साहित्य जगत के, मेरे कुछ वरिष्ठ जन यह भूल रहे हैं कि आज से 61 वर्ष पूर्व जिस साहित्य अकादमी की स्थापना ही केन्द्रीय सरकार द्वारा की गई और ...
साहित्य जगत के, मेरे कुछ वरिष्ठ जन यह भूल रहे हैं कि आज से 61 वर्ष पूर्व जिस साहित्य अकादमी की स्थापना ही केन्द्रीय सरकार द्वारा की गई और इतना ही नहीं, उसका सारा विधान आदि भी शिक्षा मंत्रालय द्वारा बनाया गया, वह अकादमी ‘स्वायत्त’ होते हुए भी ' उतनी' स्वायत्त कैसे हो सकती है , जितना कि वे उसे समझ रहे हैं ? वह कहने भर के लिए ‘स्वायत्त’ है, बाकी तो उसकी सभी गतिविधियों में सरकार का खासा दखल है ! और होगा भी ! क्योंकि इसकी संरचना के पीछे सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ! इसे ‘स्वायत्त’ मानने वाले साहित्यकार ज़रा इसकी पृष्ठभूमि पर गौर करे तो पायेंगे कि यह सरापा सरकार की परिकल्पना, सरकार के प्रयासों से ही अस्तित्व में आई तो, सरकार से पृथक कैसे होगी ?
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‘साहित्य अकादमी’ बनाने के लिए सबसे पहले, 1952 में सरकार द्वारा प्रस्ताव पारित किया गया ! तदनंतर अपेक्षित औपचारिकताओं को पूर्ण करते हुए मार्च 1954 में केन्द्रीय सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ‘मौलाना आज़ाद’ ने इसकी स्थापना की ! ‘शिक्षा मंत्रालय’ द्वारा ही इसका विधान बनाया गया ! इस सबके बाद, 1956 में, ‘भारतीय सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860’ के तहत सोसायटी के रूप में इसका रजिस्ट्रेशन किया गया ! यानी के 'स्वायत्तता' प्रदान करने वाली भी 'सरकार ' ही थी ! ‘साहित्य अकादमी’ के संचालन और प्रबंधन में प्रमुख भूमिका निबाहने वाली ‘जनरल काउंसिल’ में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अतिरिक्त पाँच सदस्य ‘भारत सरकार’ द्वारा नामित होते हैं, जिनमे से एक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ‘संस्कृति विभाग’ से और एक ‘सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय’ से होता है ! कार्यकारिणी समिति में सरकार द्वारा मनोनीत दो अधिकारी और वित्त समिति में वित्तीय मामलों का सलाहकार भी सरकार द्वारा मनोनीत होते है ! साहित्य अकादमी के आय-व्यय का लेखांकन भी भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक (Comptroller and Auditor General of India / CAG) प्राधिकारी द्वारा किया जाता है, जिसकी स्थापना भारतीय संविधान के 'अध्याय 148 ' के तहत भारत सरकार तथा सभी प्रादेशिक सरकारों व ' सरकार के स्वामित्व वाली' संस्थाओं के आय-व्यय का लेखांकन के लिए की गई थी ! तो अकादमी ‘स्वायत्त’ रूप में रजिस्टर्ड भले ही हो, पर इस साहित्यिक संस्था में कदम-कदम पर सरकारी अधिकारी नियुक्त है, अतेव सरकार का पूरा दखल होना लाजमी है ! हमारे कुछ वरिष्ठ लेखक इस बात से कैसे अंजान हैं या वे यह बात कैसे भूल रहे हैं कि इसका जन्म ही सरकार के हाथों हुआ था और उसी ने 61 वर्ष से इसे पोषित किया, संवर्द्धित किया, !
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इसलिए मृदुला गर्ग जी का यह कहना - '' अगर हम अपना विरोध साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटने या वहाँ के पदों को छोड़ने से व्यक्त करते हैं, तो हम कहीं ऐसा तो नहीं कह रहे कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था न होकर सरकार की ही एक शाखा है "और अन्य लोग, जो भी इस भ्रम में हैं कि कहीं साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को तो वे ठेस नहीं पहुंचा रहे, वे निश्चिन्त रहें ! उन लोगो की जानकारी के लिए, मेरे द्वारा ब्यौरेवार ऊपर प्रस्तुत सारी बाते साफ-साफ तय करती हैं कि साहित्य अकादमी औपचारिक और अनौपचारिक - दोनों तरह से सरकारी ही है ! दूसरे शब्दों में इसके साथ जुड़े 'स्वायत्तता' शब्द का मान रखते हुए, इसे अर्द्ध- सरकारी भी कहा जा सकता है ! इसकी नींव, फिर उस नींव पर इसका ढांचा - सब कुछ सरकार द्वारा ही निर्मित है ! सो बेफिक्र रहें - सरकार इसकी स्वायत्तता को ठेस नहीं पहुँचने देगी !
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ये तो हुई अकादमी की संरचना में सरकारी प्रभाव की बात ! अब हम इसके मानवता के पक्ष की बात करते हैं ! मानवता के नाते कोई भी साहित्यिक संस्था सरकारी हो या गैर सरकारी, उसका कर्तव्य बनता है कि किसी भी साहित्यकार की सहज मौत हो या असहज, उस पर शोक सभा करनी चाहिए ! दुःख प्रगट करना चाहिए ! वैसे भी यह सामाजिक और नैतिक कर्तव्य है ! इसके अलावा, अकादमी को 'साहित्य का सरमाया' होने के नाते साहित्य के सृजनकर्ताओं के हित में, उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में, उनके सम्मान के पक्ष में, उनके जीवन की सुरक्षा के पक्ष में कदम उठाने चाहिए ! साहित्य अकादमी को याद रखना चाहिए कि भाषानीति और साहित्य के जिस उद्देश्य को लेकर यह संस्था 1954 में केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाई गई थी, उसका पहला महत्वपूर्ण कदम था :
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१) संविधान मे उल्लिखित विभिन्न प्रान्तों की भारतीय भाषाओं के साहित्य का विकास करना, जो वास्तव में अलग-अलग राज्यों का कर्तव्य था !
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२) दूसरा महत्वूर्ण कदम था कि ' उस समय' संविधान ने जिन १४ प्रादेशिक भाषाओं को स्वीकृति प्रदान की थी, उस सूची में वृद्धि करना !
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अब हिन्दी सहित अन्य भाषाओँ के साहित्य के सृजनकर्ताओं के प्रति यदि ‘साहित्य अकादमी’ और साथ ही सरकार का, इतना रूखा और उदासीन रवैया होगा कि उनकी मृत्यु पर शोक सभा करने की भी सुध न ले, तो यह घोर आपत्तिजनक बात है ! निंदा और भर्त्सना के योग्य है ! राजधानी में स्थापित ‘साहित्य अकादमी’ - अन्य प्रांतीय अकादमियों के ऊपर है, उन सबकी मार्गदर्शिका है, अगर वह ही ‘भारतीय संस्कृति के मूल्यों’ को भूलेगी कि किसी की मृत्यु पर दुःख प्रगट करना हमारा पहला फ़र्ज़ है तो, फिर अन्य प्रांतीय अकादमियों पर किसी को उंगली उठाने का कोई हक नहीं !
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इसमें कोई दो राय नहीं , न ही कोई दुविधा कि उपर्युक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में 'साहित्य अकादमी' में 'सरकार' का प्रबल प्रभाव देखते हुए , लेखकों द्वारा सम्मान लौटाया जाना , निश्चित ही ' सरकार का विरोध' करना है ! किन्तु वरिष्ठ साथियों का सम्मान लौटाना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता ! क्यों ? क्योंकि अकादमी सम्मान उन्हें, उनकी रचनात्मक गुणवत्ता और प्रतिभा के लिए मिला था ! उसे लौटने से 'विरोध और विद्रोह' उतना प्रभावी और प्रबल नहीं हो सकता जितना कि इस ज़रूरत के मौके पर, धारदार लेखनी चलाने से ! कहा गया है कि इतनी ताकत तो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं होती, जितनी की लेखक की कलम में ! सो सम्मान लौटाने वाले हमारे लेखक यदि अपनी दमदार कलम चलाएं तो, विद्रोह व आक्रोश के स्वर सरकार तो सरकार, कायनात को भी कम्पित कर देंगे ! मुझ अल्पमति की ओर से मेरा अपने वरिष्ठ जनों से यह मात्र एक अनुरोध हैं, आगे जैसा वे उचित समझे !
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मेरा दिल्ली साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी से विनम्र निवेदन है कि अब तक नहीं तो, अब सही... ! विश्वनाथ तिवारी जी अमानवीय मौत मरे, हमारे सम्माननीय साहत्यिकारों को मानवता के नाते श्रद्धांजलि देने हेतु शोक सभा करके अकादमी की गरिमा और महिमा को बनाये रखे ! हम सब उनसे कुछ अधिक की तो अपेक्षा नहीं कर रहे शायद ? वे कृपया आगे बढ़े और इस प्रतीक्षित कार्य को अविलम्ब करके हम साहित्यकारों को ही नहीं, बल्कि अमानवीय मौत से विचलित एवं दुखी सभी देशवासियों के तपते मन को शांत करे और सरकार देश में धर्म व जाति के नाम पर बेख़ौफ़ बढ़ती हिंसा को खत्म करने लिए कारगर कदम उठाये !
डा. दीप्ति गुप्ता
पूना (महाराष्ट्र)
Mobile : 9890633582
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