एक - महंगाई मुझे- देखकर घबराओ नहीं और न सहमों ही, मैं- आ रही हूं तुम्हारे पीछे भागती हुई, और देखो- चली भी आई! तुम भागकर जाओगे कहां? क्यों...
एक-
महंगाई
मुझे-
देखकर घबराओ नहीं
और न सहमों ही,
मैं-
आ रही हूं
तुम्हारे पीछे भागती हुई,
और देखो-
चली भी आई!
तुम भागकर जाओगे कहां?
क्योंकि-
मेरे हाथ हैं बहुत लम्बे
जिनमें जकड़ चुके हो,
तुम इस तरह कि-
शीघ्र छुटकारा पा नहीं सकते।
जानोगे मेरा परिचय-
मैं हूं निर्भय निःशंक-
महंगाई!महंगाई!!महंगाई।।।
तुम मुझसे भागकर कहीं जा नहीं सकते।
दो-
साम्पदायिकता
एक-
दबी हुई चिन्गारी
जोकि आज तक शान्त थी
आतुर थी शनैः-शनैः
बुझपाने को,
लेकिन-
आज उसको दी गई हवा
स्वार्थ में डूबे दरिन्दों से,
जिन्होंने-
अपने कार्यों से कार्य कर दिया
अल्पसमय में ही
अग्नि में घी डालने का,
और-
बढ़ाकर के उस चिन्गारी का अस्तित्व
साम्प्रदायिकता का नाम दिया।
जिससे-
बिलखने लगे हैं बच्चे, युवा और बृद्ध
और-
साम्प्रदायिकता की अग्नि में
अपने स्वार्थ की सेंकी रोटियां
विभिन्न राजनीतिक व धार्मिक दलों ने
अपने द्वारा कुकृत्यों को कर
तीन-
एकान्तिका
वह
जहां रहता था
न था उसका कोई प्रिय और
न ही परिजन
जो-
उसके सुख-दुख के क्षणों में
सहयोगी बन सके, बिल्कुल अकेला
विलग-
मानवों और सघन कोलाहल से
बस्तियों से दूर
आश्रय विहीन
शान्ति के आगोश में स्थित
जहां-
सुनायी देता था सिर्फ-
पक्षियों का कलरव
और-
निशा की सुनसान सायं-सायं
वह-
बीत रही रात्रि में था
अपने में-
अति आनन्दित होता
वहां की शान्त निरुपम
उस एकान्तिका में।
चार-
सफल नेता
जो व्यक्ति खद्दर पहनकर
आम सभाओं में
दो-चार शब्द चिल्लाये
चार-छः महफिलों और
चुनावों के दौरों पे जाये
नेता बनते ही
मंच पर आकर
अपने भाषणों के छक्के लगाकर
विरोधी नेताओं को-
अपने व्यंग्य बाणों से हराये।
वादे ऐसे करें
जहां स्वयं न पहुंच पाये,
किन्तु-
जनता को अपने
वाक्जाल में फंसाकर
वोट बैंक बढ़ाये,
वह एक सफल नेता कहलाये।
पांच-
परिवर्तन
आज के बालक
और शिक्षक
प्राचीनकाल के गुरु-शिष्य नहीं
परम्पराओं-आदर्शों का निर्वहन भी नहीं ;
बल्कि-
आज के इस आर्थिक भागम-भाग युग में
अर्थ के सम्बन्ध बन गए हैं
ग्राहक और दूकानदार सा
आदाता व प्रदाता
जिससे ही-
पहले सा सम्मान प्राप्त नहीं है शिक्षक को
और न ही पहचान पाते हैं
गुरु अपने शिष्य को ।
समाज भी आकांक्षी मात्र फल का
न कि ज्ञान ,
सदाचरण और मानवीय मूल्यों की अपेक्षा।
छः-
हम और शिक्षक
सृष्टा बना
सृष्टि के लिए
उसने बना दी मधुमक्खी
मधु के लिए,
हम करते हैं सभी काम
और.........
शिक्षक बनाते हैं धन,
खाने के लिए उठा लिया उसको
एक चील ने,
ऊपर ले जाकर जाना
कि-
वह मूर्ख है,
लाकर पटक दिया
स्कूल में-
हमें पढ़ाने के लिए।
सात-
पर्व
वह
शुभ शब्द हैं पर्व
जिनके आने की आस रहती है
सभी जनों को
जब आता है कोई पर्व
खिल जाता है कोमल आनन्द का
नव पुष्प समाज में,
मग्न हो जाते सर्वजन
उस पर्व के आने के हर्ष में;
समाज को एक बड़ी देन हैं यह सुन्दर पर्व
आने पर जिनके
सभी जन
भूल जाते हैं आपस का
घृणा-द्वेष
और-
छा जाता है नूतन सौन्दर्य समाज में
और-
समाज की खुशहाली और
संस्कृति के विकास के प्रदीप बन जाते हैं
यही शुभ पर्व।
आठ-
आकांक्षा
मैंने-
बहुत सीमित करली हैं
अपनी आकांक्षाएं
काट चुका हूं हृदय के
महत्वाकांक्षा के उस हिस्से को
और-
अपने स्वप्नों की ललित आशाओं को,
स्मरण नहीं हैं
अपनी-
इन्द्रधनुषी कल्पनाएं-
और-
न ही गीत की मधुर ध्वनि
हास भी
छोड़ दिया है मैंने
और अब-
उत्सुकता भी नहीं है
मुझे-
किसी आशीर्वाद की
जब से संकुचित कर ली हैं,
अपनी-
आकांक्षाएं।
नौ-
बरसाते चले गए
सावन आये
और उनके साथ ही
बादल घिर आये
नाचे मोर
चमकी बिजली
चौंधिया गयीं अंखियां,
बादल गरज कर
उमड़-उमड़ कर
बरसाते चले गए,
बरसाते चले गए।
दस-
पावन देश हमारा है
शत कोटि जन जिस धरती पर
वह स्वर्णिम देश हमारा है
सभी में समरसता पहुंचाये
मनभावन स्वराष्ट्र हमारा है।
विविध जाति धर्मों का मेला
भाषा-बोलियों का भी रेला
सुबह जहां पहले हुई थी
वह पावन देश हमारा है
शीश मुकुट शिवालय जिसका
सागर चरण पखारे जिसका
सुन्दर राग सुनाये मल्लिका
वह पावन देश हमारा है
जहां की संस्कृति गौरवशाली
अक्षुण्यता दिखती है निराली,
अध्यात्म गुरु विश्व का जो
वह पावन देश हमारा है,
नानक बुद्ध जहां पर जनमे
कल राम-कृष्ण थे यहां पर झूले,
सुबह का राग शंख है गाता
वह पावन देश हमारा है
जीवन दायिनी जहां पे नदियां
अमृत जल मां कहाये नदिया,
सन्देश विश्व को देता कब से
वह पावन देश हमारा है,
साहित्य संस्कृति खेल सभी में
स्थापित कीर्ति प्रतिमान कभी से
ज्ञान विज्ञान सभी में आगे
वह पावन देश हमारा है।।
ग्यारह-
क्यों रुक जाते हाथ
आज प्रात:
अचानक ही पूछने लगी लेखनी
मुझसे,
क्यों विराम देने लगे हो
आवश्यकताओं से मुक्त परिवेश
त्रस्त परिकल्पनाओं को
अंकित न कर पा रहे हो
मैं तो व्ययकृते बर्धति का ही एक रूप हूं
प्रखरता आएगी उतनी ही
चलाओगो जितना मुझे तुम
हां जानती हूं मैं कि -
चलती हूं जब न रुकती हूं
तम चाहकर रोक भी न सकते।
प्रारम्भ तो हो तुम
लेकिन-
अन्त का निर्धारण मैं स्वयं करती हूं
सदियां बीती अनेक बार
मुझे बांधने और साधने का
प्रयास किया गया,
परन्तु-
कितने बांध सके मुझको
समय जानता है
मेरी धार कृपाण की नहीं
जो एक बार है करती
अपितु-
झंकार समस्त विश्व पर पड़ती है
समाज की क्षुभित प्रक्रियायें
परिस्थितियां चहुं ओर की
झकझोर देती हैं, तुमको,
जब चलना पड़ता है मुझको
क्योंकि-
मैं लेखनी हूं और
उतार देती हूं कागज पर
घुमड़ रही तुम्हारे मन में
व्याप्त कल्पनाओं, अनुभवों,
समाजिक विसंगतियों के साथ
सार्थक रूप देकर
गति लय के साथ शब्द देकर।
किन्तु-
मुझे आश्चर्य होता है उस समय
जब रुक जाना पड़ता है
हमें अकस्मात ही
क्यों कांप जाते हैं आपके हाथ।
हां आपके हाथ
मुझको चलाने में,
तात्कालिकता के अनुभव प्रखर बनाने में,
मैं अभिमानी को निराभिमानी
दुर्बल को सबल
कण्टक को निष्कण्टक
और
भय को निर्भय करना जानती हूं
मुझे ज्ञात से अज्ञात तक पहुंचाना भी आता है।
कोई भी अनुत्तरित प्रश्न हो
खोज लाती हूं उसका उत्तर,
नेतृत्व क्षमता का समाधान
क्लीवता में पौरुष भी भरकर
बस तुम मुझको,
चलने दीजिए। चलने दीजिए।
शशांक मिश्र भारती संपादक - देवसुधा, हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर - 242401 उ.प्र.
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