विद्या, बुद्धि और कला-संपन्न व्यक्ति वही होता है, जो सहनशील, नम्र और मधुर व्यवहार वाला होता है। व्यवहार रेगिस्तान में नहीं पनपता। वह तो एक ...
विद्या, बुद्धि और कला-संपन्न व्यक्ति वही होता है, जो सहनशील, नम्र और मधुर व्यवहार वाला होता है। व्यवहार रेगिस्तान में नहीं पनपता। वह तो एक फूल है,जिसे खिलने के लिये उद्यान की जरूरत होती है। लोग सोचते है कि उन्हें व्यवहार करना आता है। लेकिन उन्हें व्यवहार करना सीखना होगा। सीखने की संभावना तो हैं उनमें, पर यह संभावना इसलिये निष्क्रिय हो जाती है कि वे समझते हैं कि उन्हें व्यवहार करना पहले से ही आता है। चीजें जैसी है उन्हें सीधे-सीधे वैसा ही देखने की कोशिश करना होगा। पहली बात तो यह है कि परिस्थिति कितनी भी खराब क्यों न हो, उसके प्रति साफ तौर से सचेत और सकारात्मक होना होगा। न तो उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर पेश की जाये और न उन्हें छिपायी जाये। अगर छिपायेंगे तो व्यवहार बाधित होगा। अपने सारे मुखौटे उतारने होंगे। ऐसा करके ही हम व्यवहार क्या होता है समझ सकेंगे और तभी इस व्यवहार से बनने वाले रिश्तों की महत्ता एवं रसपूर्णता को जी सकोगे।
श्रीकृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। मार्ग में जीवा नाम का एक भिक्षुक दिखाई दिया। अर्जुन ने उसे स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक थैली दी। वह घर की तरफ लौट चला। किंतु राह में एक लुटेरे ने उससे वह पोटली छीन ली। वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया। अर्जुन ने उसे देखा और टोका। जीवा ने सारा विवरण बताया। अर्जुन ने उसे इस बार एक माणिक दिया। घर पहुंचकर जीवा ने माणिक एक घड़े में छिपा दिया, फिर थोड़ी देर के लिए सो गया। इस बीच जीवा की पत्नी पानी भरने गई। संयोग से वह वही घड़ा ले गई, जिसमें जीवा ने माणिक छिपाया था। नदी में जैसे ही उसने घड़े को डुबोया, वह माणिक भी बह गया।
जीवा फिर भिक्षावृत्ति करने लगा। यह देखकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई। लेकिन इस बार कृष्ण ने उसे दो पैसे दिए और अर्जुन से पीछे-पीछे जाने को कहा। अर्जुन ने देखा कि जीवा मछुआरे के जाल में फंसी मछली को छटपटाते देख रहा है। जीवा से रहा न गया और उसने मछली को छुड़ा लिया, और उसे नदी में छोड़ने चला। रास्ते में मछली ने कुछ उगला। जीवा ने देखा कि वह वही माणिक था, जो उसने घड़े में छिपाया था। जीवा चिल्लाने लगा, मिल गया, मिल गया...। तभी वह लुटेरा भी अचानक वहां से गुजरा। जीवा को चिल्लाते देख उसने समझा कि पहचान लिया गया हूं। उसने लूटी हुई सारी मुद्राएं तुरंत वापस कर दीं।
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा कि आपके दिए दो पैसों ने वह काम कैसे कर दिखाया, जो स्वर्ण मुद्राएं और माणिक से नहीं हुआ? कृष्ण ने कहा, जब कोई दूसरों के दुख के बारे में सोचता है, तो वह ईश्वर का काम कर रहा होता है, और तब ईश्वर उसके साथ होते हैं। जीवा ने स्वर्णमुद्राओं और माणिक को नहीं, दो पैसों को परोपकार में लगाया। और परमात्मा उसके साथ खड़ा हुआ।
जब कोई दूसरों के दुख के बारे में सोचता है, तो वह ईश्वर का काम कर रहा होता है। हमारा सोच, हमारा व्यवहार एवं हमारी संवदेनाएं ही हमें महान् बनाती है, हमारे जीवन को परिपूर्णता देती है।
सवाल यह है कि क्या हमने व्यवहार की गुणवत्ता का अनुभव हुआ है? क्या उसके समृद्धि का एहसास हुआ है? क्या वह परितृप्ति हमको मिली है जिससे व्यवहार का जन्म होता है? बजाय इसके कि आप-हम खुद को कसूरवार और दुखी महसूस करते रहे, अपना वक्त और ऊर्जा बरबाद करते रहे, हमें अपनी ऊर्जा को व्यक्तित्व विकास में नियोजित करना चाहिए। जब आप एक सक्षम व्यक्तित्व बनोगे तो व्यवहार फूटेगा- कुशल व्यवहार, पवित्र व्यवहार। न कि वह नकली एवं दिखावेवाला व्यवहार जो दुनिया के हर कोने में मिलता है।
अच्छा व्यवहार दीपक के समान है, जो कइयों को रोशनी प्रदान कर सकता है। दर्पण व्यक्ति के बाहरी रूप को दर्शाता है और व्यवहार व्यक्ति के अंदरुनी रूप को दर्शाता है। हमारा समग्र जीवन व्यवहार रूपी नौका पर टिका हुआ है। अगर व्यवहार अच्छा है तो सारा संसार अपना है। अगर व्यवहार बुरा है तो सारे जहां को छोड़े, अपने परिवार वाले, आस-पड़ोस वाले भी अपने नहीं बनते। सुख-शांति-पूर्ण जिंदगी हमारे व्यवहार पर निर्भर करती है।
महाभारत की बात है-श्रीकृष्ण ने दुर्योधन और युधिष्ठिर को एक-एक कागज हाथ में देते हुए पहले दुर्योधन से कहा-तुम द्वारिका नगरी में जाओ और जितने भी अच्छे व्यक्ति हैं, उनकी सूची बनाकर मेरे पास लाओ। भगवान कृष्ण ने फिर युधिष्ठिर से कहा-तुम बुरे व्यक्तियों की सूची बनाकर मेरे पास लाओ। दोनों द्वारिका गए। थोड़ी देर बाद में दोनों ही खाली कागज लेकर श्रीकृष्ण के पास आए। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पूछा-‘तुम्हें अच्छे व्यक्तियों की सूची बनाकर लाने को कहा था और तुम खाली कागज ही ले आए!’ तब दुर्योधन ने कहा-‘आपके द्वारिका में अच्छे व्यक्ति हैं ही नहीं, सबमें कोई-न-कोई बुराई है।’ तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से पूछा-‘तुमने भी सूची नहीं बनाई?’ युधिष्ठिर ने विनम्रता से कहा-‘महाराज! आपके द्वारिका में मुझे कोई बुरा व्यक्ति मिला ही नहीं। हर किसी व्यक्ति में कुछ-न-कुछ अच्छाई है। इसलिए मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सका।’
हमारे व्यवहार के आईने में ही दूसरे लोगों का व्यवहार झलकता है। उसमें वैसा ही प्रतिबिम्ब होता है, जैसा हम होते हैं। व्यवहार के धरातल पर ही जीवनरूपी मकान की नींव टिकी हुई है। व्यवहार रूपी नींव कमजोर है यानी व्यक्ति व्यवहार-कुशल नहीं है तो जीवनरूपी मकान बदहाल व जर्जर हो जाएगा। वह व्यक्ति हताश-निराश होकर कुंठा-ग्रस्त हो जाएगा और अपने-आप को अकेला महसूस करने लगेगा।
जिंदगी में सफलता हासिल करने के लिए अच्छे व्यवहार का होना बहुत जरूरी है। व्यवहार वह चाबियों की चाबी है जो सारे दरवाजे खोल देती है। यह चाबी प्रेम का द्वार भी खोल सकती है, विकास का द्वार भी खोल सकती है, शक्ति का द्वार भी खोल सकती है और भक्ति का द्वार भी खोल सकती है। शत्रु हो या मित्र, आप सबके लिये अपना हृदय खोल सकोगे। भले ही आप उन्हें जानते हो या फिर वे अजनबी हों। तब आपको ऐसे जीवन-उपहार मिलेंगे, जिनकी आपने कल्पना भी न की होगी।
एक बार गुरुनानक किसी गांव पधारे। उस गांव के लोगों ने गुरुनानक एवं उनके शिष्यों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, पर गुरुनानक ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा-‘बसे रहो।’ और दूसरे गांव की ओर चले गए। वहां के लोगों का व्यवहार बहुत मधुर और सम्मानजनक था। गुरुनानक ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा-‘बिखर जाओ।’ गुरुनानक के साथ जो शिष्य मंडली थी, उन्हें गुरुनानक का व्यवहार बहुत विचित्र लगा। आखिर एक शिष्य ने उनसे प्रश्न कर ही लिया-‘प्रभो! पहले गांव के लोगों का व्यवहार इतना बुरा था, फिर भी आपने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा-‘बसे रहो’ और इस गांव के लोगों का व्यवहार इतना अच्छा है, जिन्हें आपने आशीर्वाद देते हुए कहा-‘बिखर जाओ’ यह कैसा न्याय?’
तब गुरुनानक ने शिष्य के प्रश्न को समाहित करते हुए कहा-‘उस गांव के लोगों का व्यवहार अच्छा नहीं था, वे जहां भी जायेंगे अपने दुव्र्यवहार के अंश वहां भी बिखेर देंगे। इसलिए मैंने उन्हें वहीं बसे रहने का आशीर्वाद दिया और इस गांव के लोग जहां भी जायेंगे अपने अच्छे और मधुर व्यवहार की खुशबू वहां बिखेरेंगे और वहां के लोगों को भी वैसा ही बना देंगे।’
अगरबत्ती और बीड़ी दोनों ही जलती हैं, मगर अगरबत्ती जलकर वातावरण को सुगंधित और खुशनुमा बना देती है, वहीं बीड़ी जलकर वातावरण को बदबूदार बना देती है। ठीक इसी प्रकार अच्छे व्यवहार वाला व्यक्ति हर जगह अच्छाई बिखेरता है और बुरे व्यवहार वाला व्यक्ति बुराई। व्यक्ति कोई अच्छा या बुरा नहीं होता, अच्छा या बुरा होता है उसका व्यवहार।
शेक्सपियर की चर्चित पंक्ति है- ‘अगर रोशनी पवित्रता का जीवन रक्त है तो विश्व को रोशनीमय कर दो/ जगमगा दो और इसे जी-भरकर बाहुल्यता से प्राप्त करो।’ शेक्सपियर ने यह पंक्ति चाहे जिस संदर्भ में कही हो, पर इसका उद्देश्य निश्चित ही पवित्र था और अनेक अर्थों को लिए हुए यह उक्ति सचमुच मंे जीवन व्यवहार की स्पष्टता के अधिक नजदीक है।
रोशनी! उत्सव का प्रतीक, खुशी के इज़हार करने का प्रतीक है, सफलता का प्रतीत है। अगर हम इस सोच को गहराई में डुबो लें तो ये सूक्तियां हमारे जीवन की रक्त धमनियां बन सकती हैं और उससे उत्तम व्यवहार की रश्मियां प्रस्फुटित हो सकती है। उन रश्मियों की निष्पत्तियां के स्वर होंगे- ”सदा दीपावली संत की आठों पहर आनन्द“, ”घट-घट दीप जले“, ”दीये की लौ सूरज से मिल जाये“।
एक प्रश्न बार-बार मन को झकझोरता है कि गुणों की सुगन्ध को हवा उतनी तेजी के साथ औरों तक क्यों नहीं पहुंचाती जितनी तेजी के साथ वह दुर्गुणों की दुर्गन्ध को फैलाव दे जाती है? यह भी सच है कि अच्छाइयों के लिये एक लम्बा सफर तय करना पड़ता है जबकि बुराइयां तो हर मोड. पर हाथ मिलाने को तैयार रहती है। इन स्थितियों में जीवन-मूल्यों से पहचान जरूरी है। मनुष्य की वास्तविक पहचान लिबास नहीं है, भोजन नहीं है, भाषा नहीं है और उसकी साधन-सुविधाएं नहीं हैं। वास्तविक पहचान तो मनुष्य का व्यवहार है, व्यवहार की पहचान होती है उसके आत्मिक गुणों के माध्यम से। जीवन की सार्थकता और सफलता का मूल आधार व्यक्ति के वे गुण हैं जो उसे मानवीय बनाते हैं, जिन्हें संवेदना और करुणा के रूप में, दया, सेवा-भावना, परोपकार के रूप में हम देखते हैं। असल मंे यही गुणवत्ता बुनियाद है, नींव हैं जिसपर खड़े होकर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाता है। जिनमें इन गुणों की उपस्थिति होती है उनकी गरिमा चिरंजीवी रहती है।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक बार कहा था कि आप प्रसन्न है या नहीं यह सोचने के लिए फुरसत होना ही दुखी होने का रहस्य है, और इसका उपाय है व्यवसाय।’ व्यवसाय यानी हमारा व्यवहार। एक प्रौढ़ महिला का पति क्लास इन्कम टैक्स अधिकारी है। आमदनी बढि़या है। बहू-बेटे बाहर रहते हैं। घर का काम नौकर-चाकर संभालते हैं। किसी प्रकार की तकलीफ नहीं, चिंता का कोई कारण नहीं, फिर भी सदा बीमार रहती हैं, निरंतर डाॅक्टरों का चक्कर। कारण नेगेटिव विचार एवं उपेक्षित व्यवहार। उपेक्षित व्यवहार एवं नकारात्मक विचारों से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा सामान्यतः कोई डाक्टर नहीं कर सकता। ये निषेधात्मक विचार न केवल शरीर को रुग्ण बनाते हैं अपितु जीवनी शक्ति को भी क्षीण करते हैं। भीतर में बिलौना चलता है तो छींटे आसपास उछलते ही हैं। तनाव, चिंता, गुस्सा, चिड़चिड़ापन-इनसे शरीर की 185 मांसपेशियां एक साथ प्रभावित होती हैं। इससे बचने के लिए सकारात्मक सोच की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन का कहा हुआ प्रासंगिक है कि सफल मनुष्य बनने के प्रयास से बेहतर है गुणी मनुष्य बनने का प्रयास।
गुणीजन सदा दूसरों की ही चिंता करते हैं, अपनी नहीं। उनमें दया होती है इसलिए उनकी भावना में मानवता भरी होती है। यही मानवता उनमें संवेदना की और मित्रता की पात्रता पैदा करती है। एक गुणी दूसरे गुणी से मिलकर गुणों को विकसित करता है जबकि वही निर्गुण को पाकर दोष बन जाता है। गुणों की पात्रता के लिए स्वयं को गुणी बनना जरूरी है। नदियों का जल बहता है वह अत्यंत स्वादिष्ट होता है किंतु समुद्र को प्राप्त कर वही जल अपेय अर्थात् खारा बन जाता है।
बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कितनी वजनवाली बात कही है कि हँसमुख चेहरा रोगी के लिये उतना ही लाभकर है जितना कि स्वस्थ ऋतु। हम प्रसन्न होते हैं तो हमारी सारी नस-नाडि़यां खिल उठती हैं। हम उदास होते हैं तो पूरा स्नायु तंत्र उदास-शिथिल हो जाता है। हमारी भावनाएं स्वस्थ-प्रसन्न रहें। मन उल्लास-उत्साह से भरा रहे। इससे चेहरा तेजस्वी बनता है, आंखों में चमक आती है। इसके विपरीत चिंताओं में डूबे, हीन भावनाओं से घिरे, हताश-निराश व्यक्ति का चेहरा बुझा-बुझा, कांतिहीन प्रतीत होता है। झुका हुआ सिर, धंसी हुई आंखें, मरियल-सी चाल एक सुंदर चेहरे को भी दयनीय बना देती है। सकारात्मक सोच और पवित्र अंतःकरण वाला व्यक्ति चेहरे से सुंदर न भी हो उसके व्यक्तित्व की गरिमा, आभा और प्रभावोत्पादकता दूसरी ही होती है। अतः यदि अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठता प्रदान करना है तो स्थूल शरीर से प्रारंभ कर सूक्ष्म और सूक्ष्मतम शरीर को शुद्ध करें, सिद्ध करें। चैतन्य के साथ संपर्क होगा। राग-द्वेष क्षीण होंगे। ज्ञाता-द्रष्टा भाव जागेगा। आंतरिक अर्हताएं प्रकट होंगी। यही है अस्तित्व बोध से समग्र व्यक्तित्व विकास की महायात्रा। यही है स्वयं के सम्यक् निर्माण की प्रक्रिया। डिजरायली का कथन बिल्कुल सही है-तुम्हारे अंदर के भाव ही तुम्हारी दशा और दिशा तय करते हैं।
भारतीय संस्कृति का मूलाधार व्यवहार और उसकी अनुभूतियां हैं। उसने सिद्धांत का निरुपण किया, परंतु उतने तक ही अपने को सीमित नहीं रखा। ज्ञान को अनुभूत किया अर्थात सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि उसकी हस्ति आजतक नहीं मिटी। उसकी दृष्टि में गुण कोरा ज्ञान नहीं है, गुण कोरा आचरण नहीं है। दोनों का समन्वय है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता वही समाज मंे आदर के योग बनता है। इसलिए कहा गया है कि गुणःसर्वत्र पूज्यंते-गुण की सब जगह पूजा होती है। आज के युग में इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। आज मानव मूल्यों का हृास हो गया है, नैतिकता चरमरा रही है, और इन्सानियत की नींवें कमजोर और खोखली होती जा रही है। चारों ओर भौतिक मूल्य छा गए हैं। यही वजह है कि नाना प्रकार के विकृतियों से मानव, समाज और राष्ट्र आक्रांत हो गया है।
(ललित गर्ग)
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