अनुवाद - सुरेश सलिल मिस्र की कविताएँ वहा अव्वाद आधुनिक अरबी साहित्य में मिस्र की हैसियत कुछ अलग तरह से रेखांकित की जानी चाहिए। वहाँ के ...
अनुवाद - सुरेश सलिल
मिस्र की कविताएँ
वहा अव्वाद
आधुनिक अरबी साहित्य में मिस्र की हैसियत कुछ अलग तरह से रेखांकित की जानी चाहिए। वहाँ के महान कलाकार नगीब महफूज को नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा चुका है। मिस्र के अदीबों की सबसे नई पीढ़ी, ख़ासकर कविता में, अरब क्षेत्र से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों का सामना करने के साथ-साथ, विषयवस्तु और शिल्प में पश्चिम के अवांगार्द आंदोलनों से भी प्रेरित, संचालित हुई है। यहाँ प्रस्तुत तीनों कवि युवा हैं और सन् 2000 के बाद की मिस्र की अरबी कविता की बानगी प्रस्तुत करते हैं। सभी कविताओं के अनुवाद महमूद इनानी के अंग्रेजी अनुवादों की सहायता से। 1969 में जन्मे वहा अव्वाद ने काहिरा यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन में स्नातक की उपाधि ली। पहला कविता संग्रह ‘शमा अल-असील’ (दोपहर ढले का सूरज) 1998 में प्रकाशित।
1
निराशा से घिरा हुआ
सालों से वही जानलेवा सिलसिला जारी रहने की
निराशा से घिरा हुआ
याद करता हूँ कि उन सालों के दौरान मेरे भीतर
अनजान ताक़तों से लड़ता हुआ एक छोकरा रहा है
कभी खुद को उनसे छिपाता हुआ
कभी निहत्था सामने आता हुआ-
हालाँकि सिर्फ अपने नटखटपन,
स्वाभाविक उतावलेपन से लैस
जब कभी मैं निराशा से घिरता हूँ
उस पोशीदा छोकरे को याद करता हूँ
उसके हैरतअंगेज कारनामों
उसकी अनिश्चित दुस्साहसिकताओं का
बेसब्री से इंतज़ार करता।
2
इस दुनिया से जुड़े जिस किसी भी विषय पर
विचार- व्यवहार कर रहे हो
पवित्र मानी जाने वाली किताबों का हवाला मत दो!
सतर्क रहो पवित्र मानी जाने वाली किताबों का
हवाला देने से!
हरदम याद रखो कि तुम्हारे अपने ही भीतर
पुरातन निष्कपटता का एक हल्क़ा है
जो तुम्हें,
अगर भरोसे के साथ उसे बरतो,
पवित्र अक्लमंदी दे सकता है।
3
नीली-हरी-लाल-पीली
इस दुनिया में एक जीती-जागती भाषा है,
जीती-जागती से मतलब
कि हरेक प्रतीक अपने भीतर
एक समूची दुनिया प्रतिबिम्बित करता है
और जैसे ही वे प्रतीम अंतर्क्रिया करते हैं
जीवन में गम्भीरता आती जाती है-
शाख़ें फलने लगती हैं
और, इस एक पल संगति-अगले पल विसंगति।
उनके बिना
ज़िन्दगी अपनी प्रथम उत्पत्ति के
स्वादहीन भाव से वंचित रहेगी।
यूसफु़ रख़ा
यूसफु़ रख़ा मिस्र की आधुनिक कविता के सबसे कमउम्र कवि है। पेशे से पत्रकार। हफ़्तावार अख़वार ‘अल-अहरम’ के फीचर पृष्ठों के संपादक विभाग में कार्यरत।
धूल भरा अंधड़
इस दिन मेरा शहर
एक धूल भरे अंधड़ की चपेट में आया।
उस वक़्त मैं सड़क पर था
और अपनी सिगरेट नहीं जला पाया।
जैसे ही मैं धूल भरे अंधड़ की गिरफ़्त में आया
आसमान की ज़ानिब निहारा और
माचिस की पतली तीली की ज़ानिब
जिसने मेरे दुखों में शिरकत की और
अफ़सोस जताया।
सामने बैठी औरत
ये औरत मेरे सामने बैठी है
अपने जिस्म, अपने जज़्बात
और अपने शानों परफैले-बिखरे बालों से
मुझे मेरी महबूबा और मेरी वालिदा की
याद दिला रही है-
जुमरात और जुमे की शामों की
और मेज़ पर रखे गरमागरम खाने की।
किसी मामूली और आम औरत की तरह
क़त्तई नहीं ले पाया मैं उसे।
वो अपने जिस्म, अपने जज़्बात
और अपने शानों परफैले बिखरे बालों में
जुमरातों, जुमे की उन शामों और
मेज़ पर रखे गरमागरम खाने को सहेजे हुए है।
आलिया अब्दुस्सलाम
आलिया अब्दुस्सलाम आधुनिक मिस्री कविता में 1990 की पीढ़ी की प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। जन्म मंसूरा शहर में हुआ, बाद में काहिरा की ओर रुख किया। कुछ वक़्त जर्मनी में रहीं। अपने विद्रोही विचारों के कारण द. अफ्रीका में राजनीतिक शरण लेने की कोशिश की, किंतु कामयाबी नहीं मिली।
फि़लहाल काहिरा, सिनाई और लालसागर इलाके में आवारागर्दी।
घर के सामने
उनकी पुरानी चीज़ों पर जमीं धूल को तुमने चूमा
निहारा अपनी पड़ोसिन को
जो परिंदे का पिंजड़ा हाथ में थामे घर लौट रही थी
और जलती मोमबत्तियाँ हाथ में थामे
नन्हीं बच्चियाँ उसके पीछे-पीछे चल रही थीं।
एक राज-मज़दूर अपने कच्चे कंधों पर
घर बार का बोझ सँभाले
दरअसल, बग़ैर जूते उतारे ही, नींद में डूबा पड़ा था
तीन में से एक चारपाई पर।
उनके घरों के सामने, तुम अपने भीतर उन पौधों को लेकर
एक नामालूम सा लगाव रुगरुगाता महसूस करोगे
जो आँसुओं के उस जोहड़ की सतह पर तैर रहे हैं
जिसे उनके प्रति बेरुखी के अपने जज़्बे की गहराई में
एक बयान के बतौर तुमने सिरजा है।
उनके घरों के सामने तुम महसूस करोगे
कि तुम्हें इंसानियत से मोहब्बत है
और तुम्हारा वजूद कद्दावर है।
पुराने घरों के क़रीब एक परिंदा
पुराने घरों के क़रीब बदबूदार माहौल है और एकख़ामी
और दोनों ख़्वाबों का ढँके हैं।
वहाँ कि़स्मत भी है, जिसे मैंने एक छोटे पिरामिड में रखा है
ताकि दुनिया की ख़ाली जगह में वह पुख़्तगी के अहसास
से खुद को लवरेज़ कर सके,
वो दुनिया, जो बर्बादी के लिए बेहाल है,
पूरी बर्बादी के लिए,
एक आँख जो देखती है
एक आँख, जो नींद को परे झटक देती है
एक आँख, जो देख नहीं सकती।
शहर के लोगों को बारिश से इश्क है
मगर कोशिश ये भी रहती है
कि उनके कपड़े न भीगें।
साथ ही_ वे बच्चों को दरख़्तों के ईदगिर्द खेलने से
रोकते हैं, क्योंकि उन्हें अँधेरे क्षितिज पर
दो परिंदे और एक सीढ़ी नज़र आती है
एक परिंदा रोशनी के क़रीब मँडराता है
और दूसरा सीढ़ी पर बसेरा किये है।
जलपरी
मेरा दिल सन्न था_
फिर मैं नये दोस्तों को लेकर संजीदा हो गई।
दर्द से परेशान थी मैं,
तक़रीबन रास्ते पर पड़े किसी पत्थर के मानिंद
टूटी हुई - बिखरी हुई,
लिहाज़ा बारीकी से मेरी जाँच-पड़ताल की गई
और बिखेर दिया गया ऊपर-
आसमान के सूनेपन में-
बेज़ुबान ख़ामोश ख़ूबसूरती में।
अब मैं सब कुछ में रहती हूँ
कभी करखानों की ज़ानिब जाते चूज़ों का पीछा करती
और घर के पौधों के लिए
नियत पानी कोटा बढ़ाती
और बरसते पानी के साथ बेहद ख़ुशी महसूस करती।
समुद्री किनारों पर उगे
पहाड़ों जैसे मुल्क में मैं रहती हूँ
जहाँ कभी-कभार इंसानी आबादी भी नज़र आ जाती है।
ईरानी कविताएँ
अहमद शामलू
आधुनिकफ़ारसी कविता के शीर्ष व्यक्तित्व। जन्म 1925 में, तेहरान में हुआ और बचपन कई छोटे शहरों-क़स्बों में बीता। युवावस्था के शुरुआती दौर में राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी और जेलयात्रा। शामलू ने अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनके जरिये युवा प्रतिभाओं को मंच प्रदान किया। मौलिक सृजन के अलावा फ्रंच भाषा से कविता व कथा-साहित्य का फारसी में तर्जुमा भी किया। फारसी के लोक साहित्य के अनुसंधान और संपादन का प्रभूत कार्य। राजनीतिक कारणों से 1975 में स्वदेश त्यागकर फ्रांस व सं. रा. अमेरिका में भटकन। अपुष्ट रूप से सन् 2000 के आसपास निधन। शामलू की प्रकाशित काव्यकृतियाँ एक दर्जन से अधिक हैं। प्रस्तुत हिंदी अनुवाद स्वयं कवि-कृत अंग्रेजी अनुवादों की सहायता से किये गये हैं।
उदास नग़्मा
भोर की भूरी पटभूमि में
खड़ा है ख़ामोशी में डूबा घुड़सवार
हवा में उड़ रही है फर्-फर्-फर्
घोड़े की लम्बी अयाल
या ख़ुदा! या ख़ुदा!
जब हालात गरमा रहे हों
इस तरह मुर्दार खड़े रहने को
नहीं होते घुड़सवार
जली हुई बाड़ से लगी
खड़ी है ख़ामोशी में डूबी लड़की
हवा में लहरा रहा है लहर-लहर
उसका सलोना घाँघरा
या ख़ुदा! या ख़ुदा!
जब निराश और निढाल मर्द बूढ़े हो रहे हो
इस तरह ख़ामोश बनी रहने को
नहीं होतीं लड़कियाँ।
आख़िरी लफ़्ज़
आख़िरी लफ़्ज़ लहराया मेरी ज़ुबान पर
संगे मक़्तल पर जैसे
किसी बेगुनाह का बेवजह बहाया गया ख़ून
या ख़ून सियावुश का
(जो आज तक उगा नहीं
या जिसके उगने में बहुत देर हो
या जिसे क़त्तई कभी न उगना हो
उस सूरज का हर रोज़ फैलने वाला ख़ून)
किसी उबलते इच्छापत्र की तरह
आख़िरी लफ़्ज़ लहराया मेरी ज़बान पर
और मैं खड़ा रहा
जब तक कि उसकी गूँज ने
हवा पर सवार होकर
सबसे दूर के कि़ले पर चढ़ाई नहीं कर दी।
जादुई लफ़्ज़
(हाफि़ज़ के मुताबिक़)
और आख़िरी लफ़्ज़
(मेरे मुताबिक)
किसी मासूम मेमने की आख़िरी साँस की तरह
लहराया सर्द संगे- मक़्तल पर।
और ख़ून की गंध
बेचैनी के साथ
हवा में धुलकर आगे बढ़ गई।
फ़रोग़ फ़र्रुख़ज़ाद
आधुनिक फ़ारसी कविता की एक असाधारण शख़्सियत (1935 -1967)जिसने 32 साल की छोटी सी ज़िन्दगी में ही कई ज़िन्दगियाँ जी डालीं और फारसी कविता के समूचे इतिहास में पहली बार औरत की ज़िन्दगी को उसकी अपनी आवाज़ दी। फ़रोग़ का जन्म तेहरान के एक संपन्न और सुशिक्षित परिवार में हुआ किन्तु उसके विद्रोही स्वभाव के चलते स्कूली पढ़ाई हाईस्कूल से आगे नहीं जा पाई। 16 साल की उम्र में, माँ-बाप की घोर असहमति के बावजूद, उम्र में पंद्रह साल बड़े एक दूरदराज रिश्तेदार से निकाह किया। साल-भर के भीतर अपनी एकमात्र संतान, एक बेटे, की माँ बनीं, किन्तु दो-ढाई साल के वैवाहिक जीवन के भीतर ही उसे बीवी और माँ के हक से वंचित कर दिया गया। कुछ अरसा उसे मानसिक रोगों के अस्पताल में भी रहना पड़ा। लेकिन अदम्य जिजीविषा की धनीफ़रोग़ ने न सिर्फ इस सबको झेला बल्कि अपने पहले दो कविता संग्रह ‘असीर’ (बंदीः 1954) और ‘दीवार’ (1958) भी प्रकाशित किये। पत्रकारिता, कला, रंगमंच और फिल्म आदि माध्यमों में अपने अर्जित ज्ञान और अनुभव को विकसित करने के इरादे से उसने यूरोप की यात्रएँ कीं और साहित्य व फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय अपने एक दोस्त इब्राहिम गोलेस्तान के साथ जुड़कर फिल्म-निर्माण और अभिनय के क्षेत्र में सक्रिय हुईं तथा एक साहित्यिक पत्रिका और एक प्रकाशन संस्था शुरू करने की कार्य-योजना पर जुट गईं। किन्तु... सारे सपने, सारी सक्रियताएं, सारे हौसले धरे के धरे रह गये और 17फरवरी 1967 को एक जीप-दुर्घटना की शिकार होकर,फ़रोग़ फ़र्रुखज़ाद ने हरदम के लिए आँखें मूँद लीं। फ़रोग़ की कुल प्रकाशित काव्यकृतियाँ पाँच हैं। दो का ज़िक्र ऊपर हो चुका है, बाक़ी तीन हैं- ‘असीयान’ (विद्रोहः 1958), ‘तबल्लुदे दीग़र’ (दूसरा जन्मः 1964) तथा निधनोपरांत प्रकाशित ‘सर्द मौसम के आग़ाज़ पर हमें ग़ौर करना चाहिए’ (1974)। कानूनी तौर पर फ़रोग़ की किताबें ईरान में प्रतिबंधित हैं, किन्तु गैरकानूनी तौर पर उनका प्रकाशन होता रहता है और हर साल एक दिन ईरानी युवाफ़रोग़ की क़ब्र के पास एकत्र होकर उनकी कविताओं का वाचन करते हैं, उन्हें अभिनीत करते हैं। प्रस्तुत अनुवाद मूल पर्शियिन टेक्स्ट और माइकेल सी हिलमैन लिखित पुस्तक ‘ए लोनली वुमैन’ में सम्मिलित अंग्रेजी अनुवाद की सहायता से किया गया है।
तबल्लुदे-दीगरः दूसरा जन्म
मेरा समूचा वजूद एक उदास गीत है
जिसने तुम्हें कारदीदगी बख़्शी है
और जो तुम्हें सदाबहार भोर तक ले जायेगा।
इस गीत में मैंने तुम्हारे लिए आहें भरी हैं
आहें भरते हुए इस गीत में मैंने तुम्हें,
दरख़्त, पानी और आग के साथ रोपा है।
ज़िन्दगी शायद एक लम्बी सड़क है जिससे हर रोज़
एक औरत टोकरी लिये हुए गुज़रती है
ज़िन्दगी शायद एक रस्सी है
जिससे एक आदमी अपने आप को एक शाख़ से लटकाता है
ज़िन्दगी शायद स्कूल से घर लौटते एक बच्चे जैसी है
शायद दो जिस्मानी तअल्लुक़ात के दरमियान
थकान उतारने के इरादे से जलाई गई सिगरेट जैसी
या उस राहगीर को गुमनिगाही जैसी, जो किसी और राहगीर को
देखते ही बेगानी मुस्कुराहट के साथ सिर से टोपी उतारकर
कहता हैः सुबह ब ख़ैर
ज़िन्दगी शायद वह मक़्क़ूल लम्हा है जब मेरी निगाह
तुम्हारी पुतलियों में अपनी ख़ुदी खो देती है
और इस अहसास में कि मैं चाँद और रात का जादू तोड़ दूँगी।
तन्हाई जैसे लम्बे-चौड़े एक कमरे में इश्क़
जैसा क़द्दावर मेरा दिल
गुलदानों में फूलों की ख़ूबसूरत बरबादी,
और बग़ीचे में तुम्हारे रोपे
पौधे को देखते हुए, और रौशनदान की
चौखट पर बैठी पहाड़ी बुलबुल
के तराने सुनते हुए अपनी ख़ुशकि़स्मती के
मामूली बहाने तलाशता है।
आद्ध....
बस्स यही है मेरी कि़स्मत
बस्स यही...
मेरी कि़स्मत वो आसमान है जिसे एक पर्दे के जरिये
मुझसे दूर कर दिया गया है
मेरी कि़स्मत दिमाग़ी सड़न और यादे-माज़ी से
दोबारा कुछ हासिल कर लेने के इरादे से
कब से सूनी पड़ी सीढ़ियाँ फलाँगती नीचे उतर रही है
मेरी कि़स्मत यादों के बग़ीचे में एक मायूस चहलक़दमी है
और उस आवाज़ के ग़म में दम तोड़ रही है
जिसने कहा था मुझे तुम्हारे हाथ बहुत प्यारे हैं
मैं अपने हाथ बग़ीचे में रोपूँगी
और लहलहाऊँगी
मुझे पता है... हाँ, मुझे पता है
और रौशनाई लगे मेरे हाथों के खोखल में
अबाबीलें अंडे देंगी
चेरियों के जोड़े मैं झुमकों की तरह पहनूँगी
और डेहलिया की पंखुड़ियाँ नाखूनों पर सजाऊँगी
वहाँ वह गली है जिसमें अभी भी वे लड़के
उन्हीं बिखरे बालों, पतली गर्दनों और सींकिया टाँगों के साथ
मँडरा रहे हैं- जो मुझ पर मरा करते थे
और उस कमसिन लड़की की बेदाग़ मुहब्बत में उलझे हुए हैं
जिसे हवा एक रात उड़ा ले गई।
वहाँ वह गली है जिसे मेरा दिल
मेरे बचपन के गलियारों से चुरा लाया है।
वक़्त की पगडंडी के साथ एक जिस्म का सफ़र
और उस वक़्त की पगडंडी को उस जिस्म में जज़्ब करना,
उस जिस्म में, जिसे एक दावत की वापसी का
आईने में जड़ा अक़्स याद हो....
और इसी तरह कोई दम तोड़ देता है
और कोई जिये चला जाता है
जो चश्मा किसी तालाब में जाकर ख़त्म हो जाये
उसमें कभी किसी मछुआरे को मोती नहीं मिलते
मैं उस उदास नन्हीं परी को जानती हूँ जो एक समंदर में रहती है
और अपना दिल एक जादुई बाँसुरी में उँड़ेलती रहती है
बेआवाज़,
वह उदास नन्हीं परी हर रात एक चुम्बन के साथ मरती है
और हर सुबह एक चुम्बन के साथ फिर जी उठती है।
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