाये एक दूसरे को परस्पर सम्मानित किया जाये तो साहित्य की यह दशा होना अस्वाभाविक नहीं है , जिसमें लेखकों द्वारा सम्मान लौटाये जाने पर भी समाज प्रतिक्रिया विहीन बना रहे . यद्यपि यह बिल्कुल सही है कि किसी भी  लेखक को स्पष्टतः किसी एक धारा के रचनाकार के रूप में बांधा नही जा सकता , किसी न किसी रचना में , जीवन के किसी न किसी कालखण्ड में निर्बाध बहता रचनाकार कुछ न कुछ ऐसा लिखता ही है जो उसे ध्रुवीकरण से मुक्त करता है और इसलिये मेरी लेखकीय चिंता है कि कैसा हो साहित्य ?,  कि जब साहित्यकार सम्मान लौटाने पर विवश हो तो भव्य जन आंदोलन खड़े हो जावें . 

वर्तमान घटना क्रम में बिहार में जातिवादी राजनीति के ध्रुवीकरण का जबाब तो चुनावों में वहां की जनता को देना है , पर जो दुखद घटनायें उत्तर प्रदेश में गौ मांस को लेकर हुई वे किसी भी सभ्य समाज के लिये कष्टकर हैं , अस्वीकार्य हैं . पर दोनो वर्गो के कट्टरपंथियो द्वारा जो राजनैतिक रंग गौमांस को लेकर दिया जा रहा है उसका किसी भी साहित्यकार ही नहीं , किसी भी मानवीय संवेदना के धनी व्यक्ति द्वारा भरपूर विरोध जिस भी संभव तरह से हो किया ही जाना चाहिये . इसी क्रम में पाकिस्तानी पूर्व विदेश मंत्री की किताब के दिल्ली और फिर मुम्बई में पुनः लोकार्पण पर सुधीर कुलकर्णी के चेहरे पर कालिख मलकर विरोध जताने की घटना , तथा गुलाम अली के गजल के आयोजन को निरस्त करने की राजनीति पर भी चर्चा जरूरी है .भारतीय विदेश मंत्रालय को ऐसे आयोजनों हेतु वीसा देने से पहले विचार करना जरूरी था , क्योंकि वर्तमान समय में लड़ाई केवल हथियारों से ही नहीं लड़ी जाती , सोशल मीडिया , साहित्य , और एन जी ओ  के माध्यम से कूटनीतिक लड़ाई भी लड़ी जाती है , और भले ही प्रगटतः ये कार्यक्रम एक कट्टर पंथी दल के  विरोध के चलते मुम्बई व पुणे में सीमित हुये हों पर इससे भारत सरकार की वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक हार हुई है .  दिल्ली सरकार व बंगाल सरकार द्वारा गुलाम अली जी को दिये गये आमंत्रण और मीडिया द्वारा एक ऐसी किताब की व्यापक चर्चा जो वास्तविक तथ्यों से परे पाकिस्तान को आतंक का विरोधी बताती हो भारत की जनतांत्रिक प्रणाली में भले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उचित हो पर यह हमारे राजनेताओं में देश भक्ति की कमी भी  इंगित करती है . विश्व में  आतंकवाद  , देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद , सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा , समाज में नैतिक मूल्यों के हृास , सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियों और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओं व आर्थिक प्रक्रिया पर  प्रश्नचिन्ह लगाती  है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है . यही अनेक सामाजिक बुराईयों के पनपने का कारण है . स्त्री भ्रूण हत्या , नारी के प्रति बढ़ते अपराध , चरित्र में गिरावट , चिंतनीय हैं .  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओं का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें . 

समाज की परिस्थितियों की अवहेलना साहित्य कर ही नहीं सकता . क्योंकि साहित्यकार का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे . समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये . राजनीतिज्ञों के पास अनुगामियों की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है . साहित्यकार  का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणों का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यों का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे .समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व साहित्य का ही है . इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नहीं , राजनेताओं को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है . प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु , ॠषि व  मनीषी करते थे .उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था . वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे .हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारकों ने लिखे हैं जिनका साहित्यिक महत्व शाश्वत बना हुआ है . समय के साथ  बाद में कुछ राजाश्रित कवियों ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा . उनकी साहित्यिक रचनाओं ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नहीं हो सका . कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है .वीर रस के कवि राजसेनाओं का हिस्सा रह चुके हैं , यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि साहित्य के प्रभाव की उपेक्षा संभव नहीं . जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई .जब समाज अधोपतन का शिकार हो गया था विदेशी आक्रांताओं के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये .  भक्तिरस की रचनायें हुई  . अकेली रामचरित मानस , भारत से दूर विदेशों में ले जाये गये मजदूरों को भी अपनी संस्कृति की जड़ों को पकड़े रखने का संसाधन बनी . 

        आज  रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है .  आज लेखन , प्रकाशन ,व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं . लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है . माइक्रों ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है . पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है . साहित्यिक किताबों की मुद्रण संख्या में कमी हुई है . आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये . पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये . आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है ,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है . यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है , तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियों को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओं को साहित्य का हिस्सा बनाया जा सकता है ?  यदि पाठक किताबों तक नहीं पहुँच रहे तो क्या किताबों को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबों की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं . जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन  का साक्षी  है जब समाज में  कुंठायें , रूढ़ियां , परिपाटियां टूट रही हैं . समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है , अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है .निश्चित ही  आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा . अब समय आ गया है कि साहित्यकार संकीर्णता या वर्ग विशेष से उपर उठकर सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित  शाश्वत सत्य लिखे जिससे वह जन सामान्य में अपनी नाम की एक पहचान अंकित कर सके . और यदि वह अपने सम्मान लौटाने पर विवश हो तो भव्य जन आंदोलन खड़े हो जावें .   

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--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"

ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर 

९४२५८०६२५२

ईमेल vivek1959@yahoo.co.in

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रचनाकार: विवेक रंजन श्रीवास्तव का आलेख - सम्मान लौटाते साहित्यकार
विवेक रंजन श्रीवास्तव का आलेख - सम्मान लौटाते साहित्यकार
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