मर्जान रियाही 1970 में पैदाइश। तेहरान यूनिवर्सिटी से डिग्री ली, अभिनय और पटकथा- लेखन में डिप्लोमा। काव्य संग्रह ‘इशारे-हा’ (1999) प्रकाशि...
मर्जान रियाही
1970 में पैदाइश। तेहरान यूनिवर्सिटी से डिग्री ली, अभिनय और पटकथा- लेखन में डिप्लोमा। काव्य संग्रह ‘इशारे-हा’ (1999) प्रकाशित।
जंग के ख़तूत
अनुवाद - सुरेश सलिल
इस नयी ख़तोकिताबत में, रिटायरमेंट के बाद की अपनी आमदनी और औक़ात से आगे जाकर उसने ख़र्च किया था। यूनाइटेड नेशंस के सेक्रेटरी-जनरल को जो ख़त उसने लिखा, उसे काली रोशनाई में टाइप कराया। जंग के दौरान पकड़े गये कै़दियों और गुमशुदा फ़ौजियों के सदरे-कमीशन को लिखा गया ख़त भी उसने काली रोशनाई में टाइप कराया। यूनेस्को को भेजा गया ख़त नीली रोशनाई में था। यूनेस्को को ख़त लिखने की वजह से हालाँकि वह नावाकि़फ़ थी, फिर भी लिखा। अंग्रेजी उसे नहीं आती थी। लिहाजा असली मसौदा वह खुद तैयार करती और फिर उसका तर्जुमा करवाती। तर्जुमा किये हुए मसौदे जब उसके सामने आते और अजनबी हरुफ़ देखती, तो हैरत से भर उठती, कि ये वाक़ई उसके अपने अल्फ़ाज़ ही हैं! उसके बाद, बग़ैर मौज़ूनी- नामौजूनी का ख़याल किये, उसने हर कहीं ख़त भेजे और उनकी नक़लें अपने पास रखती गई। इस तरह, दस सालों के दरमियान लिखे और भेजे गये ख़तूत की नक़लें वह देखती, तो कभी-कभी उसे हँसी छूट जाती। सारे जुमले ख़ासे दफ़्तरी लहजे वाले!
हालाँकि ये सारे ख़तूत उसने तक़रीबन रोते हुए क़लमबंद किये थे, लेकिन देखने पर ऐसा लगता जैसे उन्हें किसी दफ़्तरनिग़ार ने पूरे होशोहवास में लिखा हो। एक ख़त का शुरुआती जुमला यूँ था- फ़लाँ-फ़लाँ के मुताबिक़ और आख़िरी जुमला इस तरह- ख़ुदा करे आप कामयाब हों और फिर से अमन क़ायम हो। लेकिन अब उसके मसौदों का लबो-लहजा बिल्कुल बदला हुआ था। वज़ीरे ख़ारिजा को उसने लिखा, हबीब जब बच्चा था, तो घंटों चिनार के दरख़्त की एक शाख़ पर बैठा इंतिज़ार करता रहता कि एक तेलियर उसकी गिरफ़्त में आ जाये। फिर वह उसके एक पर को बहुत ही ख़ूबसूरती से पेंट करता और उसके बाद उसे उड़ा देता, ताकि तेलियर परिंदों का झुण्ड जब आसमान में उड़ रहा हो, तो दोस्तों के बीच फ़ख़्र से वह दावा कर सके कि फ़लाँ तेलियर उसका अपना है। प्रेसिडेंट को उसने लिखा, सात साल की उम्र तक वह हरदम अखरोट को अरखोट कहता और पिश्ते की सख़्त खोल को दाँतों से तोड़ता था। सदन के नेता को उसने लिखा, अठारह साल की उम्र में एक किताब की तलाश करते हुए उसने तीन शहर नाप डाले थे, और यह क़यास भी, कि उस उम्र तक शायद उसे अपने बड़े होने का अहसास हो गया रहा होगा।
वैसे, दिल से वह यही चाहती रही, कि अखरोट को वह अरखोट ही कहता रहे। उसे इस बात का गुमान था कि 21 साल की उम्र तक हबीब ने अपने बारे में कोई फैसला नहीं लिया था और बिना उससे पूछे कहीं आता-जाता नहीं था। और उन सभी ख़तों के आख़िर में उसने लिखा था- सिये एक माँ के अल्फ़ाज़ हैं।
जो लोग वापस लौटे थे, उसने ताज़ा ख़बर यह मिली कि कुछ लोग यूनाइटेड नेशंस की फ़ौजों से बच कर अब भी छिपे हुए हैं। अगलों ने दूर से उन्हें देखा। उनके मुताबिक़ उनमें भूरे बालों वाला एक लम्बा- तड़ंगा जवान भी था, जो अपने बरहना हाथों से परिंदों को पकड़ लेता था। लोग उसे हबीब कह कर पुकारते थे। इराक़ का कहना था, जिनकी वापसी होनी थी वे सब ईरान वापस जा चुके हैं। लेकिन ईरान इससे इन्कार कर रहा था। उसका कहना था, यह सरासर झूठ है।
...और उसने ख़तो- किताबत जारी रखी। एक ख़त उसने इराक़ भी भेजा, प्रेसिडेंट पैलेस के पते पर। उसमें उसने लिखा कि मेरा हबीब गुमशुदा है और मुझे मालूम है कि वह वहाँ है, लोगों ने उसे वहाँ देखा है। “वह आपके भला किस काम का? मेहरबानी करके उसे वापस भेज दीजिए।“ ख़त की शुरुआत उसने आरज़ू मिन्नत से की थी, लेकिन आख़िर तक आते-आते उसका लहजा तल्ख हो गया था और वह कोसने देने लगी थी।
एक सुबह, अचानक जाने क्या सोचकर, उसने एक अजीब फै़सला लिया। हरेक पार्लियामेंटरी नुमाइंदे को, हरेक कैबिनेट मेम्बर को, ग़र्ज़ यह कि सरकार की हरेक ख़ास शख़्सियत के नाम उसने ख़त लिखने शुरू कर दिये। हरेक ख़त के साथ वह हबीब की एक तस्वीर भी नत्थी करती। यज़्द के नुमाइंदे वाले ख़त में उसने हबीब की पाँच साल की उम्र की एक तस्वीर लगाई, जिसमें वह यज़्द का बना मीठा पुआ खा रहा है। इस्फ़हान के नुमाइंदे वाले ख़त में उसने हबीब की सात साल की उम्र की तस्वीर नत्थी की। उसमें नये साल के कपड़े पहने वह अतनी क़ापू1 के बरामदे के बीचोंबीच खड़ा है।
कौम के नुमाइंदे को उसने हबीब की दस साल की तस्वीर भेजी, जिसमें वह तासु’अ2 के मातम में शिरकत कर रहा है। वज़ीरे जंग वाले ख़त में उसने हबीब की बारह साल की उम्र की यह तस्वीर नत्थी की, जिसमें वह काली कमीज पतलून में अपने वालिद के क़ब्र की बग़ल में खड़ा है और पैर व टखने धूल-मिट्टी में लिथड़े हुए हैं। वज़ीरे दाखिला को उसने 2x3 साइज की वह तस्वीर भेजी जो हबीब के यूनिवर्सिटी- दाखिला इम्तिहान पास करने पर खींची गई थी। वज़ीरे तालीम के ख़त में यूनिवर्सिटी के दिनों की हबीब की एक तस्वीर उसने नत्थी की। इस सबके बाद, उसने अपने लिए जो तस्वीर बचाकर रखी, उसमें कीचड़-मिट्टी में लिथड़ा, वाकी-टाकी, हेल्मेट और बारूद की बेल्ट से लैस हबीब खड़ा मुस्कुरा रहा है। ये सारे ख़त डाक के सुपुर्द कर चुकने के बाद उसने कुछेक सख़्त गत्ते वाली आर्गनाइज़र फाइलें ख़रीदीं, ताकि उनके जवाब उनमें बाक़ायदा फाइल किये जा सकें। छह महीना का अर्सा बीत चुकने के बाद उनमें से एकफाइल में सिर्फ़ दो ख़त बरामद किये जा पाये और उनके जुमले तक़रीबन एक जैसे थे।फाइलों पर जमीं धूल को उसने बहुत आहिस्ते-आहिस्ते एक रूमाल से साफ़ किया।
लिक्खाड़ लोगों की सलाह पर उसने एक बाल पॉइंट क़लम ख़रीदा। लेकिन उसी शाम उसे इस बात का गहरा अहसास हुआ कि एक लफ़्ज़ तक बाक़ी नहीं बचा उसके पास लिखने को। उसने बिना पता ठिकाना एक लिफाफा निकाला, उसमें एक सादा काग़ज़ मोड़ कर रखा और क़लम को अपनी उंगलियों के बीच फँसाकर ज़ोर से भींचा। उधर उसके सीने में फेफड़ों के दरमियान भी कुछ भिंचता महसूस हुआ और... उसके बाद... सब कुछ एकदम स्याह था।
एक रोज़ पोस्टमैन आया। वह एक रजिस्ट्री ख़त लाया था। घंटी बजाई उसने, लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं आया। साफ़ था कि ख़त किसी बहुत ख़ास जगह से आया है। अगले रोज़ वह फिर आया। उसके अगले रोज़ भी। लेकिन हर बार वही। अंदर से कोई जवाब नहीं। आख़िरकार अपनी कापी में खुद पाने वाले के दस्तखत किये और लिफाफे को दरवाजों के नीचे से भीतर खिसकाने की कोशिश की। मगर लिफाफा अंदर खिसका ही नहीं। लगा, उधर से कोई चीज़ अड़ रही है। झुककर उसने दरवाज़ों के पीछे का जायज़ा लेना चाहा। देखा, पूरा अहाता ज़र्द और सूखे पत्तों से अटा पड़ा है।
1 इस्फ़हान का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारक
2 मोहर्रम का नौवां दिन।
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