इंसानी कुनबा अपने आप में किसी अजायबघर से कम नहीं है। इसमें किसम-किसम के लोग हैं और उतनी ही किस्मों के आंशिक, आधे या पूरे पागल भी हैं। जि...
इंसानी कुनबा अपने आप में किसी अजायबघर से कम नहीं है। इसमें किसम-किसम के लोग हैं और उतनी ही किस्मों के आंशिक, आधे या पूरे पागल भी हैं।
जिनमें इंसानियत होती है वे इंसान की तरह जीते हैं तथा ‘जियो और जीने दो’में विश्वास रखते हैं। जो लोग शरीर से इंसान हैं मगर दिल और दिमाग से हिंसक जानवर या शैतान हैं, वे लोग अपने जीने के लिए औरों को मारने के लिए उन्मादी अवस्था से घिरे रहते हैं।
ये लोग हिंसक स्वभाव की वजह से संवेदनहीन होते हैं इसलिए औरों को किश्तों-किश्तों में या कि एक ही बार गंभीर होकर मार डालने के लिए उन्मुक्त व्यवहार करते हैं। जरूरी नहीं कि किसी का गला ही रेत दिया जाए या कि गोली ही मार कर खत्म कर दिया जाए।
आजकल इंसान के फितरती दिमाग ने इंसान को खत्म करने के बहुत सारे हथियारों का निर्माण कर लिया है। कोई अपनी कर्कश वाणी और रूखे व्यवहार से मार रहा है, कोई चुपचाप आँखों से तीर चला रहा है, कोई बिना बोले ही ऎसा व्यवहार करने लग गया है कि आदमी तीखा घायल होकर अधमरा हो जाए, कोई सारे शैतानी षड़यंत्रों के धारदार हथियारों को दिल और दिमाग पर चला रहा है।
बहुत सारे हैं जो प्रेम का आडम्बरी जाल बिछाकर कत्ल कर रहे हैं और ढेरों ऎसे हैं जो अपने आपको परम धार्मिक और भगत दिखाते हैं मगर उनका कोई सा कर्म सदाचारी नहीं होता। अधिकांश लोग दोहरा-तिहरा चरित्र अपनाए हुए ऎसे हो गए हैं जैसे कि इनकी पैदाईश ही जमाने भर को खराब करने के लिए हुई हो।
भांति-भांति के लोगों की प्रजातियों के बीच काम करना कुछ वर्ष पहले तक आसान था जब तक कि सामुदायिक और सामाजिक समर्पण के प्रति लगाव और आत्मीय रुचि का भाव था। कालान्तर में आदमी के भीतर से सामाजिकता का पलायन होना आरंभ हो गया और कुछ दशकों में तो आदमियत और सामाजिकता के भाव एकदम ऎसे गायब हो गए हैं कि अब इंसान के रूप में बिजूकों का ही अस्तित्व नज़र आने लगा है और बिजूके भी ऎसे कि जैसे जहर भरे पुतले लटका दिए गए हों जो हवा के झोंकों साथ वायुमण्डल में जहर घोलने का ही काम करते हैं।
किसी मुद्दे या विचार का विरोध स्वाभाविक है लेकिन बिना वजह किसी का विरोध करना आजकल के बहुत सारे इंसानों का फितूर हो चला है। दुनिया भर में बेवजह विरोध की बीमारी सभी स्थानों पर महामारी के रूप में फैलती जा रही है। कोई स्थान ऎसा नहीं बचा होगा जहाँ बिना किसी कारण से कोई किसी का विरोध नहीं करता होगा।
जरूरी नहीं कि विरोध करने वाला कोई उच्च शिक्षित, कुलीन और संस्कारवान हो या फिर अनपढ़-गँवार और जाहिल। विरोध करने वाला किसी भी बिरादरी या क्षेत्र से हो सकता है।
जो लोग अपने काम में मस्त रहते हैं उन्हें दूसरों के बारे में सोचने की कोई फुर्सत नहीं होती लेकिन जो लोग परिश्रम से जी चुराते हैं, अपने कर्तव्य कर्म के प्रति उदासीन हैं, कामटालू और कामचलाऊ हैं, हरामखोरी में विश्वास रखते हैं और बिना मेहनत के जमीन-जायदाद या संसाधनों पर अपना कब्जा जमाना चाहते हैं वे लोग ही अपना अधिकांश समय दूसरों के बारे में अनर्गल चर्चाओं और शिकवा-शिकायतों में रमे रहते हैं।
इन लोगों को तब तक चैन नहीं पड़ता जब तक कि वे दूसरों के बारे में कुछ न कुछ फालतू चर्चा न कर लें और किसी की बुराई में कुछ घण्टे न गुजार दें। इन दिनों चारों तरफ जबर्दस्त नकारात्मक माहौल पसरा हुआ है और इसमें भी उन लोगों का बाहुल्य है जो औरों का विरोध करने में कभी पीछे नहीं रहते।
अधिकतर लोग बिना किसी कारण से सिर्फ अपने टाईमपास या अपनी तलब को पूरा करने के लिए विरोध करते हैं। इससे उन्हें भले ही कुछ हासिल हो पाए या नहीं मगर इन्हें दूसरों के वैयक्तिक व सार्वजनिक जीवन और बुराइयों के बारे में चर्चा करने से अनिर्वचनीय सुख और आनंद मिलता है।
यही कारण है कि अधिकांश लोगों के लिए खाने-पीने से भी कहीं अधिक जरूरत विरोध करने की होती है चाहे कारण हो या न हो। यों देखा जाए तो अधिकतर लोग बिना किसी वजह के विरोध करने की आदत पाले हुए होते हैं क्योंकि इन लोगों के भीतर विद्यमान नकारात्मक भावभूमि को अपना वजूद बनाए रखने के लिए वैचारिक प्रदूषण की जरूरत होती है और ये लोग तभी खुश रह पाते हैं जबकि ऎसा निरन्तर होता रहे।
ऎसा न हो पाए तो ये लोग अधमरे जैसे हो जाते हैं। किसी और का विरोध करना अपने आप में किसी पागलपन से कम नहीं है। जो व्यक्ति किसी न किसी दिमागी दिवालियेपन से ग्रस्त होते हैं, मस्तिष्क की किसी बीमारी के शिकार होते हैं अथवा जिन्हें अपने माँ-बाप, पति-पत्नी, भाई-बहनों या घर वालों का अपेक्षित प्यार नहीं मिल पाता है, जिन लोगों को संस्कार नहीं मिल पाते हैं अथवा जो लोग गलती से इंसानी शरीर धारण कर लिया करते हैं, वे सारे के सारे लोग उन्मत्त अथवा उन्मादी अवस्था में आकर आंशिक, अद्र्ध या पूर्ण विक्षिप्त हो जाते हैं और इस वजह से इन्हें औरों का विरोध किए बगैर चैन नहीं पड़ता।
इन लोगों को कोई न कोई मौका या व्यक्ति रोजाना ऎसा चाहिए होता है जिसका विरोध कर अपना दिन सुधार सकें और विरोध करने की तीव्रता से परिपूर्ण तलब का आनंद पा सकें।
हमारा दुर्भाग्य या सनक यह है कि हम उन लोगों का भी विरोध करने से नहीं चूकते जिनसे हमारा दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं होता। इन लोगों से कोई पूछे कि वे दूसरों का विरोध क्यों करते हैं, तो इनके पास कोई उचित जवाब नहीं होता।
समाज का यह भी शर्मनाक दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि बेवजह विरोध करने वाले बहुत सारे पागलों का अटूट गठबंधन भी हर कहीं बन ही जाता है। दुनिया में हर जगह इन पागलों की वजह से समाज और क्षेत्र कई समस्याओं, तनावों और विवादों के साये में जीते हुए परेशान नज़र आते हैं।
मानवता और लोक शांति के लिए कलंक बने हुए ये लोग ही वे असुर हैं जिनके खात्मे के लिए किसी अवतार की प्रतीक्षा किए बगैर इन्हें ठिकाने लगाने के लिए हम सभी को आगे आना होगा।
---000---
- डॉ0 दीपक आचार्य
COMMENTS