फिलिस्तीनी कविताएँ महमूद दरवेश अनुवाद - सुरेश सलिल फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन के प्रखर योद्धा कवि। महमूद दरवेश की कविता ने, अमरीकी साम्राज्...
फिलिस्तीनी कविताएँ
महमूद दरवेश
अनुवाद - सुरेश सलिल
फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन के प्रखर योद्धा कवि। महमूद दरवेश की कविता ने, अमरीकी साम्राज्यवाद की शह से, फिलिस्तीन को दुनिया के नक्शे पर से धो-पोंछ देने पर आमादा इज़रायली सैन्यवाद के प्रतिरोध का भरपूर आत्मविश्वास अरब क्षेत्र के आज़ादी-पसंद लोगों में पैदा किया, साथ ही फिलिस्तीनी मुक्ति के संघर्षशील स्वर और संकल्प को विश्व-परिदृश्य पर ख़ून की लिखत में अंकित किया। महमूद दरवेश का जन्म फिलिस्तीन के अपर गलिली क्षेत्र के, अक्का जिले में, बिर्वे गाँव में हुआ था। 1948 में, अभी महमूद की उम्र कुल सात साल थी कि इज़रायली फ़ौजों ने उनके गाँव को बरबाद कर दिया और इस तरह महमूद अपने मुल्क में ही शारणार्थी बन गये। इन्हीं हालात ने, ज़िन्दगी के शुरू के दिनों में ही उन्हें इज़रायली कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ा और महमूद फिलिस्तीनी जन-राज के मुक्ति संग्राम में कूद गये। एक मुक्तियोद्धा के रूप में उन्हें दमन और उत्पीड़न के अनवरत दौरों से गुज़रना पड़ा- जेल-यात्रओं और नज़रबंदी का सिलसिला चलता रहा। कुछ अरसे तक उन्होंने ‘अल-इत्तेहाद’ नाम के एक रिसाले का सम्पादन भी किया। किन्तु धीरे-धीरे हालात बद से बदतर होते गये और आख़िरकार सन् 1932 में उन्हें मजबूरन इज़रायल छोड़कर बेरुत चले जाना पड़ा। उसके बाद ही उनकी कविता अनुवाद के जरिये दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पहुँची। हिंदी में भी उनकी कविताओं के पहले अनुवाद 1972-73 के आसपास संभवतः स्व. मोहन थपलियाल ने प्रकाशित किये थे। बेरुत में भी महमूद टिक कर नहीं रह पाये। इज़रायली आक्रमणों के चलते, 1990 तक उन्हें कभी सीरिया कभी साइप्रस, कभी काहिरा, कभी ट्यूनिस, कभी पेरिस, कभी जार्डन भटकना पड़ा। 1990 में जैसे-तैसे फिलिस्तीन वापसी की अनुमति मिली और उन्होंने काव्य-रचना के साथ-साथ एक तिमाही रिसाला निकाला और रामल्ला में एक सांस्कृतिक केन्द्र कायम किया। किन्तु तभी इज़राइली फौजों ने हमला कर दिया- अनेक शायर-कलाकार मारे गये। महमूद दरवेश इसलिए बच गये, कि वे उस वक़्त बेरुत की यात्र पर थे। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में सन् 2008 में उनका निधन हुआ। प्रस्तुत कविताएं महमूद दरवेश के निधनोपरांत प्रकाशित कविता संग्रह ‘प्यास से मरती एक नदी’ से, कैथेराइन कोहेन के अंग्रेजी अनुवादों की मदद से हिंदी में संभव की गई हैं।
प्यास से मरती एक नदी
यहाँ एक नदी थी और उसके दो किनारे थे
और एक आसमानी माँ
जिसने बादलों से टपकते क़तरों से इसकी परवरिश्
एक नन्हीं नदी
आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती हुई
पहाड़ की चोटियों से उतरती हुई
गाँवों और ख़ेमों को
किसी ख़ूबसूरत-ज़िन्दादिल मेहमान के मानिंद
निहाल करती हुई
घाटी को कड़ैंल और खजूर के दरख़्त बख़्शती हुई
और साहिलों पर
रात की मौजमस्ती में डूबे हुओं से
अठखेलियाँ करती हुई
‘पियो बादलों का शीर
‘पिलाओ घोड़ों को पानी
और उड़ जाओ येरूशलम, दमिश्क!’
कभी अगलों से मुख़ातिब
बहादुराना अंदाज़ में गाती लहक-लहक
यहाँ दो किनारों वाली एक नदी थी
और एक आसमानी माँ, जिसने बादलों से टपकते क़तरों से
इसकी परवरिश की,
मगर उन्होंने इसकी माँ का अपहरण कर लिया
लिहाजा, पानी की कमी से
प्यास से छटपटाते दम तोड़ दी इसने
आहिस्ता-आहिस्ता
काश मैं एक पत्थर होता फ़क़त
मैं किसी चीज़ के लिए नहीं ललकता
न गुज़रते कल के लिए, न आने वाले कल के लिए
और अपने वर्तमान में न आगे जाने के लिए, न पीछे
लौटने के लिए
कुछ भी नहीं हो रहा मुझमें!
काश मैं एक पत्थर होता फ़क़त, मैंने कहा, आह,
काश मैं कोई पत्थर होता फ़क़त, तो पानी मुझे
सब्ज़ ज़र्द रंगत देता- बुत के मानिंद किसी
कमरे में रखा जाता मुझे, या तराशा जाता बुत की शक्ल
में, या किसी बुलंद मगर फालतू ढांचे में से कुछ
ज़रूरी फोड़ निकालने के लिए मसाले के बतौर
मेरा इस्तेमाल होता।
काश मैं एक पत्थर होता फ़क़त
ताकि किसी चीज़ के लिए ललकता!
बुत का हाथ
बुत का हाथ फैला हुआ,
बुत किसी जण्डैल का या किसी फ़नकार काµ
धूप और बारिश की ख़ुश आमद में नहीं
न बूढ़े फौजियों, ने नये ख़ैरख़्वाहों की
बल्कि आतों-जातों से खैरात माँगते
किसी खानदानी भिखमंगे के हाथ जैसा,
इसलिए नहीं, कि फिर चल- फिर सके
बल्कि इसलिए
कि अज़ल से अबद तक के सफ़र ख़र्च की
भरपाई हो सके।
बेहतर होगा इस पथरीले हाथ के लिए
कि किसी शख़्स से वो गुलदस्ता हासिल करे
जो उसने, बुत के पास अकेला इंतिज़ार करते छोड़ गई
औरत के लिए ख़रीदा था।
आधे-अधूरे
तुम टुकड़ों में बटे हुए हो
तुम नहीं हो तुम
या कोई और,
कहाँ है समरूपता के अँधेरे में
तुम्हारा मैं?
जैसे मैं कोई जिन्न होऊँ
किसी जिन्न की तरफ़ बढ़ता हुआµ
जबकि मैं एक समूचा शख़्स हूँ
जो जिन्न से आगे निकल आया है
मैं अपनी पहली छाया से उभरा
पछाड़ता हुआ जिन्न को,
और बिला जाने के बाद वह चीख़ा
‘होशियार, मेरे अमले वजूद!’
जैसे वो कोई नग़्मा हो
मानो मैं किसी ख़्वाब में होऊँ
देखा मैंने तुम्हें भूरे-सुनहरे जिस्म में,
जैसे, रंग को तुम अर्थाती हो।
आ बैठी तुम मेरे जानूं पर, जैसे तुम तुम हो, जैसे मैं मैं होऊँ
और हमारे सामने लाला से महमहाते बग़ीचे में
चहलक़दमी के लिए रात हो,
यहाँ है वो सब कुछ। सब कुछ हमारा। तुम मेरी मैं तुम्हारा
और है छाया। तुम्हारी छाया_ नारंगी के माफि़क हँसती हुई।
ख़्वाब ने अपना काम किया, और किसी चिट्ठीरसा के
माफि़क किसी और जानिब लपक लिया
लिहाज़ा इस शाम हमें समझदारी बरतनी होगी
अपने ख़ुद की और उस दरिया की बाबत
जो हमारे साथ रवाँ है
और कि हम उसमें बहते हैं जैसे वो हममें बहता है।
चील एक मँडराती ऐन हमारे सर पर
कविता में के राहगीर ने कविता में के राहगीर से पूछाः
‘और अभी कितना आगे तुमको जाना है?’
‘जिससे आगे राह न कोई।’
‘तो फिर जाओ, जाओ मानो पहुँच गये हो, और न पहुँचे।’
‘अगर न होते इतने रस्ते
हुदहुद1 हो जाता दिल मेरा, और खोज लेता मैं रास्ता।’
‘अगर तुम्हारा दिल हुदहुद हो जाता, तो मैं उसके पीछे-पीछे आता।’
‘लेकिन तुम हो कौन? नाम तो बतलाओ अपना।’
‘नाम नहीं दौरान सफ़र के मेरा कोई...’
‘आगे भी क्या कहीं मिलोगे?’
‘हाँ, हाँ बिल्कुल!... खाई के इस उस ओर हुआँते
दो पर्वत शिखरों के ऊपर... वहीं मिलूँगा मैं तुमको...’
‘कैसे कूदेंगे हम खाई
हम तो नहीं परिंदे, भाई!’
‘तो हम गायेंगेः
हम न उसको देख सकते हैं, जो हमको देखता है
देख पाता वो न हमको, हम कि जिसको देखते हैं।’
‘फिर?’
‘हम नहीं गायेंगे’
‘फिर?’
‘तुम मुझसे-मैं तुमसे पूछूँगाः और अभी कितना आगे तुमको जाना है?’
‘जिससे आगे राह न कोई।’
‘जिससे आगे राह न कोई काफ़ी है क्या राहगीर को
तै करने को कोई मंज़िल?’
‘नहीं, दरअसल दीख रही
मँडराती ऐन हमारे सिर पर चील एक अतिविस्मयकारी!’
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1. अरबी फ़ारसी की पुरानी शायरी में अकसर आने वाला एक पौराणिक पक्षी (गरुड़ के समतुल्य)
लड़की 1
साहिल पर एक लड़की है और लड़की के माँ-बाप हैं
और माँ-बाप का एक घर है और घर में दो दरीचे व एक मुहार है
और समंदर में एक जैसी जहाज़ है मौजमस्ती करता
साहिल पर सरगश्ती करते हुओं का शिकार करताः
चार पाँच सात
ढेर हुए पड़े रेत पर
लड़की फि़लहाल बची हुई किसी नज़र न आते ग़ैबी
हाथ की सरपरस्ती में
लिहाजा वो आवाज़ देती हैः ‘अब्बू! अब्बू! हमें
घर लौटना चाहिए, समंदर हम जैसों के लिए नहीं’,
बाप कोई जवाब नहीं देता, पसरा पड़ा हुआ सूर्यास्त की
जानिब सरकती अपनी परछाईं पर
ख़ून-ख़ून खजूर के दरख़्त, बादल ख़ून-ख़ून!
लड़की की आवाज़ ऊँची और ऊँची होती साहिल से
आगे तक जाती हुई
रात में चीख़ उठती वो
आहंग में कोई आहंग नहीं
लिहाजा एक न ख़त्म होने वाली चीख़ ताज़ा ख़बर में
जो क़त्तई नहीं रही ताज़ा ख़बर
जब दो दरीचों और एक मुहार वाले घर पर बम गिराने
के लिए हवाई जहाज़ लौटा।...
1. इसका एक शीर्षक ‘चीख़’ भी दिया गया है।
नीरो 2
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2. रोम का सम्राट (57-68ई.) बेविलोनिया का शासक (1797-60ई.पू.)
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लेबनान को जलता देखते क्या चल रहा है नीरो के दिमाग़ में? उसकी आँखें दीवानावार
चमकती हुई और उसकी चाल, जैसे शादी के जश्न में कोई नाचता हुआ। यह दीवानगी
मेरी दीवानगी है, मुझे बख़ूबी पता है, लिहाजा जलाने दो उन्हें उस सब कुछ को, जो हमारी
पकड़ से परे है। और बच्चों को सीखनी होगी तमीज़, बंद करना होगा चीख़ना-चिल्लाना
मेरी रियाज़ के दौरान।
और इराक़ को जलता देखते क्या चल रहा है नीरो के दिमाग़ में? क्या वह ख़ुश है जंगल
की तारीख में दबी यादों के उभरने से, जिसमें उसका नाम हम्मुराबी 1 और गिलगमेश 2
और अबू नुआस के दुश्मन के बतौर दर्ज़ है? मेरा कानूनो-काइदा सभी कानूनो-काइदा
की माँ है। दाइमी ज़िन्दगी काफूल हमारे मैदानों मफेंलता है, और शाइरी-उसके क्या
मानी?
और फिलस्तीन को जलता देखते क्या चल रहा है नीरो के दिमाग़ में? क्या उसे इस बात
की ख़ुशी है कि उसका नाम पैग़म्बरों की फि़हरिस्त में एक पैग़म्बर के बतौर दर्ज है, जिस
पर पहले किसी ने यक़ीन नहीं किया, ख़ूनी पैग़म्बर के बतौर,जिसे ख़ुदा ने आसमानी
किताबों में बेतादाद ग़लतियों को दुरुस्त करने के सथ तैनात कियाः मैं भी मुक़र्रिर हूँ ख़ुदा
की तरफ़ से।
और दुनिया को जलते देखते क्या चल रहा है नीरो के दिमाग़ में? मैं रोज़े-हश्र का मालिक
हूँ। फिर वह हुक्त देता हैः कैमरा बंद करो! वह नहीं चाहता कि इस लम्बी अमरीकी मूवी
के अख़ीर में, कोई देखे कि उसकी उँगलियाँ जलती हुई आग पर हैं।
2. इस्लामी पौराणिकी के अनुसार रोज़े हश्र (हश्र के दिन) में सभी के कर्मों पर निर्णय सुनाया जाता है।
टेक एक ज़िन्दगी की
अगर कोई मुझसे कहता, ‘तुम्हें आज शाम को मरना है,
यहीं, लिहाजा दरमियानी
वक़्त में तुम क्या करोगे? मैं कहता, क़लाई घड़ी देखूँगा,
एक गिलास जूस पियूँगा
एक सेब चरचराऊँगा और फ़ासिले पर रेंगती
उस चींटी को निहारूँगा जिसने दिन भर की ख़ूराक
हासिल कर ली है।
फिर क़लाई घड़ी देखूँगा
अभी शेव और ग़ुसल का वक़्त है।
एक ख़याल दिमाग़ में उभरेगा, कि लिखना
शुरू करने से पहले किसी शख़्स को ख़ुशनुमां
दिखना चाहिए
लिहाज़ा नीले रंग की कोई पोशाक पहनूँगा
और दोपहर तक डेस्क पर काम करूँगा, बग़ैर
इसकी परवाह किये कि अल्फ़ाज़ के रंगत हैं
सफ़ेद - यक्दम सफ़ेद
अपना आख़िरी खाना तैयार करूँगा
दो गिलासों में शराब ढालूँगाः एक अपने लिए
दूसरा किसी अचानक आ टपकने वाले मेहमान के लिए
फिर दो ख़्वाबों के दरमियान एक झपकी लूँगा
मगर मेरे खर्राटे की आवाज़ मुझे जगा देगी
फिर क़लाई घड़ी देखूँगाः
पढ़ने के लिए वक़्त अभी है
दाँते का एक बाब 1 और आधा मुअल्लक़ा 2 पढूँगा
और देखूँगा कि मेरी ज़िन्दगी कैसे अगलों में जाती है
और क़त्तई हैरत नहीं होगी कि उसकी जगह कौन लेता है
‘ठीक ऐसे ही?’
‘ठीक एसे ही...’
‘फिर?’
‘बालों में कंघी करूँगा
और नज़्म फेंक दूँगा.... यह नज़्म कूड़ेदान में,
इटली में ख़रीदी नई क़मीस पहनूँगा
स्पानी वायलिनों के साज़ पर खुद को अल्विदा कहूँगा
फिर-
चल पडूँगा क़ब्रिस्तान की जानिब...’
2. अरबी का एक संपादित क्लासिक।
उदासीन
वह किसी बात की परवाह नहीं करता। अगर वे उसके घर का पानी का कनेक्शन काट देते हैं, तो वह कहता है, ‘कोई बात नहीं, जाड़ा आने वाला है।’
और अगर वे घंटे भर तक बिजली बंद रखते हैं, तो वो जम्हाई लेते हुए कहता है, ‘कोई बात नहीं, सूरज की रोशनी काफ़ी है।’
अगर वे उसकी तनख्वाह में कटौती की धमकी देते हैं, तो वो कहता है, ‘कोई बात नहीं, महीने भर तम्बाकू और शराब का इस्तेमान नहीं करूँगा।’
और अगर वे उसे पकड़ कर जेल में धाँध देते हैं, तो वो कहता है, ‘कोई बात नहीं, कुछ अरसा मैं अपने में अकेला रहूँगा, यादों के साथ।’
और अगर वे उसे जेल से वापस घर छोड़ जाते हैं, तो वो कहता है, ‘कोई बात नहीं, अपना ही तो घर है।’
एक दिन मैंने तैश में आकर कहा, ‘कल तुम्हारा गुज़ारा कैसे होगा?’
उसने कहा, ‘कल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं। मैं ख़याली पुलाव नहीं पकाता। मैं जो हूँ वही हूँ। कोई चीज़ मुझे बदल नहीं सकती, जैसे मैं किसी चीज़ को बदल नहीं सकता।
लिहाजा मैं अपने हाल में ख़ुश हूँ।’
मैंने उससे कहा, ‘न मैं सिकंदर महान हूँ, न दायोजेनस 1।’
उसने कहा, ‘मगर उदासीनता भी एकफलसफ़ा है... उम्मीद का एक पहलू।’
1 दायोजेनस चौथी सदी ई.पू. का एक सनकी ग्रीक दार्शनिक।
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